द्वारिकाधीश 19

4श्री द्वारिकाधीश
भाग- 195

अग्निगणों के पराजित होकर नगर में चले जाने पर भगवान शंकर ने वाणासुर को सम्मति दी- 'सर्वेश्वरेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र ससैन्य आ गये हैं। अनिरुद्ध उनके पौत्र हैं। उन्हें पुत्री देकर श्रीकृष्ण का स्वागत करने में तुम्हारा हित है।'

'श्रीकृष्ण सर्वेश्वर हैं?'
वाणासुर बोला- 'इसका अर्थ है कि वे आपसे अभिन्न हैं। उग्रसेन के अश्वमेध में विघ्न न पड़े इसलिए मैंने उस समय आपकी आज्ञा से अश्व दे दिया था किन्तु आपने स्वयं मुझे अपने समान से युद्ध करने का आश्वासन दिया है। मैं इस प्राप्त सुयोग्य का त्याग नहीं करूँगा। आप मेरी इस युद्ध में सहायता करें।'

यादव वाहिनी ने नगर को चारों ओर से घेरकर आक्रमण प्रारंभ कर दिया था। वे वाह्योपवन, पुष्पोद्यान को रौंदते नगर के प्राकार और गोपुरों को ध्वस्त करने में लग गये थे। यह देखकर वाणासुर को अत्यधिक क्रोध आया। उसके समीप भी बारह अक्षौहिणी सेना थी। अपनी समस्त सेना के साथ वह नगर से बाहर निकला। जिसमें सिंह जुते थे ऐसे रथ पर बैठे भगवान शंकर उसकी सहायता के लिए अपने पुत्र स्वामी कार्तिक तथा गणों के साथ युद्धभूमि में उतरे।

दोनों ओर सेना की संख्या समान और महारथी भी प्रायः समान हो गये थे अतः एक-एक का अपने समान से यह अद्भुत संग्राम प्रारम्भ हो गया। भगवान शंकर का श्रीकृष्ण से, वाणासुर का सात्यकि से, सेनापति स्कन्द का प्रद्युम्न से, वाणासुर के मंत्री द्वय कुम्भाण्ड कुपकर्ण का श्रीबलराम से, बाण के पुत्र का साम्ब से युद्ध चलने लगा।

इतना अद्भुत युद्ध कि गगन में इन्द्रादि देवता, ऋषिगण ही नहीं। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी तक वाहनों, विमानों में बैठकर देखने आ गये। सब चकित, भयभीत थे कि 'इस युद्ध में क्या होगा?'

दोनों ओर अप्रमेय बल-पराक्रम, अजेय योद्धा और समस्त दिव्यास्त्र ऐसे में किसी क्षण कोई भी महाप्रलय उपस्थित कर देने में समर्थ था। देवता, जनः, तप आदि लोकों के ऋषिगण तथा ब्रह्मा जी भी केवल स्तुति कर सकते थे किसी के आवेश में आने पर और वे इसके लिए प्रस्तुत, सावधान थे।

भगवान शंकर के भूत, प्रमथ, यक्ष, पिशाच, डाकिनी, यातुधान, वेताल, विनायक, प्रेत, मातृकाएँ, कुष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस प्रभृत अनियन्त्रित और उपद्रवी थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने धनुष चढ़ाते ही पहिले इस सम्पूर्ण वर्ग को इतने बाण मारे कि ये सब भाग खड़े हुए। ये श्रीकृष्ण के नाम से भयभीत होकर भागने वाले उनके सम्मुख आ भी इसलिए सके थे कि उनके स्वामी भगवान भूतनाथ साथ थे।
अपने सब गण भगा दिये गये, यह देखकर भगवान पिनाकपाणि महेश्वर ने दिव्यास्त्रों की झड़ी लगा दी किन्तु श्रीकृष्ण उनमें-से प्रत्येक को निवारण करते चले गये। आग्नेयास्त्र को पार्जन्य ने, वायव्यकों पर्वतास्त्र ने शान्त किया और ब्रह्मास्त्र का उत्तर ब्रह्मास्त्र से देकर श्रीकृष्ण ने दोनों ओर से प्रयुक्त ब्रह्मास्त्रों का प्रत्याकर्षण कर लिया।

अब भगवान प्रलयंकर ने अपना अमोघ पाशुपतास्त्र उठाया। सृष्टिकर्ता, सुर तथा ऋषिगण काँप उठे। वे स्तुति करें, पुकारें इसके पूर्व ही श्रीकृष्णचन्द्र के शारंग धनुष से जृम्भणास्त्र छूट गया। पाशुपत का प्रयोग करने से पूर्व ही भगवान पशुपति जृम्भणास्त्र के प्रभाव से निद्रित हो गये। वे जम्हाइयाँ लेते सो गये रथ में।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 196

सृष्टि में अपने ढंग का यह प्रथम संग्राम था। शंकर और श्रीकृष्ण दोनों सपरिवार युद्ध रत। दोनों अचित्य प्रभाव। दोनों ओर से अमोघ महिमा वाले दिव्यास्त्रों की झड़ी लगी रही और दोनों मुस्कुराते रहे। दोनों में से किसी की भौहों पर बल नहीं पड़ा था, न मुख पर रोष का आवेश झलका था। दोनों में से किसी के श्रीविग्रह पर किंचित भी आघात नहीं। जैसे दो मित्र हँसते हुए परस्पर पुष्प फेंकते रहे हों एक-दूसरे पर और शंकर जी के पाशुपत उठाने पर श्रीकृष्ण वैसे ही हँसते रहे थे तथा उनको निद्रामग्न करके भी ऐसे ही हँस रहे थे जैसे कि एक मित्र को खेल में छकाकर हँस रहे हों।

युद्ध में दूसरों की स्थिति ऐसी नहीं थी। प्रद्युम्न ने देव सेनापति के शरीर को अपने शरों से रक्त का निर्झर बना दिया और वे मयूरवाहन विवश होकर युद्धभूमि से भाग गये। श्रीसंकर्षण के मुशल की मार खाकर वाणासुर के दोनों मंत्री कुम्भाण्ड और कूपकर्ण मूर्च्छित पड़े थे।

बलराम जी का सिंहमुख हल तथा मुशल और प्रद्युम्न के बाण अब शत्रु-सेना का संहार कर ही रहे थे, श्रीकृष्णचन्द्र का शारंग धनुष भी मृत्यु-वर्षा करने लगा। वाणासुर की सेना का अधिकांश समाप्त हो गया। बचे सैनिक भागकर नगर में जा छिपे।
सहस्रबाहु वाणासुर पाँच सौ धनुष चढ़ायें बाण-वर्षा कर रहा था किन्तु सात्यकि के हस्त लाघव की तुलना नहीं थी। इस अजेय यादव योधा ने अकेले वाणासुर को रोक रखा था। अब अपनी सेना का भयानक संहार देखकर वाणासुर ने सात्यकि को छोड़कर अपना रथ श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख उपस्थित करने की आज्ञा सारथि को दी।

