कृष्ण लीला
*🌹“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 1🌹*
!! गोकुल गाँव, महावन !!
कालिन्दी कल कल करती हुयी बह रही हैं……..मथुरा के उस पार एक वन है जिसका नाम है महावन…..उसी में एक गाँव भी है…..गोकुल ।
गायों का समूह यहीं रहता है……गौ कितनी हैं …..संख्या सही सही बता पाना जरा कठिन है……बीस लाख से भी ज्यादा हैं यहाँ गौ ।
बड़ा दिव्य स्थल है ये……यहाँ की माटी परमपावन है…..और हो क्यों नहीं…..गौएँ जहाँ स्च्छन्द हो विचरती हैं….अपनी मस्ती में रंभाती हों ।………गोप कुमार, जिनका हृदय पवित्रतम है…..ऐसी भूमि की महिमा कौन गा सकता है ।
नाना जाति के वृक्ष हैं यहाँ …………आम, मोरछली, कदम्ब, पीपल, पाकर, ये घनें हैं…………बाकी सुन्दर सुन्दर लताएँ हैं ……..जो कल्प वृक्ष को भी लज्जित कर दें ऐसी शोभा है इनकी ।
गोकुल में फूल खिलते हैं……..तो इनकी सुगन्ध की वयार चलती है………जो पूरे महावन को सुगन्धित कर देती है ।
अहीर कुमार बड़े भोले हैं यहाँ के ……….गौ चारण, कृषि यही मुख्य कार्य है इनका ।
गुलाब, जूही, केतकी, वेला, मोगरा, और कमल के फूलों की भरमार है चारों और ………भौरों का गुँजार एक अलग ही संगीत का अनुभव करा जाता है महावन में ………….
कुञ्ज बनें हैं छोटे छोटे ………ये बनें हैं …..बनाये नही हैं ………..इन कुञ्जों में गोप कुमार जब गौ चारण करते हुए थक जाते हैं तब बैठ जाते हैं………..चंचल तो होते ही हैं ये ………..फिर कूद पड़ते हैं कालिन्दी में जल क्रीड़ा करनें के लिये ………….
भूख लगती है तो माखन खाते हैं……बड़े सीधे भोले लोग हैं यहाँ के … कपट तो इन्होनें कभी जाना ही नही…..जो कहना है कह देना है ।
महावन दिव्य है , अद्भुत है ………….गोकुल नाम इसका इसलिये पड़ा क्यों की गौओं का समूह यहाँ सबसे ज्यादा है ।
हे तात विदुर जी ! आप ही बताइये ऐसी पवित्रतम और प्रेम की स्थली में अगर गोविन्द न अवतरित हों तो कहाँ होंगें ?
उद्धव जी सुना रहे हैं भाव में डूब कर श्रीकृष्ण चरितामृत ।
अष्ट वसु हैं…….हे तात विदुर जी ! आप इस रहस्य को जानते ही हैं……विभावसु, जो आठ वसुओं में सबसे छोटे थे …..वे ही भीष्म पितामह के रूप में आये हैं ।
विदुर जी नें “हाँ” में सिर हिलाया ।
अष्ट वसु में सबसे बड़े हैं द्रोण, फिर प्राण, ध्रुव, अर्क, दोष, वसु और विभावसु ……….तात ! विभावसु से अपराध हो गया ………उन्होंने अपनी पत्नी की बात मान कर ऋषि वशिष्ठ की गाय “नन्दिनी” का अपहरण कर लिया ………..बहुत क्रोधित हुये थे उस समय वसिष्ठ ……और उन्होंने आठों के आठ वसुओं को श्राप दे डाला कि जाओ और पृथ्वी में जन्म लो ।
उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं……………
तात ! राजा शान्तनु नें गंगा जी से विवाह किया ……..और समस्त वसुओं का जन्म होता रहा …..गंगा उन सबको अपनी धारा में बहाती रहीं ……….अंतिम में विभावसु भीष्म के रूप में बच गए इस पृथ्वी में ।
उद्धव जी कह रहे हैं………पर वसुओं में सबसे बड़े वसु …….”द्रोण” थे …….वे श्री हरि के परम भक्त थे ………और उनकी पत्नी “धरा देवी” वो भी पतिपरायणा थीं……….पर द्रोण वसु को अपनें छोटे भाई विभावसु के कृत्य से बहुत कष्ट हुआ था ……ऋषि वशिष्ठ की गाय नन्दिनी का अपहरण ………..उन्हें वैराग्य सा हो गया ………वसिष्ठ जी के चरणों में जाकर उन्होंने “श्री हरि भक्ति” की कामना की ………….
श्री हरि !
वशिष्ठ जी, द्रोण की श्रद्धा और उनका सरल हृदय देखकर गदगद् थे ।
जाओ ! तप करो……….श्री हरि की आराधना करो ………वे प्रसन्न होंगें …..और द्रोण ! तुम तो सहज हो……सरल हो ….श्री हरि सरल और सहज को ही मिलते हैं……जाओ !
