द्वारिकाधीश 12

: श्री द्वारिकाधीश
भाग- 127

भक्ति देवी का स्वभाव ही है कि वे जिस हृदय को धन्य करती हैं उसे सदा यही लगता है कि उसमें प्रीति नहीं है। जिनके स्मरण से प्राणी पुनीत होते हैं, उन महर्षियों को श्रीकृष्ण भी क्या वरदान देते।

'अब आप अनुमति दो।' महर्षियों ने अन्त में कहा- 'हमारे हृदयों में आपके ये श्रीचरण इसी प्रकार सदा स्पष्ट रहें।जिज्ञासा चाहे कितनी प्रबल हो, अपने से बहुत अधिक उत्कृष्ट महापुरुष के सम्मुख वाणी संकुचित हुए बिना नहीं रहती। जिनके चरणों में दूर से प्रणिपात करना भी सुरेन्द्र के लिए अतिशय गौरव की बात है, ऐसे महर्षिगणों के सम्मुख कोई कैसे बोले और क्या कहे। सब नरेश चुप बने रहे। सबने प्रारम्भ से अंजलि बाँध रखी थीं और इनके दर्शन करके ही कृतकृत्य हो गये थे।

महर्षियों ने श्रीकृष्णचन्द्र का स्तवन किया अतः वसुदेव जी को साहस मिला। जब ऋषिगणों ने सबको सम्बोधित करके अपने आश्रम जाने की बात कही, वे हाथ जोड़े उठ खड़े हुए सबके मध्य। सबको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कुछ आगे बढ़ आये।
आप कुछ कहना चाहते हैं?' भगवान व्यास ने प्रोत्साहन दिया, हाथ जोड़े सम्मुख आये वसुदेव जी को।
'आप सब मेरी धृष्टता क्षमा करें।' श्री वसुदेव जी ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक कहा- 'किन्तु जीवन में ऐसा सौभाग्य मुझे पुनः कब मिलने वाला है कि आप सबके दर्शन एक साथ हों। अनुग्रह करके आप आ गये हैं तो मुझ पर इतनी कृपा और कर दें, कर्म के द्वारा कर्मपाश से कैसे छुटकारा हो सकता है यह बतला दें मुझे।'

सभी नरेशों को प्रश्न अत्यन्त प्रिय लगा। सभी की समस्या यही है। वैराग्य हुआ नहीं, अतः त्याग की चर्चा की नहीं जा सकती। इन महात्यागियों से और क्या पूछा जाय। ये जो त्याग, तप करते हैं वह अपने लिए अशक्य लगता है। लेकिन प्रायः सब महर्षि चकित होकर एक दूसरे की ओर देखने लगे, जैसे कोई अकल्पित बात हो गयी हो

अकल्पित बात ही तो- जिनका स्मरण, श्रवण तक प्राणी के कर्मपाश भर्म कर देता है, जिनके चरण स्मरण की उत्कण्ठा इन महर्षियों के भी मानस को समुत्सुक रखती है, वे साक्षात परमपुरुष पुरुषोत्तम जिनके पुत्र बनकर अवतीर्ण हुए, उनके कर्मपाश? कौन से कर्मपाश बचे है श्रीवसुदेव जी के कि उनमे छुटकारे का उपाय उन्हें बतलाये कोई? फिर कर्म से कर्मपाश का छुटकारा? महर्षिगण इस प्रश्न को लोक-संग्रह भी कैसे मान लें? श्रीकृष्ण के पिता का गौरव प्राप्त करके भी कर्म-पाश से छुटकारा पाने का प्रयत्न लोक को भ्रान्त करेगा या कोई उत्तम आदर्श देगा?
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग-128

'महर्षियों ने वसुदेव जी से कहा- 'कर्म के द्वारा कर्मपाश से छुटकारे का उत्तम मार्ग श्रुति के तत्त्वज्ञों ने यही बतलाया है कि श्रद्धापूर्वक न्यायार्जित धन से यज्ञ करके यज्ञ पुरुष की आराधना की जाय, क्योंकि इससे चित्त की शुद्धि होती है। चित्त उपशम को प्राप्त होता है।'

वसुदेव जी को यज्ञ करने की बात समझ में आ गयी। उन्होंने उन सब महर्षियों से प्रार्थना की कि वे थोड़ा समय यहाँ और रुकें। यहीं यज्ञ सम्पन्न कराके तब पधारें। सभी ने वसुदेव जी के यज्ञ में ऋत्विक होना स्वीकार कर लिया।ऋषियों ने उसी समय यज्ञ की विधि का, सामग्री का निर्देश किया और तैयारी प्रारम्भ हो गयी। यज्ञमण्डप बनने में कितना समय लगना था। महर्षिगणों के शिष्य वेदियाँ तथा उनके मण्डलादि बनाने में लग गये। ऋषियों ने वसुदेव जी से देह-शुद्धि आदि संस्कार प्रारम्भ करवाये।

सभी राजा सपरिवार आमन्त्रित किये गये। दूसरे भी सम्मान्य जन आमन्त्रित हुएसब सपत्नीक, सपरिवार वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर पधारे। वसुदेव जी अपनी अठारहों पत्नियों के साथ यज्ञ में दीक्षित हुए। उनके सब पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र सपत्नीक यज्ञ मंडप में उपयुक्त यज्ञीय सेवा में लग गये।

धरा पर ही नहीं, अमरावती में भी दुर्लभ दृश्य। इतना महत्तम परिवार प्रायः सब श्रेष्ठतम महर्षिगण सशिष्य यज्ञ कराने वाले और प्रायः सब नरेश, विद्वान उस यज्ञ में सपरिवार उपस्थित सुरों ने स्वयं साकार उपस्थित होकर आसन तथा अपना भाग स्वीकार किया।

यज्ञ सम्पूर्ण हो गया तो महर्षिगण दक्षिणादि से सत्कृत होकर विदा हुए। दूसरे नरेश विदा होने लगे। जो जितनी दूर से आये थे, उन्हें जाने की उतनी शीघ्रता थी।

विदा होने का यह क्रम चल रहा था और इसमें दिनों का अन्तर भी बहुत कम था क्योंकि वैशाख अमावस्या को तो ग्रहण ही था। यज्ञ में लग गये पच्चीस दिनअब पावस समीप आ गया था। वर्षा प्रारम्भ हो जाने से पूर्व सबको अपने यहाँ पहुँचने की शीघ्रता थी। वर्षा में मार्ग यात्रा योग्य नहीं रहते।

सब विदा हो गये किन्तु व्रज तथा द्वारिका के शिविर बने रहे। उत्सव का अन्त, मेले के अन्त के दिन बहुत उदास होते हैं। लेकिन इन दोनों शिविरों के जनों को बाहर से समीप के दृश्य से प्रयोजन ही कहाँ था। ये परस्पर मिलन में मग्न, क्षण-क्षण सत्कार के नवीन आयोजन, वियोग की कल्पना भी असह्य थी, दोनों ही समाजों को।

वियोग चाहे जितना भी असह्य हो, संसार का विधान ही इतना निष्ठुर है कि इसमें प्रियजनों का सदा सामीप्य संभव नहीं होता। वियोग अनिवार्य है यहाँ। व्रजराज को विदा ही करना था और वसुदेव जी ने ही इस कठिन कार्य को विवश होकर अपनाया। पावस की वर्षों से पूर्व व्रज पहुँच जाना चाहिए व्रजराज को अन्यथा मार्ग में बहुत कष्ट होगा, यह मुख्य बात थी।व्रजराज सोचते हैं- कल चले जायेंगे। एक बार और अपने दाऊ-कन्हाई को जी भरकर देख लें।छकड़े जुत जाते हैं या जुड़ने लगते हैं तभी किसी दिन मैया कह देती है- अब आप रहने दो कल चलेंगे।

कभी वसुदेव जी रोक लेते हैं और कभी महाराज उग्रसेन आग्रह करते हैं। कभी श्रीबलराम अथवा श्रीकृष्णचन्द्र नहीं जाने देते। कभी देवकी देवी अथवा रोहिणी जी कहला देती हैं- 'आज तो अमुक पुत्र या पौत्र का जन्मदिन अथव जन्म नक्षत्र है। आप सब आज नहीं जा सकते।'

कभी दिक्शूल आ जाता है और कभी नक्षत्र या चन्द्रमा शुभ नहीं होता। जब हृदय ही जाने के पक्ष में न हो तो बहाने बने बनाये ही हैं।

'आज नहीं कल' इस प्रकार करते-करते पूरे तीन महीने हो गये व्रजराज को कुरुक्षेत्र आये। अब तक कई बार वर्षा हो चुकी। अब और रुकने से यात्रा असम्भव हो जायगी।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 129

व्रजराज को, व्रज के लोगों को लगा कि अब यदि वे और रुकते हैं तो उनके राम-श्याम को कष्ट होगा। उन्हें सम्पूर्ण परिवार के साथ द्वारिका लौटना है। दूर है द्वारिका और मार्ग में अनेक दुर्गम स्थान हैं। यदि सरिताओं में बाढ़ जा जाये- नहीं और रुकना उचित नहीं है।

'अब आप सब आज्ञा दें। छकड़े जुत गये। सामग्री छकड़ों पर रखी जा चुकी, तब व्रजराज विदा लेने आये।' आपका अतिशय स्नेह, किन्तु अब जाना चाहिए हम सबको।'

बड़ा ही दुःखद होता है यह स्वजनों के वियुक्त होने का समय। महारानियों ने, माता देवकी, रोहिणी जी प्रभृति सबने मैया यशोदा को, गोपियों को, मिलकर विदा दी। महाराज उग्रसेन, वसुदेव जी, प्रभृति दूर तक पहुँचाने गये। उन्हें आग्रह करके व्रजराज ने लौटाया।

उद्धव तथा यदुकुल के कुमार बहुत दूर तक जाकर कठिनाई से लौटे और लौटते ही यादव शिविर भी समेटा जाने लगा। श्रीव्रजराज विदा हो गये तो अब कुरुक्षेत्र के इस सूने मैदान में दो घड़ी भी किसी का मन लगेगा?

