द्वारिकाधीश 18

7श्री द्वारिकाधीश
भाग- 185

बड़े उत्साह से रुक्मी ने बारात का स्वागत किया। खूब धूम-धाम से विवाह संपन्न हुआ। रुक्मी ने उपहार देने में, संबंधियों को सत्कृत करने में कोई कार्पण्य नहीं किया।

विवाह कार्य पूर्ण हो गया तो रुक्मी ने मित्र राजाओं ने उसे सम्मति दी- 'अन्ततः यादव आपके शत्रु ही हैं। अब ये संबंधी हो गये हैं, अतः इनसे युद्ध उचित नहीं रह गया है, किन्तु इन्हें पराजित करने, अपने अधीनस्थ बनाने की एक युक्ति और है।'

रुक्मी अपने अपमान को भूला नहीं था। यदि अपने संबंधी प्रद्युम्नादि से युद्ध न करना पड़े और बलराम श्रीकृष्ण को नीचा दिखाया जा सके तो वह ऐसा अवसर अवश्य चाहता है। उसने उत्साह-पूर्वक वह उपाय जानना चाहा।

'उपाय तो वही है जो पांडवों को राज्य से निर्वासित करने के लिए शकुनि की सहायता से दुर्योधन ने अपनाया था।'
रुक्मी ने मित्रों से कहा- 'बलराम को भी युधिष्ठिर के समान ही द्यूत का मारी व्यसन है और इन्हें भी पासा खेलना आता नहीं।'

रुक्मी ने यह उपाय अच्छा लगा। इस उपाय का परिणाम- 'जो विनाश हुआ था, वह इसके साथ लगा आयेगा, इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। क्योंकि- 'विनाशकाले विपरीत बुद्धिः।'

आप हम आप कुछ भी कहें, प्रत्येक काल में, समाज में कुछ प्रथाएँ चलती हैं। उनमें सभी अच्छी नहीं होती; किन्तु सत्पुरुष भी उन प्रथाओं का विरोध नहीं कर पाते। वे भी समाज के अनुकूल ही चलते हैं। उस काल में जैसे युद्ध का आह्वान अस्वीकार कर देना वीर के लिए अपयश की बात मानी जाती थी, यद्यपि यह सदा उचित नहीं होता, वैसे ही द्यूत का आह्वान अस्वीकार कर देना भी अपयश की बात मानी जाती थी। राजाओं तथा राजपुरुषों के लिए शस्त्र-कुशल होने के समान अक्ष-क्रीड़ा कुशल होना भी सद्गुण माना जाता था। इसी प्रथा के कारण युधिष्ठिर द्यूत-क्रीड़ा को विवश हुए थे। रुक्मी ने भी यही उपाय अपनाया।

रुक्मी की ओर से भगवान बलराम को अक्ष-क्रीड़ा का आमन्त्रण दिया गया। वे अकेले ही राजसदन में पधारे। रुक्मी के मित्र नरेश वहाँ एकत्र थे। उन्हीं लोगों को रुक्मी ने निर्णायक निर्णीत कर दिया। इस क्रीड़ा के पीछे कोई षडयन्त्र भी है, इससे बलराम जी सर्वथा अनजान थे।

अष्टापद बिछ गया और पासे पड़ने लगे। सौ स्वर्ण मुद्रा से दाव प्रारंभ हुआ। बलराम जी ने दूसरा दाव सहस्र स्वर्णमुद्रा का लगाया और तीसरा दाव दस सहस्र स्वर्ण मुद्रा का। तीनों दाव रुक्मी जीतता गया।

जब भी रुक्मी जीतता था, उसके सभी समर्थक ताली बजाकर हँसते-उछलते थे। कलिंगराज जयत्सेन दाँत दिखाकर हँसते हुए श्रीबलराम जी की खिल्ली उड़ा रहे थे। लेकिन श्रीसंकर्षण रुक्मी की जय से तनिक भी हतभ्रम या रूक्ष नहीं हुए। उन्होंने भी प्रसन्नता ही प्रकट की और चौथा दाव श्रीबलराम ने एक लाख स्वर्ण मुद्रा का लगाया। पासा पड़ा और इस बार श्रीसंकर्षण जीते थे, किन्तु रुक्मी ने शीघ्रतापूर्वक पासा उठा लिया और चिल्लाया- 'मैं जीता।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 186

उपस्थित राजाओं ने भी ताली बजाकर, हँसकर रुक्मी का समर्थन कर दिया। निर्णायकों के इस अन्याय से रुक्मी के छल से श्रीबलराम को क्रोध आ गया। उन्होंने क्रोधावेश में इस बार दस अरब स्वर्णमुद्रा दाँव पर लगायीं। क्रोध से उनका मुख लाल हो गया था और नेत्र अंगार बन चुके थे।

जुआ अधर्ण का आश्रय है। इसमें असत्य, छल, कलह एवं विनाश का निवास है। इस बार पासा पड़ने पर भी बलराम जी ही विजयी हुए थे किन्तु रुक्मी ने फिर झट से पासा उठा लिया और चिल्लाया- 'मैं जीता हूँ। सन्देह हो तो इन निर्णायकों से पूछ लो।'

इसी समय आकाशवाणी हुई- 'रुक्मी झूठ बोलता है। दाँव श्रीसंकर्षण ने जीता है।'

'देवताओं को मध्य में पड़ने का क्या अधिकार है? सब जानते हैं कि सुर तुम्हारे समर्थक है।'
रुक्मी लाल-लाल नेत्र करके बोला- 'वाणों से युद्ध करना और पासों से खेलना राजाओं की विद्या है। तुम गोपों के साथ गायें चराओं। तुम्हें इनका ज्ञान नहीं हो सकता।'

रुक्मी बकता जा रहा था- 'यहाँ ये नृतपितगण निर्णायक हैं और जानते हैं कि तुम अक्ष-क्रीड़ा में अज्ञ हो।'

रुक्मी के साथी नरेश हँस रहे थे। देववाणी पर उन्होंने ध्यान देना आवश्यक ही नहीं माना। इससे बलराम जी का क्रोध नियन्त्रण में नहीं रहा। उन्होंने वह स्वर्ण का रत्नजटित भारी अष्टापद उठाया और रुक्मी के सिर पर पटक दिया। सिर फटने से रुक्मी की वहीं मृत्यु हो गयी।

कलिंगराज जयत्सेन भागा, किन्तु दसवें पद पर ही उसे पकड़कर श्रीबलराम ने पटक दिया और अष्टापद के प्रहार से उसके दाँत तोड़ दिये। दूसरे भी सभी राजाओं को अपने किये का फल भोगना पड़ा। उनमें-से कोई ऐसा नहीं निकल सका जिसका कोई अंग-भंग न हुआ हो। सब घायल होकर रक्त से लथपथ वहाँ से प्राण लेकर भागे।

राजभवन में हा-हाकार मच गया, किन्तु क्रोध में भरे श्रीसंकर्षण से कुछ कहने का साहस किसी को नहीं हुआ। वे भी उठे और अपने आवास पर चले आये।

श्रीकृष्णचन्द्र को अपने साले रुक्मी को अन्त्येष्टि की व्यवस्था करनी पड़ी। उसका और्ध्वदैहिक कृत्य सम्पन्न हो जाने पर उसके पुत्र का राज्याभिषेक करके सब अनिरुद्ध को उनकी नव-वधू सहित लिये विदा हुए।

जितने उत्साह, उल्लास सहित यह बारात आयी थी, उतनी ही अधिक उदासी मौन सहित सब भोजकटपुर में विदा हुए। मर्यादा का अतिक्रम करके किया जाने वाला यह संबंध तत्काल अनिष्टकर हो गया था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 187

उमा-महेश्वर एकान्त-क्रीड़ा में मग्न थे। वहाँ उस समय स्त्रियाँ ही थीं। वाणासुर की पुत्री भी वहाँ अपनी सखी चित्रलेखा के साथ थी। अप्सरा चित्रलेखा अपने नृत्य-संगीत से भगवान विश्वनाथ को संतुष्ट करने में लगी थीं।

देवी उमा अपने अराध्य के अंक में बैठी थीं। उषा युवती हो गयी थी। साम्ब शिव का यह दाम्पत्य देखकर उसके मन में काम का उदय हुआ। उसका मुख अरुण हो उठा। उषा पर पार्वती का पौत्री के समान स्नेह था। बाण उनका धर्मपुत्र था। उषा का भाव लक्षित करके उन दयामयी सर्वज्ञा ने कहा- 'वत्से! तुझे शीघ्र तेरा पति मिलेगा। वैशाख शुक्ल द्वादशी को प्रदोष काल में स्वप्न में जिसका संग तुझे प्राप्त होगा वह तेरा स्वामी होगा।'

उषा के मन में उसी दिन से उत्कण्ठा जाग उठी। वैशाख शुक्ल द्वादशी को वह सायं सन्ध्याकालीन अन्धकार होते ही सो गयी और स्वप्न में उसे कमलचोलन, श्याम कर्ण, भुवन सुन्दर युवा पुरुष का अंग-संग प्राप्त हुआ।

'हाय प्रियतम कहाँ गये तुम?' निद्रा टूटते ही उषा व्याकुल होकर क्रन्दन कर उठी। रात्रि का प्रथम प्रहर ही था। सखियाँ समीप बैठी थीं। उषा की प्रिय सखी वाणासुर की मन्त्री कुम्भाण्ड की पुत्री चित्रलेखा (रामा) ने हँसकर पूछ लिया-
'राजकुमारी! किसे ढूँढ़ रही हो तुम! तुम्हारा प्रियतम यहाँ कौन कहाँ से आ गया?'