पृथ्वी में आये द्रोण अपनी पत्नी धरा के साथ……..और मनुष्य देह से उन्होंने तप किया……..सतयुग से तप करना प्रारम्भ किया था ………युगों बीतते चले गए …….पर इन दम्पति नें तप नही छोड़ा ।
वरं ब्रूहि ! वरं ब्रूहि !
ये आवाज आकाश में गूँजी……………
नेत्र खोले दम्पति नें……..चारों और देखा …..पर वहाँ कोई नही है ।
फिर “वरं ब्रूहि”……वर माँगों ……….वही आकाशवाणी ।
भगवन् ! आप पहले हमारे सामनें तो प्रकट होइये ……हमनें आपको देखा भी नही है ………फिर ऐसे कैसे माँग लें आपसे वर !
बड़ी सरल हृदया धरा देवी नें ये बात कही …….उनके पति द्रोण नें भी यही बात दोहराई थी ।
पर आप लोग किस भाव से भावित हैं……….मेरा अपना कोई रूप नही है…….भक्त जैसी भावना करता है मैं वैसा ही बन जाता हूँ ।
भगवान की यह दिव्य वाणी फिर गूँजी थी आकाश में ।
कितनी मधुर वाणी है…………बालक की तरह …….धरा देवी का वात्सल्य उमड़ पड़ा …….”परम भागवत द्रोण” के हृदय में भी स्नेह की धारा बह चली थी………
मैं आपको वात्सल्य भाव से देखती हूँ……….स्नेह उमड़ रहा है मेरे भीतर आपके प्रति ।……अपराध हो तो क्षमा प्रभो ! द्रोण नें ये बात भी कह दी थी ।
तभी……..देखते ही देखते…….एक नन्हा सा गोपाल……सांवला सलोना ………..मोर मुकुट धारण किया हुआ …………प्रकट हो गया ।
उस बालक को देखते ही……देवी धरा के वक्ष से दूध की धारा बह चली ………..भक्त राज द्रोण देह सुध भूल गए ………..वे बस देख रहे हैं उस नन्हें से बालक को ………….
नाथ ! आप हमारे पुत्र बनिये ………हम आप पर अपना स्नेह लुटाना चाहते हैं………….फिर कुछ देर बाद हँसे द्रोण ……..बोले – स्नेह-वात्सल्य के मूल तो आप ही हैं………..पर भक्त की कामना है तो आपको पूरी करनी ही चाहिये ………….ये कहते हुए साष्टांग नतमस्तक हो गए थे द्रोण ……पर धरा देवी तो वात्सल्य सिन्धु में डूब गयी थीं ।
आप यशोदा मैया हैं मेरी ……….और आप मेरे नन्द बाबा !
बस उस बालक नें इतना ही कहा ……और मुस्कुरा दिया वो मोर मुकुट धारी ……….और देखते ही देखते सारी सृष्टि ही बदल गयी थी ।
उद्धव नें विदुर जी से कहा ……तात ! यही दोनों परम भागवत दम्पति ही गोकुल के मुखिया नन्द बाबा और यशोदा के रूप के प्रकटे थे ।
*🌹“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 1🌹*
!! गोकुल गाँव, महावन !!
कालिन्दी कल कल करती हुयी बह रही हैं……..मथुरा के उस पार एक वन है जिसका नाम है महावन…..उसी में एक गाँव भी है…..गोकुल ।
गायों का समूह यहीं रहता है……गौ कितनी हैं …..संख्या सही सही बता पाना जरा कठिन है……बीस लाख से भी ज्यादा हैं यहाँ गौ ।
बड़ा दिव्य स्थल है ये……यहाँ की माटी परमपावन है…..और हो क्यों नहीं…..गौएँ जहाँ स्च्छन्द हो विचरती हैं….अपनी मस्ती में रंभाती हों ।………गोप कुमार, जिनका हृदय पवित्रतम है…..ऐसी भूमि की महिमा कौन गा सकता है ।
नाना जाति के वृक्ष हैं यहाँ …………आम, मोरछली, कदम्ब, पीपल, पाकर, ये घनें हैं…………बाकी सुन्दर सुन्दर लताएँ हैं ……..जो कल्प वृक्ष को भी लज्जित कर दें ऐसी शोभा है इनकी ।
गोकुल में फूल खिलते हैं……..तो इनकी सुगन्ध की वयार चलती है………जो पूरे महावन को सुगन्धित कर देती है ।
अहीर कुमार बड़े भोले हैं यहाँ के ……….गौ चारण, कृषि यही मुख्य कार्य है इनका ।
गुलाब, जूही, केतकी, वेला, मोगरा, और कमल के फूलों की भरमार है चारों और ………भौरों का गुँजार एक अलग ही संगीत का अनुभव करा जाता है महावन में ………….
कुञ्ज बनें हैं छोटे छोटे ………ये बनें हैं …..बनाये नही हैं ………..इन कुञ्जों में गोप कुमार जब गौ चारण करते हुए थक जाते हैं तब बैठ जाते हैं………..चंचल तो होते ही हैं ये ………..फिर कूद पड़ते हैं कालिन्दी में जल क्रीड़ा करनें के लिये ………….
