द्वारिकाधीश 14

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 155

देवर्षि नारद को भटकना था, वे तीनों लोकों में भटक आये। अपनी दिव्यशक्ति का पूरा उपयोग करके जितनी शीघ्रता संभव थी, उतनी शीघ्रता की उन्होंने। स्वर्ग में कोई भक्त था ही नहीं। संयमिनी के स्वामी यमराज ने हाथ जोड़ लिया- 'मैं उनके चरणों का छुद्र चिन्तक हूँ।'

महर्लोक, जनलोक, तपोलोक के ऋषि-महर्षि सुनते ही श्रवणों पर हाथ रख लेते थे- 'शान्तं पापम! शान्तं पापम।

'भगवान ब्रह्मा ने डाँट दिया- 'पुत्र! तू बहुत दुर्विनीत हो गया है। पिता से ऐसे अनुचित कर्म का प्रस्ताव करते तुझे लज्जा नहीं आती?'

'भगवान भूतनाथ समाधि में बैठे मिले कैलास जाने पर और बिना सुने ही सर्वज्ञा जगदम्बा ने कह दिया- 'आप यहाँ से पधारें। आपका प्रयोजन पूर्ण करने वाला कोई नहीं है।'

जब मनुष्य व्याकुल होता है, न ढूँढने के स्थान पर भी जाता है। देवर्षि अधोलोकों में भी पहुँचे किन्तु बलि, प्रह्लाद, मय सबने कह दिया- 'हममें तो भक्ति का लेश भी नहीं है। अपने आराध्य को ही पद-रज देने की अधमता हम कैसे कर सकते हैं।'

यही कठिनाई भूतल पर भी थी। जो भक्त थे मानने को ही प्रस्तुत नहीं थे कि उनमें प्रेम का, भक्ति का लेश भी है। श्रीकृष्णचन्द्र को तो दूर, देवर्षि तक को अपनी पद-रज का स्पर्श देने में उनके प्राण काँपते थे। वे प्रस्ताव सुनकर ही कातर हो उठते थे।

'मैं त्रिलोकी में घूम आया।' देवर्षि बहुत खिन्न, बहुत निराश लौटे द्वारिका और प्रायः रुदन जैसे स्वर में बोले- 'आपको आपका कोई भक्त अपनी पद-रज देने को प्रस्तुत नहीं है। मैंने अपनी समझ से सभी भक्तों से याचना कर ली।'

'आप व्रज गये थे?' श्रीकृष्णचन्द्र ने पूछा। 'मेरी गोपियों ने भी मना कर दिया आपको?'

'वहाँ तो मैं गया नहीं?'
देवर्षि ने कहा- 'गोप वैसे ही बहुत सीधे श्रद्धालु होते हैं। मैंने देखा है कि व्रज में किस श्रद्धा से मेरी पूजा पहुँचने पर होती है। वे पद-रज देने की बात स्वीकार नहीं करेंगे।'

'देवर्षि! वहाँ का सेवक भी अस्वीकार नहीं करेगा।' श्रीकृष्णचन्द्र ने स्थिर स्वर में कहा- 'किन्तु आप गोपियों तक चले जायँ कृपा करके।'

देवर्षि नारद व्रज पहुँचे तो आकाश से पृथ्वी पर उतरने से पूर्व ही यमुना-पुलिन पर बैठी गोपियों का समूह उन्हें दीख गया। नारद जी मार्ग में सोचते आये थे- 'पद-धूलि श्रीव्रजराज संभवतः दे देंगे। संभव है श्रीकृष्ण को सखा कहने वाले गोप भी दे दें। ब्रजरानी यशोदा जी दे देंगी इसमें सन्देह है और गोपियां तो दे सकती ही नहीं।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 156

वहाँ का सेवक भी अस्वीकार नहीं करेगा।' श्रीकृष्णचन्द्र की यह बात देवर्षि को ठीक नहीं लगी थी। गोपियों को देखकर मन में आया- 'इस बात की परीक्षा भी कर ली जाय।'

देवर्षि को देखते ही गोपियाँ उठ खड़ी हुई। सबने भूमि में मस्तक रखकर प्रणाम किया और बड़ी आशा भरे स्वर में पूछा- 'आप कहाँ से आ रहे हैं?'

