द्वारिकाधीश 13
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 150
शिशुपाल से दन्तवक्र की प्रगाढ़ मित्रता थी। शिशुपाल की मृत्यु ने उसे उन्मत्त-प्राय कर दिया था। लेकिन श्रीकृष्णचन्द्र से युद्ध- जरासन्ध के साथ सभी युद्धों में दन्तवक्र रहा था और प्रत्यके बार उसे पराजित होकर भागना ही पड़ा था। इस पराजय का स्मरण आते ही उसे सूझ गया कि जरासन्ध को द्वंद्वयुद्ध में ही श्रीकृष्ण ने मरवाया है। द्वन्द्वयुद्ध, यही उसे उपयुक्त उपाय लगा।
श्रीकृष्ण के चक्र का किसी के पास कोई भी प्रतिकार नहीं है। किन्तु शरीर से तो वे दन्तवक्र को बहुत दुर्बल लगते हैं। दन्तवक्र द्वापर में लोगों में भी इतना महाकाय है कि उसके शत्रु उसे दैत्य कहते हैं और मित्र सम्मानपूर्वक 'सतयुग के पुरुष' संबोधित करते हैं। गदायुद्ध का वह अभ्यासी है और यदि पैदल केवल गदा लिये चला जाय श्रीकृष्ण के सम्मुख तो श्रीकृष्ण को भी गदा लेकर पैदल ही उससे युद्ध करना पड़ेगा। इस प्रकार दन्तवक्र को अपनी विजय का विश्वास है। वह समझता है कि उसकी गदा का एक प्रहार पर्याप्त है श्रीकृष्ण के लिए।
'शाल्व अपने विमान से द्वारिका पर आक्रमण करने चला गया है।'- दन्तवक्र ने यह करुष पहुँचते ही सुन लिया। उसने अपने भाई विदूरथ से कहा- 'शाल्व का क्या होगा, नहीं जानता किन्तु मैं इस बार श्रीकृष्ण को मार न सका तो लौटूँगा नहीं।'
दन्तवक्र तत्काल द्वारिका के लिए चल पड़ा। अपने छोटे भाई को उसने कुछ कहने का समय ही नहीं दिया। विदूरथ भी जितनी शीघ्रता कर सकता था, करके बड़े भाई के लगभग पीछे ही रथ में बैठकर भागा।
दन्तवक्र अकेला द्वारिका पहुँचा। उसने रथ छोड़ दिया और गदा उठाये पैदल सेतु पार किया उसने। यह स्पष्ट था कि शाल्व की सेना समाप्त हो चुकी है। श्रीकृष्णचन्द्र शाल्व को मारकर नगर में जाने के लिए रथ में बैठे ही थे कि गदा घुमाता, दैत्य के समान दौड़ता आता दन्तवक्र दीखा।
दन्तवक्र गदा युद्ध करने आया था। उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी- एक भरपूर गदा वह कृष्ण के वक्ष पर मार सके, बस। श्रीद्वारिकाधीश उसे देखते ही रथ से कूदे और गदा उठाये दौड़े दन्तवक्र के सामने। दन्तवक्र रुका। उसने अपनी भारी वज्र के समान गदा उठाई और श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर भरपूर वेग से प्रहार किया। उन मधुसूदन ने यह आघात रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया था। जैसे वे पूजोपहार ग्रहण करते हैं, गदाघात वक्ष पर ले लिया और उससे उनके श्रीअंग में कम्पन तक नहीं हुआ।
अब श्रीद्वारिकाधीश ने अपनी कौमोदकी गदा उठाकर दन्तवक्र के वक्ष पर प्रहार किया वक्ष फट गया दन्तवक्र का। पसलियाँ चूर-चूर हो गयीं। मुख से रक्तवमन करता वह चक्कर खाकर गिरा। सहसा उसके मुख से वैसी ही ज्योति निकली जैसे शिशुपाल के शरीर से निकली थी। यह ज्योति भी श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में लीन हो गयी।
दन्तवक्र को सद्गति देकर श्रीकृष्ण अभी अपने रथ पर बैठने ही जा रहे थे कि दन्तवक्र का छोटा भाई विदूरथ आ पहुँचा। वह रथ दौड़ाता ही आया था किन्तु दूर से उसने बड़े भाई को गिरते देख लिया। रथ त्यागकर तलवार-ढाल लेकर टूट पड़ा वह श्रीकृष्ण पर।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 151