भूख लगती है तो माखन खाते हैं……बड़े सीधे भोले लोग हैं यहाँ के … कपट तो इन्होनें कभी जाना ही नही…..जो कहना है कह देना है ।
महावन दिव्य है , अद्भुत है ………….गोकुल नाम इसका इसलिये पड़ा क्यों की गौओं का समूह यहाँ सबसे ज्यादा है ।
हे तात विदुर जी ! आप ही बताइये ऐसी पवित्रतम और प्रेम की स्थली में अगर गोविन्द न अवतरित हों तो कहाँ होंगें ?
उद्धव जी सुना रहे हैं भाव में डूब कर श्रीकृष्ण चरितामृत ।
अष्ट वसु हैं…….हे तात विदुर जी ! आप इस रहस्य को जानते ही हैं……विभावसु, जो आठ वसुओं में सबसे छोटे थे …..वे ही भीष्म पितामह के रूप में आये हैं ।
विदुर जी नें “हाँ” में सिर हिलाया ।
अष्ट वसु में सबसे बड़े हैं द्रोण, फिर प्राण, ध्रुव, अर्क, दोष, वसु और विभावसु ……….तात ! विभावसु से अपराध हो गया ………उन्होंने अपनी पत्नी की बात मान कर ऋषि वशिष्ठ की गाय “नन्दिनी” का अपहरण कर लिया ………..बहुत क्रोधित हुये थे उस समय वसिष्ठ ……और उन्होंने आठों के आठ वसुओं को श्राप दे डाला कि जाओ और पृथ्वी में जन्म लो ।
उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं……………
तात ! राजा शान्तनु नें गंगा जी से विवाह किया ……..और समस्त वसुओं का जन्म होता रहा …..गंगा उन सबको अपनी धारा में बहाती रहीं ……….अंतिम में विभावसु भीष्म के रूप में बच गए इस पृथ्वी में ।
उद्धव जी कह रहे हैं………पर वसुओं में सबसे बड़े वसु …….”द्रोण” थे …….वे श्री हरि के परम भक्त थे ………और उनकी पत्नी “धरा देवी” वो भी पतिपरायणा थीं……….पर द्रोण वसु को अपनें छोटे भाई विभावसु के कृत्य से बहुत कष्ट हुआ था ……ऋषि वशिष्ठ की गाय नन्दिनी का अपहरण ………..उन्हें वैराग्य सा हो गया ………वसिष्ठ जी के चरणों में जाकर उन्होंने “श्री हरि भक्ति” की कामना की ………….
श्री हरि !
वशिष्ठ जी, द्रोण की श्रद्धा और उनका सरल हृदय देखकर गदगद् थे ।
जाओ ! तप करो……….श्री हरि की आराधना करो ………वे प्रसन्न होंगें …..और द्रोण ! तुम तो सहज हो……सरल हो ….श्री हरि सरल और सहज को ही मिलते हैं……जाओ !
पृथ्वी में आये द्रोण अपनी पत्नी धरा के साथ……..और मनुष्य देह से उन्होंने तप किया……..सतयुग से तप करना प्रारम्भ किया था ………युगों बीतते चले गए …….पर इन दम्पति नें तप नही छोड़ा ।
वरं ब्रूहि ! वरं ब्रूहि !
ये आवाज आकाश में गूँजी……………
नेत्र खोले दम्पति नें……..चारों और देखा …..पर वहाँ कोई नही है ।
फिर “वरं ब्रूहि”……वर माँगों ……….वही आकाशवाणी ।
भगवन् ! आप पहले हमारे सामनें तो प्रकट होइये ……हमनें आपको देखा भी नही है ………फिर ऐसे कैसे माँग लें आपसे वर !
बड़ी सरल हृदया धरा देवी नें ये बात कही …….उनके पति द्रोण नें भी यही बात दोहराई थी ।
पर आप लोग किस भाव से भावित हैं……….मेरा अपना कोई रूप नही है…….भक्त जैसी भावना करता है मैं वैसा ही बन जाता हूँ ।
भगवान की यह दिव्य वाणी फिर गूँजी थी आकाश में ।
कितनी मधुर वाणी है…………बालक की तरह …….धरा देवी का वात्सल्य उमड़ पड़ा …….”परम भागवत द्रोण” के हृदय में भी स्नेह की धारा बह चली थी………
मैं आपको वात्सल्य भाव से देखती हूँ……….स्नेह उमड़ रहा है मेरे भीतर आपके प्रति ।……अपराध हो तो क्षमा प्रभो ! द्रोण नें ये बात भी कह दी थी ।
तभी……..देखते ही देखते…….एक नन्हा सा गोपाल……सांवला सलोना ………..मोर मुकुट धारण किया हुआ …………प्रकट हो गया ।
उस बालक को देखते ही……देवी धरा के वक्ष से दूध की धारा बह चली ………..भक्त राज द्रोण देह सुध भूल गए ………..वे बस देख रहे हैं उस नन्हें से बालक को ………….