'द्वारिका से।'

'श्रीद्वारिकाधीश सानन्द हैं?'

'वे रुग्ण हैं। असह्य सिर दर्द है उन्हें।'

'द्वारिका में कोई वैद्य नहीं है?' सबकी सब कातर हो उठीं।

'बहुत वैद्य हैं द्वारिका में। श्रीकृष्ण स्वयं आयुर्वेद-पारङ्गत हैं। औषधि भी ज्ञात हैं और सबके पास है किन्तु कोई देता नहीं।'
नारद जी ने कहा- 'मैं वहीं ढूँढ़ते तीनों लोकों में भटक रहा हूँ।'

'सबके पास है, क्या है वह?' एक साथ ही सब बोल रहीं थीं।

'किसी भी भक्त की पद-धूलि चाहिए।'
सबकी सब वहीं बैठ गयीं और दोनों पैरों से सबने ढेरों यमुना की रेत रगड़ दी- 'आपको जितनी चाहिए ले जाइए।'

'तुम कर क्या रही हो, यह समझती हो?' नारद जी को इन अनपढ़, मूर्खा गोप कन्याओं पर दया आयी- 'श्रीकृष्ण योगेश्वर ही नहीं, साक्षात परमब्रह्म परमात्मा हैं। उन्हें पद-धूलि देने का साहस बड़े ऋषि-महर्षि भी नहीं करते। जान-बूझकर उन्हें चरण-रज देनेवाले को अनन्त काल तक नरक में रहना पड़ेगा।'

'आप शीघ्र धूलि ले जाइये द्वारिका।' सबने गिड़गिड़ाकर कहा- 'वे पीड़ा में हैं, स्वस्थ हों। हम सदा नरक में रह लेंगी किन्तु आपके पैर पड़ती हैं, विलम्ब मत करें।

देवर्षि चकित रह गये। उन्होंने अपने उत्तरीय में वह रज बाँधी और स्वयं उसे अपने सम्पूर्ण शरीर में मल लिया। उस रज की पोटली को मस्तक पर उठाये वे द्वारिका के अन्तःपुर में पहुँचे तो उनको आपाद-मस्तक धूलि स्नान देखते ही श्रीकृष्णचन्द्र ने उठकर दोनों भुजाओं में भर हृदय से लगा लिया।

'देवर्षि! आप भक्ति के परमाचार्य भक्त शिरोमणि हैं।' श्रीकृष्णचन्द्र ने नारद जी को आज अपने साथ ही आसन पर बैठा लिया था और तनिक हँसते हुए कह रहे थे- 'आप त्रिभुवन में जिस औषधि के लिए भटकते फिरे व आप स्वयं भी तो दे सकते थे।

'समझ गया प्रभु! देवर्षि विह्वल होकर कहने लगे- 'किन्तु तब इस गोपांङ्गनाओं की पावनतम पद-रज में स्नान का सौभाग्य मुझे नहीं मिलता।'

देवर्षि नारद का यह अनुभव तब काम आया जब वे अपने 'भक्ति दर्शन' के सूत्र निर्माण करने लगे। उन्होंने लिखा–

'तस्मिन तत्सुखसुखित्वम
'यथा व्रजगोपिकानाम

गोपियाँ प्रेम की पावन ध्वजा हैं- यह देवर्षि ने ही नहीं समझा, त्रिभुवन के भक्तों ने भी समझ लिया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 157

देवर्षि नारद द्वारिका आते ही रहते थे। महाराज उग्रसेन ने उनका सत्कार करके अपने योग्य कर्तव्य पूछा तो देवर्षि ने कह दिया- 'आप जैसे नरेश के लिए तो अश्वमेध यज्ञ करना उचित हैं क्योंकि बलराम-श्रीकृष्ण का संरक्षण प्राप्त है आपको। आपके लिए दिग्विजय अनायास सिद्ध होने वाला कार्य हैं। शक्ति-साधन सम्पन्न नरेश ही अश्वमेध कर सकते हैं। समस्त महापापों का भी नाशक, सकलाभीष्टप्रदायक, यज्ञ-पुरुष की अर्चा का यह सर्वोत्तम साधन है।'