वाणासुर ने अपने प्रत्येक धनुष पर दो-दो बाण सन्धान किये किन्तु उसका रोष तथा उद्योग व्यर्थ था। श्रीकृष्णचन्द्रइस समय क्रीड़ा की मनोवृत्ति में थे। भगवान शंकर के साथ क्रीड़ा का वेग अभी शांत नहीं हुआ था। उसी प्रवाह में उन्होंने वाणासुर के सब बाण काट फेंके, उसके सब धनुष काट दिये और उसके रथ के अश्व तथा सारथि को भी मार दिया। शस्त्रहीन वाणसुर रथ से कूदकर अपने नगर के ओर भागा। श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर अधरों से शंख लगाया और पांचजन्य विजय-घोष करता गूँजने लगा। भगवती उमा ने वाणासुर को पुत्र स्वीकार किया था। वे नन्दात्मजा महामाया कोटरा नाम से बाण के वात्सल्यवश शोणितपुर में ही रहती थीं। अब उनका यह सहस्रबाहु पुत्र संकट में पड़ा और शस्त्रहीन भागा तो माता का वात्सल्य व्याकुल हो उठा। वे मुक्त केशानग्ना केवल अपने सुदीर्घ केशों को आगे करके अंग पर केशावरण डाले दौड़ी आयीं युद्धभूमि में पुत्र की रक्षा करने और वाणासुर को पीछे करके श्रीकृष्ण के सम्मुख खड़ी हो गयीं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 197

श्रीकृष्णचन्द्र ने धनुष रख दिया था और शंख अधरों से लगा लिया था। वे सम्मुख न देखकर अपने दल की ओर देखकर समस्त विजयी यादव-वाहिनी को उत्साहित करते हुए शंखनाद कर रहे थे।

भगवान पुरारि तन्द्राग्रस्त हो गये। वाणासुर नगर में भाग गया और उसकी रक्षा के लिए माता कोटरा नग्ना, मुक्त शिरोरुहा दौड़ती युद्धस्थल में आ खड़ी हुई, इससे माहेश्वर ज्वर क्रोध से उन्मत्त होकर दौड़ा। अन्ततः वह भी इन जगदम्बा का ही पुत्र है। इनकी इस व्याकुलता में वह शान्त कैसे रह सकता है। वह आगे आया तो देवी कोटरा दुर्ग में लौट गयीं।

तीन मस्तक, तीन चरण, षड्भुज, नौनेत्र वाला माहेश्वर ज्वर, वह उर्ध्वरोमा त्रिभुवन भंयकर मुट्ठी भर-भरकर भस्म फेंकता पूरे वेग से दौड़ता आया। जिसके शरीर पर उसके द्वारा फेंकी भस्म का एक कण भी गिरा उसके शरीर में असह्य दाह उठने लगी। वह मूर्च्छित होकर गिरा।

यादव-वाहिनी में हा-हाकर मच गया। सब चीत्कार करने लगे। सब पुकारने लगे- स्वामी! रक्षा करो।'

श्रीकृष्णचन्द्र हँसे। उन्होंने संकेत किया और सहसा वैसा ही त्रिशिर, त्रिपाद, षड्भुज, नौ नेत्र दूसरा पुरुष प्रकट हुआ। यह अत्यन्त स्थूलकाय वैष्णव शीतज्वर था। इसके निःश्वास से हिम की वर्षा हो रही थी। इसके प्रकट होते ही सैनिक स्वस्थ हो गये। माहेश्वर ज्वर को इसने पटक दिया और उसके ऊपर चढ़ बैठा। माहेश्वर- ज्वर विषमज्वर की ज्वाला शान्त हो गयी। वह चीत्कार करने लगा- 'जनार्दन! भक्तवत्सल!! शरणागतत्राता!!! यह आपका शीतज्वर मुझे मार ही देना चाहता है। मुझे बचाइये! मेरी रक्षा कीजिये। मेरा अस्तित्व भी आपकी सृष्टि का ही अंश है, आवश्यक अङ्ग है स्वामी। मुझे शरण दीजिये।'

श्रीकृष्णचन्द्र ने नेत्र से संकेत किया और शीत ज्वर उस माहेश्वर ज्वर के वक्ष से उठकर अन्तर्हित हो गया। माहेश्वर ज्वर उठा। स्वयं उसे दीर्घश्वास चल रहा था, भुवन को कम्पित करने वाले उसका शरीर भय से काँप रहा था। दोनों हाथ जोड़े वह बोलने में असमर्थ हो रहा था। वह अब भी इधर-उधर देख रहा था कि वह मोटा ज्वर कहीं फिर उसे पटक न दे।

'डरो मत!' श्रीकृष्णचन्द्र ने अभय दिया- 'अब तुम्हें मेरे ज्वर से भय नहीं है किन्तु अब जो इस प्रसंग को स्मरण करें, उनके यहाँ से तुम चले जाया करो।' बेचारा ज्वर वहाँ से तत्काल भागकर अदृश्य हो गया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 198

वाणासुर को अवसर मिल गया था। वह चाहता तो अब भी युद्ध समाप्त हो सकता था किन्तु उसका युद्धोन्माद अभी शान्त नहीं हुआ था। वह फिर रथ में बैठकर नगर से बाहर युद्धभूमि में आया।

इस बार वाणासुर अपने सब दिव्य अस्त्र-शस्त्र से सज्जित होकर आया था। उसके रथ में चारों ओर सूर्य, चन्द्र, तारकादि के चिह्न बने थे। महामंत्री कुम्भाण्ड मूर्च्छा दूर होने पर नगर में चले गये। वे इस बार बाण का सारथ्य कर रहे थे। कुमार कार्तिक फिर वाणासुर के स्नेहवश युद्ध में आ गये। इस बार उन्होंने अपनी अमोघ शक्ति उठायी तो श्रीकृष्ण ने हुंकार करके ही उसे शांत कर दिया। कुमार संकट में पड़ गये किन्तु देवी कोटरा ने उन्हें डाँटा- 'वाण को तो युद्ध लिप्सा है। तू क्यों फिर यहाँ आया है? इन सर्वेश्वर के सम्मुख किसी अस्त्र की अमोघता और किसी का अमरत्व नहीं टिकता, यह तुझे नहीं दीखता?'