नाथ ! आप हमारे पुत्र बनिये ………हम आप पर अपना स्नेह लुटाना चाहते हैं………….फिर कुछ देर बाद हँसे द्रोण ……..बोले – स्नेह-वात्सल्य के मूल तो आप ही हैं………..पर भक्त की कामना है तो आपको पूरी करनी ही चाहिये ………….ये कहते हुए साष्टांग नतमस्तक हो गए थे द्रोण ……पर धरा देवी तो वात्सल्य सिन्धु में डूब गयी थीं ।
आप यशोदा मैया हैं मेरी ……….और आप मेरे नन्द बाबा !
बस उस बालक नें इतना ही कहा ……और मुस्कुरा दिया वो मोर मुकुट धारी ……….और देखते ही देखते सारी सृष्टि ही बदल गयी थी ।
उद्धव नें विदुर जी से कहा ……तात ! यही दोनों परम भागवत दम्पति ही गोकुल के मुखिया नन्द बाबा और यशोदा के रूप के प्रकटे थे ।
*🌹“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 3🌹*
!! आनन्द के अवतार की वेला !!
कौन जानता था कि नन्द जी युवा से प्रौढ़ और प्रौढ़ावस्था से वृद्धत्व की और बढ़ चले थे…….पर सन्तान सुख इनके जीवन में अभी तक नही आया……..भगवान श्री नारायण से प्रार्थना करकरके बृजवासी भी अब थक चुके थे …….किन्तु इन नन्द दम्पति को कोई चिन्ता नही थी कि हमारे सन्तान नही हैं ।
हे तात विदुर जी ! निष्काम थे ये दोनों……नन्द जी और उनकी भार्या यशोदा जी…….दान पुण्य, अतिथि सेवा , गौ पालन, समस्त बृज को सुख देंने का प्रयास करते ही रहना…..पर अपनें लिये कुछ नही चाहिये।
“आपको भगवान सन्तान दे”
कोई वृद्ध बृजवासी हृदय से कह देता ।
तो नन्द जी हँसते ……और कहते …….भगवान जो करते हैं मंगल के लिये ही करते हैं……..मुझे सन्तान नही दीं ये भी उनका कोई मंगल विधान ही होगा ।…….फिर हँसते हुए बृजेश्वरी कहतीं – भगवन् ! क्या बृज के गोप बालक हमारे बालक नही हैं ? मैं तो सबको अपना ही बालक मानती हूँ ।
ये मात्र कहना नही था यशोदा जी का ……….उनके हृदय से वात्सल्य निरन्तर झरता रहता था समस्त बालकों के लिये ।
पर बृजवासी दुःखी थे …….कि उनके मुखिया के कोई सन्तान नही है ।
मैं आपका कुलपुरोहित शाण्डिल्य हूँ ……….किन्तु ! मेरा श्रेष्ठ ज्योतिर्विद होना भी आपके किसी काम नही आरहा इस बात का हे ब्रजेश ! मुझे दुःख है ………….
आज महर्षि शाण्डिल्य पधारे थे नन्दालय में ।
महर्षि के चरणों में अपना शीश रख दिया था नन्द जी नें ……….और यही कहा ……..आप मेरे पुरोहित नही हैं …..आप मेरे पिता हैं ……..आप मेरे सर्वस्व हैं महर्षि ! क्षमा करें ! मेरे नारायण भगवान नें मुझे जो दिया है मैं उस पर सन्तुष्ट हूँ…….पूर्ण सन्तुष्ट हूँ ।
क्या श्रेष्ठ, निष्काम हो जाना नही है ? महर्षि के मुखारविन्द की ओर देखकर ये प्रश्न किया था नन्द जी नें ।
आहा ! आनन्द से भर गए थे महर्षि शाण्डिल्य । कितनी ऊँची स्थिति को पा चुके हैं ये ब्रजपति ……….
आप मेरे कहनें से एक अनुष्ठान क्यों नही करते !
कैसा अनुष्ठान गुरुदेव ! नन्द जी नें पूछा ।
सन्तान गोपाल मन्त्र का अनुष्ठान …………
हँसे नन्दराय…….”आप की जो आज्ञा हो ……दास को स्वीकार है” ।
विनम्रता की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं नन्द राय तो ।
तो मैं समस्त बृज के ब्राह्मणों को निमन्त्रण भेजूँ ?
जी ! मुस्कुराते हुये ब्रजपति नें महर्षि से कहा ।
गणना की महर्षी नें ……………..फिर आँखें बन्द करके कुछ बुदबुदानें लगे थे ………..कुछ देर में नेत्रों को खोल लिया था ……..”पता नही मेरी ग्रह गणना किसी काम में नही आरही…….न मेरी भविष्य दृष्टि ही कुछ देख पा रही है …….ये क्या हो रहा है ……..कुछ समझ नही आरहा ।
हे तात विदुर जी ! ग्रह गणना क्या बता पायेंगें इस अद्भुत जन्म के बारे में ………..न भविष्य दृष्टि ही ……….क्यों की ये तो “अजन्मा के जन्म” की अद्भुत घटना है ………..इसको कोई नही समझ पायेगा ।
उद्धव नें विदुर जी को ये बात बताई ।
ब्राह्मणों का अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया गया था …………….