राम-श्याम बाबा से, मैया से, सखाओं से, गोपियों से सबसे मिलते हैं। एक छकड़े से उतरते हैं और दूसरे पर जा बैठते हैं। इन्हें भी विदा होना है, सोचते ही लगता है कि शरीर निष्प्राण हो जायेंगे और सचमुच इन्हें विदा होना कहाँ है। ये व्रज से, व्रजजनों से वियुक्त कभी रहे भी हैं या आज ही रहेंगे।

व्रज के लोगों को तो यही लगता है कि उनके दाऊ-कन्हाई उनके साथ ही हैं। क्या हुआ कि उनके छकड़े से उतरकर दूसरे छकड़े पर जा बैठे। अब यह तो द्वारिका के लोग देखते हैं कि दोनों भाई बहुत दूर तक पहुँचाकर लौट रहे हैं। उन्हें रथ से लाना पड़ा है और दोनों अत्यन्त व्याकुल हैं। दोनों को जैसे कुछ सुधि नहीं। अब दोनों को लेकर शीघ्र द्वारिका चल देना ही सबको उचित लगता है।

ग्रहण के समय समन्तकपंचक क्षेत्र (कुरूक्षेत्र)में वसुदेव देवकी जी ने राम-कृष्ण का बहुत माहात्म्य सुना था। महर्षियों ने श्रीकृष्ण का स्तवन किया था और वसुदेव जी से उनकी महिमा कही थी। इससे वसुदेव जी के चित्त में हलचल रही थी। एक दिन द्वारिका में दोनों भाई जब प्रातःकाल माता-पिता की पद-वन्दना करने पहुँचे, वसुदेव जी पुत्रों की स्तुति ही करने लगे।यह दिन ही बड़ों से स्तुति-श्रवण का था। वसुदेव जी चुप हुए तो माता देवकी स्तुति करने लगीं।

ग्रहण के मेले में बहुत नारियाँ मिली थीं। महर्षि सान्दीपनि सपत्नीक पधारे थे। मथुरा में भी सुना था और वहाँ तो महर्षि की पत्नी ने दिखलाया- 'मेरा यह पुत्र समुद्र में डूबकर मर गया था। इसे राम-श्याम गुरुदक्षिणा के रूप में यमलोक से लाकर दे गये।' यह चर्चा अनेक बार सुनी थी और उस ऋषि कुमार को देखकर तो माता का हृदय व्याकुल हो उठा था। उनके 6 पुत्र कंस ने मार दिये। जब मरा पुत्र आ सकता है, उनके वे 6 कुमार- माता देवकी तभी से अवसर की प्रतीक्षा में थीं। ग्रहण के मेले में उनके राम-कृष्ण बहुत व्यस्त थे। वहाँ से कहीं जा नहीं सकते थे। अब द्वारिका आ गये और आज जब वसुदेव जी ने स्तुति की, माता को भी अवसर मिला।माता ने स्तुति बहुत न करके अपना तात्पर्य स्पष्ट कर दिया- 'तुम दोनों ने बहुत दिन के मरे गुरुपुत्र को लाकर गुरुदक्षिणा दी थी। तुम्हारे 6 अग्रजों को कंस ने मार दिया। मैं उनका देखना चाहती हूँ, मेरी यह कामना पूरी कर दो।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 130

‘जो आज्ञा।' दोनों भाइयों ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया।

सुतल पहुँचे दोनों भाई। योगमाया का आश्रय लेकर ही पहुँचना था। वहाँ तक वाहन तो जा नहीं सकता था और जब कहीं प्रकट ही हो जाना था- दूरी और देर का प्रश्न ही कैसा।

सहसा दैत्यराज बलि ने देखा कि उनके सम्मुख नीलवसन श्रीसंकर्षण और पीताम्बरधारी श्रीकृष्णचन्द्र प्रकट हो गये हैं। बलि आनन्द विभोर हो उठे- 'मेरे आराध्य पधारे।' सिंहासन से उठकर बलि ने साष्टांग प्रणिपात किया। उनके स्वजन परिवार सबने चरण-वन्दना की।

'सृष्टि के प्रारम्भ में स्वायम्भुव मन्वन्तर में महर्षि मरिचि के 6 पुत्र थे। पितामह ब्रह्मा जी का उपहास करने के कारण उन्हें आसुरी योनि प्राप्त हुई और वे हिरण्यकशिप के पुत्र हो गये। फिर वे तप में लगे तो हिरण्यकशिपु ने भी उन्हें शाप दे दिया।' वे कालनेमि के पुत्र बने और सदा निद्रालु रहने लगे।'
श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'योगमाया ने उन्हें माता देवकी के उदर में पहुँचाया और कंस उन्हें मारता गया। अब माता उन्हें देखना चाहती हैं। उनके शाप की समाप्ति होनी चाहिएअब उन स्मर, उद्गीय, पतंग, परिष्वंग, क्षुद्रभूत और धृणी को जो तुम्हारे यहाँ हैं, दे दो। मैं उन्हें ले जाऊँगा। वे शापमुक्त होकर अब ब्रह्मलोक चले जायेंगे।'

इन सदा सोते रहने वाले दैत्यों में किसी का न कोई ममत्व था, न कोई इनकी ओर ध्यान देता था। बलि ने इन्हें श्रीकृष्णचन्द्र को सौंप दिया। दोनो भाई दैत्यराज से विदा लेकर फिर अदृश्य हो गये वहाँ।
गये वहाँ।

श्रीबलराम कृष्ण द्वारिका में प्रकट हुए तो उनके साथ 6 बालक थे। उनका रूप-रंग आकार वह जो ब्रह्मलोक में पहिले था। उनकी आयु में परस्पर एक वर्ष का अन्तर और दूसरे किसी को पता क्या होता, माता देवकी को ही कहाँ उनके रूप-रंग, आकार का पता था। उत्पन्न होते ही कंस ने मार दिया था उन्हें। माता भी कहाँ उन शिशुओं को ठीक देख सकी थीं।

कौन कहे कि ये शिशु हैं और इन्हें तो वय में बहुत बड़ा होना चाहिए। ये अग्रज हैं बलराम-श्रीकृष्ण के। वात्सल्य उमड़ पड़ा था माता का। उन्होंने एक साथ उन 6 को अंक में बैठा लिया और बारी-बारी से दुग्ध-पान कराने लगीं।

माता का दुग्धपान किया और अंक से उठकर तत्काल युवा शरीर हो गये वे।' दिव्य ज्योतिर्मय देह, वस्त्राभरण भूषित देवता। माता देवकी, वसुदेव जी तथा श्रीबलराम-श्रीकृष्ण की उन्होंने पद-वन्दना की, परिक्रमा की और हाथ जोड़कर बोले- 'आपके अनुग्रह से आज हम शापमुक्त हुएअब अनुमति दें।'

देवताओं को रोका कैसे जा सकता था। वे सबके देखते-देखते गगन में जाकर अदृश्य हो गये। माता के मुख से निकला- 'ये देवता मेरे पुत्र बने थे?'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

कश्री द्वारिकाधीश
भाग- 131

मिथिला विदेहों की नगरी है। एकमात्र यह ऐसा राज्य जिसके सिंहासन पर सदा तत्त्वज्ञानी शासन रहा और जब से महाराज सीरध्वज जनक ने श्रीराघवेन्द्र को कन्या-दान किया, भक्तिदेवी ने भी मिथिला को अपना धाम बना लिया। तत्त्वज्ञान, शास्त्रज्ञान और सरस भक्ति की त्रिवेणी का मन्दिर मिथिला।

उन दिनों मिथिला के सिंहासन पर महाराज बहुलाश्व थे। तत्त्वज्ञान उनकी पैतृक सम्पत्ति थी और भक्ति से परिपूत हृदय तो मिथिला में सर्वसामान्य तक का था। विदेह के लिए देहाभिमान के साहित्य की चर्चा व्यर्थ है। वैराग्य तो स्वरूप है उनका।

जब से भगवान बलराम ने मिथिला को अपना सान्निध्य देकर सनाथ किया, महाराज बहुलाश्वर की उत्कण्ठा अत्यधिक बढ़ गयी कि श्रीहरि उनके सदन को पवित्र करें।

श्रीसंकर्षण जीवों के परमाचार्य, उन्होंने जिसे अपना लिया, श्रीकृष्ण उससे दूर रह सकते हैं? मिथिला तो कई वर्ष रह गये थे वे श्रीहलधर किन्तु महाराज बहुलाश्व की प्रीति अद्भुत थी- 'आराध्य जब उचित समझेंगे, जब अधिकारी समझेंगे तब स्वयं पधारेंगे। उन्हें संकोच में क्यों डाला जाय। वे करुणा वरुणालय किसी की सच्ची पिपासा होने पर उसे परितृप्त करने से रुक कैसे सकते हैं।'

महाराज बहुलाश्व प्रतीक्षा करते रहे- 'श्री द्वारिकाधीश स्वयं कृपा करके पधारें इसकी प्रतीक्षा, दृढ़ आस्था- हम उनके हैं और वे स्वयं अपनायेंगे ही। न स्वंय द्वारिका गये, न किसी के द्वारा आमंत्रण या प्रार्थना भेजी। केवल स्थिर आस्था लिये प्रतीक्षा करते रहे।

प्राणी प्रतीक्षा ही कर सकता है और जहाँ उत्कण्ठा है, अभीप्सा है, स्थिर आस्था है, वहाँ वे अनन्त दयाधाम, भक्तवत्सल दूर कब तक रह सकते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र ने द्वारिका में बिना कारण अचानक घोषणा कर दी कि वे मिथिला जायेंगे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 132

मिथिला की इस यात्रा में न सेना, न उद्धव या सात्यिकश्रीकृष्ण त्रिभुवन के रक्षक उनको सुरक्षा की आवश्यकता कहाँ होती है। तत्त्वज्ञों के मुकुटमणि के यहाँ जाना था तो उसके उपयुक्त साथ चाहिए। अतः साथ में लिये महर्षिगण- देवर्षि नारद, वामदेव, महर्षि अत्रि, वेदव्यास जी, भगवान परशुराम, असित, आरुणि, श्रीशुकदेव जी, देवगुरु बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन, गौतम, जैमिनी प्रभृति सब प्रसिद्ध महर्षि साथ ले लिये। सबको अपने ही रथ पर बैठाया और यात्रा प्रारंभ हो गयी।

द्वारिका से बहुत दूर है मिथिला। श्रीकृष्ण चाहते तो उनका रथ एक दिन में भी पहुँच सकता था। शतधन्वा का पीछा करते एक दिन में एक बार मिथिला के वाह्य भाग तक हो भी आये थे किन्तु इतने महर्षियों को साथ लिया तो मार्ग के भी पुण्यात्माओं को पवित्र करते जाना था।

आनर्त, मरुधन्व, कुरुजांगल, कङ्क, मत्स्य , पांचाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल और अर्ण राज्यमार्ग में मिले। इनमें से आनर्त अपना ही प्रदेश था। पांचाल नरेश द्रुपद, कुन्ति नरेश कुन्तिभोज सम्बन्धी थे और केकय श्रीकृष्णचन्द्र की महारानी भद्रा का पितगृह। यहाँ तो स्वागत सत्कार होना ही था। मार्ग के ग्रामों तथा वन्य प्रान्त के झोपड़ों तक के निवासी नर-नारी आ गये थे मार्ग में उपहार करों में लिये।

सबका आग्रह, सबकी प्रीति को स्वीकार कर लेना श्रीकृष्णचन्द्र के लिए ही सम्भव है। महर्षिगणों ने प्रारम्भ से ही अनुभव कर लिया कि यह यात्रा श्रीकृष्ण के अमित ऐश्वर्य अचिन्त्य प्रभाव की यात्रा है। अपने दर्शन को उत्कण्ठित प्राणों को परितृप्त करने, पुण्यजनों को प्रीति का वरदान देने ये प्रेमधन निकले हैं। इसमें देश-काल कैसे बाधक बन सकते हैं। देश-काल तो इन सर्वात्मा में कल्पित प्रतीति मात्र हैं।