'मेरी इच्छा अश्वमेध यज्ञ करने की हैं।' महाराज उग्रसेन ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा और उनका अनुमोदन प्राप्त हो गया।

देवर्षि ने अश्व लक्षण बतलाया। चन्द्रश्वेत, श्यामकर्ण, लालमुख, पीतपुच्छ अश्व उत्तम होता है। सम्पूर्ण शरीर श्वेत केवल दक्षिण कर्ण श्याम अश्व मध्यम तथा दोनों कर्ण श्याय अश्व निम्नकोटि का होता है।

महाराज उग्रसेन की अश्वशाला में मध्यम अश्व थे किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र की अश्वशाला में जब उत्तम अश्व अनेक थे, मध्यम अश्व क्यों ग्रहण किया जाता।

चैत्र पूर्णिमा को अश्व छूटना था। महूर्त और विधि निश्चित हो गयी। राजसूय यज्ञ में दिग्विजय करना होता है। अनेक दल भेजे जा सकते हैं विभिन्न दिशाओं में दिग्विजय करने के लिए और दिग्विजय का समय नहीं निर्धारित होता। अश्वमेध में अनेक प्रतिबन्ध हैं। इसमें मन्त्रपूत दिव्यशक्ति सम्पन्न अश्व छोड़ा जाता है। अश्व की गति को नियन्त्रित नहीं किया जाता। वह स्वयं जहाँ-जहाँ जाय उसके रक्षक पीछे चलते हैं। स्वयं अश्व वहाँ-यहाँ जाता है, जहाँ उसके पकड़े जाने की संभावना हो। अश्व को एक वर्ष के भीतर लौट आना चाहिए।

जहाँ-जहाँ अश्व मल या मूत्र त्याग करता हैं, वहाँ-वहाँ हवन तथा गोदान किया ही जाना चाहिए। यजमान अश्व के लौटने तक सपत्नीक ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, एकाहार हविष्यान्न का, त्रिकाल स्नान, संध्या के नियमों का पालन करते हुए चन्दन, माल्य, अङ्गराग, आभरण आदि का त्याग करके ऋत्विजों के साथ हवन करता रहेगा।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 158

श्री गर्गाचार्य ने महाराज उग्रसेन को नियम-निर्देश किये और यज्ञ-दीक्षा दी। यादव-सभा में अश्व-रक्षा का बीड़ा रखा गया तो उसे अनिरुद्ध ने उठा लिया। उन्होंने प्रतिज्ञा की अश्व की रक्षा, अनुगमन तथा समस्त नियमों का निर्वाह करते हुए एक वर्ष में लौट आने की। साम्ब ने अनिरुद्ध का साथ देने का संकल्प किया। गद प्रभृति अनेक महारथी, अनेक श्रीकृष्ण-पुत्र अश्व-रक्षार्थ सन्नद्ध हो गये।

स्वर्णपत्र पर रत्नाक्षरों में अङ्कित हुआ- महाराजाधिराज उग्रसेन का यह अश्वमेधीय अश्व हैं। जिन्हें उनका सार्वभौमत्व स्वीकार नहीं और यादववाहिनी से युद्ध करने का साहस हैं, वे अश्व पकड़ें।

स्वर्णपत्र अश्व के मस्तक पर बाँधा गया। उसकी विधिवत पूजा हुई। अनिरुद्ध का विजयाभिषेक विप्रों ने किया। उत्तम मुहूर्त में अश्व छूटा। अधिकांश राजाओं ने जिनके राज्यों में से अश्व निकला उसका और अनिरुद्ध के साथ यादवी सेना का स्वागत ही किया।