बड़े बड़े ब्राह्मण आये थे …………..यमुना जी के पावन तट पर ये अनुष्ठान प्रारम्भ करवा दिया था महर्षि नें …………
मध्य में सजे धजे, स्वर्णाभूषण धारण कर यजमान की गद्दी में नन्द जी विराजमान होते …….और दाहिनें भाग में उनकी अर्धांगिनी यशोदा जी बैठतीं ।
बस…..नन्द यशोदा बैठते थे ……..ब्राह्मणों के प्रति उनकी पूरी श्रद्धा थी ……..पर संकल्प के समय वे “पुत्र प्रापत्यर्थम्” कभी नही बोलते ………वे अपनें समस्त अनुष्ठानादि कर्मों को भगवान नारायण के चरणों में समर्पित कर देते ।
किन्तु बृज के गोपों की यही कामना थी कि हमारे मुखिया के बालक होना चाहिये ……..ये अनुष्ठान छ मास का था ।
अनुष्ठान से दम्पति अत्यन्त प्रसन्न………यज्ञ हो रहा है……..दान पुण्य किया जा रहा है ….. बड़े बड़े ब्रह्मर्षि पधारे हैं हमारे यज्ञ में ….नन्द दम्पति के आल्हाद का कोई ठिकाना नही ।
पर महर्षि का कहना ये था कि यजमान जब तक अपनी कामना का मन में संकल्प न करे तब तक कामना पूरी कैसे होगी ?
नन्द राय का कहना था…….जीवन में क्या कमी है ये बात क्या मेरे भगवान नारायण नही जानते ? वे तो अन्तर्यामी हैं भगवन् !
अब इसका उत्तर क्या देते महर्षि शाण्डिल्य ….और शाण्डिल्य स्वयं भी तो निष्काम भक्ति के आचार्य हैं…………उन्होंने दुनिया को यही तो सिखाया है अपनें “शाण्डिल्य भक्ति सूत्र” में ।
अब जो करेंगें भगवान नारायण ही करेंगें …………..
तात विदुर जी ! छ मास के लिये समस्त बृज के गोपों नें भी अनुष्ठान शुरू कर दिया था ………..वे जप करते …….और उसका फल अपनें मुखिया नन्द जी को अर्पण कर देते …….पर साथ में ये भी कहते कि हमारे मुखिया जी को लाला हो ……….दान करते …..तो “मुखिया के लाला हो”………अतिथि सत्कार भी करते तो कहते ……..अतिथि से कहते ……..हमारे बृज के राजा नन्द जी के लाला हो …हे अतिथि देवता ! ये आशीर्वाद दो ……….यमुना स्नान भी करते तो यही मांगते ।
गोपियाँ व्रत करनें लगी थीं ……”हमारी बृजेश्वरी के लाला हो”………
प्रार्थना हर गोकुल के घर से यही निकल रहा था ……….हमारे नन्द राय को पुत्र रत्न की प्राप्ति हो ।
सज धज करके प्रातः ही बैठ जाते नन्द जी यशोदा जी के साथ ……नित्य गौ दान करते ……….सुवर्ण दान करते ……भूमि दान करते ….विप्रों को भोजन कराते ………….और उनके चरणों की धूल माथे से लगाते ……पर नही माँगा नन्द राय नें कि हमारे पुत्र हो ।
पर आस्तित्व में कुछ घटनाएँ घटनें लगी थीं………जो अद्भुत थीं ।
*🌹“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 4🌹*
!! श्रीकृष्णसखा मनसुख !!
यमुना के किनारे जो विशाल अनुष्ठान चल रहा था …….ऋषि शाण्डिल्य के सान्निध्य में ……..”नन्दराय को पुत्र प्राप्ति हो” इसी कामना से ये आयोजित था ……..पर वहाँ एक आश्चर्यजनित घटना घट गयी ……
सब चकित होकर पूर्वदिशा की ओर देखनें लगे थे ।
श्वेत केश, श्वेत वस्त्रों में ……..वो अत्यन्त तेजस्विनी थीं………हे तात विदुर जी ! उन माता को देखते ही स्वयं महर्षि शाण्डिल्य नें भी प्रणाम किया था ………नन्द राय उठ गए थे अपनें आसन से ……..नन्दराय नें अत्यन्त विनम्र भाव से नमन किया ……..और आसन भी दिया ।
यशोदा जी नें चरण छूए उन माता के ………माता नें यशोदा जी के सिर में हाथ रखा …….और आशीष दिया ।
हे तात विदुर जी ! उन माता के साथ एक बालक भी था ……..जो उनके समान ही तेज़वन्त था…….गौर वर्ण ……मस्तक में ऊर्ध्वपुण्ड्र ……ये ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाया नही था ………जन्म जात ही था ।
हमारा अहोभाग्य कि आप यहाँ पधारीं माते !