एक वन्य कुटीर से लेकर राजसदन तक के लोगों का आग्रह- 'आप इन भुवनवन्द्य महर्षियों के साथ आ गये हैं तो हमारे आवास को, हमारे कुल को पवित्र कर दें अपने श्रीचरणों से।'

सबका प्रेमाग्रह स्वीकार हो रहा है। सब चाहते हैं कि श्रीद्वारिकाधीश कुछ काल उन्हें सेवा का सौभाग्य दें और प्रेममय भक्तवत्सल किसी का अनुरोध अस्वीकार नहीं कर पाते। सबके स्नेह का सत्कार और यात्रा अबाध चल रही है। कैसे हो रहा है यह सब- अनन्तरूप, अचिन्त्य शक्ति श्रीकृष्ण का यह लीला विलास सामान्य बुद्धि में नहीं आ सकता।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 133

सबसे प्रत्यक्ष चमत्कार मिथिला में होना था। श्रीकृष्णचन्द्र के आगमन का समाचार मिला तो मिथिला के सब लोग स्वागत के लिए दौड़ पड़े। महाराज बहुलाश्व के आनन्द का, उत्साह का वर्णन असम्भव है। महर्षि याज्ञवल्क्य तक जहाँ शिष्यों के साथ अर्ध्य उठाये आनन्दविह्ल दौड़ पड़े हों, वहाँ महाराज अथवा सामान्यजन की दशा कैसे कही जाय।

स्वागत हुआ और महाराज राज-भवन पधारने की प्रार्थना करने बढ़े, उन्हें लगा कि ये सर्वेश्वर मुझ पर अनुकम्पा करके ही यहाँ पधारे हैं। महाराज की श्रद्धा, प्रतीक्षा आज सफल हुई किन्तु महाराज के साथ ही दुर्बल देह, जीर्णवसन, ब्राह्मण श्रेष्ठ श्रुतदेव भी बढ़े श्रीद्वारिकाधीश से अपने उटज[1] में पधारने की प्रार्थना करने।

श्रुतदेव वेद-वेदांग के पारंगत पण्डित तो थे ही वीतराग भगवद्भक्त थे। गृहस्थ थे इसलिए कि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य अथवा वानप्रस्थ का संकल्प नहीं लिया था किन्तु थे एकाकी और मिथिला में उनकी एक ओर नगर से बाहर एकान्त में एक पुरानी तृण कुटीर थी। महाराज बहुलाश्व या कोई भी सम्पन्न नागरिक साहस नहीं कर पाता था उन तपोधन से कुछ द्रव्य-दान स्वीकार करने की प्रार्थना करने का। उनकी कुटिया पर अकेली गौ तक नहीं थी।

कुछ पुराने कुश के आसन, काष्ठ पीठ, तुम्बी के कमण्डलु, दो-एक साधारण पात्र, बस यही उपकरण थे उस कुटी में और श्रुतदेव जी का नियम था कि भिक्षा स्वयं ले आते थे। एक दिन एक समय का शरीर निर्वाह हो जाय इससे अधिक भिक्षा लेना उन्हें स्वीकार नहीं था। इसमें भी प्रदोष, एकादशी आदि व्रत आते रहते थे।

श्रुतदेव मिथिला में सबसे अकिंचन किन्तु त्याग, अपरिग्रह, सन्तोष, विद्या के ही नहीं, भगवद्भक्ति के भी सबसे बड़े धनी। वे अनन्य भक्त, परिपूर्ण काम। उनको लगा ये निखिल ब्रह्माण्ड नायक निष्किंचन जनप्रिय उन्हीं को कृतार्थ करने मिथिला पधारे हैं। उनको ठीक नहीं लगा, यह कहने का साहस कौन करेगा। वे दीनबन्धु अकिंचनों के ही तो अपने है। श्रुतदेव और महाराज बहुलाश्व दोनों एक साथ अंजलि बाँधकर बोले- 'आप सर्वेश्वरेश्वर करुणाधाम ने अपने इस जन पर अनुग्रह किया तो अब अपने श्रीचरणों से इसके आवास को भी पवित्र करें।'

श्रीकृष्ण न राजा के हैं, न रंक के। उन्हें यदि सम्पत्ति, वैभव आकर्षित नहीं करता तो तप-त्याग साधन भी उनके लिये कोई महत्त्व नहीं रखता। वे प्रेम के-केवल विशुद्ध प्रेम के वश होते हैं और यहाँ दोनों प्रेममूर्ति सम्मुख थे। कोई समस्या नहीं। एक बार श्रीकृष्णचन्द्र ने महर्षियों की ओर देखा और उनका रथ चल पड़ा। दोनों को लगा कि उनकी ही प्रार्थना स्वीकार हुई। दोनों को लगा कि ऋषिगणों के साथ श्रीद्वारिकाधीश का रथ उनके द्वार पर ही आकर रुका।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
: श्री द्वारिकाधीश
भाग- 134

महाराज बहुलाश्व कृतार्थ हो गये। उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र के साथ सबको उचित आसन दिये। उनके चरण धोये। चरणामृत से सम्पूर्ण राजसदन अभिषिक्त हुआ। चंदन, पुष्प, माल्य, धूप, दीप, वस्त्र, आभरण, नैवेद्य, ताम्बूलादि महाराजोपचार विधि से महाराज बहुलाश्व ने सपरिवार पूजन किया सबका और पूजन-भोजन सम्पूर्ण हो जाने पर जब सब स्वस्थ आसीन हो गये, बहुलाश्व ने श्रीकृष्णचन्द्र के दोनों चरण अपनी गोद में लिये और उनको दबाने लगे।

आज यह निमिकुल धन्य हो गया कि आप यहाँ पधारे। अब इन महर्षियों के साथ कुछ दिन यहाँ विराजें और मुझे सेवा का सौभाग्य प्रदान करें। महाराज बहुलाश्व ने प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना स्वीकार करके श्रीकृष्णचन्द्र ऋषिगण के साथ एक महीने वहाँ रहे। महाराज तथा उनके परिवार-परिकर, प्रजा का प्रेम नित्य नवीन सत्कार बढ़ता ही रहा प्रतिदिन। अन्त में विदा इसलिए करना पड़ा कि प्रभु को संकोच होगा। द्वारिका में उनकी प्रतीक्षा चलती होगी। श्रुतदेव की कुटिया के द्वार पर भी गरुड़ध्वज रथ आकर रुका था। महर्षियों के साथ श्रीकृष्णचन्द्र उतरे तो श्रुतदेव आनन्द के मारे अपना उत्तरीय फहराते नृत्य करने लगे। उन्हें भूल ही गया कि उन्हें आगतों का स्वागत करना है। उन्हें आसन देना है। श्रीकृष्ण का अपना घर है उनके अकिंचन अनन्य भक्त का आवास। यहाँ स्वागत की अपेक्षा कहाँ। स्वयं द्वारिकाधीश ने कुछ कुश के आसन, काष्ठपीठ, चटाई ढूँढी और बिछाकर महर्षियों को उन पर बैठाया। स्वयं बैठकर कीर्तन करते मुग्धनेत्र श्रुतदेव का वह प्रेमोन्माद में नृत्य करना देखते रहे। श्रुतदेव सावधान हुए तब उन्हें पूजन-सत्कार का ध्यान आया। कुटिया में शीतल जल था, उसमें खस डालकर सुगन्धित कर दिया। तुलसीदल, पुष्प, चन्दन और नैवेद्य के लिए थोड़े फल-कन्द जो उनके समीप थे। श्रुतदेव भक्ति विह्वल, उन्हें इतना वाह्य ज्ञान फिर भी नहीं हुआ कि पूजन में क्रम रह सके। वे यह भी भूल गये कि वहाँ ऋषिगण भी बैठे हैं। उन्हें अपने शरीर का ही ध्यान नहीं। केवल श्रीकृष्ण, श्रीकृष्णमय तन-मन-प्राण। अब उन्हें तो सर्वत्र श्री कृष्ण ही दिखते हैं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश: द्वारिकीधीश
भाग- 135

श्रीकृष्ण को छोड़कर कुछ है भी तो नहीं। वही तो सर्वमय, सर्वरूप हैं और जब वे स्वयं सम्मुख है, दृष्टि में दूसरा रूप न आवे तो क्या आश्चर्यश्रुतदेव श्रीकृष्ण का अर्चन स्तवन करने में तन्मययह देख श्रीकृष्णचन्द्र ही बोले- 'ब्रह्मन! ये महर्षिगण आप पर ही कृपा करने आये हैं। ये मेरे साथ मुझे अपने हृदय में लिये सम्पूर्ण लोकों को अपनी चरण-रेणु से पवित्र करते घूमते हैं। मुझे ब्रह्मज्ञानियों से अधिक प्रिय अपना यह चतुर्भुज स्वरूप भी नहीं है। अतः मुझसे अभिन्न मेरे स्वरूप समझकर आप इन महर्षियों का अर्चन करें। इनकी पूजा से ही मेरी सम्यक पूजा होती है।' श्रुतदेव चौंके- 'आप सब मुझ अज्ञ का अपराध क्षमा करें।' महर्षियों के चरणों पर मस्तक रखकर क्षमा माँगी उन्होंने।

ऋषिगण सुप्रसन्न थे। उन्हें तो इन वीतराग भगवद्भक्त का प्रेम ही प्रसन्न किये था। श्रुतदेव ने अब सबके चरण धोये। अक्षत, चन्दन, पुष्प से सबकी पूजा की। सबने उनके फल-कन्द का बड़े उत्साह से भोग लगाया। जल पिया। श्रुतदेव को सन्तुष्ट करके, भक्ति का वरदान देकर श्रीकृष्णचन्द्र ऋषियों के साथ रथ में बैठे द्वारिका जाने के लिएअब यह मत पूछिये कि श्रीकृष्णचन्द्र श्रुतदेव के यहाँ केवल एक दिन कुछ घण्टे रहे और महाराज बहुलाश्व के यहाँ एक महीने। दोनों को लगा कि उनके ही यहाँ आये, उन्हीं से मिलकर द्वारिका चले गये। यह दो स्थान, दो रूप और काल का अन्तर कैसा? योगमाया ही देश-काल की कल्पना की मूल हैं। श्रीकृष्ण की यह योगमाया अचिन्त्य हैं, केवल यही स्मरण रखना है।

ब्राह्म मुहूर्त के प्रारम्भ में ही जैसे प्रभात-जागरण व्यसनी पक्षी बोलने लगे और कुक्कुट ने प्रथम ध्वनि की, श्रीद्वारिकाधीश शैय्या त्याग दिया करते थे और जल से मुख का प्रक्षालन करके बैठ जाते थे। यह नियम उनका प्रवास में भी चलता था।

सब तमोगुणी - रजोगुणी प्राणी निद्रालीन होते हैं इस समय। प्रकृति में केवल सात्त्विकजनों का ध्यान-चिन्तन चल रहा होता है। अतः इस समय साधन-ध्यान करने वाले को समष्टि से अपने अनुकूल सहायता-सात्त्विकता प्राप्त होती है।