विदूरथ तलवार का धनी था। किन्तु नेत्रों के सम्मुख बड़े भाई को मरते देखकर धर्मयुद्ध के नियम भूल गया था। श्रीकृष्ण पैदल थे और उनके कर में केवल गदा थी। विदूरथ को गदायुद्ध नहीं करना था तो उसे पुकारकर श्रीकृष्ण को तलवार उठाने के लिए सावधान करना चाहिए था और इतना समय देना था। उसने क्रोधावेश में यह कुछ नहीं किया। वह तो चाहे जैसे बने अपने अग्रज को मारने वाले को मार देना चाहता था।
जब प्रतिपक्षी धर्मयुद्ध का ध्यान न रखे, दूसरा भी स्वतंत्र हो जाता है। श्रीकृष्ण का चक्र तो हाथ उठाते ही उनके करों में आ जाता है। उन्होंने विदूरथ का मस्तक चक्र से काट फेंका।
इस प्रकार शाल्व, दन्तवक्र, विदूरथ तीनों कुछ ही क्षण के अंतर में वहाँ रणभूमि में मारे गये। श्रीद्वारिकाधीश को अब नगर प्रवेश का अवकाश मिला।
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श्रीहरि स्वभाव से ही गर्वहारी हैं और अपने आश्रितों में तो अभिमान की गन्ध भी उन्हें असह्य हैं। अतः जब किसी भगवदाश्रित में अपने किसी गुण का गर्व आता है। तब उसके साथ कोई न कोई दुर्घटना उसके गर्व को शमित करने के लिए अवश्य घटित होती है।
एक दिन श्रीकृष्णचन्द्र ने गरुड़ को आज्ञा दी- 'तुम गन्धमादन पर जाकर श्रीहनुमान जी को ले आओ। उनको कहना कि उन्हें उनके आराध्य ने बुलाया है। गरुड़ के जाते ही चक्र को आज्ञा दी- 'द्वार पर रहो और किसी को भी भीतर मत आने दो।'
सत्यभामा जी से कहा- 'महारानी रुक्मिणी जी से कह दो कि वे श्रीजानकी का रूप बनाकर मेरे समीप बैठें। पवन पुत्र को बुलाया है। उनके सम्मुख तो मुझे भी श्रीराम का रूप ही धारण करना है।'
'मैं क्या सीता से कम सुंदर हूँ।'
सत्यभामा ने कहा- 'मिथिला अथवा अवध की महिलाओं के समान वस्त्राभरण ही तो बदलने हैं। यह मैं अभी किये लेती हूँ।'
'यह तुम जानो। मैंने तो तुम्हें सावधान किया है।' श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर बोले।
उधर गरुड़ गन्धमादन पर पहुँचे तो हनुमान जी 'रघुपति राघव राजा राम' के कीर्तन में तन्मय थे।
गरुड़ ने कहा- 'द्वारिका चलिए।'
'क्यों?'
'आपके आराध्य ने बुलाया है'
'आप पधारें, मैं आ रहा हूँ।'
'मेरी पीठ पर बैठ जाइये। मुझे साथ ले आने की आज्ञा है।'
'मुझे वाहन नहीं चाहिए। आप चलें, मैं आपसे पहिले पहुँच जाऊँगा।'
'आपको गरुड़ के वेग की कल्पना भी नहीं है।' गरुड़ ने सगर्व कहा- 'मेरी गति आपके पिता वायु से बहुत तीव्र है। मेरी गति की त्रिभुवन में तुलना नहीं है।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 152
वह सब मैं नहीं जानता, किन्तु आप चलें! मैं आ रहा हूँ।'
'आप ऐसे नहीं चलेंगे तो मुझे बलपूर्वक आपको पकड़कर ले जाना पड़ेगा।'
गरुड़ अकड़े- 'मेरे वेग के समान ही मेरी शक्ति अतुलनीय है। सुर-असुर सब मिलकर भी मेरे पराक्रम के समान नहीं हो पाते।'
'अच्छा- यह बात है।' सच्चा सेवक अपने स्वामी का मन समझने वाला हो जाता है। हनुमान जी को समझते देर नहीं लगी कि उनके कौतु की प्रभु ने क्यों गरुड़ को उनके पास भेजा है। उन्होंने गरुड़ की पूँछ पकड़ी और घुमाकर उन्हें फेंक दिया। गरुड़ जाकर द्वारिका के पास समुद्र में गिरे और वेग से फेंके जाने के कारण डूबते चले गये अतल गहराई तक।
श्रीहनुमान जी भी द्वारिका के लिए उछले। श्रीकृष्णचन्द्र के भवनों के बहिर्द्वार पर ही वे उतरे, किन्तु चक्र ने उन्हें रोक दिया- 'किसी को भी भीतर जाने की आज्ञा नहीं है।'
'मुझे तो त्रेता में दशग्रीव-विजय के अवसर पर अयोध्या आने पर प्रभु ने कह दिया था- 'वत्स हनुमान! तुम्हारे लिये अन्तःपुर के एकान्त में भी आने में कोई अवरोध किसी समय नहीं है।'
'त्रेता में किसी वानर को दी गयी इस अनुमति को मानने के लिए मैं बाध्य नहीं हूँ।' चक्र प्रज्वलित हो उठा- 'तुम भीतर नहीं जा सकते।'