अश्व को पकड़ा सबसे पहिले माहिष्मतीपुरी के नरेश इन्द्रनील के युवराज नीलध्वज ने। वे आखेट करने निकले थे। अश्व को देखा और पकड़ कर राजधानी ले गये तो पिता ने पुत्र का समर्थन किया। युद्ध होना अनिवार्य था और युद्ध में साम्ब ने नीलध्वज को मूर्च्छित कर दिया। महाराज इन्द्रनील भी पराजित होकर पुरी में भागने की विवश हुए।
'आपका वरदान व्यर्थ हो गया।' अपनी राजधानी में जाकर इन्द्रनील अपने आराध्य भगवान शंकर की आराधना में लग गये थे। उन परम शैव के सम्मुख जब आशुतोष प्रकट हुए तो राजा का आक्रोश प्रकट हुआ- 'आपकी प्रदान की शक्ति भी कुण्ठित होती है?'

'मैंने तुम्हें देवता, दैत्य तथा मानवों से अभय दिया था।' भगवान गंगाधर ने कहा- 'तुम परमपुरुष से ही भिड़ जाओगे इतना अज्ञ तो मैं तुम्हें नहीं जानता था।

'परमपुरुष?' इन्द्रनील चकित हो गये।

'श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात परमपुरुष हैं उनसे अभिन्न ही है उनका चतुर्व्यूह रूप। संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध उन वासुदेव के ही स्वरूप है।' विश्वनाथ ने समझाया- 'तुम उन पुरुषोत्तम अनिरुद्ध की अर्चा का सौभाग्य प्राप्त करो अश्व देकर। उनके द्वारा युद्ध में पराजय तो स्वयं मेरे लिये भी कोई अपमान की बात नहीं है।'

इन्द्रनील अश्व तथा उपहार लिये नगर से निकले। अनिरुद्ध ने उनकी पूजा स्वीकार की और उन्हें पुत्र को राज्यभार देकर अश्वरक्षक दल में सम्मिलित होना पड़ा क्योंकि यह नियम सर्वमान्य था कि अश्व को पकड़ने वाले नरेश को पराजित होने के पश्चात उत्तराधिकारी को राज्य देकर अश्व-रक्षक बनना पड़ता है।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 159

उशीनर देश के नरेश राजा हेमांगद को अपनी राजधानी चम्पापुरी को अलंघ्य दुर्ग तथा बहुत दूर तक मार करने वाली शतघ्नियों पर बड़ा गर्व था। उन्होंने अश्व पकड़ा किन्तु यादव महारथियों के अश्व दुर्ग-प्राचीर कूद गये और गजों के द्वारा नगर के अभेद्य द्वार ध्वस्त कर दिये गये। अश्व लेकर, पुष्पमाल्य से अपने दोनों हाथ बाँधे राजा हेमांगद शरण आये। उन्हें भी अपने पुत्र हंसध्वज को राज्य देकर अनिरुद्ध के साथ जाना पड़ा।

नरेशगण चुपचाप अश्व को अपने राज्य में से चले जाने देते थे। अनिरुद्ध के सम्मुख कठिनाई तब आई जब अश्व स्त्री राज्य की राजधानी के एक उद्यान में जाकर इमली के वृक्ष के नीचे खड़ा हुआ और वहाँ की रानी सुरूपा ने उसे बाँध दिया। महिलाएँ कवच पहिनकर, त्रोण बाँधे, धनुष लिये युद्ध को उद्यत हो गयीं उस राज्य में।

अद्भुत देश था वह। वहाँ के विलासी राजा नारीपाल ने असंख्य विवाह किये थे। रूप के गर्व में महामुनि अष्टावक्र का उसने उपहास किया तो मुनि ने शाप दे दिया- 'तेरे राज्य में केवल स्त्रियाँ रह जायेंगी, जिनका कुरूप पुरुष को देखकर हँसना उचित कहा जा सकता है। जो भी पुरुष यहाँ विवाह करके रहेगा, वह एक वर्ष में मर जाया करेगा।

तब से वहाँ केवल स्त्रियाँ ही रहती थीं। अब अश्व पकड़कर वहाँ की रानी सुरूपा अपनी स्त्री-सेना के साथ नगर से निकली। उसका कहना था कि उससे अनिरुद्ध विवाह कर लें, यादव सैनिक भी विवाह करें तो अश्व मिलेगा, अन्यथा युद्ध करो। स्त्रियों से युद्ध करके उनका वध करना भी अधर्म था। अनिरुद्ध ने किसी प्रकार रानी को समझाकर प्रस्तुत किया कि वह अपनी सहेलियों के साथ द्वारिका चली जायें। एक वर्ष पीछे लौटने पर द्वारिका में अनिरुद्ध उससे विवाह कर लेंगे। अभी तो वे तथा सब यादव वीर ब्रह्मचर्य व्रत का नियम किये हैं।

वहाँ से छूटकर अश्व चला तो सिंहल द्वीप पहुँचा। वहाँ एक बाबली का जल पीते समय भीषण नामक राक्षस ने अश्व पकड़ा और आकाश मार्ग से लेकर उपलंका(मालदीप) चला गया। अनिरुद्ध को सुरेन्द्र ने विमान दिया इस अवसर पर। विमान के द्वारा यादव सैनिक उपलंका में उतरे। वहाँ राक्षसों के साथ घोर युद्ध हुआ। यद्यपि राक्षस भीषण के द्वारा आधात किये जाने से अनिरुद्ध मूर्च्छित हो गये किन्तु गद के गदा-प्रहार से भीषण भी मूर्च्छित होकर गिर पड़ा।

भीषण का पिता बक वन में तप कर रहा था। देवर्षि नारद के द्वारा पुत्र के घायल होने का समाचार पाकर वह आया। वह इतना विशाल और भयानक था कि दोनों हाथों में दो वन्य गजों को शिशु के समान उठाये, उन्हें कच्चा ही चबाता आया था। अनिरुद्ध सावधान हो चुके थे। उन्होंने बक से युद्ध किया। अन्त में बक मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। भीषण की मूर्च्छा दूर हुई। उसने अपनी पराजय स्वीकार करके अश्व लौटा दिया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 160

‘तुम्हें अश्व-रक्षक होकर साथ चलना पड़ेगा।' अनिरुद्ध ने कहा।

भीषण ने प्रार्थना की- 'अभी मुझे क्षमा करें, मेरे पिता मूर्च्छित पड़े हैं। जब ये सचेत हो जायेंगे तब मैं इनकी आज्ञा लेकर जाऊँगा।'

अश्व को वहाँ से विमान में चढ़ाकर भारत-भूमि पर उतारना पड़ा। अब अश्व घूमता हुआ मरूधन्व देश के दिवंगत नरेश के पुत्र भद्रावतीपुरीपति राजा यौवनाश्व के सामने ही जाकर खड़ा हो गया। यौवनाश्व ने अश्व पकड़ लिया किन्तु युद्ध में हार गया। अश्व तो उसने दे दिया किन्तु उसके कोई संतान नहीं थी। इसलिए उसे अश्व-रक्षक बनाकर नहीं लिया जा सकता था। उसने वचन दिया- 'मैं यज्ञ के समय द्वारिका में उपस्थित होऊँगा।'

मित्रभाव से भी कहीं-कहीं अश्व पकड़ा गया। जैसे अश्व जब अवन्ती पहुँचा तो महर्षि सान्दीपनि के आदेश से अनुविन्द ने उसे पकड़ लिया। यादव सेना के पहुँचने पर विन्द-अनुविन्द दोनों ने कहा- 'मित्रों से, अपनी बहिन के पुत्र-पौत्रों से मिलने के लिए हमने अश्व पकड़ा है। आप सब एक रात्रि यहाँ विश्राम करें।'

वहाँ सबका बड़े उत्साह से सत्कार हुआ। महर्षि सान्दीपनि ने यज्ञ में द्वारिका पधारने के निमंत्रण स्वीकार किया। अनिरुद्ध ने महर्षि से आग्रह किया तो महर्षि ने उन्हें श्रीकृष्णचन्द्र का स्वरूप समझाया।

अवन्ती से चलने पर राजपुर में नरेश अनुशाल्व ने दिव्यास्त्र ज्ञान के अपने गर्व के कारण अश्व पकड़ा। युद्ध में अनुशाल्व को अपने दिव्यास्त्रों का ज्ञान कुछ काम नहीं आया। उनका मंत्री साम्ब के द्वारा मार दिया गया। उनके दिव्यास्त्रों का अनिरुद्ध ने दिव्यास्त्रों से प्रतिकार कर दिया। गदा उठाई उन्होंने और गद के गदाघात से मूर्च्छित हो गये। जल छिड़क कर उन्हें सचेत करना पड़ा। अश्व तो छोड़ना ही था। अश्व-रक्षक बनकर उन्हें साथ चलना पड़ा।

यहाँ तक की यात्रा में 6 महीने बीत चुके थे। अब अश्व प्राची दिशा में मुड़ा। मणिपुर नरेश ने उसे पकड़ा किन्तु फिर भयभीत होकर छोड़ दिया। देवर्षि नारद भी अपने स्वभाव के अद्भुत ही हैं। वे कब क्या करेंगे कोई ठिकाना नहीं रहता। उन्होंने जाकर बल्वल दैत्य को अश्व पकड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। बल्वल नैमिषारण्य से ऋषियों का यज्ञ-ध्वंस करके लौटा था। घोड़ा पूर्व से लौटकर प्रयाग पहुँचा था और वहाँ त्रिवेणी पर जल पी रहा था जब बल्वल ने उसे पकड़ा। यादव सेना भी दण्डकारण्य, चित्रकूट होती आ पहुँची। उन सबके देखते-देखते बल्वल घोड़े को आकाश में उड़ा और अदृश्य हो गया।

सम्पूर्ण यादव सेना शोकमग्न हो गयी। किसी को कोई उपाय ही नहीं सूझता था। इसी समय देवर्षि नारद आ पहुँचे। उन्होंने बतलाया- 'दैत्य बल्वल अश्व को लेकर पांचजन्य उपद्वीप(अंडमान) गया है। सुतल से दैत्यों को लाकर वह उनके साथ वहीं रहता है। उसने कैलास पर तप कर भगवान शंकर से वरदान पाया है कि समर में शंकर जी उसका साथ देंगे।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 161

सेनापति अड़ा था- 'पहिले इसका वध करो, जैसे मेरे पुत्र को मारा है तब यादवों से युद्ध होगा।'

बल्वल ने अपना हृदय कड़ा किया। उसके भी यह एक ही पुत्र था। उसने सेनापति से कहा- 'तुम्हारे पुत्र को मैंने भुशुण्डि से मारा है। मेरे पुत्र को तुम शतध्न(तोप) से उड़ा दो।'

राजपुत्र कुनन्दन ने अपने मुकुटादि आभूषण उतार दिये। स्नान करके शरीर में तीर्थ-मृत्तिका लगायी। मुख में तुलसीदल डाला और आकर सेनापति से बोला- 'तुम राजाज्ञा का पालन करो।'

लंका में विभीषण की भाँति कुनन्दन श्रीकृष्ण भक्त था यहाँ दैत्य-दानवों में। उसे उठाकर सेनापति ने शतघ्नी के मुख में डाल दिया तो बल्वल तथा दूसरे सब दैत्य रो पड़े बारूद भरकर सेनापति तांबे के गोले डाले उस भारी शतघ्नी में।

'श्रीकृष्ण! जनार्दन! भक्तवत्सल! मैं आपका, आपकी शरण हूँ।' कुनन्दन स्तुति कर रहा था- 'युद्ध किये बिना मैं इस प्रकार कापुरुष की भाँति मरूँ, यह उचित नहीं है। आपके पौत्र को युद्ध में संतुष्ट करके उनके बाणों से मेरा शरीर छूटे, मेरी इतनी प्रार्थना आप अवश्य स्वीकार करें।'

शतध्नी में बत्ती देकर सेनापति ने आग लगायी किन्तु वह अग्नि बुझ गयी। अब सेनापति को लोगों ने रोका किन्तु वह अपने पुत्र का प्रतिशोध लेने पर तुला था। उसने फिर अग्नि लगायी। इस बार शतध्नी फट गयी। सेनापति के चिथड़े उड़ गये। कुनन्दन सुरक्षित दूर जा गिरे और उठ खड़े हुए।

अब घोर युद्ध प्रारंभ हुआ। यहाँ युद्ध में पूरा कार्तिक मास व्यतीत हो गया। कुनन्दन ने बाणों से अनिरुद्ध का रथ नष्ट हो गया। वे स्वयं कपिलाश्रम जा गिरे और वक्ष विदीर्ण होने से मूर्च्छित हो गये। भगवान कपिल ने कर-स्पर्श करके उन्हें स्वस्थ किया। कपिल को प्रणाम करके सेतु मार्ग से वे पुनः लौटे। इस बार उनके साथ युद्ध में बल्वल के चारों मंत्री पुत्र तो मारे ही गये, कुनन्दन को उन्होंने एक बाण मारकर गगन में फेंक दिया। चार मुहूर्त आकाश में चक्कर काटकर कुनन्दन गिरा और मूर्च्छित हो गया। चार दिन मूर्च्छित पड़ा रहा। फिर युद्ध में आया और उसे अनिरुद्ध ने वीर-गति दे दी।

पुत्र के मरने पर बल्वल ने माया युद्ध प्रारंभ किया किन्तु अनिरुद्ध के दिव्यास्त्रों ने सब माया तत्काल मिटा दी। इसी समय भगवान शिव गणों के साथ बल्वल की सहायता करने आ गये। लेकिन उनके सब भूत-प्रेतादि गणों को श्रीकृष्ण के पुत्र दीप्तिमान ने नारायणास्त्र का प्रयोग करके भगा दिया। अनिरुद्ध के जृम्भणास्त्र से महाभैरव सम्मोहित होकर सो गये।

नन्दी ने सुनन्दन का वध कर दिया। प्रलयङ्कर के त्रिशूल के आघात से अनिरुद्ध मूर्च्छित हो गये। इससे क्रुद्ध होकर साम्ब शिव से युद्ध करने लगे। युद्ध तक तो बात ठीक थी किन्तु शिव की भर्त्सना जब वे करने लगे, सहसा श्रीकृष्णचन्द्र युद्ध में आ गये। उन्होंने पुत्र को डाँटा- 'तुम इन महेश्वर का अपमान करते हो? ये मेरे हृदय हैं, मुझसे अभिन्न हैं।'

शंकर जी ने श्रीकृष्ण की स्तुति की और कहा- 'मुझे क्षमा करो। मैं भक्त परवश हूँ।'

श्रीकृष्णतनय सुनन्दन को शिव ने जीवित कर दिया। अनिरुद्ध के वक्ष से त्रिशूल निकालकर उन्हें भी स्वस्थ बना दिया। उन आशुतोष के समझाने से बल्वल ने अश्व लौटा दिया। बहुत-सा द्रव्य दिया भेंट में।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 162

सेनापति अड़ा था- 'पहिले इसका वध करो, जैसे मेरे पुत्र को मारा है तब यादवों से युद्ध होगा।'

बल्वल ने अपना हृदय कड़ा किया। उसके भी यह एक ही पुत्र था। उसने सेनापति से कहा- 'तुम्हारे पुत्र को मैंने भुशुण्डि से मारा है। मेरे पुत्र को तुम शतध्न(तोप) से उड़ा दो।'

राजपुत्र कुनन्दन ने अपने मुकुटादि आभूषण उतार दिये। स्नान करके शरीर में तीर्थ-मृत्तिका लगायी। मुख में तुलसीदल डाला और आकर सेनापति से बोला- 'तुम राजाज्ञा का पालन करो।'

लंका में विभीषण की भाँति कुनन्दन श्रीकृष्ण भक्त था यहाँ दैत्य-दानवों में। उसे उठाकर सेनापति ने शतघ्नी के मुख में डाल दिया तो बल्वल तथा दूसरे सब दैत्य रो पड़े बारूद भरकर सेनापति तांबे के गोले डाले उस भारी शतघ्नी में।

'श्रीकृष्ण! जनार्दन! भक्तवत्सल! मैं आपका, आपकी शरण हूँ।' कुनन्दन स्तुति कर रहा था- 'युद्ध किये बिना मैं इस प्रकार कापुरुष की भाँति मरूँ, यह उचित नहीं है। आपके पौत्र को युद्ध में संतुष्ट करके उनके बाणों से मेरा शरीर छूटे, मेरी इतनी प्रार्थना आप अवश्य स्वीकार करें।'

शतध्नी में बत्ती देकर सेनापति ने आग लगायी किन्तु वह अग्नि बुझ गयी। अब सेनापति को लोगों ने रोका किन्तु वह अपने पुत्र का प्रतिशोध लेने पर तुला था। उसने फिर अग्नि लगायी। इस बार शतध्नी फट गयी। सेनापति के चिथड़े उड़ गये। कुनन्दन सुरक्षित दूर जा गिरे और उठ खड़े हुए।

अब घोर युद्ध प्रारंभ हुआ। यहाँ युद्ध में पूरा कार्तिक मास व्यतीत हो गया। कुनन्दन ने बाणों से अनिरुद्ध का रथ नष्ट हो गया। वे स्वयं कपिलाश्रम जा गिरे और वक्ष विदीर्ण होने से मूर्च्छित हो गये। भगवान कपिल ने कर-स्पर्श करके उन्हें स्वस्थ किया। कपिल को प्रणाम करके सेतु मार्ग से वे पुनः लौटे। इस बार उनके साथ युद्ध में बल्वल के चारों मंत्री पुत्र तो मारे ही गये, कुनन्दन को उन्होंने एक बाण मारकर गगन में फेंक दिया। चार मुहूर्त आकाश में चक्कर काटकर कुनन्दन गिरा और मूर्च्छित हो गया। चार दिन मूर्च्छित पड़ा रहा। फिर युद्ध में आया और उसे अनिरुद्ध ने वीर-गति दे दी।

पुत्र के मरने पर बल्वल ने माया युद्ध प्रारंभ किया किन्तु अनिरुद्ध के दिव्यास्त्रों ने सब माया तत्काल मिटा दी। इसी समय भगवान शिव गणों के साथ बल्वल की सहायता करने आ गये। लेकिन उनके सब भूत-प्रेतादि गणों को श्रीकृष्ण के पुत्र दीप्तिमान ने नारायणास्त्र का प्रयोग करके भगा दिया। अनिरुद्ध के जृम्भणास्त्र से महाभैरव सम्मोहित होकर सो गये।

नन्दी ने सुनन्दन का वध कर दिया। प्रलयङ्कर के त्रिशूल के आघात से अनिरुद्ध मूर्च्छित हो गये। इससे क्रुद्ध होकर साम्ब शिव से युद्ध करने लगे। युद्ध तक तो बात ठीक थी किन्तु शिव की भर्त्सना जब वे करने लगे, सहसा श्रीकृष्णचन्द्र युद्ध में आ गये। उन्होंने पुत्र को डाँटा- 'तुम इन महेश्वर का अपमान करते हो? ये मेरे हृदय हैं, मुझसे अभिन्न हैं।'

शंकर जी ने श्रीकृष्ण की स्तुति की और कहा- 'मुझे क्षमा करो। मैं भक्त परवश हूँ।'

श्रीकृष्णतनय सुनन्दन को शिव ने जीवित कर दिया। अनिरुद्ध के वक्ष से त्रिशूल निकालकर उन्हें भी स्वस्थ बना दिया। उन आशुतोष के समझाने से बल्वल ने अश्व लौटा दिया। बहुत-सा द्रव्य दिया भेंट में।
(आभार श्री द्वारिकाधीश से)

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