जब सब साधक, ऋषि-महर्षि, मुनिगण एवं भक्तवृन्द ध्यान करने बैठते हों, उनके जो परम ध्येय हैं, उसे भी तो उनके अनुकूल बनकर ही स्थित रहना चाहिए। समष्टि के उस संचालक को स्वयं भी समष्टि में उनके अनुकूल संस्कार प्रबुद्ध करना चाहिएश्रीकृष्ण ध्यान करने बैठे जाते थे। प्रसन्न करण, निर्मल इन्द्रिय, स्थिर आसन, क्रोड़ी में पड़े कर पंकज द्वय, भ्रूमध्य स्थिर दृष्टि, अद्वय, सर्वकारण कारण, सर्वावभासक, निर्विकार अपने ही स्वरूप का ध्यान- कभी-कभी अपने किसी अनन्य चिन्तनकर्ता का ध्यान

जिनमें स्थूल, सूक्ष्म, कारण देह का भेद नहीं है, जिनमें पंचभूत, इन्द्रिय, अन्तःकरण का भेद नहीं है, जिनमें बाहर-भीतर का भेद नहीं, उनका स्वरूप ही मन में नहीं आता। उनका ध्यान जैसे अपनी लीला से वे नरवपु इन्द्रियादि की प्रतीति कराते हैं अपने में वैसे ही उनका ध्यानलोकादर्श की स्थापना के लिए धरा पर पधारे हैं अतः लोक के लिए आदर्श दिनचर्या भी उपस्थित करनी चाहिए
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश: द्वारिकाधीश
भाग- 136

गगन में अरुणोदय की लालिमा से पूर्व ही नित्य शौचादि सम्पन्न करके संकल्पपूर्वक सविधि स्नान हो जाता था। निर्मल, अनस्यूत, अनाहत वस्त्र धारण करके, उत्तरीय कन्धे पर लेकर सन्ध्या तर्पण में लग जाते थे। सन्ध्या, पितृतर्पण, गायत्री जप, हवन, इतना करते-करते भगवान आदित्य का उदय हो जाता था। क्षितिज पर उठते सूर्यविम्ब को अर्धोदय के समय ही श्रीकृष्णचन्द्र का अर्ध्य उपस्थान प्राप्त होता।

देवता, ऋषि, पिता-माता तथा गुरुजन एवं ब्राह्मणों का पूजन, वन्दन, सत्कार और उनकी आवश्यकता पूर्ति उसी समय कर दी जाती।

गो-पूजन, सवत्सा, स्वस्थ, दुग्धवती उत्तम गायें अलंकृत करके, श्रृङ्ग स्वर्ण से और खुर चाँदी से मढ़ कर, मुक्ता की माला पहिनाकर, उत्तम वस्त्रों से आच्छादित करके, कैशेय वस्त्र, कम्बल, तिल, स्वर्णराशि के साथ प्रतिदिन गृहस्थ, वेदज्ञ, सुपूजित, वस्त्रालक्ङार विभूषित किये गये ब्राह्मणों को दान की जाती थीं। सहस्र-सहस्र गोदान प्रतिदिन करते थे।

गौ, ब्राह्मण, देवता, वृद्धजन एवं गुरुजनों का पूजन, वन्दन, सत्कार समाप्त होने पर मंगल द्रव्यों का स्पर्श करते थे प्रातःकालीन पुण्य स्मरण करते हुए। अश्वत्थ, आमल की, तुलसी, बिल्व ये पावन तरु गो घृत, गो दधि, तीर्थोदक, स्वर्ण ये पावन पदार्थ, गौ वृषभ, उत्तम गज, श्याम कर्ण मंगल पशु, इसी प्रकार पक्षी आदि सब शुभ-शुचि का दर्शन एवं उनका सत्कार का होता है।

जब भगवान साम्ब सदाशिव का आह्निक अर्चन हो गया तब अलंकार धारण का अवसर आया। उस ऋतु के अनुरूप, उस दिन के कार्य विशेष को ध्यान में रखते हुए, उस दिन जिन विशिष्ट पुरुषों से मिलना है उसके लिए उचित वस्त्र एवं आभूषण धारण किये जाते हैं।प्राचीन भारत में ऋतु, उत्सव, दिन, पर्व के अनुरूप तो वस्त्र तथा आभूषण होते ही थे, शान्ति, युद्ध, शोक, रोष, स्नेह, सम्मान के सूचक भी होते थे और इनका ध्यान रखकर आभूषण, उत्तरीय, उष्णीष धारण किया जाता था। श्रीकृष्णचन्द्र के अपने वस्त्र-आभरण, उनके चिद्द्यन वपु का सामीप्य जिनको जन्म-जन्म की साधना से सुलभ होता है, उनको कृतार्थ करना था।

अलंकार धारण करके गोघृत तथा दर्पण में अपना स्वरूप गृहस्थ देखता है प्रतिदिन। इसके अनन्तर गोशाला की गायों, वृषभों, अश्वों की सुधि ली जाती। उनका दर्शन, स्पर्श करके उनको स्नेह-दान, उनकी व्यवस्था का निरीक्षण करके श्रीद्वारिकाधीश ब्राह्मणों तथा देव मंदिरों का दर्शन करने निकलते। उनका पूजन-सत्कार करने के साथ पुरजनों का अन्तःपुर के सेवकों का भी समाचार ले लेते थे। उनको अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करके, उनसे यथोचित रूप में मिलकर उनको सन्तुष्ट करते थे।

पुष्पमाल्य, चन्दन, अंगराग, ताम्बूल- ये पदार्थ भी ब्राह्मणों को, आदरणीयजनों को पहिले मिल चुके हैं यह ध्यान रखना आवश्यक माना जाता था। श्रीकृष्णचन्द्र तो सभी सम्बन्धियों, रानियों तथा सेवकों तक को इतना उचित वितरण हो चुका है, यह ठीक-ठीक देखकर तब इनका उपयोग करते थे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:द्वारिकाधीश
भाग- 137

का प्रथम प्रहर इस प्रकार आराधना एवं अपने सम्बन्धितजनों के सत्कार में लग जाता था। तब तक सारथि दारुक द्वार पर रथ लेकर उपस्थित हो जाते थे। श्रीद्वारिकाधीश सात्यकि, उद्धव के साथ रथ में बैठकर राजसभा में उपस्थित होते थे।

दिन का द्वितीय प्रहर प्रजा की सेवा का, राजसभा में उपस्थित रहने का काल था।अकल्पनीय समृद्ध था भारतवर्ष। हमारे आह्निक ग्रन्थ कहते हैं कि गृहस्थ के लिए उपार्जन का काल केवल एक प्रहर- दिन का द्वितीय प्रहर है और निद्रा के लिए रात्रि का तृतीय प्रहर। शेष समय उपासना एवं आनन्द-उल्लास का काल है। राजपुरुष उपार्जन काल-दिन के द्वितीय प्रहर में राजकार्य करते थे।

प्रजा को कोई कष्ट हो, किसी को कुछ प्रार्थना करनी हो, कोई अभियोग हो तो वह इस समय उपस्थित होता था सुधर्मा-सभा में।

द्वारिका में यह सब होता था, बहुत होता था और प्रतिदिन होता था, किन्तु उसकी कल्पना भी आज कठिन है। अधिकांश लोगों को कष्ट था कि उन्हें अतिथि-सत्कार का अवसर, अतिथि नहीं मिलते। सबकी प्रार्थना उनके चित्त में अपने अत्यन्त उदार आराध्य के चरणों में अनुराग हो। अभियोग भी बहुत थे। प्राय: दो श्रेणी के अभियोग- एक यह कि अमुक-अमुक की सेवा करना उनका स्वत्व है, किन्तु उन्हें इससे वंचित किया जाता है। कोई दूसरा यह अधिकार छीन रहा है या सेवा अथवा सामग्री स्वीकार नहीं की जा रही है। दूसरे प्रकार का यह अभियोग कि लोग अकारण उनके यहाँ उपहार भेजकर उन्हें परिग्रह को बाध्य करते हैं अथवा अज्ञात लोग उनकी कोई सेवा करके उन्हें आलस्य की ओर अग्रसर होने का प्रोत्साहन देते हैं। ऐसे अभावों, प्रार्थनाओं, अभियोगों को सुनकर, हँसकर टाला ही तो जा सकता है।

राज-सभा जब कार्य व्यस्त न हो- प्रायः ऐसा ही अवसर रहता था द्वारिका में और यही अवसर था उपमन्त्रियों, कलाजीवियों के लिए। वाक-चातुर्य सम्पन्न अपने परिहास से और नट-नर्तक, संगीतकार, चित्रकार आदि गायन, वादन, नृत्य, चित्र, मूर्ति आदि के प्रदर्शन से श्रीद्वारिकाधीश को प्रसन्न करते थे। उन्हें उनकी आशा से बहुत अधिक पुरस्कार प्राप्त होता था। पृथ्वी के ही नहीं, स्वर्ग और असुरों के भी कलाकार आते थे श्रीकृष्णचंद्र का दर्शन प्राप्त करने और उनमें से बहुत स्थायी आवास बना लेते थे द्वारिका में। जहाँ त्रिभुवन के स्वामी साक्षात निवास करें, वहीं तो विद्या, कला के, सच्चे आराधक भी आश्रय पा सकते हैं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश: द्वारिकाधीश
भाग- 138

मध्याह्न से कुछ पूर्व ही राजसभा विसर्जित हो जाती थी। मध्याह्न स्नान, सन्ध्या और तब भोजन। अतिथि, ब्राह्मण, वृद्ध, रोगी, बालक और सगर्भा अथवा जिनकी गोद में शिशु हैं उन महिलाओं को तो सभी सद्गृहस्थ अग्र भोजन का पात्र मानते हैं, किन्तु श्रीद्वारिकाधीश की चले तो वे सेवकों तक को भोजन कराके फिर स्वयं भोजन करें। ऐसा हो नहीं पाता। सब रानियों का स्वत्व है अपने स्वामी का प्रसाद। सेवक ही नहीं, उद्धव, सात्यकि जैसे सखा भी नहीं सुनते, वे भी प्रसाद ही लेने के आग्रही है किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं सबके भोजन की व्यवस्था देख लेते हैं और ताम्बूल तब ग्रहण करते हैं जब सेविकाएँ तक भोजन करके ताम्बूल ग्रहण कर लें।

मध्याह्न भोजनोपरान्त थोड़ा-सा विश्राम। इस विश्राम काल में महारानियों पाद-संवाह का, व्यजन करने का अवसर पा जाती है और यदि कोई अपनी पुत्र-पुत्रियों अथवा उनकी संतानों की समस्या हुई तो उसे सुनाने का भी।
बहुत थोड़ा विश्राम, क्योंकि दिन का यह तृतीय प्रहर महारानियों के साथ अक्षक्रीड़ा, भाई अथवा उद्धव जैसे मन्त्रियों के साथ आवश्यक प्रश्नों पर मन्त्रणा का है। इसी समय में पुत्रों, पौत्रों, पौत्रियों के विवाह संस्कार तथा उनके संबंधियों संबंधी सम्पूर्ण कुलाचार, लोक-व्यवहार के निर्वाह का है।