हनुमान जी तो गरुड़ के मिलते ही समझ गये थे कि उनके स्वामी आज क्या लीला कर रहे हैं। जिन्होंने जन्मते ही भुवन भास्कर को मुख में रख लिया था उन्हें चक्र की ज्वाला की चिन्ता क्या होती। चक्र को उठाकर उन्होंने मुख के भीतर बायें गाल में दबा लिया।
सिंहासन पर द्विभुज को दण्डधारी बने श्रीकृष्णचन्द्र आसीन थे। हनुमान जी ने दण्डवत प्रणिपात किया सम्मुख पहुँचकर तो बड़े स्नेह से उन्हें उठाया। चरणों के समीप वीरासन से अंजलि बाँधकर वे प्रभंजनतनय ऐसे बैठ गये जैसे अयोध्या के सिंहासन के समीप ही बैठे हों। बैठते ही मस्तक झुकाया उन्होंने मानो कुछ कहना हो।
'क्या कहना है वत्स?' बड़े प्रेम से पूछा गया।
'आज अम्बा के दर्शन नहीं हुए।' श्रीहनुमान जी ने मुख नीचे झुकाये हुए ही कहा- 'प्रभु सर्वसमर्थ हैं किन्तु उनका स्थान आज यह किस दासी को देकर प्रभु ने सत्कृत किया है?'
सत्यभामा जी का मुख लज्जा से लाल हो उठा। वे उसी क्षण उठकर भाग गयीं भीतर। उन्होंने स्वयं रुक्मिणी को भेजते हुए उनसे कहा- 'बहिन! तुम्हीं जाओ! वह तुम्हारा वानर-पुत्र आया है और दूसरी सबको वह दासी ही समझता है।' सत्यभामा जी रो पड़ीं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 153
ओह! हनुमान आया है।' रुक्मिणी जी तो ऐसी वात्सल्य विभोर हुई कि उन्होंने सत्यभामा जी के अश्रु पर ध्यान नहीं दिया। वे जैसे थीं वैसे ही चली आयीं श्रीद्वारिकाधीश के समीप और जैसे ही आयीं हनुमान जी ने उठकर उनके पादपद्मों में मस्तक धर दिया- अम्बे!'
'तुम अच्छे आये हनुमान'
श्रीकृष्णचन्द्र ने पूछा- 'तुम्हें किसी ने रोका तो नहीं?'
'यह एक खिलौना मिल गया था द्वार पर।' अब श्रीमारुति ने चक्र को मुख में से निकालकर बाहर छोड़ दिया- 'इसे इतना भी पता नहीं कि मुझे आपने अपने श्रीचरणों में पहुँचने की अबाध अनुमति दे रखी है।'
चक्र को तो अब स्नान करना था। इसी समय समुद्र जल से भीगे क्लान्त गरुड़ आये। उनकी ओर देखकर श्रीआंजनेय ने कहा- 'आपने इस अत्यन्त दुर्बल मन्दगति पक्षी को वाहन बना लिया तो यह धृष्ट हो गया है। जब कभी शीघ्रगमन आवश्यक हो तो इस सेवक को स्मरण कर लिया करें।'
'तुम्हारे स्कन्ध पर एक साथ हम दोनों भाई वन-यात्रा के समय बैठ लेते थे वत्स।' अत्यन्त स्नेहपूर्वक कहा गया- 'राजधानी में पहुँचकर तो यह उपयुक्त नहीं रहा। अब तुम्हारी ये अम्बा इसे स्वीकार नहीं करतीं कि उनके पुत्र को कोई वाहन बनावे।
'तुम्हें देखने की बहुत इच्छा थी हनुमान!' श्रीरुक्मिणी जी ने कहा। माता को अपने स्नेहभाजन सुत को देखने की इच्छा हो-स्वाभाविक बात थी और अब हनुमान जी को क्यों बुलाया गया, यह पूछना अनावश्यक हो गया।
गरुड़ ने, चक्र ने और श्रीसत्यभामा जी ने भी समझ लिया कि शक्ति, गति, सौन्दर्य, सद्गुण के नित्यधाम तो श्रीद्वारिकाधीश ही हैं, जिस पर वे कृपा करें वही इनसे सम्पन्न रहता है
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'गोपी प्रेम की मूर्तियाँ, प्रेम की आदर्शभूता हैं। भक्ति का सम्पूर्ण स्वरूप व्रज की गोपाङ्गनाओं में ही प्रकट हुआ है।' श्रीकृष्णचन्द्र अनेक बार यह बात कहते हैं।
'मेरी भक्ति में त्रुटि कहाँ है?' देवर्षि नारद को लगता है कि गोपियों के वर्णन के द्वारा श्रीद्वारिकाधीश उन्हें सदा कुछ समझाना चाहते हैं किन्तु क्या? आज यह पूछने का ही निश्चय करके देवर्षि द्वारिका आये थे।
महरानी रुक्मिणी जी ने आज स्वागत किया।
देवर्षि ने पूछा- 'आपके स्वामी?'
'वे कक्ष में हैं और सबको मना कर दिया है कि कोई भीतर न आवे।'
महारानी ने कहा- 'आप पर तो किसी का प्रतिबंध लगता नहीं।'
देवर्षि को कुतूहल हुआ- एकान्त में श्रीकृष्णचन्द्र ऐसा क्या कर रहे हैं कि रुक्मिणी देवी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं हैं। वे कक्ष में पहुँचे और ठिठककर खड़े रह गये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 154
'अविनय क्षमा करें!' श्रीकृष्णचन्द्र शैय्या पर पीताम्बर ओढ़े क्लान्त पड़े थे। लेटे लेटे ही बोले- 'मस्तक में अतिशय पीड़ा होने के कारण अभ्युत्थान में असमर्थ हो रहा हूँ।'
श्रीकृष्ण के चिन्मय शरीर में रोग संभव नहीं- यह बात स्वस्थ चित्त स्मरण कर सकता है। उन परम प्रेमास्पद की क्लान्ति, शिथिल स्वर ने देवर्षि को व्याकुल बना दिया। वे शैय्या के समीप पहुँचे और मस्तक का कर से स्पर्श करते बोले- 'द्वारिका में कोई कुशल चिकित्सक नहीं? मैं अश्विनीकुमारों को अभी लिये आता हूँ।'
'आवश्यकता चिकित्सक की नहीं, औषधि की है।'
श्रीद्वारिकाधीश ने वैसे ही कहा- 'औषधि न मिले तो चिकित्सक क्या करेंगा? गुरुगृह में मैंने भी आयुर्वेद की सम्पूर्ण शिक्षा पायी है।'
'औषधि कहाँ है? नारद के लिए कोई भी स्थान अगम्य नहीं है।' देवर्षि वस्तुतः व्याकुल हो उठे थे। उन्हें गरुड़ पर क्रोध आ रहा था कि वे अब तक औषधि क्यों नहीं ले आये।
'औषधि है तो सर्वत्र किन्तु कोई दे तब।' श्रीकृष्णचन्द्र ने इस बार कह दिया-
'मुझे किसी भी भक्त की चरण-रज स्वस्थ कर सकती है।'
भक्त वत्सल, भक्त प्राण प्रभु को भक्त की पीड़ा ही व्यथित करती है तो भक्त चरण-रज क्यों उन्हें स्वस्थ नहीं करेंगी।
'आप कहते क्या हैं?' देवी रुक्मिणी ने सुनकर मस्तक झुका लिया- 'हम सब उनकी चरण सेविकाएँ हैं। उनको पद-रज देने की अधम कल्पना का पाप मन में भी कैसे ला सकतीं हैं।'
देवर्षि ने समझ लिया कि महारानियों में, पुत्रों में, प्रजा में, कोई प्रस्तुत नहीं होगा श्रीकृष्णचन्द्र को अपनी चरण-रज देने के लिए लेकिन जब वे वसुदेव जी, माता देवकी के यहाँ गये, गर्गाचार्य के समीप पहुँचे तो सर्वत्र एक ही उत्तर मिला- 'यह दूसरी बात है कि श्रीकृष्ण सम्मुख आते हैं और पद-वन्दना करते हैं। वे सर्वसमर्थ हैं, नर लीला करते हुए लोक, वेद मर्यादा का अनुसरण करते हैं तो उन्हें रोका नहीं जा सकता किन्तु उन साक्षात परम पुरुष को जान-बूझकर अपनी ओर से अपनी पद-रज देने का दुस्साहस करना तो घोर पाप है। आप यह प्रस्ताव भी कैसे कर पाते हैं?'
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)
क्रमश:
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