माता की फटकार पाकर स्कन्द युद्ध भूमि से विदा हो गये।
वाणासुर ने इस बार द्विगुण उत्साह में दिव्यास्त्र प्रयोग द्वारा ही युद्ध प्रारम्भ किया किन्तु श्रीकृष्ण ने चक्र उठा लिया। असुर के अस्त्र चक्र की ज्वाला में भस्म हो गये। चक्र उसकी भुजाओं को ऐसे काटने लगा जैसे वृक्ष की शाखाएँ काटी जा रहीं हों। 'आप कब तक सोते रहेंगे?' भगवती पार्वती ने अपने रथ में सो रहे स्वामी को व्याकुल होकर झकझोरकर जगाया- 'सुदर्शन चक्र वाणासुर की भुजायें काट रहा है।' 'तुम जानती हो कि मैं भी उस चक्र का कोई प्रतिकार नहीं कर सकता। आलस्य अभी गया नहीं था। भगवान पशुपति ने कुछ अलस स्वर में कह दिया- 'उसका उपाय है कि चक्रपाणि से ही पुकार करो।'

माता अपने पुत्र का संकट सह नहीं सकती। देवी वहाँ से दौड़ी और श्रीकृष्ण के सम्मुख जाकर पुकारा उन्होंने- 'आप मुझे जीवित पुत्र की जननी बनाइये।'

'आप निर्भय रहें। श्रीकृष्णचन्द्र ने बहुत गंभीर होकर कहा- 'मैं भगवान शिव का अपमान सह नहीं सकता। जिन सहस्र भुजाओं के गर्व में आकर यह उन देव से ही युद्ध याचना की धृष्टता करने गया था उन भुजाओं को मैं नहीं छोडूँगा। यह अब मेरी ही भाँति चतुर्भुज होकर रहेगा और अजर-अमर आप दोनों का नित्य पार्षद होगा।'

भुजाएँ कटती जा रही थीं किन्तु बाण गर्जना करता शेष भुजाओं से त्रिशूल, शक्ति आदि उठाये ही जा रहा था। चक्र तो प्रतिकार के प्रयत्न से अधिक प्रचण्ड होता है। चार भुजाएँ रह गयीं और चक्र की ज्वाला से दग्ध वाणासुर मूर्च्छित होकर गिर पड़ा।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 199

अब भगवान आशुतोष कुमार कार्तिक को लिये आये और उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र की स्तुति करके कहा- 'आप सर्वेश्वर, सर्व समर्थ हो किन्तु मैं भी आपका ही हूँ। इस स्कन्ध के समान ही यह वाणासुर भी मेरा पुत्र है। मैंने इसे अभय दिया है। आपको इस पर अनुग्रह करना चाहिए।

भगवान शंकर ने मूर्च्छित वाणासुर को उठाकर श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख डाल दिया।
श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'जो आपका प्रिय है, यह मुझे अत्यन्त प्रिय है। वैसे मैं भी इसका वध नहीं कर सकता क्योंकि दैत्यराज प्रहलाद को वरदान दे दिया है कि उनके वंशजों को नहीं मारूँगा। देवी अम्बा को मैंने अभी ही इसे न मारने का आश्वासन दिया है। इसने आपका अपमान किया था और आपने इसके अभिमान को नष्ट करने की भविष्यवाणी की थी। मैंने तो आपके वचनों को ही सार्थक किया है। अब इसकी ये चार भुजाएँ ही रहेंगी।'

श्रीकृष्णचन्द्र ने भगवान शंकर को प्रणाम किया और अनिरुद्ध की खोज में बाण के नगर में प्रविष्ट हुए।

वाणासुर की मूर्छा दूर होते ही नन्दीश्वर ने उसे उठाया और भगवान शंकर के सम्मुख ले जाकर खड़ा कर दिया। वह रक्त में लथपथ उन महेश्वर के सम्मुख नृत्य करने लगा।

इस अवस्था में भी उसे नृत्य करते देखकर वे धूर्जटि सुप्रसन्न बोले- 'वत्स! वरदान माँगो।'

वाणासुर- 'मैं अजर-अमर हो जाऊँ।'

शिव- 'यह वरदान तो तुम्हें श्रीकृष्ण ही दे चुके हैं, मुझसे कुछ और माँगो।'

वाण- 'अपने सम्मुख नृत्य करने वालों पर आप संतुष्ट हो जाया करें।'

शिव- 'पुत्र! तेरे मन में इस समय भी लोक-मंगल-कामना है, अतः मैं उसे स्वीकार करता हूँ। तेरे शरीर पर हुए चक्र के घाव अब दूर हो जायँ। अब तू मेरा नित्य पार्षद हुआ। अब से तू महाकाल नामक प्रमुख प्रमथगण हुआ।'

देवर्षि नारद के द्वारा मार्ग-दर्शन कराया गया था। श्रीकृष्णचन्द्र गरुड़ के साथ अनिरुद्ध के समीप कन्यातःपुर में पहुँच चुके थे। गरुड़ को देखते ही नाग-पाश के नाग भाग गये। अनिरुद्ध ने पिंजडे़ से निकलकर चरण-वन्दना की। उषा ने भी आकर मस्तक झुकाया।

भगवान शंकर वाणासुर को लेकर नगर में आये। बाण ने श्रीकृष्णचन्द्र का स्वागत किया। अनिरुद्ध-उषा को उपहार में उसने एक अक्षौहिणी सेना प्रदान की, धन रत्नादि के अतिरिक्त।

वाणासुर को अब शिवगण होकर कैलास पर रहना था। उसका वह राज्य श्रीकृष्णचन्द्र ने कुम्भाण्ड को दे दिया। कुम्भाण्ड ने अपनी पुत्री चित्रलेखा का विवाह साम्ब से कर दिया। भगवान शिव बाण को लेकर कैलास चले गये।
(साभार श्री द्वारिकाधाश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 200

श्रीकृष्णचन्द्र ने दिगम्बर होकर महर्षि दुर्वासा जी की आज्ञा से उनका उच्छिष्ट पायस अपने सर्वाङ्ग में मल लिया था। आपाद मस्तक खीर लगाये श्रीद्वारिकाधीश का वह स्वरूप देखकर महारानी रुक्मिणी को हँसी आ गयी।

महर्षि दुर्वासा ने देख लिया और क्रोधपूर्वक बोले- 'तुम ब्राह्मण के प्रसाद में स्नात अपने स्वामी को देखकर गौरव का अनुभव नहीं करतीं, हँसती हो? मेरे प्रसाद का परिहास करती हो? तुम्हें श्रीकृष्ण की पट्ट-महिषी होने का अभिमान हो गया है? जिस प्रसाद को ये जनार्दन इतनी श्रद्धा से अपने संपूर्ण श्रीअंग में धारण किये हैं, उसी की तुम अवेहलना करती हो? तुम अपने को इनके उपयुक्त सहधर्मिणी सिद्ध नहीं कर सकीं, अतः तुमको इनसे वियुक्त होकर रहना पड़ेगा।'