महर्षि शाण्डिल्य नें स्वागत किया ।
हे नन्दराय ! ये हैं महान तपश्विनी “माता पौर्णमासी” ……..भगवान विश्वनाथ की पवित्र भूमि काशी में इनका जन्म हुआ है ……..महान विद्वान ऋषि सान्दीपनि इनके छोटे भाई हैं……..जो काशी छोड़कर महाकाल की छत्रछायाँ उज्जैन में वास कर रहे हैं ।
ऋषि शाण्डिल्य नें संक्षिप्त सा परिचय दिया माता पौर्णमासी का ।
सिर झुकाकर नन्दराय नें कहा ……….हम गोप कुमारों का ये सौभाग्य है कि आप का यहाँ पदार्पण हुआ ।
ये आपका बालक बहुत सुन्दर है…….यशोदाजी ने, माता पौर्णमासी के साथ आये बालक के बारे में कहा , …ये आपका पुत्र है माते ? पूछा ।
हँसी पौर्णमासी ……….हे नन्दगेहनी ! ये मेरा बालक है …..पर मेरा जाया नही है………..फिर पौर्णमासी नें अपनी बात भी बता दी ……मेरे पिता नें, जब मैं अबोध थी तभी मेरा विवाह किसी विद्वान ऋषि के साथ तय कर दिया था ……..वचन दे दिया उस ऋषि को ……पर कुछ ही समय बाद उन ऋषि का देहान्त हो गया ………पर जाते जाते उनकी पूर्व पत्नी से जो बालक था वो पालनें में ही मुझे मिला ……ये वही बालक है………….मैं इसे ले आई थी …..पौर्णमासी नें अपनी बात कहनी जारी रखी ……।
हे नन्दगेहनी ! इस बालक का नाम “मनसुख” है……..मैने ही रखा है ……ये सबके मन को सुख पहुँचाता है…….हर समय मुस्कुराता रहता है……….वेद का कभी अध्ययन नही किया इसनें …….किन्तु सम्पूर्ण वेद इसे कण्ठस्थ हैं …………विद्याध्यन में इसका कभी मन नही लगा ……पर काशी के विद्वानों को ये जब देखो तब हरा देता था ……मैं चकित थी ।
एक दिन ये मुझ से कहनें लगा……..”मेरा सखा आरहा है’ ………”मेरे सखा के पास मुझे ले चलो”……..मैने पहले तो इसकी बातों में विश्वास ही नही किया …….पर ये सपनें भी ऐसे ही देखनें लगा था ……ये बार बार सपनें में कहता…….’कन्हैया ! मैं आरहा हूँ’
“मैं आरहा हूँ…….मैं कुछ ही दिनों में तेरे पास पहुँच रहा हूँ ‘
हे बृजेश्वरी ! मैं ये सब देखकर चौंक जाती थीं ………..ये मुझे शुरू से ही कुछ विचित्र सा तो लगता था ……….क्यों की काशी में त्रिपुण्ड्र सब धारण करते हैं……..पर ये “ऊर्ध्वपुण्ड्र” जन्म जात ही इसके मस्तक में विराजमान था ………रुद्राक्ष इसको कभी प्रिय नही रहा …….वैसे देखा जाए तो मैं विशुद्ध शैव हूँ………मेरे पिता शैव थे ……..इसके पिता भी शैव थे ……….मेरे भाई सान्दीपनि भी शुद्ध रूप से शैव ही हैं………….किन्तु ये ?……तुलसी की माला इसे प्रिय लगे ।
एक दिन भगवान विश्वनाथ नें मुझे ध्यानावस्था में कहा ……….
हे पौर्णमासी ! ये बालक जिसका नाम मनसुख है …….ये गोलोक से आया है……अनादिकाल से ये श्रीकृष्ण का ही सखा है……….इसे तुम साधारण मत समझो ………..गोकुल में श्री कृष्ण अवतार ले रहे हैं……….वहीं जाओ ………और इस बालक के साथ तुम भी वहीं रहो ।
ये आदेश मिला मुझे भगवान विश्वनाथ से ………..
बस उसी समय से मनसुख जिद्द पकड़नें लगा ………..कि मेरा सखा प्रकट होनें वाला है गोकुल में ……..मुझे जानें दो ………मेरा सखा मुझे कह रहा है………तू पहुँच गोकुल में ………..।
माँ ! चलो गोकुल !
ये माँ सबको कहता है ……….हँसी पौर्णमासी ये कहते हुए…………हर नारी जात को ये माँ कहता है ………लड़की होनी चाहिये ……..चाहे वो इससे छोटी भी क्यों न हो………माँ ही कहेगा ये ।
पर मैं आपको “मैया” कहूँगा …………..बालक मनसुख चिपक गया था यशोदाजी के आँचल से ।
क्यों ? क्यों कहेगा तू इन्हें मैया ? पौर्णमासी नें छेड़ा ।
क्यों की मेरा सखा इन्हें मैया कहता है ना ! कहेगा ना ।
बस मैं ले आई हूँ इसे……..पौर्णमासी नें कहा यशोदा जी से ।
आपके लिये अतिथि गृह में व्यवस्था कर देती हूँ….यशोदा जी बोलीं ।
ना ! मैं अतिथि बनकर नही आयी हूँ ………….मैं तो अब अपनें पुत्र के साथ यहीं रहूँगी ……….जीवन पर्यन्त मैं बृजवास करनें आयी हूँ ।
हमारे अहोभाग्य .!