उषा ने चकित होकर इधर-उधर देखा और फिर लज्जा से लाल हो गयी। वह संकुचित तो हो गयीं किन्तु उसके अश्रु सूख नहीं रहे थे। वह सिसकियाँ ले रही थीं। चित्रलेखा के संकेत पर दूसरी सखियाँ वहाँ से चली गयीं।
चित्रलेखा ने उषा को स्नेह से पुचकारा- 'तुम मुझसे अपनी मनोव्यथा कहो।'

उषा सखी के कण्ठ में भुजाएँ डालकर फफककर रो पड़ी। किसी प्रकार उसने कहा- 'स्वप्न में कोई अतिशय सुन्दर युवा मुझे अपनी बनाकर चला गया। हाय! अब मैं कुमारी नहीं रही और दूसरे को वरण की बात भी सोच नहीं सकती।'

'बहुत पगली है मेरी सखी।' चित्रलेखा खुलकर हँसी- 'कहीं स्वप्न की संग से कौमार्य भग्ङ होता है? तू व्यर्थ रुदन बन्द कर। पवित्र है तू।'

'तुमको भगवती पर्वताधिराज तनया का वरदान स्मरण नहीं है?' उषा ने रोते-रोते ही कहा- 'यह भी स्मरण नहीं कि आज तिथि कौन-सी है? मैं उस हृदयहारी के वियोग में प्राण दे दूँगीं। उसका दर्शन न हुआ तो तुम मुझ मेरी ही समझो।'

सचमुच उषा का मुख पीला पड़ने लगा था।
चित्रलेखा ने सखी को सम्हाला- 'मरें तेरे शत्रु। तू इतना बता कि वह कौन है? कैसा है?'

'वे कौन हैं, यह मैं कहाँ जानती हूँ।' उषा फिर रोने लगी- 'इन्दीवर श्याम, कमल लोचन, विशाल वक्ष, सुदीर्घ भुज, इतनी ही मैं जानती हूँ।'
(साभार श्रीद्वारिकाधाश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 188

रो मत। इतना बता दे कि मैं उसका चित्र बनाऊँ तो तू उसे पहिचान लेगी?' चित्रलेखा ने पूछा।

उषा ने कहा- 'तू पहिचानने को पूछती है। वे मुझे जन्म-जन्म के पहिचाने लगते हैं।'

वाणासुर के महामंत्री कुम्भाण्ड के यह पुत्री रामा अप्सरा चित्रलेखा से उत्पन्न हुई थी। अतः इसे लोग चित्रलेखा ही कहने लगे थे क्योंकि माता की अद्भुत चित्रांकन सिद्धि पुत्री को भी जन्म से ही प्राप्त हो गयी थी।

दैत्यराज बलि का ज्येष्ठ पुत्र था वाण। दैत्य-दानव देवताओं के ज्येष्ठ बंधु हैं। महर्षि कश्यप की पत्नी दिति की संतान दैत्य और अदिति की संतान देवता। अतः दैत्यों को भी देवताओं के समान दिव्य देह तथा अनेक सिद्धियाँ जन्म से प्राप्त होती है।

चित्रलेखा अपना अद्भुत चित्र-फलक तथा तूलिकायें उठा लायी। उसने उषा से कह दिया- 'तू ध्यानपूर्वक चित्र देखती रह। तेरे हृदयहारी का चित्र बन जाय तो बता देना। यदि त्रिलोकी में सचमुच वह कहीं हैं, तेरी कल्पना ने उसे नहीं बनाया है तो मैं अवश्य उसका पता लगा लूँगी।'

चित्रलेखा ने दैत्य, दानव, यक्ष, राक्षस कुल में जो युवा थे, सुन्दर थे, द्विभुज थे उनका चित्र पहले बनाया। देवता, नाग, गन्धर्व, किन्नर सब वर्ग समाप्त हो गये। सुविधा इतनी थी कि केवल द्विभुज, एक मस्तक, दो नेत्र के सुंदर तथा श्याम वर्ण के युवा पुरुषों के चित्र बनाने थे।

चित्रलेखा ध्यानमग्न थी। उसकी तूलिका अकल्पनीय तीव्रता से चल रही थी। उसका चित्र-फलक अद्भुत था। जब नवीन चित्र बनने लगता था तो पहिले बना चित्र स्वतः मिट जाता था।

किसी सिद्ध देवयोनि के पुरुष के लिए जब उषा ने सिर नहीं हिलाया तो अन्त में चित्रलेखा मनुष्यों के चित्र बनाने लगी। केवल श्याम वर्ण और वह भी सुन्दर, जैसे पांडवों में केवल अर्जुन का चित्र बनाना पड़ा उषा को।

वृष्णिवंशीय यादवों में जैसे ही श्रीकृष्ण का चित्र बना, उषा ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया मस्तक झुकाकर। प्रद्युम्न का चित्र देखकर उसने लज्जा से घूँघट खींच लिया। अब चित्रलेखा ने अनुमान कर लिया। उसने अनिरुद्ध का चित्र अंकित किया।

'यही, यही हैं वे।' उषा ने सखी का हाथ पकड़ लिया। जिससे वह इस चित्र को भी मिटा न डाले।

'साक्षात श्रीहरि द्वारिकाधीश के इन श्रीमान पौत्र ने मेरी सखी का हृदय हरण किया है?' चित्रलेखा ने अब उषा की ओर देखा। 'द्वारिका का अत्यन्त सुरक्षित दुर्ग है। उसमें अपरिचित का प्रवेश अशक्य है।'

उषा पर इस समझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ना था। वह व्याकुल थी। प्राण देने को उद्यत थी। अन्ततः चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को ला देने का वचन दिया और आकाश मार्ग से द्वारिका पहुँची। वह महर्षि दुर्वासा को प्रसन्न करके अदृश्य रहने की विद्या प्राप्त कर चुकी थी। सोते हुए अनिरुद्ध का उसने हरण किया और उन्हें लाकर उषा के अन्तःपुर में उसकी शैय्या पर सुला दिया।

'अब अपने प्रियतम को तुम स्वयं जगा लेना।' चित्रलेखा यह कहकर हँसती हुई अपने घर चली गयी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 189

मध्यरात्रि के पश्चात अनिरुद्ध अपने अन्तःपुर में सोये थे। वे स्वप्न में एक अपूर्व सुन्दर युवती को देख रहे थे। उन्हें कोई द्वारिका से ग्यारह सहस्र योजन दूर उठा लाया इसका उनको पता नहीं था। अचानक बहुत मधुर वीणा की संगीत लहरी से उनकी निद्रा टूटी। उन्होंने नेत्र खोला और इधर-उधर देखते ही चौंककर बैठ गये। कक्ष भरपूर सज्जित था और उसमें मणियों का मन्द प्रकाश था, किन्तु यह द्वारिका का उनका अपना कक्ष तो नहीं है। अनिरुद्ध चकित देखने लगे।

कक्ष के एक कोने में वीणा लिये एक सुन्दरी बैठी वीणा बजा रही थी। अनिरुद्ध को उठकर बैठते उसने देखा तो वीणा रखकर खड़ी हो गयी। अनिरुद्ध शैय्या से उठकर उसके समीप पहुँचे और चौंके, स्वप्न में यही सुन्दरी तो उनके समीप थी।
उन्होंने पूछा- 'सुन्दरि! कौन हो तुम?'

उषा उनके चरणों पर झुकी- 'आपके इन चरणों की दासी।'

अनिरुद्ध ने उसे भुजाओं में भर लिया।

द्वारिका में अनिरुद्ध अपनी शैय्या पर नहीं मिले तो ब्रह्ममूहुर्त से पूर्व ही उनके अन्तःपुर में स्त्रियों का रुदन-क्रन्दन गूँजने लगा। शय्या पर उत्तरीय भी पड़ा था। इसका अर्थ था कि अनिरुद्ध का अपहरण हुआ है।

स्त्रियों की ध्वनि सुनकर दूसरी स्त्रियाँ वहाँ पहुँची और शीघ्र ही समाचार पूरे नगर में फैल गया। यादव वीर अपने भवनों से शस्त्र सन्नद्ध निकल पड़े। श्रीकृष्णचन्द्र के सदन में युद्धघोष करती भेरी बजने लगी।

रात्रि में ही महाराज उग्रसेन सुधर्मा सभा में पहुँचे। यादवराज परिषद का विशेष अधिवेशन कुछ ही समय में प्रारंभ हो गया। सम्पूर्ण सेना शस्त्र सज्ज कहीं भी प्रस्थान को खड़ी थी।

सात्यकि ने राजसभा में अधिवेशन से भी पूर्व रथ तथा अश्व देकर गुप्तचर तथा प्रकटचर चारों ओर अनिरुद्ध का पता लगाने के लिए आवश्यक निर्देश देकर भेज दिये।

महासेनापति अनाधृष्ट पहिले बोले- 'केशव! आपने अनेकों असुरों को मारा है। असुर तो आपके शत्रु हैं ही, पारिजात हरण के कारण इन्द्र भी मित्र नहीं रहे हैं। वे भी अनिरुद्ध का हरण कर सकते हैं।'

श्रीकृष्णचन्द्र उठे- 'सेनापति, मैं देवराज को जानता हूँ और वे भी मुझे जानते हैं। वे अथवा कोई देवता ऐसा काम करके यमराज से शत्रुता करने का साहस नहीं करेंगे। असुरों में भी कोई इस प्रकार का मुझे इस समय नहीं लगता। मुझे तो इस अपहरण में किसी स्त्री का हाथ जान पड़ता है।,

गुप्तचर और प्रकटचर भी सब लौट आये। उन्होंने वन, पर्वत, गुफायें, उद्यान, धर्मस्थान, नदी, सरोवर, नगर ग्राम झोंपड़े, मुनियों के आश्रम आदि सब कई-कई बार देख लिये थे। कहीं अनिरुद्ध का पता नहीं था।

द्वारिका में लोग कहने लगे थे- 'श्रीद्वारिकाधीश के ज्येष्ठ कुमार का भी ऐसे ही हरण हुआ था और सोलह वर्ष पर वह पत्नी लेकर आये थे। जब उनके ज्येष्ठ पुत्र का अपहरण हुआ है। ये भी वधू लेकर लौटें तो आश्चर्य नहीं, किन्तु पता नहीं ये कब लौटते हैं।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 190

दैत्यराज बलि के ज्येष्ठ पुत्र वाणासुर ने क्रीड़ा करते स्वामी कार्तिक को देखा तो उनका वज्रपुष्ट शरीर सौन्दर्य देखकर चकित रह गया। अंग-प्रत्यंग अत्यन्त सुगठित और वर्ण ऐसा मानो पाटल दल से प्रकाश की किरणें झर रही हों। असुर का सबसे बड़ा आकर्षण शरीर। स्कन्द के शरीर की शोभा से वह मुग्ध हो उठा।

'शिव का पुत्र इतना सुन्दर।' बाण ने निश्चय किया कि वह भी शिव-पुत्र बनेगा। उग्र तप प्रारंभ कर दिया उसने। भगवान आशुतोष तो अनर्थ संकल्प रखने वाले असुरों पर भी कृपा करते हैं, बाण का संकल्प तो उन्हें पिता बनाने का था। वे शशांकशेखर प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा।

वाणासुर ने माँगा- 'मैं श्रीगिरिजेशनन्दिनी से आपका पुत्रत्व चाहता हूँ।

इस वरदान की एक कठिनाई थी। पहिले वाणासुर मरें और तब पार्वती का पुत्र बनकर उत्पन्न हो। वाणासुर तो प्रस्तुत था मरने को भी, किन्तु करुणा-वरुणालय को यह बड़ा क्रूर कर्म लगा। उन्होंने उसी समय भगवती पार्वती से कहा- 'देवि! इसे पुत्र रूप में स्वीकार कर लो। यह स्कन्द का छोटा भाई रहेगा और जहाँ उन अग्निकुमार का आविर्भाव हुआ है, वह शोणितपुर इसकी राजधानी होगा।'

कुमार कार्तिक ने प्रसन्न होकर अपने इस अनुज को 'अग्निध्वज' और 'मयूर वाहन' प्रदान किया।

'मेरा बड़ा पुत्र षड़ानन द्वादश बाहु है।'
जगदम्बा ने कहा- 'यह छोटा पुत्र एकानन ही रहे, किन्तु सहस्र भुज हो।'

वाणासुर को इस संपूर्ण वरदानों में एक ही बात बहुत खटक रही थी कि वह अपने परमाभीष्ट इन माता-पिता से दूर शोणितपुर में रहने को कह दिया गया था। सहस्र भुज होते ही वह वहीं उनसे ताली बजा-बजाकर ताण्डव नृत्य करते हुए उमामहेश्वर की स्तुति करने लगा। नन्दीश्वर ने वाद्य प्रस्तुत किये तो उसने पूरे पाँच-सौ वाद्य उठा लिये सहस्र करों में।

अकेला वाणासुर बडे से बड़े वाद्य-मण्डल से बड़ा था। उसके हाथों में स्वरताल से मिले पाँच-सौ वाद्य थे और वह ताण्डव नृत्य करता हुआ उन्हें बजाता जा रहा था। मुख से स्तवन का संगीत चल रहा था।
भगवान भर्ग, नित्य मंगलमय प्रभु अत्यन्त संतुष्ट होकर बोल उठे- 'वत्स! तुम्हें जो भी अभीष्ट हो, माँग लो।'
'मैं आपके श्रीचरणों से दूर नहीं रहना चाहता।'
वाणासुर ने कहा- 'आप मेरे नगर-रक्षक होकर मेरी राजधानी में ही अम्बा के साथ विराजमान रहें। मुझे आप दोनों की सेवा का सौभाग्य सदा प्राप्त रहे।'

'एवमस्तु!' उन दयाधाम से प्रार्थना करके दूसरी बात तो कभी कोई सुनता ही नहीं। वाणासुर ने शोणितपुर में राजधानी बनायी तो उमा-महेश्वर भी वहीं रहने लगे। वाणासुर की पुत्री उषा तो भगवती पार्वती की अत्यन्त स्नेहभाजना हो गयी।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 191

परम भागवत प्रह्लाद जी के पुत्र विरोचन धर्ममूर्ति थे। उनके पुत्र दैत्यराज बलि में कुछ रजोगुण असुरभाव आया भी तो वह भगवान वामन का नित्य सान्निध्य पाकर नष्ट हो गया। बलि के पुत्र वाणासुर में रजोगुण का आसुर भाव तो था, प्रबल था, किन्तु तमोन्मुख न होकर सत्त्वोन्मुख था। उसमें किसी को भी उत्पीड़ित करने की, किसी का भी स्वत्व छीनने की कोई इच्छा नहीं थी।

सहस्रबाहु वाणासुर पराक्रमी, बल की मूर्ति था और उसका रजोगुणी स्वभाव उसे युद्ध करने को उत्सुक बनाता था, किन्तु दिक्पाल भी उससे दया चाहते थे और वह हृदय से भला था। कहता था- 'किसी हीनवीर्य अल्प-प्राण प्राणी को पीड़ित करना अत्यन्त कदर्य काम है।'

दिग्विजय करने के क्रम में जब दशग्रीव शोणितपुर पहुँचा था तब उसकी युद्ध ललकार का उत्तर भी बाण ने यही कहकर दिया था- 'मैं अल्प पराक्रम दुर्बलों को उत्पीड़ित करने का उत्साह नहीं रखता। क्षीणसत्त्व से युद्ध करके व्यर्थ श्रान्ति बढ़ती है।'

रावण की शक्ति परीक्षा के लिए उसने अपने कुलपुरुष हिरण्यकशिपु का कुण्डल ला रखा और लङ्कापति उसे उठा नहीं सका था। लज्जित होकर वह लौट गया था।

कोई विश्व-विजय की महत्त्वाकांक्षा नहीं थी वाणासुर के मन में, किन्तु वह युद्ध करना चाहता था। अपने समान बलवान से युद्ध करना चाहता था और समान बलवान उसे त्रिभुवन में कहीं कोई दीखता नहीं था।

बल का बहुत अधिक गर्व व्यक्ति को विवेक वंचित कर देता है। अत्यधिक निकटता से गौरव-बुद्धि घट जाती है। वाणासुर को भगवान शिव का सामीप्य सदा प्राप्त था, अतः उसका व्यवहार वैसा हो गया था जैसे वयः प्राप्त पुत्र का पिता के साथ रह जाता है।

वाणासुर ने एक दिन उन महेश्वर के चरणों में मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर सम्मुख खड़ा हो गया।
भगवान शिव के पूछने पर बोला- 'आपने मुझे ये सहस्र भुजाएँ तो दीं, किन्तु ये मेरे लिए भार बन गयी हैं। मुझे किसी लोक में आपके अतिरिक्त दूसरा कोई अपने समान बलवान युद्ध करने के लिए दीखता ही नहीं है और मेरी भुजाओं में युद्ध के लिए खुजली हो रही है।'

बात स्पष्ट थी कि आप ही युद्ध करें। इस धृष्टता से उन त्रिपुरारि को कुछ क्रोध आया किन्तु जिसे अपना पुत्र स्वीकार कर लिया, अब उसे न मारा जा सकता, न शाप दिया जा सकता। कुपुत्र पर भी माता-पिता कृपा ही करते हैं।
भगवान रुद्र ने कह दिया- 'जब तुम्हारे भवन पर लगा ध्वज स्वयं टूटकर गिरेगा तब समझ लेना कि तुम्हारा युद्ध मेरे समान बलवान से होगा और वह तुम्हारा भार एवं अहंकार मिटा देगा।'

वाणासुर ने इसे वरदान माना। वह बहुत उत्कण्ठापूर्वक अपने भवन का ध्वज प्रतिदिन दिन में कई-कई बार देखता था। वह ध्वज कब टूटे और कब उसे युद्ध का अवसर मिले, इसकी प्रतीक्षा कर रहा था वह।

मल्लयुद्ध करने वाले पहलवानों को ही इस मनोवृत्ति का अनुमान होना संभव है। अखाड़े में उन्हें प्रतिदिन पूरा बल लगाने का अवसर मिलना चाहिए। उचित प्रतिद्वंद्वी न मिले तो मन में एक प्रकार की बेचैनी, भुजाओं में खाज होती है। भले मल्लयुद्ध में हारना पड़े किन्तु अवसर अवश्य मिले। यही अवस्था वाणासुर की थी और एक दिन उसने प्रसन्न होकर देखा कि उसके भवन पर लगा ध्वज-दण्ड टूटकर गिर पड़ा है।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 192

अनिरुद्ध को प्रसन्न रखने का उषा सच्चे हृदय से प्रयत्न करती रहती थी। उन्हें कोई असुविधा न हो यह प्रबंध प्रबन्ध उसने कर दिया था। उसकी एक ही प्रार्थना थी- 'वे अन्तःपुर में बाहर न जायँ।

अनिरुद्ध का मन भी उषा की सेवा से संतुष्ट था। उन्हें पता ही नहीं लगा कि उनको द्वारिका से यहाँ आये चार वर्ष बीत चुके। उनकी प्रसन्नता, सुख का नवीन-नवीन उपाय उषा करती रही। उसे भय था कि उसके ये प्राणधन कहीं पितृगृह को स्मरण करने लगे तो वह असहाय हो उठेगी। उसके पिता क्या करेंगे यह समझ पाना कठिन था और जो कुछ किया जा चुका था वह भले भावावेश में हुआ, दो युवा कन्याओं के बचपन से हुआ, किन्तु अब तो उसके साथ जीवन का प्रश्न सम्मिलित था।

कन्या का कौमार्य उसके शरीर में की एक कान्ति बनाये रखता है। वह जब विवाहिता होकर पतिगृह पहुँचती है तो बहुत शीघ्रता से उसके शरीर में अनेक परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन उषा के शरीर में भी होने ही थे और इन्हें छिपाया नहीं जा सकता था।

उस दिन अपने भवन पर लगा ध्वज-दण्ड टूटा देखकर वाणासुर प्रसन्न हो रहा था। इतने में उसकी कन्या के अन्तःपुर में रक्षक एक साथ आकर हाथ जोड़कर उसके सम्मुख खड़े हो गये। वाणासुर ने उनके आने का कारण पूछा तो बहुत विनम्र होकर बोले- 'हमारा अपराध क्षमा हो। ठीक क्या बात है, हमें भी पता नहीं है क्योंकि आपकी पुत्री के अन्तःपुर में हम जा नहीं सकते। हमारी अत्यन्त सावधानी के पश्चात भी कुछ हुआ है वहाँ यह हमारा अनुमान है। यद्यपि हमारी जानकारी में वहाँ कोई पुरुष नहीं गया किन्तु आपकी पुत्री के शरीर एवं चेष्टा में कौमारभंग के लक्षण दीखते हैं और यह आपके उज्ज्वल कुल के लिए कलंक की बात हो सकती है।

किसी भी पिता को अपनी पुत्री के संबंध में ऐसी बात सुनकर कितना दुःख होगा, यह समझा जा सकता है। कन्यान्तःपुर से सेवक बिना पुष्ट कारण के अपने स्वामी के सम्मुख ऐसी बात कहने का साहस नहीं करते यह भी वाणासुर समझ गया। वह उसी समय उठा और सीधे पुत्री के अन्तःपुर में पहुँचा।

वाणासुर ने जो कुछ देखा, उससे वह चकित रह गया। त्रिभुवन-सुन्दर कमल लोचन, नवधनवर्ण युवा पुरुष उसकी पुत्री के सम्मुख बैठा पासे खेलने में लगा था और उसके कण्ठ में मोटी मधु-मालती पुष्पों की वनमाला थी। उसकी भुजाओं में इन्हीं पुष्पों की मालाएँ लिपटी थीं और इन मालाओं के पुष्पों पर स्थान-स्थान पर कुंकुम लगा था- वह कुंकुम जो युवापुरुष की माला पर पत्नी के वक्ष से आलिंगन के समय लग जाया करता है।

'पकड़ लो इसे।' वाणासुर ने क्रोध से गर्जना करते हुए साथ आये अन्तःपुर के उन राक्षसों को आज्ञा दी जो कुछ पीछे खड़े हो गये थे।

उषा भयभीत होकर एक ओर कक्ष के कोने में दुबक गयी, किन्तु अनिरुद्ध न हिचके, न भयभीत हुए। उन्होंने एक मोटा डण्डा उठा लिया और कक्ष से प्रांगण में निकल आये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 193

वाणासुर अनिरुद्ध के सौंदर्य से पहिले ही अभिभूत हो गया था। अब उनके पराक्रम ने उसे और अधिक विस्मित किया। उसे और सैनिक बुलाने पड़े किन्तु यह घनश्याम अंग युवा केवल दण्ड लिये उसके सैकड़ों सशस्त्र सैनिकों के लिए दण्डधर यमराज बन गया था। इतनी स्फूर्ति, इतना प्रचण्ड पराक्रम।

वाणासुर के मन में पुत्री के प्रति प्रशंसा का भाव जागा। उसकी इकलौती कन्या ने अपने लिए उपयुक्त पति चुना है। यह युवा स्वयं उससे आकर कन्या माँगता तो उसकी याचना विचार करने योग्य थी किन्तु इसने दैत्यराज के कन्यान्तःपुर में छिपकर प्रवेश करके मर्यादा भंग किया है। इसे दण्ड मिलना चाहिए।

अनिरुद्ध को दण्ड देना सरल नहीं था। वे स्वयं इस समय दण्डधर थे और उनके दण्ड प्रहार से वाणासुर के सैनिकों के शव बिछते जा रहे थे प्रांगण में। मस्तक, भुजा, स्कन्ध, जहाँ भी जिसके अनिरुद्ध का डण्डा पड़ता था, उसका वह अंग चूर हो जाता था। रक्त की धाराएँ वहाँ उछल रही थीं और अनिरुद्ध का दण्ड वेग से घूम रहा था कि किसी का अस्त्र-शस्त्र उनको स्पर्श भी नहीं कर पाता था।

वाणासुर इस युवक के पराक्रम से मन में संतुष्ट हो गया था। वह स्वयं युद्ध करने बढ़ा और उसे भी शीघ्र पता लग गया कि युवक असाधारण शूर है। उसे पराजित करना सरल नहीं है। घोर संग्राम हुआ किन्तु वाणासुर युवक को मार देना नहीं चाहता था। उसने अन्त में नागपाश में बाँध दिया अनिरुद्ध को।

उषा अब तक चकित, भयभीत यह युद्ध देखती रही थी। अनिरुद्ध नागपाश के बन्धन से विवश हो गये, यह देखते ही वह व्याकुल होकर क्रन्दन करने लगी किन्तु वाणासुर ने पुत्री की ओर ध्यान ही नहीं दिया।

अब महामन्त्री कुम्भाण्ड आ चुके थे। उनकी ओर देखकर वाणासुर ने पूछा इस धृष्ट युवक को मार देना चाहिए?'

मन्त्री ने कहा- 'इसका पराक्रम आपने देखा है और मैंने भी देखा है। आपकी कन्या ने इसको वरण किया है। वह दूसरे के देने योग्य नहीं रही और न दूसरे को स्वीकार करेगी। यह कोई अद्भुत पुरुष है जो सर्प-बन्धन में पकड़कर भी दैत्य अथवा भयग्रस्त नहीं है। निर्भय खड़ा हमें घूर रहा है। यदि यह किसी उत्तम कुल का हो तो हमें अभीष्ट होगा। तब तो यह हमसे पूजा प्राप्त करेगा। अतः इसकी रक्षा की जानी चाहिए और इसके कुल का पता लगाना चाहिए।'

'तुम ठीक कहते हो।'
वाणासुर बोला- 'आज ही मेरे भवन की ध्वजा टूटी है। यह किसी समान बलवान से युद्ध की शुभ-सूचना है। सम्भव है, यह युवक ही इसका निमित्त बने।'

अनिरुद्ध को वहीं वज्र के समान सुदृढ़ पिजड़े में वाणासुर ने बन्दी कर दिया। वहाँ दूसरे रक्षकों को दृष्टि रखने को कहकर वाणासुर चला गया। वह निश्चिन्त हो गया बन्दी की ओर से क्योंकि वह जानता था कि उसकी पुत्री स्वतः इसके आहारादि की सेवा करती रहेगी।

अनिरुद्ध ने भगवती कात्यायनी का स्तवन प्रारम्भ किया। वे नन्दात्मजा योगमाया ही तो इस शोणितपुर में कोटवती देवी के रूप में पूजित थीं। वे प्रकट हुई और बोली- 'वत्स! मैं इस पिजड़े को नष्ट कर देती हूँ। ये नाग तुम्हें कष्ट नहीं देंगे किन्तु तुम अभी इस स्थान से निकलो मत। भगवान श्रीकृष्ण शीघ्र आकर तुम्हें मुक्त करेंगे।'
(आभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 194

इधर कई वर्षों से देवर्षि नारद द्वारिका नहीं आये थे। अचानक वे उतरे गगन से और सुशर्मा साथ में ही पहुँचे। श्रीकृष्णचन्द्र तथा सभी ने उठकर उनका स्वागत किया। आसन ग्रहण कर लेने पर उनकी विधिपूर्वक पूजा की गयी। देवर्षि ने एक बार सबकी ओर देखकर पूछा- 'मैं आप सबके मुखों पर चिन्ता के चिह्न क्यों देखता हूँ?'

श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'रात्रि में सोते समय अनिरुद्ध का अपहरण हो गया। आज चार वर्ष हो गये उनका पता नहीं लग रहा है। हमारे सब प्रयत्न असफल हुए हैं। उनकी माता और पितामही को बहुत अधिक चिंता है। आप सर्वज्ञ है।'

देवर्षि हँसे- 'आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नित्य सर्वज्ञ नहीं है और आप नारद को श्रेय देने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यहाँ से ग्यारह सहस्र योजन दूर कैलास के पार्श्व में बलि के पुत्र वाणासुर के नगर शोणितपुर में अनिरुद्ध बन्दी है।'

देवर्षि ने अनिरुद्ध-हरण उनका पौरुष और वर्तमान परिस्थिति का परिचय दिया। द्वारिका में उसी क्षण युद्ध-भेरी बजने लगी। श्रीबलराम, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न, गद, सात्यकि, साम्बादि समस्त महारथी तत्काल प्रस्थान को प्रस्तुत हो गये। द्वारिका में महाराज उग्रसेन, वसुदेव जी, अक्रूर जैसे यदु वृद्धों को छोड़कर बारह अक्षौहिणी यादवों की महासेना ने विजय-मुहूर्त में प्रस्थान किया।

शोणितपुर में बहुत दूर था किन्तु जब श्रीसंकर्षण अपने ऐश्वर्य का प्रयोग करें तो दूरी कहाँ रह जाती हैं! एक बार पहिले भी रुक्मिणी हरण के अवसर पर अपने संकल्प बल से वे समस्त चतुरङ्गिणी सेना को द्वारिका से विदर्भ पहुँचा चुके थे। इस बार भी उनके आदेश से सबने नगर से निकलते ही नेत्र बन्द किये और नेत्र खोलने पर देखा कि शोणितपुर के समीप पहुँच गये हैं।

चारों ओर उत्तुंग हिम शिखर और मध्य में वह दुर्गम दिव्य नगर। जहाँ स्वयं भगवान शंकर नगर-रक्षक होकर निवास करते हों, उस नगर की शोभा और दुर्गमता का वर्णन नहीं किया जा सकता। नगर की रक्षा के लिए प्रज्वलित आह्वनीय अग्निदेव स्वयं साकार बाहर नगर की परिक्रमा कर रहे थे।

गरुड़ ने आकाश-गंगा का जल मुख में भरा और अग्नि पर उड़ेल दिया। आह्वनीय अग्नि अत्यन्त पवित्र हैं। यह गरुड़ोच्छिष्ट जल पड़ते ही वे शान्त होकर अन्तर्हित हो गये।अब प्रमुख अग्नि महर्षि अंगिरा आग्नेय रथ पर बैठे हाथ में बाण लिये आगे आये। उनके पार्श्व में कल्माष, कुसुम, दहन, शोषण तथा तपन ये पाँचों जातवेदा स्वाहाकार विषयक प्रख्यात अग्नि थे। वाम पार्श्व में पिठर, पतंग, स्वर्ण, श्वागध और भ्राज ये पाँच स्वधाकार विषयक अग्नि थे तथा पृष्ठ-रक्षक के रूप में वषट्कार विषयक एवं ज्योंतिष्टोम अग्नि थे।

ये रुद्रानुचर अग्नि और इनके प्रमुख महर्षि अंगिरा, यादव सेना स्तम्भित रह गयी। साक्षात देवताओं से यहाँ युद्ध करना था किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र ने शारङ्ग धनुष चढ़ा लिया था। उनके प्रथम प्रणाम सूचक आघात से ही महर्षि अंगिरा आहत होकर गिरे और मूर्च्छित हो गये। दूसरे सब अग्नि उन्हें उठाकर नगर में ले गये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

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