महर्षि का शाप सुनते ही महारानी तो चीत्कार करके भूमि पर गिरी और मूर्च्छित हो गयी। श्रीकृष्णचन्द्र ने हाथ जोड़कर महर्षि के सम्मुख मस्तक झुकाया और प्रार्थना की- 'इनका अपराध आप क्षमा करें। इन्होंने प्रसाद का परिहास नहीं किया मुझे नग्न देखकर इन्हें हँसी आयी।'

महर्षि दुर्वासा शिवांश संभव हैं। जहाँ वे क्रोध की मूर्ति हैं, तनिक से हेतु से उन्हें प्रचण्ड क्रोध आता है और किसी को भी शाप दे देते हैं वहीं वे आशुतोष भी हैं। उनका क्रोध क्षण स्थायी होता है। उनके संतुष्ट होने में भी विलम्ब नहीं होता। वे किसी का कोई भी अपराध देर तक स्मरण रखना जानते ही नहीं।

महर्षि शान्त स्वर में बोले- 'केशव! तुम जानते हो कि सृष्टि में अब तक मेरे शाप से किसी का अमंगल हुआ है?'

श्रीकृष्ण ने श्रद्धा-भरति कण्ठ से स्वीकार किया- 'आपके शाप ने सदा प्रशप्त को वह अभ्युदय प्रदान किया है जो उसके अपने साधन से, उद्योग से, अधिकार से उसे कभी प्राप्त नहीं हो सकता था। यह तो आपका ही महामांगल्यशील है कि क्रोध का बहाना बनाकर स्वयं अपयश वरण करके सम्मुख आये प्राणी को अपने कठिनतम तप का प्रसाद वितरण करते विचरण करते हैं।'

महर्षि ने बतलाया- 'अब जो कुछ द्वारिका में होने वाला है उसे तुम्हारी इन नित्य महिषी का सुकुमार हृदय सहन नहीं कर सकेगा। तुम इन्हें केवल यह बतला देना सचेत होने पर कि यदि इन्हें विवश होकर तुम्हारा वियोग स्वीकार करना पड़ा तो वह द्वादश वार्षिक होगा और यदि स्वेच्छा से उसे इन्होंने स्वीकार कर लिया तो वह केवल द्वादश मास के लिए ही होगा। अब तुम इन्हें सँभालों और स्नान करो। मैं जा रहा हूँ।'

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 201

महर्षि का चातुर्मास्य पूर्ण हो चुका था। वे उसी समय द्वारिका से चले गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने महारानी को सचेत किया और स्नान से पूर्व केवल इतना सुनाकर आश्वस्त किया- 'महर्षि शपानुग्रह करके गये हैं।'

महारानी रुक्मिणी के लिए अपने इन आराध्य से वियुक्त होकर रहने की कल्पना भी असह्य थी किन्तु अब उपाय कोई नहीं था। श्रीद्वारिकाधीश ने नगर से बाहर उनके लिए उत्तम भवन का निर्माण कराया। उस भवन को सब प्रकार सज्जित किया गया। महारानी के अपने इस सदन से भी अधिक सुख-सुविधादि की व्यवस्था वहाँ की गयी।

श्रीद्वारिकाधीश ने आश्वासन दिया- 'तुम्हारे पुत्रों में-से प्रत्येक वहाँ प्रतिदिन तुम्हारी चरण-वन्दना करने जायेंगे ही। तुम्हारी पुत्र-वधुओं में-से कोई न कोई सदा तुम्हारे समीप रहा करेंगी। मैं केवल एक वर्ष वहाँ नहीं आऊँगा किन्तु तुम द्वारिका में ही तो हो। मेरा समाचार तुम्हें प्रतिदिन मिलता रहेगा। मैं स्वयं उद्धव को, सात्यकि को तुम्हारे समीप भेजता रहूँगा। वैसे भी तो मैं हस्तिनापुर या अन्यत्र जाता हूँ और लौटने में पर्याप्त विलम्ब होता है।'

महारानी रुक्मिणी ने उस भवन को वहाँ जाने से पूर्व श्रीकृष्णचन्द्र के बहुत आग्रह करने पर भी नहीं देखा। वहाँ क्या-क्या सामग्री सजायी गयी, इस चर्चा में उन्होंने कोई रुचि नहीं ली। उन्होंने वहाँ जाते समय दास-दासियों में-से अधिकांश को नगर में ही छोड़ दिया।

'आप मुझे व्रत-तप करने की आज्ञा दे दो।' उस नगर में बाहर के भवन में जाने से पूर्व महारानी अपने स्वामी के चरणों पर गिरकर क्रन्दन कर रो उठीं- 'मैं आपसे वियुक्त होकर केवल आपकी कृपा-प्राप्ति के लिए तप ही कर सकती हूँ।'

श्रीकृष्णचन्द्र ने महारानी को उठाया। उनके अश्रु पोंछे। उनको आश्वासन दिया- 'तुम जानती हो और सम्पूर्ण विश्व जानता है कि तुम्हारा स्थान मेरे हृदय में है। यह श्रीवत्स तुम्हारा निवास है मेरे हृदय पर। तुमको जैसे रहने में प्रसन्नता हो, उसमें मेरी अनुमति है।'

सृष्टि का संपूर्ण वैभव, समस्त सुख-संपदा, सारा ऐश्वर्य जिनकी कृपा-कटाक्ष का विलास है। उन महालक्ष्मी श्रीकृष्णपट्ट-महिषी महारानी रुक्मिणी ने सब आभूषण त्याग दिये। सब सुख-भोग विदा कर दिये। भवन की सजावट तथा सामग्री हटवा दी। वे चटाई बिछाकर भूमि शयन करतीं तथा दिन में केवल एक बार किंचित गो दुग्ध लेती थीं। उनके केश जटा बन गये और शरीर तपस्या से कृश हो गया। उन बल्कल धारिणी को देखकर चन्द्र ज्योत्स्ना रेखा का ही स्मरण आ सकता था।

पृथ्वी पर महारानी का अपने आराध्य से यह अन्तिम मिलन था, जब वे राजसदन से इस भवन में आकर तपस्विनी बन गयीं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 202

सूर्य-ग्रहण हो रहा था और इस वर्ष होने वाला सूर्य-ग्रहण भी वैशाख की अमावस्या को ही हो रहा था किन्तु साधारण ग्रहण था। वैसा ग्रहण नहीं जैसा कल्प क्षय के समय होता है अथवा उस समय हुआ था जिस सयम सब नरेश कुरुक्षेत्र के समन्तक पंचक क्षेत्र पहुँचे थे।

सूर्य-ग्रहण सृष्टि के लिए कोई असाधारण घटना नहीं है। प्रतिवर्ष न सही किन्तु व्यक्ति के जीवन में तो कई बार सूर्य-ग्रहण पड़ता ही है। कलि में सूर्य, चन्द्र-ग्रहण भारतवर्ष अधिक होते हैं। दूसरे युगों में कम होते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र के अवतार काल में होने वाला यह दूसरा ग्रहण था। उनको धरा पर अवतीर्ण हुए लगभग एक सौ ग्यारह वर्ष हो चुके थ। व्रज को छोड़े पूरे सौ वर्ष बीत गये थे।

सूर्य-ग्रहण के स्नान का मुख्य स्थान तो कुरुक्षेत्र का सामन्तक पंचक ही है किन्तु देश के सब धार्मिक जन तो वहाँ प्रत्येक ग्रहण के समय नहीं पहुँच सकते। जब यात्रा पैदल या पशु-वाहनों द्वारा करनी थी तब और भी कठिन था वहाँ पहुँचना।

व्रज के लोगों की कोई अभिरुचि किसी विशेष तीर्थ में नहीं थी। वे श्रीकृष्णगतैक प्राण पावन जन उनको तीर्थ से, पुण्य से अथवा पुण्यों के फल से प्रयोजन नहीं था और न उन्होंने कभी परलोक की चिंता की। उनकी चिंता का विषय की एक मात्र यह था- 'उनके श्याम-बलराम प्रसन्न रहें।'

व्रज में व्रत, स्नान, दानादि धर्म सब होते थे और दूसरे सब स्थानों से अधिक होते थे किन्तु वहाँ प्रत्येक की एक ही कामना थी- 'उनका यह सब पुण्य फल प्राप्त करके श्रीकृष्ण सुखी रहें।'

श्रीव्रजराज ने बहुत पहिले ही पता लगाया कि ग्रहण स्नान करने श्रीद्वारिकाधीश कहाँ पधारेंगे। जब पता लगा कि द्वारिका समाज इस बार दूर यात्रा करने का विचार नहीं रखता, सब लोग कश्यपाश्रम सिद्धपुर में बिन्दु सरोवर में ग्रहण-स्नान करना चाहते है तो व्रज के लोगों की भला कुरुक्षेत्र से क्या लेना था?

वैसे भी महाभारत का युद्ध समाप्त हुए अभी बहुत वर्ष नहीं व्यतीत हुए थे। वहाँ सर्वत्र अस्थि-कङ्काल और भग्न अस्त्र-शस्त्र योजनों दूर तक फैले थे। वह क्षेत्र अभी भी यात्रा के योग्य नहीं था। अतः तीर्थ-यात्रियों ने इस बार के सूर्य-ग्रहण स्नान के लिए अपनी-अपनी सुविधा के क्षेत्र चुने थे। व्रज के लोगों को तो यात्रा ही इसलिए करनी थी कि इस प्रकार वे बलराम-श्रीकृष्ण से मिलने का अवसर पा सकते थे। अतः व्रजवासियों के छकड़े भी सिद्धाश्रम की यात्रा करने चले।

कुरुक्षेत्र में योजनों विस्तीर्ण स्थान है; किन्तु सिद्धाश्रम में इतना स्थान नहीं है। वहाँ विन्दुसर तो छोटा ही है। अवश्य ही सरस्वती में कुछ दूरी तक स्नान किया जा सकता है परन्तु सरस्वती में वहाँ जल सदा ही प्रायः थोड़ा रहता है।

सिद्धाश्रम में गोपों का समाज प्रायः ग्रहण के कुछ पूर्व पहुँचा। वे लोग ग्रहणस्पर्श स्नान करके सरस्वती में बिन्दुसर आ गये और पुरुषों ने ग्रहण का मध्य स्नान कर लिया। अब गोप बिन्दुसर के चारों ओर सशस्त्र खड़े हो गये जिससे नारियाँ सरोवर में स्नान कर सकें।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 203

द्वारिका के लोगों ने ग्रहण स्पर्श का स्नान किया सरस्वती में और वे बिन्दु सरोवर के समीप पहुँचे तो उन्हें गोपों ने बल-पूर्वक सरोवर के समीप जाने से रोक दिया।
द्वारिका के सैनिकों ने कहा- 'श्रीद्वारिकाधीश की महारानियाँ स्नान करेंगी। आप मार्ग दें।'

गोपों ने कह दिया- 'श्रीव्रजेश्वरी और श्रीवृषभानु-नन्दिनी अपनी सखियों के साथ स्नान कर रही हैं। उनके स्नान करके हट जाने पर ही और किसी को वहाँ प्रवेश प्राप्त हो सकता है।'

द्वारिका के लोगों को आश्चर्य हुआ। कुछ बुरा भी लगा किन्तु तीर्थ में आकर विवाद करना उचित नहीं था और जब उन्होंने बात श्रीकृष्ण तक पहुँचायी तो उन द्वारिकाधीश ने कह दिया- 'गोप मर्यादा की बात कहते हैं। जब तीर्थ एवं देवस्थान में स्थान सङ्कीर्ण हो तो बड़ों को प्रथम अवसर प्राप्त होना चाहिए। वे सब प्रकार हमसे श्रेष्ठ हैं।'

तीर्थ-स्नान हुआ और फिर तो मिलकर दोनों समाज दो रहे ही नहीं। इस बार श्रीकृष्णचन्द्र ने बाबा से, मैया से, श्रीवृषभानु जी से आग्रह किया और सबको साथ लेकर द्वारिका आये। बहुत कठिनाई से श्रीव्रजराज मैया यशोदा के साथ तथा श्रीवृषभानु जी पत्नी को लेकर कुछ दिन रहकर व्रज के लिए विदा हो सके किन्तु गोप सखा तथा श्रीराधा अपनी सखियों के साथ श्रीकृष्णचन्द्र के अतिशय आग्रह के कारण वहीं रह गयीं।

द्वारिका से कुछ दूरी पर श्रीकीर्तिकुमारी के लिए विश्वकर्मा ने दूसरा नगर ही बना दिया। गोप सखाओं का समाज वहीं अपने परिवार के साथ रहने लगा। श्रीबलराम तो उन लोगों के लिए सदा ही उनके मध्य थे। अब तो सबको लगता था कि दोनों भाई द्वारिका के मुख्य नगर और अपने सदनों में अतिथि के समान आते हैं। रहते तो वे गोपों के इस नवीन नगर में ही हैं।
वहाँ गोपियों के अङ्गराग, माल्यादि को विसर्जित करने के लिए जो कुण्ड बनाया गया था वही 'गोपी तालाब के नाम से प्रख्यात हुआ। उसमें प्राप्त होने वाला गोपीचन्दन गोपियों के श्रीअंग से उतरे निर्माल्य अंगराग का ही यह काल परिवर्तित मृत्ति का रूप है।'

महारानी रुक्मिणी, सत्यभामा जी प्रभृति प्रायः श्रीकीर्तिकुमारी के सदन पहुँचती थीं और उन्हें अपने यहाँ साग्रह ले आती थीं। एक दिन ऐसे ही मिलने के अवसर पर महारानी रुक्मिणी जी ने कहा- 'बहिन! तुम तो प्रेम की मूर्ति हो। श्रीद्वारिकाधीश के वियोग में इतने वर्ष तुम रह कैसे सकीं? यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो उनके पार्थक्य में एक दिन भी शरीर धारण करने की कल्पना नहीं कर सकती।'
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 204

इस उक्ति में कहीं अन्तर्मनन अपने प्रेम का गर्व है, कहीं अपने अतिशय प्रिय होने का अहङ्कार है, इसको महारानी ने नहीं समझा था और श्रीकीर्तिकुमारी की तो दृष्टि ही किसी के दोष पर नहीं जाती; किन्तु उन श्रीव्रजयुवराज्ञी के जो आराध्य हैं वे परम लीलामय हैं। वे न अपनों में गर्व की गन्ध सह पाते, न अपने भक्तों की संकेत से भी की गयी अवमानना उन्हें सह्य है।

श्रीवृषभानु-नन्दिनी ने सहज भाव से कहा- 'महारानी! आप उनकी पट्टमहिषी हो। मुझ ग्राम्या गोप-कन्या की आपके सौभाग्य से क्या तुलना? किन्तु वियोग के बिना परम-प्रेम के परिपाक का रसास्वादन संभव नहीं है। एक दिन की अवधि अत्यंत अल्प होती है। वे कृपा करें तो एक वर्ष के लिए आपको इस महाभाव की पूर्ति का वरदान मिल सकता है।'

श्रीकृष्णचन्द्र की उन अभिन्ना आह्लादिनी महाशक्ति का संकल्प सत्य हुआ, महर्षि दुर्वासा के माध्यम से उनके शाप के, रूप में और देवी रुक्मिणी को पति-वियोग स्वेच्छा से स्वीकार करके द्वारिका से बाहर तपस्विनी जीवन अपनाना पड़ा।

महारानी रुक्मिणी ने महर्षि दुर्वासा के शाप को स्वेच्छा से स्वीकार किया और जब नगर से बाहर निर्वासित जीवन व्यतीत करने चली गयीं तो श्रीकृष्णचन्द्र ने श्रीरासेश्वरी से एक दिन एकान्त में कहा- 'अब व्रजधरा धन्य होनी चाहिए। व्रज के लोगों के उपयुक्त यह भूमि नहीं है। प्रेम का पूर्ण परिपाक वृन्दावन की दिव्यभूमि को छोड़कर सम्भव नहीं।

व्रज-भूमि त्यागकर श्रीव्रजराजकुमार कहीं एक पद भी नहीं जाते हैं। श्रीवृषभानु-नन्दिनी ने भी यह लोकदृष्टि में ही लीला की थी। वे और उनसे नित्य अभिन्ना उनकी अङ्गभूता सखियाँ वृजभूमि से बाहर कहाँ जाती हैं।

श्रीवृषभानु बाबा के बराबर संदेश आ रहे थे कि उनकी लली का उसको माता देखना चाहती हैं। इस संदेश का समुचित उत्तर संतोषदायक उत्तर उन्हें मिलना था। उनकी प्राणाधिक प्रिय पुत्री अपनी सखियों के साथ गोपकुमारों के संरक्षण में उनके सदन आयी और आये उसके साथ श्रीबलराम, श्रीकृष्ण यह व्रज के लोगों की दृष्टि में हुई लीला है।'

लोक दृष्टि में हुई लीला भी एक है और वह इससे सर्वथा भिन्न है। श्रीकृष्णचन्द्र की वाणी का गूढ़ रहस्य श्रीराधा ने ग्रहण किया, उन्होंने समझ लिया कि धन्य धरा के त्याग का समय अब उपस्थित हो गया है।

गोप और गोपियों की जो सन्तति धरा पर रहने योग्य थी उसे श्रीद्वारिकाधीश ने भूमि, ग्राम आदि प्रदान किये। उनके वंश धर अब भी आनर्तदश[1] में बसे हुए है। वे पराक्रमी हैं, सरल हैं।

श्रीराधा तथा उनकी सहेलियों ने अपने अंगराग विसर्जन करने वाले सरोवर में क्रीड़ा-पूर्वक प्रवेश किया और सहसा उनका तिरोभाव हो गया। कहा जाता है कि गोपी-तालाब में उनके अंशोही गोमती चक्र शिलाओं का प्रादुर्भाव हुआ। उनके समन्वित ही शालिग्राम का अर्चन अब भी संपूर्ण माना जाता है।
(साभार श्री द्वारिकाधीशसे)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 205

लीलामय की लीला- श्रीकृष्णचन्द्र के कुमार साम्ब, प्रद्युम्न, गद, भानु आदि द्वारिका से निकले। द्वारिका में श्रीकृष्णचन्द्र की उपस्थिति तथा कल्पवृक्ष के प्रभाव से किसी के शरीर में वार्धक्य नहीं आता था और इसलिए श्रीवसुदेव जी के पिता शूरसेन जी, महाराज उग्रसेन भी युवा की भाँति सशक्त, स्वस्थ थे। यह दूसरी बात है कि श्रीकृष्णचन्द्र के पुत्र बालक नहीं थे। इनमें से अधिकांश के पुत्रों के भी पुत्र हो चुके थे। प्रद्युम्न के पौत्र वज्रनाभ तो अब अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा भी प्राप्त कर चुके थे।

उस समय द्वारिका के समीप पिण्डारक तीर्थ में महर्षिगण आ गये थे। उनमें से विश्व प्रसिद्ध, सुरासुर पूजित अनेक महर्षि थे। सृष्टि करने में समर्थ विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, ब्रह्मपुत्र भृगु और अँगिरा, प्रजापति कश्यप, वामदेव, त्रिदेवों को पुत्रत्व देने वाले अत्रि, ब्रह्मर्षि वशिष्ठ तथा देवर्षि नारद जैसे त्रिभुवन विख्यात महर्षिगणों का यह समूह उस क्षेत्र में अकस्मात तीर्थ स्नान के लिए एकत्र हो गया और जब ऋषि-मुनि या साधु-सन्त एकत्र होंगे तो वहाँ भगवच्चर्या, तत्त्व-निरूपण अथवा धर्म व्याख्या ही परस्पर होगी। सत्संग प्रारम्भ होने पर फिर जिन्हें समय का बन्धन नहीं, सृष्टि में कहीं कोई प्रयोजन नहीं वे शीघ्रता क्यों करेंगे। ऋषिगण स्नानादि करके वृक्षों की छाया में बैठ गये थे और परस्पर सत्संग प्रारम्भ हो गया था।

यदुकुल के कुमारों के लिए कोई कार्य नहीं था। प्रजा के पालन, रक्षण तथा निरीक्षण का कार्य श्रीबलराम, श्रीकृष्ण करते ही थे। यादव महासभा सुधर्मा में बैठना इनके लिए संकोच में डालने वाली बात थी क्योंकि वहाँ पिता-पितामह आदि गुरुजन उपस्थित रहते थे। अतः कुमारों का अधिकांश समय क्रीड़ा-विनोद में ही व्यतीत होता था। वे अश्व-क्रीड़ा, कन्दुक-क्रीड़ा आदि के लिए प्रायः नगर से बाहर निकल जाया करते थे।

उस दिन भी यादव कुमार नगर से बाहर क्रीड़ा के लिए ही निकले थे और इसी क्रम में पिण्डारक क्षेत्र में पहुँच गये थे। दूर से उन्होंने वहाँ महर्षियों को बैठे देख लिया था।

बालक हो या वृद्ध, अनेक लोग जब लगभग एक आयु के एकत्र हो जाते हैं और उनमें परस्पर मैत्री होती है तो परिहास, विनोद क्रीड़ा सूझती ही है और वे युवक या तरुण हो तब तो पूछना ही क्या? यादव कुमारों ने महर्षिगणों को देखा। उनमें-से अनेक इनके जाने-पहिचाने थे।
किसी ने कहा- 'सौभाग्य से ये समीप हैं, हम सब दर्शन कर लें। प्रणाम कर आवें।'

एक ने प्रश्न उठाया- 'हम उनसे पूछेंगे क्या?'

ऋषि-मुनि मिल जायें तो उनसे कुछ पूछना चाहिए, यह बात सबके मन में अकारण नहीं आ गयी। यह परम्परा उन्होंने बार-बार द्वारिका में देखी थी। यह एक शिष्ट परम्परा है कि अपने से अधिक विद्वान, अनुभवी प्राप्त हो जायँ और प्रश्न करने के लिए अवसर हो तो कुछ पूछना चाहिए। यह प्रश्न करना जहाँ अपने लिए ज्ञान अनुभव का दाता है, वहीं विद्वान अनुभवी की विद्या तथा अनुभव का सत्कार भी है। इससे वह सम्मानित होता है। द्वारिका में ऋषियों के आने पर वसुदेव जी, महाराज उग्रसेन तथा स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र प्रदानकर्ता बन जाया करते थे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:श्री द्वारिकाधीश
भाग- 206

प्रश्न जिज्ञासा-पूर्वक कुछ जानने के लिए, श्रद्धा, विनय सहित किया जाना चाहिए। विवाद के लिए अथवा उत्तरदाता की परीक्षा के लिए प्रश्न करना अशिष्टता तो है ही, अवमानना भी है। यह बात उस समय उन यादव कुमारों के व्यास में नहीं आयी।

उनको अर्थ, धर्म, काम के क्षेत्र में कुछ अप्राप्य नहीं था। श्रीकृष्ण के स्वजनों के मोक्ष की क्या चिंता? सिर पर श्रीसंकर्षण तथा श्रीद्वारिकाधीश जैसे संरक्षक रहते थे, धर्म अथवा तत्त्वज्ञान में क्यों सिर खपावें? यह सब वृद्धों के लिए उचित है, यह मानकर वे निश्चिन्त क्रीड़ा-विनोद में लगे थे। फलतः उनके चित्त में कोई जिज्ञासा नहीं थी ऋषियों से पूछने योग्य कोई प्रश्न उन्हें सूझता ही नहीं था और कुछ पूछना तो चाहिए। समीप ऋषि -मुनि हों तो उनके दर्शन, उन्हें प्रणाम करना ही चाहिए और जब उनके समीप जायेंगे तो कुछ पूछना भी चाहिए।

‘ऋषिगण सर्वज्ञ होते हैं।’ एक ने सुझाव दिया -‘क्यों न कोई प्रश्न गढ़ लिया जाय।’

अब प्रश्न गढ़ने की बारी आई तो झट यह सम्मति स्वीकृत हो गयी कि साम्ब को स्त्री-वेश में सजा दिया जाय। साम्ब अतिशय सुन्दर थे ही। उनके उत्तरीय को साड़ी के ढंग से पहिनने में क्या कठिनाई थी। उनके पेट पर कुछ उत्तरीय समेटकर, गोल करके बाँध दिये गये। अब उन्हें लेकर वे लोग महर्षियों के समीप गये। सबने वहाँ जाकर भूमि में मस्तक रखकर प्रणाम किया किन्तु विनय, श्रद्धा के स्थान पर सबके मुखों पर कौतुक का हास्य भाव था। वे कठिनाई से अपनी हँसी दबाये, कृत्रिम रूप से गंभीर बने थे।

साम्ब ने घूँघट निकाल लिया था और उन्हें बोलना नहीं है, यह पहिले ही निश्चय हो गया था। युवक तथा तरुण यह समझ ही नहीं पाते थे कि वृद्धों की अनुभवी आँखें यह सब सहज ही भाँप लेती हैं जिसे वे अत्यन्त गुप्त रहस्य रखना चाहते हैं।

इतने अधिक तरुणों का समूह घिरकर इकट्ठा आ गया और प्रणाम करके समीप खड़ा हो गया तो महर्षियों की दृष्टि उठी इनकी ओर। वे लोग कुछ कानाफूसी में लगे थे। एक दूसरे को ठेल रहे थे कि वह पूछे। यह भी स्पष्ट था कि वे अपने में से ही किसी को साड़ी की भाँति पुरुष का ही उत्तरीय पहिना लाये हैं।

ऋषियों की दृष्टि उठी तो एक ने कहा -‘यह अन्तर्वत्नी है और बहुत उत्सुक है कि इसके पुत्र हो। आप सर्वज्ञ हैं। इसे स्वयं पूछने में लज्जा लग रही है किन्तु जानना चाहती है कि इसे क्या सन्तान होगी?’ सभी बातें असंगत थीं। देवर्षि नारद जो प्रायः द्वारिका में आते ही रहते थे और दुर्वासा जी श्रीकृष्णचन्द के पुत्रों को ही नहीं पहिचानेंगे? इतने तरुणों के मध्य कोई अकेली युवती द्वारिका से बाहर पैदल आवेगी केवल यह प्रश्न पूछने?
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 207

श्री द्वारिकाधीश के पुत्र जिसे इस प्रकार ले आवें, उस सौभाग्यवती के करों में कंकण, चूड़ी तक नहीं? लेकिन ऋषियों को इस सब निरीक्षण की आवश्यकता नहीं थी। उन्हें कुमारों की इस धृष्टता पर हँसी आ जाती, यही स्वाभाविक था, किन्तु वे सर्वज्ञ यहाँ आये ही थे उसकी प्रेरणा से जो समस्कीत सृष्टि का संचालन अपने संकल्प से करता रहता है और अब द्वारिका में बैठा इस लीला के उपसंहार का आयोजन चाहता है। उसकी प्रेरणा ही यहाँ इन कुमारों से यह अविनय करा रही थी और उसकी इच्छा ऋषियों से भी कुछ कराने की थी तो उसकी इच्छा पूर्ण हो।

ब्रह्मण्यदेव, धर्मरक्षा के लिए अवतीर्ण श्रीकृष्णचन्द्र के कुमार ही इतनी धृष्टता, इतनी अविनय अपना लें कि लोक विश्रुत महर्षियों की इस प्रकार वंचना करें?’ यह सर्वज्ञता की परीक्षा, किन्तु जो परीक्षा देने नहीं आये, तीर्थ में दूर बैठे हैं, उनके समीप जाकर यह ठिठोली उनका अपमान तो था ही। इससे ऋषियों को बुरा लगा।

महर्षि दुर्वासा ने क्रोधपूर्वक कह दिया -‘मूर्खों ! यह तुम्हारे कुल को नष्ट कर देने वाला मुशल उत्पन्न करेगी।'

भूल होती है तो होती ही चली जाती है। उचित यह था कि सब विनम्र बनकर अपनी दृष्टता के लिए क्षमा माँगते। शापोद्धार की प्रार्थना करते तो कदाचित कोई मार्ग ऋषिगण निकाल भी देते किन्तु भय के मारे सब भाग खड़े हुए और थोड़ी दूर जाकर साम्ब ने साड़ी का उत्तरीय उतारकर फेंका। पेट पर बँधे उत्तरीयों में भार लग रहा था। उन्हें खोला तो लोहे का छोटा-सा पेट की चौड़ाई के बराबर लम्बा ठोस मुशल उन कपड़ों में से भूमि पर गिर पड़ा।

‘हाय ! यह क्या हुआ?’ सबके सब उस मुशल को देखते ही भय के कारण पीले पड़ गये। सहसा उसे छूने का साहस किसी में नहीं हुआ।

‘हम मन्द भाग्य हैं। हमने यह क्या किया?’ सबको कुछ सूझता नहीं था। ‘हम क्या कहेंगे अब नगर में जाकर? लोग हमको क्या कहेंगे?’

महर्षिगण तत्काल वहाँ से चले गये थे। वे दिव्यलोक वासी ऋषि गण, उन्हें कहाँ पैदल जाना था कि कोई दौड़कर उन्हें पा लेता। वे सब अदृश्य हो गये थे। उन्हें तो जनलोक या सत्यलोक जाना था। अब यह शाप देकर द्वारिका जाना उन्हें कैसे उपयुक्त प्रतीत होता?

‘करना क्या चाहिए?’ चिंतामग्न कुमारों को कुछ सूझ नहीं रहा था। अन्त में साहस करके उन्होंने मुशल उठाया और नगर में गये। श्रीबलरामजी अथवा श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख जाने का उन्हें साहस नहीं हुआ। वे सब लोग गये महाराज उग्रसेन के समीप। उनसे उन्हें ऐसे अवसर पर क्षमा तथा वात्सल्य मिलने की सम्भावना थी।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 208

महाराज उग्रसेन के समीप उस समय यदुकुल के वृद्धजन उपस्थित थे। उन सबके सम्मुख कुमारों ने वह मुशल रख दिया और जो कुछ भूल हो गयी थी, पूरी घटना सुना दी। कुमारों का कान्तिहीन उदास मुख देखकर महाराज उग्रसेन ने चित्त में करुणा उमड़ी। उन्होंने कह दिया -‘जो हो गया उस पर अब विषाद करना व्यर्थ है। इस मुशल को रेतकर चूर्ण करके समुद्र में डाल दो।’ इतना बड़ा काण्ड, सम्पूर्ण कुल के नाश का शाप और मुशल प्रत्यक्ष, किन्तु किसी को श्रीकृष्णचन्द्र से कुछ कहने-पूछने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। जो महाराज उग्रसेन छोटी-से छोटी बात भी श्रीकृष्णचन्द्र की सम्मति लेकर ही करते थे, उन्होंने इस बार स्वयं आदेश दे दिया। शाप को, मुशल को महत्ता ही नहीं दी गयी। महत्ता दी गयी कुमारों के कान्तिहीन मुख को। उनको संकोच न हो, उनको पिता से कुछ खरी-खोटी न सुननी पड़े इस बात को प्रमुखता प्राप्त हो गयी।

उपाय सबको उचित लगा। मुशल को प्रयत्न-पूर्वक रेता गया। उसके चूर्ण का कोई कर्ण भूमि में न रह जायें, यह सावधानी रखी गयी। रेतने पर एक छोटा टुकड़ा बच गया तो पकड़ में न आने के कारण उसे रेता नहीं जा सकता था। वह टुकड़ा और सब चूर्ण समुद्र में डाल दिया गया।

‘पानी में पड़ा लौह चूर्ण अतल सागर में डूब जायगा।’ यह धारणा सबको निश्चिन्त करने के लिए काफी थी किन्तु समुद्र की लहरें भीतर पड़ी वस्तुओं को किनारे पर फेंक देती हैं। इस चूर्ण को भी लहरों ने तट पर फेंक दिया प्रभास क्षेत्र में।

वह मुशल कोई लोहा तो था नहीं। वह तो ऋषियों के शाप से उत्पन्न था। उसके कणों में संहार का संस्कार बीज था। सृष्टि के सब चर-अचर शरीर संस्कार बीज से ही बने हैं। वे मुशल के कण तट पर आकर एरका तृण बनकर उग आये और बढ़े। चूर्ण करने से बहुत अधिक कण हो गये थे। अतः दूर तक एरका की घास सागर किनारे तट पर प्रभास में खड़ी हो गयी। वह घास वहाँ अब भी बहुत है समुद्र किनारे।

जो छोटा लौह-खण्ड बचा था, वह घिसने से चमकीला हो गया था। उसे एक मछली कोई प्राणी समझकर निगल गयी। वह मछली जरा नामक व्याध की वंशी में फँसी। मछली के उदर से जब वह तीक्ष्ण नोंकवाला लौह-खण्ड निकला तो उसे उस व्याध ने अपने बाण की नोंक बना लिया।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

शारदा पूजन विधि

गीता के सिद्ध मन्त्र

रामचरित मानस की चोपाई से कार्य सिद्ध