..साष्टांग लेट गए थे नन्दराय जी माता पौर्णमासी के चरणों में ।
एक झोपडी हमारे लिये बनवा दो ………मैं मात्र गौ दुग्ध पीयूँगी ……..
पर मेरा ये पुत्र मनसुख !
“मैया भूख लगी है”………मनसुख नें तुरन्त कह दिया यशोदा जी से ।
इसको भूख बहुत लगती है……….इसलिये ।
नन्दराय आनन्दित हो उठे मनसुख को देखकर ………..ये हमारे साथ ही रहेगा …………..
“जब कन्हैया आएगा तब भी रहूंगा”
………मनसुख नें पहले से ही कह दिया ।
चलो ! नन्दराय जी ! अब तो पक्का हो गया …………कि आपकी सन्तान होगी ही……….और कोई दिव्य चेतना अवतरित होनें वाली है ।
ऋषि शाण्डिल्य नें प्रसन्न होकर कहा ।
दिव्य चेतना नही भैया शाण्डिल्य ! पूर्ण ब्रह्म ही अवतरित हो रहे हैं ।
पौर्णमासी नें नेत्रों को बन्दकर के गदगद् कण्ठ से ये बात कही ।
अब तो प्रकृति झूम उठी थी……..गोकुल ही क्यों सम्पूर्ण बृजमण्डल आनन्द की धारा में बह रहा था ……अकारण सबको प्रसन्नता होनें लगी थी……….अकारण सब आनन्दित हो उठे थे ………..जब देखो तब मोर नृत्य करते थे ……….पक्षियों का कलरव कभी भी शुरू हो जाता था ।
हे विदुर जी ! योगियों के हृदय में जब ब्रह्म साक्षात्कार की स्थिति होती है………..तब जैसा योगी का हृदय हो जाता है ….वैसा ही आज बाहर प्रकृति का हो रहा है ……….दिव्य अद्भुत ।
मौन हो गए थे उद्धव ये कहते हुये ।
*🌹“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 5🌹*
!! दाऊ दादा का जन्म !!
हे अनन्त ! हे भगवान शेष ! हे संकर्षण…….आपकी जय हो !
मध्यान्ह की वेला थी……..एकाएक आकाश से पुष्प बरसनें लगे …..चारों ओर मंगल वातावरण हो उठा था ……..लग रहा था बृजवासियों को कि कोई गा रहा है ……..कोई नृत्य , कोई दिव्य वाद्य बन रहा है ……..प्रकृति कैसे झूम उठी थी …..जय जय हो ……चारों दिशाओं से यही आवाज आरही थी ।
भादौं का महीना था ……शुक्ल पक्ष…….षष्ठी तिथि थी ।
उस समय एक प्रकाश, तीव्र प्रकाश रोहिणी माँ के गर्भ में छा गया था ……माँ रोहिणी का मुख उस समय ऐसा लग रहा था कि मानों चन्द्रमा का गोला हो…..दिव्य तेज़ से युक्त था मुखमण्डल रोहिणी माँ का ।
बालक को जन्म दे दिया था रोहिणी माँ नें ………….यशोदा जी और नन्द जी अनुष्ठान में बैठे थे ………..सुना ……….तो ये नन्द दम्पति आनन्द के उत्साह में भागे…….”मित्र वसुदेव के पुत्र हो गया”……आनन्द में चिल्लाये हुये भागे ।
बहन ! रोहिणी !
यशोदा जी नें आकर रोहिणी माँ को देखा ………और मुस्कुराईं बोलीं – “बधाई हो महारानी रोहिणी” ।
वसुदेव और देवकी नें सच में बहुत दुःख पाया है………….अच्छा होता विवाह ही न करते वसुदेव देवकी से ……..पहले से ही छ रानियाँ तो थीं ना वसुदेव की …………क्यों किया विवाह देवकी के साथ ।
समाज है बोलेगा ………आप उनका मुख तो बन्द कर नही सकते ।
बृजवासी , जो लगता है इन्हें सही, वो बोल देते हैं……बिना लाग लपेट के बोलते हैं………निडर हैं ये लोग ……ग्वाले हैं …….कंस से भी नही डरते ………अरे ! कंस से क्या डर ? वो डरे हमसे ……….हम अगर दूध दही माखन न दें कंस को तो उसके मुस्तण्डे खायेगें क्या ?
कारागार में बन्द कर दिया है मथुरा में, कंस नें, अपनी बहन देवकी और बहनोई वसुदेव को …………वो विवाह के समय ही आकाश वाणी हो गयी थी ना….कि “देवकी का आठवाँ बालक कंस ! तेरी मृत्यु का कारण होगा”……..बस उसी दिन से देवकी और वसुदेव को कंस नें बन्दी बनाकर कारागार में बन्द कर दिया ।
अन्य पत्नियाँ भी थीं ……सब इधर उधर चली गयीं कोई अपनें पिता के यहाँ गयीं तो कोई अरण्य में ……तब तक के लिये, जब तक ये दुःख का समय बीत न जाए ।
रोहिणी कहीं जाना नही चाहतीं ……..वो अपनें पति के पास ही रहना चाहती हैं ……..पर ये कैसे सम्भव है ।
रोहिणी !