दिन का चतुर्थ प्रहर आखेट करने अथवा नगर-भ्रमण करने निकलने का है। नगर के स्थानों को देख लेना, सम्मान्य नागरिकों से मिल लेना, जिनके यहाँ स्वयं जाना आवश्यक है, वहाँ हो आना, जो राजकीय व्यवस्था निरीक्षण की अपेक्षा करती है उसे देख लेना, नगर से बाहर ग्राम्यजनों, समुद्र तटवासियों, वनवासियों तक की व्यवस्था का निरीक्षण एवं जो कार्य आवश्यक हो उनके लिए वह कार्य सम्पन्न कर देना। दिन का चतुर्थ प्रहर भ्रमण तथा व्यस्तता का काल है।

सूर्यास्त से किंचित पूर्व ही लौटकर स्नान, सन्ध्या, गायत्री जप, सायंकालीन हवन। इसके अनन्तर रात्रि का प्रथम प्रहर शास्त्र-चिन्तन, शास्त्रचर्चा, सत्संग का समय है। द्वारिका में प्रायः वयोवृद्ध विद्वान, ऋषिगण पधारते हैं। उनके उपदेश-श्रवण का सबको सुअवसर मिलता है।

विद्वान ब्राह्मण, सूत, इतिहास, पुराण की कथाएँ सुनाते हैं। किसी शास्त्रीय विषय की व्याख्या करते हैं। बाहर से कोई न भी आया हो तो द्वारिका में ही क्या कम विद्वान हैं! श्रीकृष्णचन्द्र बहुत शान्त, श्रद्धालु श्रोता हैं। बहुत आग्रह करने पर कदाचित ही कभी कुछ स्वयं बोलते हैं। यह शास्त्रचर्चा, सत्संग ऐसा है कि कम ही इसमें समय का ध्यान रह पाता है। यदुकुल के कुमार स्मरण न दिलावें तो श्रीद्वारिकाधीश उठें ही नहीं किन्तु कुमारों को भी तो समय चाहिए। वे रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत होते ही संकेत से और उस पर ध्यान न दिया जाय तो अन्त में विवश होकर स्पष्ट नम्रतापूर्वक प्रार्थना करते हैं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश: द्वारिकाधीश
भाग- 139

रात्रि के द्वितीय प्रहर में महारानियों के समीप उनके पुत्र-पौत्रादि एकत्र हो जाते हैं। पुत्रवधुएँ किंचित ओट लेकर बैठ जाती हैं। श्रीकृष्णचन्द्र अपने परिवार के बच्चों की सुनते हैं। उन्हें कुछ समझाते हैं। नाना आख्यान, कथाएँ सुनाकर उचित शिक्षा देते हैं। सबकी शिक्षा, आचरण का विवरण जानते हैं और जिसे जो सिखलाना, बतलाना है, जिसकी जो समस्या है, उसे सुनते, पूरा करते हैं। मध्यरात्रि में यह अन्तःपुर का समाज अनिच्छापूर्वक ही विसर्जित होता है क्योंकि शयन के लिए रात्रि का तृतीय प्रहर ही है और यही अवसर दम्पत्ति के एकान्त-मिलन का भी है। उपासना, सन्ध्या, हवन, तर्पण, जप के अतिरिक्त श्रीकृष्णचन्द्र के आह्निक[1] सब कृत्यों में व्यवधान के लिए अवसर है और ऐसा व्यवधान प्रायः पड़ता रहता है क्योंकि उन भक्तवत्सल को कोई अभीप्सु अथवा आर्तभक्त कब पुकारने लगेगा, इसका कोई नियम नहीं और किसी को प्रेम भरी पुकार अनसुनी कर देना स्वयं श्रीकृष्ण के ही वश में नहीं। द्वारिका में कोई ऋषि-महर्षि, तपस्वी कब आ जायेंगे इसका भी कोई नियम नहीं। ये आते ही रहते हैं और श्रीकृष्णचन्द्र के ही दर्शन करने तो सब आते हैं। ये ब्रह्मण्यदेव सब छोड़कर दौड़ेंगे और आगत का सत्कार सविधि पूजन करने में लग जायेंगे। तब इन्हें अपने शरीर की भी सुधि नहीं रहेगी। इतने पर भी श्रीकृष्णचन्द्र के सब आह्निक कृत्य यथोचित सम्पन्न होते हैं। अतिथि, ब्राह्मण, विप्र, गुरुजन, स्वजन ही नहीं- प्रजा, पशु-पक्षियों तक को उनका प्रतिदिन का स्नेह सत्कार निर्बाध प्राप्त होता है।
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द्वारिका में कृशकाय, मलिन वस्त्र, दीर्घश्मश्रु पुरुष आया। वेश-भूषा से वह ब्राह्मण नहीं लगता था। दीर्घ मार्ग पार करके आया था और उसका अश्व कहीं मार्ग में ही मर गया होगा इतना उसे देखकर समझा जा सकता था। सर्वथा अपरिचित था द्वारिका के लिए। द्वारपाल चाहते थे कि वह अतिथिशाला में विश्राम कर ले और स्नान, भोजन करके श्रान्ति दूर कर ले, किन्तु उसका आग्रह था कि उसे पहिले श्रीद्वारिकाधीश के दर्शन करने हैं। श्रीद्वारिकाधीश अनाथनाथ, अशरणशरण, सर्वसमर्थ, करुणावरुणालय हैं। विश्व के पीड़ित प्राणों की, आतों की प्रार्थना उन्हीं के चरणों तक पहुँचती है। ऐसे किसी को कभी भी रोकने की अनुमति नहीं है। द्वारपालों ने उस व्यक्ति को सीधे सुधर्मा सभा में पहुँचा दिया। उस आगत ने पहुँचते ही प्राणिपात किया सबको और स्पष्ट कह दिया- 'मैं अतिथि नहीं हूँ अतः आप सत्कार की चिंता छोड़ दें। जो निरालम्ब, असहायों की विपत्ति के एकमात्र सहायक हैं, उन्हीं के चरणों तक कुछ उत्पीड़ित निरुपायों की प्रार्थना पहुँचाने आया हूँ।'

‘आप आसन ग्रहण करें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'निःसंकोच अपनी बात कहें।' 'मैं मगध से, गिरिव्रज से आ रहा हूँ।' उस व्यक्ति ने न अपना नाम-गोत्र बतलाया, न आसन ग्रहण किया। उसने सीधे प्रयोजन को ही प्रकट किया- 'वहाँ के अतुल पराक्रम अहंकार के साक्षात स्वरूप जरासन्ध को आप जानते हैं। उसमें दस सहस्र गजबल है और इससे वह मदोन्मत्त हो गया है। उसकी दिग्विजय में जिन्होंने प्रतिकार का साहस किया, जिन्होंने उसके मथुरा आक्रमण में साथ नहीं दिया, ऐसे सब राजाओं को बलपूर्वक पकड़कर वह ले आया और अपने कारागार में बन्दी कर दिया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:श्री द्वारिकाधीश
भाग- 140

उन नरेशों की संख्या छियासी है।उसने संकल्प किया है कि और चौदह नरेशों को बन्दी करने के पश्चात उन मूर्धाभिषिक्त सौ राजाओं की बलि देकर नरमेघ यज्ञ करेगा। मैं उन बन्दी राजाओं की प्रार्थना श्रीचरणों तक पहुँचाने किसी प्रकार आ सका हूँ।'

जो मगधराज के कारागार में पड़े हैं, वे कितने प्रयत्न से किसी को अपना सन्देशवाहक बना सके होंगे यह समझा जा सकता था। सन्देश कैसे पाया जा सका होगा, सन्देशवाहक क्यों अपने को अपरिचित ही रखना चाहता है, यह भी स्पष्ट था। वह उन बन्दी नरेशों का ही कोई स्वजन सुहृद होगा और मगधराज का प्रत्यक्ष कोपभाजन बनने से बचना चाहे, यह स्वाभाविक है। उसने जो साहस किया वही बहुत अधिक है। उससे किसी ने भी परिचय आदि नहीं पूछा। उसने राजाओं के सन्देश को, प्रार्थना को सुना दिया-

'योगेश्वर! अप्रमेयात्मा परमप्रभु! आपका अवतार पृथ्वी पर दुष्टों का दमन तथा सत्पुरुषों का रक्षण करने के लिए ही हुआ है अतः कोई एक आपके निर्देश की अवज्ञा कर रहा है अथवा हम आपके जन अपने ही कर्मों का यह दुष्फल भोग रहे हैं, यह हम नहीं जानते।'

'आपके श्रीचरणों का स्मरण ही समस्त शोक-संताप का शोषण कर लेने वाला है। हम आपके सेवक हैं, आपके शरणापन्न हैं, जैसे सिंह भेड़ों को घेर कर मारने की घात में बैठा हो, यही अवस्था इस समय जरासन्ध ने हम सबकी कर रखी है। प्रतिक्षण मृत्यु की प्रतीक्षा से आर्त हम अपने आश्रितों को आप ही इस आतंक से मुक्त कर सकते हैं।'
'आप सर्वेश्वर चक्रपाणि ने इसे सत्रह बार पराजित करके भी प्राणदान कर दिया। एक बार पता नहीं कौन-सा नर नाट्य अपनाकर आप इसके सम्मुख से युद्ध में हट गये किन्तु इससे तो यह गर्वान्ध हो गया है। स्वयं इसे आपने बार-बार छोड़ा और इसने युद्ध में अपने से पराजित हममें से किसी को क्षमा नहीं किया। अजित! हम सब आपकी प्रजा हैं और बहुत संतप्त हैं, अब आप जो उचित हो वह करें।'

वह पुरुष अपनी बात पूर्ण करके चुप ही हुआ था कि सहसा गगन से एक प्रकाश उतरता दीख पड़ा। भगवन्नाम-कीर्तन की ध्वनि आयी और स्पष्ट हो गया कि देवर्षि पधारे हैं। सब लोग उठ खड़े हुए।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश: द्वारिकाधीश
भाग- 141

सबका प्रणिपात स्वीकार करके जब देवर्षि ने आसन ग्रहण कर लिया तो उनकी अर्चना करते हुए श्रीकृष्णचन्द्र ने पूछ लिया- 'आप कहाँ से आ रहे हैं?'

'इन्द्रप्रस्थ से।'

'हमारे भाई पाण्डुपुत्र सकुशल हैं?'

'सब सानन्द हैं।'
देवर्षि ने कहा- 'मैं युधिष्ठिर की प्रार्थना लेकर ही आया हूँ। वे दिग्विजय करके राजसूय यज्ञ के द्वारा तुम्हारी- तुम यज्ञपुरुष की पूजा करना चाहते हैं और उनके तुम्हीं एकमात्र आश्रय हो। तुम चाहो, पूर्ण करो तो उनकी कामना पूर्ण होगी। अतः तुम उनका अनुमोदन, सहायता, समर्थन, ही मत करो, उनकी कामना को सम्पन्न करो।'

'देवर्षि का आदेश सदा सम्मान्य है।'
सात्यकि बोल उठे- 'पांडव हमारे स्वजन है, सम्बन्धी हैं और श्रीद्वारिकाधीश पर ही निर्भर हैं अतः उनका प्रयोजन हमको तत्काल पूर्ण करना चाहिए।'

'पहिला कर्तव्य है शरणागतों की रक्षा।' भगवान संकर्षण गम्भीर स्वर में बोले- 'राजसूय कुछ काल रुक सकता है, किन्तु जो कारागार में बन्दी हैं उनका एक-एक दिन उनके लिए भारी हो रहा है। उनको अविलम्ब परित्राण दिया जाना चाहिए।'

अब यादव सभा में दो पक्ष हो गये और इस बात पर विवाद होने लगा कि पहिले क्या करना है। दोनों कार्य ही है इसमें दो मत नहीं थे किन्तु प्राथमिकता किसे दी जाय? सात्यकि अर्जुन के शस्त्र-शिष्य, द्वारिका की सेना के प्रधान योद्धा। उनका और उनके समर्थक लोगों का मत पांडवों को प्रथम सहायता देना था। भगवान बलराम, कृतवर्मा आदि पहिले मगध पर आक्रमण करके राजाओं को कारागार से मुक्त करने के पक्ष में थे।

पांडवों को राजसूय के लिए दिग्विजय करनी पड़ेगी। इसमें कितना काल लगेगा, कुछ पता नहीं और दिग्विजय के लिए उन्हें सम्पूर्ण शक्ति से सहायता देनी पड़ेगी। मगधराज जरासन्ध सत्रह बार भले पराजित किया गया हो, तब वह मथुरा आया था। मगध पर आक्रमण पूरी शक्ति के बिना बुद्धिमानी नहीं। अतः दोनों कार्य साथ करने की बात ही नहीं सोची जा सकती।

थोड़ी देर कोलाहल, तर्क-वितर्क होता रहा। लेकिन शीघ्र सबने लक्षित कर लिया कि श्रीकृष्णचन्द्र शान्त बैठे हैं। श्रीबलराम जी ने भाई से कहा- 'तुम चुप हो, तुम क्या चाहते हो?'

श्रीकृष्ण क्या कहते हो, यह सुनने को सब शान्त हो गये। उन द्वारिकाधीश ने उद्धव से कहा- 'वृह्दवल! तुम हमारी राजसभा के प्रधानमंत्री हो। देवगुरु वृहस्पति के शिष्य हो। हम सब तो तुम्हारी बुद्धि के नेत्रों से देखने वाले हैं। तुम्हारी जो सम्मति होगी उसी पर श्रद्धा करके हम वैसा ही करेंगे।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:द्वारिकाधीश
भाग- 142

महामन्त्री उद्धव का विरोध और वह भी जब द्वारिकाधीश स्वयं उनको निर्णायक मान लें, कोई कैसे करेगा। सबकी दृष्टि उद्धव की ओर लग गयी। उद्धव ने भूमि में मस्तक रखकर प्रणाम किया और उठकर खड़े हो गये–

'देव! आप शरणागत वत्सल हैं। आर्तों के परित्राता हैं। आपके श्रीचरणों तक पहुँची पुकार कभी निराश नहीं लौटती। अतः नरेशों को परित्राण तो प्राप्त होगा ही।' श्रीबलराम, कृतवर्मा, राजाओं का दूत, सबने प्रशंसा की दृष्टि से उद्धव की ओर देखा।

'आप ही यज्ञपुरुष हैं। पांडव आपके चरणाश्रित हैं और आपकी ही अर्चा करना चाहते हैं। भक्त-वांछा-कल्पतरु आपके पाद पद्मों तक आयीं कामना अधूरी तो नहीं रह सकती; देवर्षि सात्यकि प्रभृति प्रसन्न हुए और चौंके कि उद्धव कहना क्या चाहते हैं।

'राजाओं को बन्दीगृह से छुड़वाने के लिए मगधराज को पराजित करना होगा और राजसूय करने के लिए दिग्विजय आवश्यक है जो बिना जरासन्ध को पराजित किये पूर्ण नहीं होगी। अतः मुझे तो दो कार्य ही सम्मुख नहीं दीखते। जो दो कार्य हैं, उन दोनों की सम्पन्नता जरासन्ध के पराजय की माँग करती हैं।' उद्धव की सबने मन में प्रशंसा की।

'लेकिन जरासन्ध के गिरिव्रज पर आक्रमण के लिए सौ अक्षौहिणी सेना भी अपर्याप्त है।' अब उद्धव ने तात्पर्य स्पष्ट किया- 'मेरी सम्मति है कि आपका सान्निध्य प्राप्त हो तो द्वन्द्व युद्ध में भीमसेन उसे मार देने में समर्थ हैं और यदि आप भीम को लेकर ब्राह्मण वेश में जाकर द्वन्द्व युद्ध माँगे तो जरासन्ध अस्वीकार नहीं करेगा। सेना लेकर मगध पर आक्रमण मुझे उचित नहीं लगता। उसके सब समर्थक आ जायेंगे और हम बाहर से भी घिर जायेंगे वहाँ। गिरिव्रज पर्वतों के दृढ़ दुर्ग के कारण दुर्गम्य है।'

'सर्वश्रेष्ठ सम्मति! उद्धव की सम्मति बहुत उपयुक्त है।' महाराज उग्रसेन बोल उठे। दूसरे यदुवृद्धों ने भी समर्थन कर दिया।

'हम ऐसा ही करेंगे।' श्रीकृष्णचन्द्र ने स्वीकृति दे दी। यद्यपि यदुवंश के तरुणों को, कृतवर्मा को भी यह मत रुचा नही किन्तु जब महाराज ने समर्थन कर दिया, श्रीद्वारिकाधीश ने स्वीकार कर लिया तो अब कुछ भी कहने को रह क्या गया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश: द्वारिकाधीश
भाग- 143

'आप स्नान-आहार आदि करके विश्राम कर लें।'
दूत को श्रीकृष्ण ने कहा- 'कल प्रातः आपको यात्रा के उपयुक्त अश्व मिल जायेगा। उन नरेशों को कह दें कि मैं उनकी मुक्ति के प्रयत्न में लग गया हूँ।'

देवर्षि अनुमति लेकर विदा हो गये। द्वारिका में इन्द्रप्रस्थ प्रस्थान की प्रस्तुति प्रारम्भ हो गयी। यह निर्णय वहीं हो गया कि श्रीसंकर्षण द्वारिका में महाराज उग्रसेन के समीप रहेंगे तथा महासेनापति अनाधृष्ट और कृतवर्मा के साथ नगर एवं प्रजा की रक्षा का दायित्व सम्हालेंगे।

श्रीकृष्णचन्द्र अपनी सभी पत्नियों एवं पुत्रों तथा उद्धव, सात्यकि को लेकर इन्द्रप्रस्थ जायेंगे और धर्मराज के राजसूय यज्ञ का सम्पादन करेंगे। दूसरे दिन जब वह मगध से आया दूत विदा हुआ, श्रीद्वारिकाधीश भी प्रस्थान ही करने वाले थे।

श्रीकृष्णचन्द्र ने जब कुण्डिनपुर में रुक्मिणी का हरण किया था और जरासन्धादि नरेश श्रीबलराम जी के द्वारा संचालित यादव सेना से पराजित हो गये थे तब उन पराजित नरेशों में शाल्व भी था। जब सब अपनी सेना, वाहनों में-से अधिकांश खोकर, कुछ आहत होकर भागे तो कुण्डिनपुर ही लौट आये थे शिशुपाल के समीप। उस समय सब पराजित नरेशों के सम्मुख शाल्व ने प्रतिज्ञा की- 'मैं पृथ्वी को यादव रहित बना दूँगा।'

शाल्व की प्रतिज्ञा पर उसके साथियों ने ही उस समय ध्यान नहीं दिया था तो दूसरा कौन देता। यह पराजय की खीझ थी, किन्तु शाल्व ने तपस्या करनी प्रारम्भ कर दी। वह दिन रात्रि में केवल एक बार एक मुट्ठी रेत फांक लेता था। इस प्रकार रेणु-आहार करते हुए वह भगवान पशुपति की आराधना कर रहा था।

एक वर्ष तक शाल्व इसी प्रकार कठोर तप करता रहा। भगवान उमापति प्रसन्न हुए। उन्होंने वरदान माँगने को कहा।
शाल्व ने माँगा- 'वृष्णि वंश के लोगों के लिए भयंकर, देवता, असुर, गन्धर्व, नाग, राक्षसों के लिए अभेद्य और इच्छानुसार चल सके ऐसा विमान मुझे दें।'

शाल्व  के पास सौम नामक विमान था। भगवान शंकर के आदेश से दानवेन्द्रमय ने उसी विमान को शाल्व की इच्छानुसार सुधार दिया। त्रिपुर-निर्माता, असुर विश्वकर्मा मय के द्वारा परिष्कृत वह विमान पूरा नगर था, लौह का बना हुआ।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 144

सौभ विमान जल, स्थल में कहीं भी, पर्वत के विषम शिखर पर और दलदल में भी उतर सकता था। आकाश में स्थिर खड़ा रह सकता था। वह इतना विशाल था कि राजधानी का पूरा नगर उसमें समा सके, सम्पूर्ण सुविधा के साथ। अकल्पनीय तीव्र गति थी उसकी और इच्छानुसार उसे ले जाया जा सकता था किसी आँधी, वर्षा, ओलों आदि का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता था।

सौभ विमान में भीतर रहने वालों को सब सुविधा थीं, किन्तु विमान के चलने का कोई शब्द नहीं होता था और उससे बाहर तनिक भी प्रकाश नहीं निकलता था। कुछ देर तक वह अदृश्य भी रह सकता था।

सौभ युद्धीय विमान था। उसमें अस्त्र-शस्त्र भरे थे और उनके चारों ओर प्रयोग की सुविधा थी। वह बहुत सुदृढ़ था। अतः उस पर आक्रमण करके कोई उसे क्षति पहुँचा सके, यह अत्यन्त कठिन था। इतना होने पर भी शाल्व श्रीकृष्णचन्द्र से सम्मुख युद्ध करने से बचता रहा। वह जानता था कि उनके चक्र का प्रतिकार नहीं है और गरुड़ के लिए कोई विमान- सुर असुर सबके विमान तुच्छ हैं। लेकिन जब राजसूय यज्ञ के अवसर पर इन्द्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण ने भरी सभा में शिशुपाल को मार दिया, शाल्व वहाँ नहीं था। सुनते ही वह क्रोधोन्मत्त हो गया। शिशुपाल अत्यन्त घनिष्ट मित्र था शाल्व का। यह अवसर भी था द्वारिका पर आक्रमण करने का क्योंकि श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ में थे।

राजसूय के अन्त में श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने पुत्रों को द्वारिका भेज दिया था सात्यकि के साथ। केवल वे रह गये थे इन्द्रप्रस्थ में।

शाल्व समझता था कि द्वारिका आकाश से आक्रमण होने पर बहुत शीघ्र नष्ट कर दी जा सकेगी। बहुत बड़ी सेना एकत्र कर रखी थी उसने। वह बहुत समय से आक्रमण की तैयारी में लगा था। उसने अवसर का लाभ उठाने के लिए शीघ्रपूर्वक सेना को दौड़ाया और उस विशाल सेना ने अचानक द्वारिका घेर लिया।

शाल्व ने व्यवस्था की थी कि द्वारिका से जल, स्थल, आकाश किसी भी मार्ग से कोई चर निकलकर इन्द्रप्रस्थ अथवा अन्यत्र कहीं भी समाचार देने न जा सके। अकस्मात भारी सेना के आक्रमण का लाभ उसे मिला। द्वारिका पहुँचने से सेतु पर उसका अधिकार हो गया और सेना द्वारिका द्वीप पर उतरकर उसे चारों ओर से घेरे में लेने में सफल हो गयी। यादव उस सेतु को हटा देने का अवसर नहीं पा सके।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्रीश्री द्वारिकाधीश
भाग- 145

शाल्व को शीघ्र पता लग गया कि द्वारिका का मुख्य भाग उसके विमान के लिए भी अगम्य है। वह नगर को जितनी सरलता से नष्ट करने योग्य समझता था, वैसी बात नहीं है। नगर किसी भी अजेय दुर्ग की अपेक्षा भी अधिक सुरक्षित है।

शाल्व की सेना नगर के बाह्योपवन तथा उद्यानों को नष्ट करने लगीं। शाल्व के सौभ विमान से गोपुरों पर, चतुरष्क महाद्वारों पर, भवनों की अट्टालिकाओं के ऊपरी भाग पर, क्रीड़ा स्थलों पर शस्त्रों की वर्षा प्रारम्भ हो गयी। त्वरित गति से बहुत तीव्र आक्रमण युद्ध कला की एक अत्यन्त विशिष्ट पद्धति है। इसमें आक्रान्त के सावधान होने से पूर्व ही आक्रमणकारी को बहुत अधिक क्षति पहुँचा देने का अवसर मिल जाता है। शाल्व ने यही पद्धति युद्ध में अपनायी।

भगवान संकर्षण ने नगर के भीतरी भाग की रक्षा सम्हाल ली। शाल्व इतना मूर्ख नहीं था कि यह न जानता हो कि यदि उसका विमान नगर के मध्य भाग की ओर पहुँचा तो हलधर का हल अनन्त गगनों में से भी उसे खींचकर पटक देगा। अतः राज-भवन, अन्तःपुर अथवा नगर के मुख्य भाग पर आक्रमण असम्भव था।

शाल्व के आक्रमण से नगर के लोगों में भय की लहर दौड़ी तो तत्काल प्रद्युम्न की घोषणा नगर के प्रत्येक मार्ग में गूँजने लगी- 'किसी को भयभीत नहीं होना चाहिए।शत्रु का शीघ्र दमन कर दिया जायेगा। केवल आप सब अभी गृहों से बाहर न निकलें और भवन की छतों पर न जायें। मायावी शत्रु गगन से आक्रमण कर रहा है।'

शाल्व के विमान से शिलाएँ, वृक्ष वज्र, कीचड़, धूलि ही नहीं बरस रही थी, सर्प तक नगर में गिराये जा रहे थे। प्रचण्ड चक्रवात उत्पन्न करके शाल्व ने दिशाओं को घूलि से भर दिया था। इसलिए लोगों को भवनों के गवाक्ष बन्द कर लेने पड़े थे और वे भयभीत भी हो गये थे।

अनेक बार शक्ति का उन्माद व्यक्ति से बुद्धिहीनता के कार्य करवाता है। शाल्व ने जब देखा कि वह द्वारिका के मुख्य भाग पर आक्रमण नहीं कर सकता, आतंक युद्ध पर उतर आया था। यह युद्ध उसके अपने ही विरुद्ध पड़ रहा हैं, यह उसने नहीं देखा। उसके द्वारा उत्पन्न अन्धड़ ने लोगों के भवन के द्वार, गवाक्षादि बन्द करने को विवश कर दिया; अब उसके द्वारा फेंके गये सर्प स्वयं उसी की शिला एवं वृक्षों तथा शस्त्र-वर्षा में मारे गये क्योंकि वे भवनों के ऊपर या मार्गों पर ही पहुँच सके थे। उन्हें किसी पर आक्रमण का अवसर ही नहीं मिला।

यादव शूर बहुत शीघ्र तत्पर हो गये। प्रद्युम्न के नेतृत्व में सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, अक्रूर, हार्दिक्य, भानुविन्द, गद, शक, सारण आदि महारथी अपने रथों से सेना के साथ मार्गों पर आये और द्वारिका के सभी मार्गों से चारों ओर से नगर द्वारों की ओर शंखनाद करते, जयघोष करते चले तो नगरजनों में फैला आतंक समाप्त हो गया। लोगों में उत्साह आ गया, उन्हें अपने शूरों पर शक्ति पर विश्वास था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:द्वारिकाधीश
भाग- 146

'मायावी राक्षस!' नारियाँ तक चर्चा करने लगीं- 'अब पता लगेगा कि यादव वीरों के दिव्यशास्त्र देवताओं के लिए भी क्यों असह्य माने जाते हैं।'

शाल्व को अपने आतङ्क-युद्ध की व्यर्थता समझ में आ गयी। द्वारिका में कहीं भगदड़ नहीं मची थी। भगदड़ मचती तो लोग भवनों से बाहर मार्गों पर आते, आहत होते, किन्तु यह कुछ नहीं हुआ। अब तो यादव महारथियों ने मोरचे सम्हाल लिये थे और उनका प्रत्याक्रमण बहुत प्रबल था। शाल्व की जो सेना भूमि पर थी उसे प्राणों पर खेलकर युद्ध करना था क्योंकि पीछे समुद्र था। सेतु का एक ही मार्ग था।

सौभ से जो मायायुद्ध प्रारम्भ किया गया था- अंधड़ चलाना, धूलि-कीचड़, पत्थर, सर्प-वर्षा आदि वह प्रद्युम्न के दिव्यास्त्र के प्रथम प्रहार में ही नष्ट हो गया। भूमि पर स्थित शाल्व के सैनिक थोड़े ही क्षणों में आक्रमण करने के स्थान पर आत्मरक्षा करने की स्थिति में पहुँच गये और मारे जाने लगे।

प्रद्युम्न के बाण अत्यन्त असह्य थे। वे स्वर्णपंख, लौहमुख, कठिन झुकी गाँठों वाले बाण और प्रद्युम्न ने एक साथ पच्चीस बाण शाल्व के सेनापति को, सौ बाण शाल्व को तो मारे ही, दस-दस बाण सेनानायकों को, एक-एक बाण सब सैनिकों को और तीन-तीन वाहनों को मारकर पहिले ही आघात में शत्रु-सेना में एक को भी नहीं छोड़ा जो घायल न हो गया हो।

अब शाल्व को अपने भूमि पर स्थित सैनिकों को उनके भाग्य पर छोड़ देने को विवश होना पड़ा और यादव सेना ने उन्हें कुछ ही देर में समाप्त कर दिया। भूमि की ओर से निश्चित होकर यादव शूरों ने सौभ पर ध्यान केंद्रित किया। कठिनाई यह थी कि यह विमान अपनी तीव्र गति के कारण कभी एक दीखता था, कभी अनेक। कभी अदृश्य हो जाता था। कभी समुद्र के जल पर, कभी रैवतक गिरी के कभी शिखर पर, कभी आकाश में दीखता था। विमान बहुत वेग से घूम रहा था, उसकी ठीक स्थिति समझ पाना कठिन हो रहा था, किन्तु जहाँ-जहाँ विमान दीखता था, यादव महारथियों की बाण वृष्टि वहीं होती थी। वे बाण अग्नि के समान प्रज्वलित, सूर्य की किरणों के समान वेगवान, सर्प-विष के समान तीक्ष्ण थे। उनके कारण सौभ में स्थित सैनिकों की भी संख्या घटती जा रही थी। स्वयं शाल्व मूर्च्छित हो गया इस आघात से।

शाल्व के मंत्री द्युमान को बहुत क्रोध आया। स्वयं उसे प्रद्युम्न ने आहत कर दिया था और उसके स्वामी शाल्व को मूर्च्छित कर दिया। द्युमान विमान के निकट आने पर कूद गया और उसने प्रद्युम्न के वक्षस्थल पर गदा मारी। प्रद्युम्न मूर्च्छित हो गये। उनकी छाती में बहुत चोट आयी थी। यह देखते ही उनका सारथि जो दारुक का पुत्र था, रथ को नगर के भीतर वेगपूर्वक हटा ले गया।

प्रद्युम्न का उपचार हुआ। वे शीघ्र चेतना में आये। सावधान होते ही इधन-उधर देखकर सारथि से सरोप बोले- 'यह क्या किया तुमने? मुझे युद्ध भूमि से हटा क्यों लाये? युद्ध में विजय या मृत्यु- यादव वीर पलायन तो नहीं जानते। अब जीवन भर भाभियाँ व्यंग करेंगी कि मैं युद्ध में डरकर भागा।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 147

'मुझे क्षमा करें। आप धर्मज्ञ हैं और जानते हैं कि युद्ध में सारथि पर संकट आवे तो रथी को और रथी पर संकट आवे तो सारथि को रक्षा करनी चाहिए।'
हाथ जोड़कर सारथि ने कहा- 'आप शत्रु के आघात से मूर्च्छित हो गये थे। शत्रु धर्म-युद्ध करेगा, मूर्च्छित पर आघात नहीं करेगा- यह आशा नहीं थी। इसलिए मैं आपको हटा लाया।'

'ठीक है किन्तु अब मुझे सीधे द्युमान के सम्मुख पहुँचाओ।' प्रद्युम्न ने उपचारकर्ताओं का निषेध नहीं सुना। वे रथ पर बैठे और रणभूमि में धनुष चढ़ाये पहुँचे। द्युमान अब रथारूढ़ था। वह सामान्य यादव सैनिकों से भिड़ा था। पहुँचते ही प्रद्युम्न ने उसके चारों अश्व मार दिये, सारथि को समाप्त कर दिया। धनुष काट दिया और एक बाण से उसक मस्तक शरीर से पृथक कर दिया।

गद, सात्यकि, साम्ब प्रभृति विमान में स्थित शाल्व की सेना का संहार करने में लगे थे। यह अत्यन्त भयंकर संग्राम सत्ताइस दिन रात्रि अविराम चलता रहा। शाल्व को अपने विमान में आहार-विश्राम आदि की सब सुविधा प्राप्त थी। वह समझता था कि रात-दिन युद्ध करके यादवों को थका देगा। उसे यह भी देखने का अवकाश नहीं था कि द्वारिका के वाह्य भाग में जो थोड़ा ध्वंस उसके सैनिक कर सके थे वह भी कल्पवृक्ष के प्रभाव से उसी समय निश्चिह्न हो गया था। कल्पवृक्ष के कारण यादव वीरों को क्षुधा-पिपासा अथवा श्रमजन्य कष्ट हो ही नहीं रहा था। वे तो युद्ध प्रारंभ होने के क्षण के ही समान सशक्त और स्फूर्तिमय थे। सत्ताइस दिन रात्रि के अविराम युद्ध का परिणाम यह हुआ कि शाल्व अपने विमान में एकाकी रह गया। उसके सब सैनिक मारे गये। कुछ अत्यधिक घायल, जिनके हाथ-पैर कट गये उन्हें भी नीचे समुद्र में फेंकना ही था। विमान में शव या असाध्य घायल वह कहाँ रखता इतने दारुण युद्ध के समय।

'अभी या कभी नहीं!' शाल्व इसे समझता था। वह 'मरो या मारो' का निश्चय करके युद्ध में जुटा था। एकाकी हो जाने पर विमान से भाग जाता, किन्तु तभी गरुड़ध्वज रथ आ पहुँचा। अब भागना व्यर्थ था। अब भागता है तो श्रीकृष्ण को रथ से गरुड़ की पीठ पर पहुँचते देर नहीं लगेगी।

श्रीकृष्णचन्द्र सर्वज्ञ है। शाल्व ने द्वारिका के लिए प्रस्थान किया तभी उन्होंने धर्मराज से विदा मांगी। उन्होंने इन्द्रप्रस्थ में कहा था- 'मेरा वाम नेत्र और वाम भुजा फड़क रही है। मुझे लगता है कि शिशुपाल के समर्थकों ने मेरी राजधानी पर आक्रमण कर दिया है।'

पांडवों ने अधिक आग्रह नहीं किया किन्तु सब महारानियाँ साथ थीं। उन सबको लेकर आना था। उनकी सुविधा, सुरक्षा का भी ध्यान रखना था। उनके लिए मार्ग में विश्राम आवश्यक था। इस प्रकार द्वारिका पहुँचने में बहुत देर हुई।

श्रीकृष्णचन्द्र ने दूर से ही गगन में उड़ते सौभ-विमान को देख लिया। महारानियों को अन्तःपुर तक पहुँचाने का भार दूसरों पर छोड़ा और सारथि को सावधान किया- 'दारुक! यह शाल्व मायावी है, अतः कहीं भी भ्रम में मत पड़ना।'
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 148

'श्रीद्वारिकाधीश की जय!' गरुड़ध्वज देखते ही यादव सेना में नवीन उत्साह का वेग आया। शाल्व ने यह जयघोष सुना। उसका हृदय बैठ गया। उसने अपनी प्रज्वलित शक्ति दारुक के ऊपर पूरी शक्ति से फेंकी। बड़ी भारी उल्का के समान आती उस शक्ति के श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने बाणों से बीच में ही टुकड़े कर दिये। शारङ्ग से छूटे वाणों के आघात से सौभ विमान शाल्व के नियंत्रण से बाहर होकर आकाश में चक्कर काटने लगा।

अब शाल्व ने सावधान होकर श्रीकृष्णचन्द्र की भुजाओं पर बाण मारे। इससे शारङ्ग धनुष श्रीकृष्ण के हाथ से छूट गिरा। शाल्व अट्टहास करके बोला- 'तू अपने को अपराजित मानता है, किन्तु मैं आज तुझे तेरे साले यमराज के पास भेजकर मानूँगा।'

'मूर्ख, व्यर्थ बकवाद मत कर। काल तेरे समीप आ चुका है, यह तू देख नहीं रहा है।' डाँटकर श्रीकृष्ण ने कौमोदकी गदा फेंकी। शाल्व की जत्रु[1]पर गदा का भारी आघात पड़ा। वह काँपता हुआ, रक्तवमन करता विमान में गिर पड़ा।

कौमोदकी सामान्य गदा तो नहीं है। शाल्व ने गिरते-गिरते देख लिया कि गदा श्रीकृष्ण के करों में लौट गयी है। अब यदि वे पुनः आघात करें- भय के कारण शाल्व तत्काल अदृश्य हो गया।

श्रीकृष्ण सावधान युद्ध करें तो उनका सामना करना संभव नहीं है, यह शाल्व भली प्रकार समझ गया। वे असावधान हों, अन्यमनस्क हों तभी उन पर धोखे से आघात किया जा सकता है- यह सोचकर शाल्व ने माया का आश्रय लिया।

सहसा एक व्यक्ति व्याकुल दौड़ता द्वारिका के द्वार से निकला और समीप आकर बहुत ही उद्विग्न ढंग से प्रणाम करके बोला- 'मुझे माता देवकी ने यह कहने को भेजा है कि शाल्व आपके पिता को उठा ले गया।'

'मेरे अग्रज असावधान नहीं होते। उन्हें कोई माया भ्रान्त नहीं करती। देवता और असुर एक साथ मिलकर भी उनको पराजित नहीं कर सकते। वे द्वारिका का संरक्षण कर रहे हैं। शाल्व मेरे पिता को ले कैसे जा सका?' श्रीकृष्णचन्द्र ने चौंककर पूछा। दूत सिर झुकाये खड़ा रह गया। खिन्न स्वर में बोले- 'तुम कह भी क्या सकते हो। विधि बलवान है। कुछ भी हो जाना कभी असंभव नहीं रहता।

'यह है तुझे जन्म देने वाला तेरा पिता।' इसी समय गगन में शाल्व का भयानक अट्टहास सुनाई पड़ा। वह वसुदेव जी के ही समान पुरुष को एक हाथ से पकड़े, दूसरे हाथ में नग्न खङ्ग उठाये कह रहा था- 'तू कहता फिरता है कि इस पिता के लिए ही तू जीवित है। मैं इसको मार रहा हूँ।यदि तुझमें शक्ति हो तो इसकी रक्षा कर।'

उस वसुदेव का मस्तक काटकर वह सिर लिये हुए ही शाल्व अपने विमान में प्रविष्ट हो गया। शरीर भूमि पर गिर पड़ा। वसुदेव जैसे दीखते उस पुरुष का।

'हा पिता!' श्रीकृष्ण दौड़े। शाल्व की माया का यही बहुत बड़ा बल था कि वह श्रीकृष्ण के सम्मुख भी कोई भ्रान्त दृश्य उपस्थित कर सकी, किन्तु उनका स्पर्श सहन कर ले ऐसी शक्ति उसमें कहाँ से आती। श्रीकृष्ण पिता के शरीर की ओर दौड़े। उसे संभवतः भुजाओं में भर लेते किन्तु समीप पहुँचने पर तो वह शरीर अदृश्य हो गया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 149

'क्या!' श्रीद्वारिकाधीश ने पीछे मुड़कर देखा तो वह दूत भी वहाँ नहीं था।
अब हँसे- 'यह तो मय के द्वारा प्रचलित माया है। लगता है कि शाल्व को मय ने भ्रान्त दृश्य उपस्थित करने की यह विद्या सिखला दी हैं।'

शाल्व ने सौभ में पहुँचते ही शस्त्रों की झड़ी लगा दी। सात्यकि, प्रद्युम्नादि उन शरों, अस्त्रों को काटने में लगे थे। अब श्रीकृष्णचन्द्र ने धनुष उठाया और शाल्व का धनुष, कवच तो उन बाणों से कट ही गया, उसके मस्तक के मुकुट में लगी महामणि भी कटकर गिर पड़ी। मय ने यह मणि देकर उसे कहा था- 'सौभ विमान का संचालन इस मणि की शक्ति से आप स्वेच्छानुसार कर सकेंगे।'

मणि कटकर गिरते ही विमान अस्त-व्यस्त हो उठा था। उस पर श्रीकृष्ण की गदा का भारी प्रहार पड़ा तो वह टुकड़े-टुकड़े होकर समुद्र में गिर पड़ा।

शाल्व विमान के गिरते समय कूदकर भूमि पर आ गया था गदा लेकर। वह अपनी गदा उठाये पूरे वेग से दौड़ा श्रीद्वारिकाधीश की ओर किन्तु बाणों से उसकी गदा उठाने वाली वह भुजा ही श्रीकृष्णचन्द्र ने काट फेंकी।

अब उन चक्रपाणि ने अपना चक्र उठाया। वह सहस्रादित्य संकाश महाज्वालावृत चक्र, उसके आघात से शाल्व का मस्तक ऐसे छिन्न होकर गिर पड़ा जैस वज्र के प्रहार से इन्द्र ने वृत्र का सिर काट दिया था।

शाल्व मायावी था। विमान पाकर दुर्घर्ष हो गया था। सुर भी उससे सशंक रहते थे। उसके मारे जाने पर देवताओं को सबसे अधिक प्रसन्नता हुई। वे गगन में दुन्दुभियाँ बजाने, पुष्पवर्षा करने में लग गये थे।
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श्रीवसुदेव जी की बहिन श्रुतश्रवा का विवाह चेदिराज दमघोष से हुआ था। उनका पुत्र था शिशुपाल। दूसरी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करूषाघिपति वृद्धशर्मा से हुआ था और उसका पुत्र था दन्तवक्र।

युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के पूर्व ही मगधराज जरासन्ध को श्रीकृष्णचन्द्र ने भीमसेन के द्वारा मरवा दिया। राजसूय यज्ञ के समय शिशुपाल को उन्होंने मार दिया। उस समय उस राजसभा में शिशुपाल के जो मित्र, समर्थक राजा थे, भय के कारण प्राण लेकर भाग खड़े हुए थे। वहाँ पांडव, भीष्म, प्रभृति सब समर्थक थे श्रीकृष्ण के, अतः किसी का साहस दो शब्द बोलने का भी नहीं हुआ था।

दन्तवक्र भाग तो गया इन्द्रप्रस्थ से, किन्तु निश्चय हो गया- 'श्रीकृष्ण अवश्य मुझे भी मार देंगे। वे मेरे मित्रों को चुन-चुनकर मार रहे हैं।'

बैकुण्ठ में भगवान नारायण के पार्षद जय-विजय, सनत्कुमार के शाप से इन्हें असुर योनि प्राप्त हुई। कृपालु महर्षि ने तीन जन्म में पुनः बैकुण्ठ लौट आने का विधान कर दिया था। पहिले जन्म में दोनों दिति-पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु। हिरण्याक्ष को भगवान ने वाराह रूप से और हिरण्यकशिपु को नृसिंह रूप धारण करके मारा। दूसरा जन्म रावण-कुम्भकर्ण के रूप में दोनों का हुआ था। त्रेता में श्रीराघवेन्द्र के बाणों ने दोनों को रणशैय्या दी। अब द्वापर में दोनों शिशुपाल-दन्तवक्र होकर उत्पन्न हुए थे। शिशुपाल को श्रीकृष्ण ने सायुज्य दे दिया। अब दन्तवक्र की नियति उसे उत्तेजित कर रही थी।

इन्द्रप्रस्थ से दन्तवक्र बहुत उत्तेजित हो गया था। मार्ग में वह एक ही धुन में था- 'श्रीकृष्ण को मारना ही पड़ेगा, अन्यथा वे मुझे नहीं छोड़ेंगे।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

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