मेरे मित्र नन्द और भाभी यशोदा के यहाँ गोकुल में तुम वहाँ जाकर रहो ……और जब ये दुःख के बादल छंट जायेंगें तब आ जाना ।
वसुदेव नें समझाया………..देवकी नें भी समझाया………
अक्रूर रथ में बिठाकर रोहिणी को गोकुल में ले आये थे ।
यशोदा जी आनन्दित हो गयी थीं उस दिन जब रोहिणी को देखा था ………बहन ! ये तेरा ही घर है………….भैया वसुदेव के जीवन में कितना दुःख आ पड़ा है ….ओह ! ।
इसे अपना ही घर मानों और प्रेम से रहो …
…..नन्द जी ने भी रोहिणी को यही कहा था ।
जीजी ! रोते हुए यशोदा जी के गले लग गयी थीं रोहिणी ।
मेरे आर्यपुत्र बहुत कष्ट में हैं……..मैं क्या करूँ ?
सब ठीक करेंगें भगवान नारायण ………ये दुःख ज्यादा नही टिकेगा रोहिणी ! देखना बहुत शीघ्र ही सुख के दिन आयेंगें ।
यशोदा जी नें समझाया …..उनको पुचकारा ……..और रोहिणी माँ तब से यहीं रहनें लगी थीं ।
हे तात विदुर जी ! भगवान संकर्षण देवकी के सप्तम् गर्भ थे …….पर भगवान नारायण नें देवकी के गर्भ से उन्हें खींच कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचा दिया था ……….वैसे तात ! ये किया था भगवान की माया नें …….पर संकल्प तो सब भगवान का ही होता है ना !
उद्धव विदुर जी को अद्भुत श्रीकृष्ण चरित सुना रहे हैं ।
रोहिणी ! तुम ?
एक दिन रोहिणी को जब देखा यशोदा जी नें, तो मुस्कुराईं ।
हाँ जीजी ! क्या हुआ ? रोहिणी माँ नें पूछा ।
तुम गर्भवती हो ? यशोदा जी नें भी पूछ लिया ।
शरमा गयीं रोहिणी…..हाँ जीजी !
वाह ! रोहिणी को पकड़ कर नाचनें लगीं थीं यशोदा जी ……..
ये तो तुमनें अद्भुत बात बताई…………
यशोदा जी नें सबको ये सूचना दे दी………दूसरे के सुख में भी सुखी होना ये इन नन्द दम्पति से कोई सीखे …….तात विदुर जी ! दूसरे के दुःख में कोई भी दुःखी हो सकता है……….कोई बड़ी बात नही है क्यों की दूसरे के दुःख में दुःखी होनें पर हमारे दुष्ट मन को प्रसन्नता होती है…….पर बड़ी बात है दूसरे के सुख में सुखी होना……..दूसरे का सुख हो और हम उसमें आनन्दित हों ….।
समय बीतता जा रहा है………….इधर ऋषि शाण्डिल्य नें सन्तान गोपाल मन्त्र का अनुष्ठान भी बिठा दिया है । उद्धव सुना रहे हैं ।
जय हो ………भगवान संकर्षण की जय हो ………जय हो …भगवान अनन्त की ……जय हो …भगवान शेष प्रभु की …..जय हो जय हो ।
देवताओं नें पुष्प बरसानें शुरू कर दिए थे ………..जय जयकार होनें लगे थे ………….भादौं शुक्ल छठ ……..के मध्यान्ह में …………
बधाई हो ….बधाई हो …..रोहिणी माँ नें एक बालक को जन्म दे दिया ।
बस इतना सुनते ही सब भागे …………महर्षि शाण्डिल्य के आनन्द का ठिकाना नही ……..आहा ! भगवान शेष प्रभु नें अवतार लिया है ……
चारों और आनन्द ही आनन्द छा गया है………
पौर्णमासी अपनें बालक मनसुख के साथ नन्दालय में आयीं ……..
नन्द जी यशोदा जी खड़े हैं……गोद में ले लिया है यशोदा जी नें उस बालक को ….बालक गौर वर्ण का है……लालिमा लिये हुए है …..अत्यन्त तेज़ पूर्ण हैं…..उसके भाल में से प्रकाश प्रकट हो रहा है ।
दादा ! दादा ! तुम आगये……अब कन्हैया कब आएगा ?
यशोदा जी नें देखा……पौर्णमासी का बालक मनसुख रोहिणी पुत्र के नन्हे हाथों को पकड़ कर हिला रहा है और पूछ रहा था ।
दादा ! कब आएगा कन्हैया ?
नन्हें से रोहिणी नन्दन मनसुख को देखकर हँसें….खिलखिलाकर हँसे।
सब चकित थे……..मनसुख ये सब देखकर आनन्दित हो उठा ……
नाचते हुए उछला…….बोलो – “दाऊ दादा की” …………सब लोग बोले …..जय…जय.. …जय जय ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें