द्वारिका धीश 15

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 163

अश्व पांचजन्य द्वीप से चला तो निर्बाध घूमता एक महीने में व्रज पहुँचा। वहाँ एक तमाल वृक्ष के नीचे खड़ा हो गया। गोप उसे आश्चर्य से देखते रहे। श्रीदाम आये और अश्व के मस्तक पर बँधा पत्र पढ़कर उसे रस्सी से बाँधकर व्रजराज श्रीनन्दराय के समीप ले गये। यह स्वजनों द्वारा स्वजनों से मिलने के लिए अश्व-बन्धन था। व्रज में हार्दिक सत्कार हुआ अनिरुद्धादि समस्त यादवों का।

व्रज से अश्व छूटा तो हस्तिनापुर पहुँचा। दुर्योधन बहुत क्रुद्ध हुआ स्वर्ण- पत्र पढ़कर। उसने अश्व को बँधवा दिया। लेकिन उसके सगे जमाता साम्ब ने ही यहाँ युद्ध का नेतृत्व किया। उनके साथ युद्ध में साम्ब के आघात से दुर्योधन मूर्च्छित हो गया। कर्ण, दुःशासन भी मूर्च्छित हो गये। इसी समय नारायणी सेना लिये श्रीकृष्णचन्द्र आ पहुँचे। अब भयभीत होकर दुर्योधन नगर में भाग गया।

धृतराष्ट्र के सम्मुख पुत्र की सब कथा सुनाकर विदुर ने कहा- 'पहिले अकेले श्रीहलधर आये थे, जब हस्तिनापुर की सत्ता संदिग्ध हो गयी थी। अब उनके छोटे भाई सेना लेकर आ धमके हैं।'

धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को झिड़की दी। वह द्रोण, भीष्म, कृपाचार्यादि कुलवृद्धों के साथ गया। अश्व लौटा दिया गया। बहुत-सी भेटें दी गयीं। श्रीकृष्णचन्द्र सबसे मिलकर यहाँ से द्वारिका चले गये।

अश्व आगे घूमता द्वैतवन में पहुँचा तो उसे भीमसेन ने पकड़ लिया। वनवासी वेश, मलिन देह, बल्कल-वस्त्र- इस वेश में भीम को किसी ने नहीं पहिचाना किन्तु साधारण सैनिकों के साथ जो संघर्ष हुआ उसे देखते ही गद आगे बढ़े और प्रणाम करके बोले- 'मैं श्रीकृष्णानुज गद आपको प्रणाम करता हूँ। आपका शरीर तथा गदाचालन कौशल मेरे गदा-शिक्षक भीमसेन के समान है। आप अपना परिचय देने की कृपा करें।'

'मैं भीम ही हूँ।' हँसकर भीमसेन ने गद को हृदय से लगा लिया- 'अश्व तो तुम लोगों से मिलने के लिए मैंने पकड़ लिया।'

पांडवों के वनवास के आठ वर्ष पूर्ण हो चुके थे।
भीमसेन ने बतलाया- 'अर्जुन इन्द्र के बुलाने से स्वर्ग गये हैं।' अब सब युधिष्ठिर के समीप पहुँचे। सूर्यनारायण से मिले पात्र के प्रभाव से समस्त सेना का द्रौपदी ने सत्कार किया।

इसी प्रकार अश्व जब सारस्वत देश पहुँचा तो वहाँ कौन्तलपुर में केरल नरेश का पुत्र चन्द्रहास राजा था। इस मातृ-पितृहीन बालक को कुलिन्द ने पाला था। परम भगवद्भक्त चन्द्रहास ने अनिरुद्ध का दर्शन करने की इच्छा से ही अश्व पकड़ा और बड़ी भक्ति से उसने यादवी सेना का स्वागत सत्कार किया।

अश्व सारस्वत देश से दूर जाकर अचानक मुड़ा और आकर अनिरुद्ध के सामने ही खड़ा हो गया। अनिरुद्ध ने उद्धव से पूछा- 'फाल्गुन मास पूरा हो रहा है। चैत्र तक हमें द्वारिका में होना चाहिए। अभी कितने नरेश शेष हैं जो अश्व-हरण कर सकते हैं? अश्व मेरे सम्मुख क्यों आया है?'

'अब अश्व-हरण में समर्थ कोई नरेश नहीं रहा।' उद्धव ने कहा- 'अश्व का संकेत है कि अब उसे द्वारिका लौटना है।
(सभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:श्री द्वारिकाधीश
भाग- 164

'अनिरुद्ध ने अश्व को प्रणाम किया- 'आप लौटें। अश्व वहाँ से सीधे द्वारिका की ओर चल पड़ा। उद्धव पहिले समाचार देने को भेजे गये। महाराज उग्रसेन, श्रीकृष्ण-बलराम आदि सभी महर्षिगणों के साथ अश्व के स्वागत को नगर से बाहर आये।

महाराज उग्रसेन के इस अश्वमेध यज्ञ में भगवान व्यास स्वयं आचार्य बने। महर्षि बकदाल्भ्य अध्वर्यु (ब्रह्मा) थे। अन्य ऋषिगण ऋत्विक हुए। व्यास जी की आज्ञा से चौंसठ दंपति गोमती का जल लाने गये। इसमें वसुदेव जी, बलराम, श्रीकृष्णचन्द्र अपनी प्रमुख पत्नी के साथ गये, महर्षिगणों में कश्यप देवमाता अदिति के साथ जल लेने गये। जल आया- यज्ञ प्रारंभ हुआ। देवताओं ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर अपना भाग स्वीकार किया।

यज्ञान्त में द्विमूर्धा सप्तजिह्व अग्निदेव ने प्रकट होकर कहा- 'मैं प्रसन्न हूँ। अब मुझे पशु प्रदान करो।'

महाराज उग्रसेन उठे। उन्होंने निर्बन्ध पूजित अश्व के चरणों में मस्तक रखा। हाथ जोड़कर बोले- 'अश्व! अग्निदेव की बात सुनो। आहुतियों से तृप्त होने पर भी अब वे तुम्हें आहार बनावेंगे।

अश्व प्रसन्नतापूर्वक हिनहिनाया। उसने सिर हिलाकर स्वीकृति दी। जैसे ही उसकी बलि हुई उसकी शरीर से एक ज्योति निकली और श्रीकृष्ण के चरणों में लीन हो गयी। अश्व का पूरा शरीर तथा मस्तक श्वेत घनसार( कर्पूर) का होकर गिर पड़ा। उस कर्पूर की आहुति अग्नि में समस्त देवताओं के निमित्त दी गयी।

पिण्डारक तीर्थ में ही जहाँ यह यज्ञ हुआ था, गोमती-सागर संगम में सबने अवभृथ स्नान किया। भरपूर दान-दक्षिणा ऋषियों को दी गयी। समस्त आगतजन उपहार देकर सत्कृत किये गये।

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‘ये श्रीकृष्णचन्द्र अपने मृत भाईयों को ले आये थे।' उग्रसेन जी से उनकी महारानी बराबर आग्रह कर रही थीं। यज्ञ के समय वे साथ थीं। अवसर मिलते ही नेत्रों में अश्रु भर लेती थीं- 'मैं भी अपने पुत्र को एक बार देख पाती।'

महाराज उग्रसेन के सब पुत्र मारे जा चुके थे। अश्वमेध करें उग्रसेन जी, यह उन्हें कई बार कंस ने कहा था किन्तु उसकी बुद्धि मारी गयी। वह पिता का ही विरोधी बन गया। अब अवश्मेध यज्ञ के समय माता को अपने प्रचण्ड पुत्र का स्मरण बहुत व्याकुल कर रहा था।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 165

कंस के अत्याचार- श्रीकृष्ण का शत्रु ही रहा कंस। अब महाराज उग्रसेन कैसे कहें श्रीकृष्णचन्द्र से कि वे कंस को फिर एक बार पृथ्वी पर ले आवें। इसे सुनकर क्या सोचेंगे वे जनार्दन। वसुदेव-देवकी ही क्या सोचेंगे। दूसरे लोग क्या कहेंगे?

श्रीकृष्ण अन्तर्यामी हैं। यज्ञ का अवभृथ स्नान हो गया। आगत ऋषि -महर्षि विदा हो गये। अतिथि चले गये। तब महाराज उग्रसेन को अवकाश मिला वे यादवों के साथ घिरे महारानी के साथ बैठे थे कि द्वारिकाधीश बोले- 'महारानी! आप अपने पुत्रों को देखना चाहती हैं?'

कंस माता महारानी रुचिमती ने अत्यन्त कातर, आग्रहपूर्ण दृष्टि से श्रीकृष्ण की ओर देखा। श्रीकृष्णचन्द्र ने ऊपर दृष्टि उठाई और आह्वान किया।

रत्नजटित ज्योतिर्मय विमान गगन से उतरता दृष्टि पड़ा। विमान धरा पर उतरा। उसमें से नौ भगवत्पार्षद निकले और उन्होंने कंस तथा उसके भाईयों का स्वरूप धारण कर लिया।

वे कंस तथा उसके भाई श्रीबलराम एवं श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में साष्टांग प्रणिपात करके हाथ जोड़कर खड़े हो गये। दूसरे किसी को ओर उन्होंने देखा ही नहीं। महाराज उग्रसेन और उनकी महारानी सतृष्ण, स्नेहपूर्ण दृष्टि से उन्हें देख रहे थे। उन्हें आशा थी कि ये उनको भी प्रणाम करके उनसे मिलेंगे।

'ये महाराज तथा महारानी आप सबके माता-पिता हैं। इन्हें प्रणाम करें और इनसे मिलें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने उनसे कहा।

'हमने असंख्य जन्म लिये पृथ्वी पर। किस जन्म में कौन हमारे माता-पिता रहे, यह न हमें स्मरण हैं, न हम स्मरण करना चाहते।'
उन सबने कहा- 'जब तक स्थूल शरीर रहता है तभी तक उससे संबंधित माता-पिता, स्वजन संबंधियों का संबंध रहता है। जीव का न कोई पिता, न माता। सबके सच्चे माता-पिता आप ही हैं। आप सर्वलोक महेश्वर हैं। आपने हमें अनुग्रह करके अपना सेवक बना लिया। अब हम अन्य किसी को कभी माता-पिता नहीं देखेंगे।'

उन्होंने अनुमति माँगी और पुनः उनका स्वरूप भगवत्पार्षदों जैसा हो गया।
श्रीसंकर्षण तथा कृष्णचन्द्र के चरणों में प्रणत होकर वे अपने विमान में बैठे और विमान बैकुण्ठ चला गया।

'मेरा मोह नष्ट हो गया।' महारानी ने महाराज उग्रसेन से कहा और श्रीकृष्ण के सम्मुख मस्तक झुका दिया।

महाराज उग्रसेन के मन में मोह नहीं था, ऐसा वे नहीं समझते थे लेकिन अब उनका भी मोह-भंग हो गया था। महारानी ने पीछे एकान्त में पति से कहा- 'मेरे पुत्र जीवित रहते तो अपने कर्मों से उन्हें पता नहीं कौन-से नरकों में जाना पड़ता किन्तु श्रीकृष्ण ने उन्हें मारकर बैकुण्ठ प्रदान कर दिया। ऋषि-मुनियों की यह बात आज मैं ठीक-ठीक समझ सकी हूँ। श्रीकृष्ण इतने कृपामय हैं, आज मैं अपने को धन्य मानती हूँ इनके दर्शन करके।'
(आभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 166

पांडव जुए में हार गये। शकुनि की सहायता से दुर्योधन ने द्यूत को बहाना बनाकर धर्मराज को उनके राज्य-कोषादि सबसे वंचित कर दिया। वे बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का गुप्तवास स्वीकार करके वन में चले गये।

द्वारिका में सभी चाहते थे कि देवी कुन्ती द्वारिका आ जायें किन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। द्रौपदी पतियों के साथ वन में चली गयीं। श्रीकृष्णचन्द्र ने बहिन सुभद्रा को द्वारिका बुला लिया।

सुभद्रा अपने तीन वर्ष के शिशु अभिमन्यु को लेकर द्वारिका आयीं। उन्होंने अलंकार त्याग दिये थे। तैल, अभ्यंग, अंगराग, पुष्पमाल्य- कुछ भी वे बहुत आग्रह करने पर भी स्वीकार नहीं करती थीं।

केवल सौभाग्य सूचक आभरण- कङ्कण, कण्ठसूत्रादि तथा सामान्य वस्त्र। श्रीबलराम-श्रीकृष्ण ने, इनकी सभी पत्नियों ने, माता रोहिणी तथा देवकी तक ने चाहा कि सुभद्रा प्रोषित-पतिका के कठिन व्रत न करके सबके समान रहें किन्तु जब वे धर्म पर चल रही हैं तो आग्रह नहीं किया जा सकता था उनके साथ।

आहार में भी बहुत संयम आ गया था। केवल हविष्यान्न और वह भी एक समय। श्रीकृष्ण के अतिशय आग्रह पर ही उन्होंने रात्रि में गो-दुग्ध लेना स्वीकार किया था।

हास-परिहास, संगीत तथा उत्सवों में सम्मिलित होना उन्होंने सर्वथा त्याग दिया था। माता देवकी कहती थीं- 'यह जन्म से ही तपस्विनी हैं। पहिले भी अपने पितामाह की सेवा-पूजा में ही उनके साथ लगी रहती थी।'

प्रदोष, एकादशी, चतुर्थी, अष्टमी जाने कितने अनिवार्य व्रत मान लिये थे सुभद्रा ने। यह तो महर्षि गर्गाचार्य का अनुग्रह था कि व्रतों के दिन एक समय वे फलाहार ले लेती थीं।

महर्षि ने कह दिया था- 'सौभाग्यवती स्त्री को पूरे रात-दिन निराहार रहने का विधान नहीं है। उसके लिए ऐसा व्रत निषिद्ध है।'

सबसे बड़ी बात, सुभद्रा को अपनी इस अवस्था के लिए कोई दोषी नहीं दीखता था। उन्हें धर्मराज युधिष्ठिर के द्यूत के व्यसन की चर्चा भी सह्य नहीं थी। किसी भाभी ने कुछ कहना भी चाहा तो उन्होंने रोक दिया- 'वे बड़े हैं। भैया तक उन्हें प्रणाम करते हैं। उनकी चर्चा, उनमें त्रुटि देखना पाप है हम सबके लिए।'
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 167

धृतराष्ट्र की बात तो दूर, सुभद्रा को दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि तक का कोई दोष कभी नहीं लगा। बहुत भाभियाँ रुष्ट हुई तो एक दिन सुभद्रा ने कह दिया- 'वे सब विचारे तो यन्त्र हैं। सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन ये छोटे भैया करते हैं और इनकी प्रत्येक चेष्टा प्राणी के मंगल के लिए ही होती है। यह सब जो कुछ हुआ इसमें भी हम सबका मंगल ही हैं।'

'इसमें क्या मंगल धरा है?' सत्यभामा जी रुष्ट हुई।

सुभद्रा हँस गयी- भाभी! यह सब न होता तो अभिमन्यु को बड़े भैया का इतना स्नेह मिलता? द्रोणाचार्य उसे इतने स्नेह से शस्त्र-शिक्षा देते? वह तो कहता था कि प्रद्युम्न भैया उसे शीघ्र दिव्यास्त्र प्रदान करने वाले हैं।'

सचमुच अभिमन्यु द्वारिका में सबका स्नेहभाजन हो गया था। भगवान संकर्षण स्वयं उसे व्यायाम-शिक्षा देते थे गद ने उसे नन्हीं गदा थमा दी थी। प्रद्युम्न और साम्ब उसे दस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते धनुर्वेद का पारंगत बना चुके थे। ब्रह्मास्त्र और नारायणास्त्र जो द्रोणाचार्य उसे कभी प्रदान न करते, प्रद्युम्न ने अपनी ओर से दे दिये थे। साम्ब ने तो उसे पाशुपत भी प्रदान कर दिया।

महर्षि गर्गाचार्य अभिमन्यु को वेद-वेदांग की शिक्षा दे रहे थे। ननिहाल में सबका अत्यंत वात्सल्य प्राप्त करके भी अभिमन्यु को क्रीड़ा-प्रिय नहीं थी। वह अध्ययन एवं अभ्यास में ही जुटा रहता था। चाहे जब उद्धव के समीप जा बैठता और उनसे नीति-शास्त्रों की कठिनतम समस्याएँ पूछता। इस बालक की अद्भुत प्रतिभा सबको चकित करने वाली थी। अभिमन्यु बालक था। सबका स्नेह था उस सुन्दर, तेजस्वी, प्रतिभाशाली बालक पर।

सुभद्रा शैशव से ही श्रीबलराम की वात्सल्य भाजना, किन्तु अब भी उनका स्वभाव वही था। वे श्रीकृष्ण की ही सुनती हैं। अपने इन छोटे भैया में ही उनका मन लगा रहता हैं, और- 'भैया जो करते हैं, वही उचित है। उसी में हित है।' सुभद्रा की बुद्धि इसमें स्थिर है। उनके मुख पर विषाद की कोई रेखा कभी नहीं दीखी तो रोष की अरुणिमा भी नहीं आयी। वे शान्त प्रसन्न, इस तपस्वी जीवन में भी वैसी ही गंभीर। 'भाभी ने भैया को मेरा ठीक नाम लेना सिखला दिया है।'

सुभद्रा जी को श्रीकृष्णचन्द्र ने 'सुभद्रे!' कहकर पुकारा तो हँसकर महारानी भद्रा से बोली- 'बचपन में दोनों भाई मेरे नाम में 'सु' लगाना भूल जाते थे किन्तु अब दोनों में से कोई यह भूल नहीं करते।' 'वह तो इनके बचपन की भूल थी।' महारानी भद्रा हँस पड़ी- 'ननद जी परम मंगलमयी हैं, अब यह बात कैसे भूली जा सकती है।' ऐसे सात्त्विक परिहास के लिए भी सुभद्रा के स्वभाव में कम ही अवकाश था। वे उपासनामयी हो गयीं थीं। उन्होंने तो अभिमन्यु की भी खोज लेना छोड़ दिया था। वह भी माता के पास कुछ क्षण ही रुकता था। रात्रि में भी वह किसी भाई या मामा के समीप कुछ सुनता, सीखता और सो जाता था। 'पांडवों का क्या होगा?' किसी ने कभी कहा भी तो सुभद्रा का निश्चित उत्तर था- 'उनका हित भैया के हाथों में सुरक्षित हैं।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:श्री द्वारिकाधीश
भाग- 168

'पांडवों का क्या होगा? यह प्रश्न सुभद्रा के द्वारिका में आते ही सबके सम्मुख आ गया। स्पष्ट था कि उनके साथ अन्याय हुआ है। यह संभावना भी किसी को नहीं थी कि जब वे वनवास की अवधि पूर्ण करके लौटेंगे तो दुर्योधन उन्हें उनका राज्य लौटा देगा। उन्हें अपना स्वत्व प्राप्त करने के लिए युद्ध करना ही पड़ेगा, यह सुनिश्चित तथ्य था।

जब युद्ध करना ही है तो शत्रु के साथ छल से करायी गयी प्रतिज्ञा का क्या अर्थ? शत्रु को अपना पक्ष प्रबल करने का अवसर क्यों दिया जाय? अभी प्रजा पांडवों के पक्ष में है, किन्तु लोकमानस किसी के भी उपकार को अधिक काल तक स्मरण नहीं रखता। तेरह वर्ष के दीर्घकाल में लोग युधिष्ठिर को भूल जायेंगे यही तो दुर्योधन को अभीष्ट है।

सबसे अधिक क्रोध था भगवान बलराम को कौरवों की दुष्टता पर और यह इसलिए भी था कि उनकी सबसे अधिक स्नेह भाजना बहिन तथा भागिनेय अपने स्वत्व से वंचित कर दिये गये थे।

पांडवों ने द्यूत में हारकर वनवास स्वीकार कर लिया था। उनके विरुद्ध अन्याय हुआ है, इस प्रकार की कोई बात उन्होंने नहीं कही। अतः दूसरे संबंधियों को कितना भी रोष आये, कुछ करने की स्थिति नहीं थी।

दुर्योधन द्यूत में विजयी होकर ही संतुष्ट नहीं था। वन में भी पांडवों को उत्पीड़ित करने के प्रयत्नों में लगा था और जब पता लगा कि महर्षि दुर्वासा को सशिष्य धर्मराज के यहाँ उसने आतिथ्य ग्रहण करने भेजा था तो श्रीसंकर्षण के लिए चुप बैठे रहना अशक्य हो गया। उन्होंने सुधर्मा सभा में प्रश्न उठाया–

'पाण्डव हमारे संबंधी हैं, भाई हैं और उन्हें दुर्वासा जी से शाप दिलाकर नष्ट ही कर देने का प्रयत्न किया गया। हम यह अन्याय कब तक चुपचाप सहन करते रहेंगे?'

'आप आदेश करें।' सात्यकि को तो बहुत अधिक क्रोध था दुर्योधन पर। वे अपने शस्त्र शिक्षा गुरु धनंजय के सदा से प्रबल समर्थक हैं। अतः सबसे पहिले वे उठे–

'हम दुर्योधन को उचित दण्ड देने में असमर्थ नहीं हैं।'

'ये श्रीकृष्ण क्यों चुप हैं?' श्रीबलराम ने छोटे भाई की ओर देखा।

'हम कर भी क्या सकते हैं?' श्रीकृष्णचन्द्र ने शांत स्वर में कह दिया- 'युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं और भाईयों के साथ उन्होंने स्वेच्छा से द्यूत में हुए नियम को स्वीकार किया है। अब अवधि की प्रतीक्षा तो हम कर सकते हैं।'

'द्यूत में जो कुछ निश्चित हुआ था मैंने भी उसे सुना है।' श्रीबलराम रोष भरे स्वर में बोल रहे थे- 'धृतराष्ट्र ने पांचाली को संतुष्ट करने के लिए, उसके अपमान के प्रतिशोध के रूप में पांडवों को दासत्त्व से मुक्त करके राज्य तथा कोष भी लौटा दिया था। पांडव द्यूत-सभा से उठकर जा रहे थे। उन्हें फिर बुलाया गया और द्यूत के अन्तिम दाव में यही तो नियम था कि जो हार जायगा, वह बारह वर्ष वनवास स्वीकार करेगा और एक वर्ष का अज्ञातवास करेगा?'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 169

यह तथ्य सबको ज्ञात था। इसमें किसी को कुछ कहना नहीं था। श्रीबलराम कुछ क्षण चुप रहे। सब उनका मुख देख रहे थे। अब उन्होंने कहा- 'इसमें राज्य तथा कोष दुर्योधन को देने की बात कहाँ से आ गयी? दुर्योधन को कैसे स्वत्व प्राप्त हो गया कि वह पांडवों के राज्य तथा कोष पर अधिकार कर ले?'

'पांडव वन में चले गये तो उनका राज्य कौन सम्हालाता?' इस बार कृतवर्मा बोला। इसकी सहानुभूति सदा से दुर्योधन के साथ रही है, किन्तु इस समय उसका स्वर भी शिथिल ही था। उसे भी लग रहा था कि दुर्योधन ने अनीति की है और उसका पक्ष दुर्बल है।

'धनंजय का पुत्र क्यों सिंहासन पर नहीं बैठ सकता?' भगवान संकर्षण को आज कुछ निर्णय कर ही लेना था। वे श्रीकृष्ण के शान्त बैठे रहने से अधिक चिढ़ गये थे। 'क्या हुआ कि अभिमन्यु अभी बालक है। हम उसे सिंहासन पर बैठा देंगे और सुभद्रा तथा देवी पृथा उसके शासन को संहालेंगी। धर्मराज युधिष्ठिर लौटेंगे तो अभिमन्यु अपने पितृव्य के लिए सिंहासन रिक्त कर देगा।'

'आपका शिष्य आपकी इस व्यवस्था को सरलता से स्वीकार नहीं करेगा।' सात्यकि ने किंचित व्यंग किया।

'मैं जानता हूँ कि दुर्योधन कितना दुष्ट और अभिमानी है।' आज भगवान बलराम को दुर्योधन पर कोई करुणा नहीं थी। वे जो उसे सदा सुयोधन कहते थे, आज दुर्योधन ही कह रहे थे- 'किन्तु उसको अपनी व्यवस्था स्वीकार कराना मुझे और यादव वाहिनी को आता है। हम अभिमन्यु को लेकर आज ही प्रस्थान करेंगे।'

'समस्या दुर्योधन के स्वीकार करने की नहीं है।' अब श्रीकृष्णचन्द्र उठे- 'वह स्वीकार नहीं करेगा, यह सब जानते हैं और उसे स्वीकार करने को विवश करने की शक्ति हममें है, किन्तु मैं जानता हूँ कि पाण्डु पुत्र इस प्रकार प्राप्त राज्य को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। धर्मराज युधिष्ठिर इसे सुनकर प्रसन्न नहीं होंगे। हमें अपने उन धर्मप्राण स्वजनों की भावना का सम्मान करना है। यदि यह बाधा न होती तो मैं स्वयं अब तक यह कार्य संपन्न कर चुका होता।'

पांडवों के एकमात्र आश्रय श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के परमप्रिय धनंजय। बहिन सुभद्रा तथा भागिनेय अभिमन्यु इन्हें अत्यन्त प्रिय हैं। जब यही इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते, पांडव कैसे कर लेंगे। सबको ही शांत होकर प्रतीक्षा करना ही उचित जान पड़ा।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग - 170

अभिमान सबसे बड़ा अवगुण है क्योंकि वह व्यक्ति के विवेक को आच्छादित कर लेता है और तब उससे मर्यादा का अतिक्रमण होता है। बड़ों का अपमान होता है।

साम्ब अतिशय सुन्दर थे। उन्हें अपने इस सौन्दर्य का बहुत गर्व था। शरीर के सौन्दर्य का गर्व- इसका अर्थ भी क्या है, किन्तु युवावस्था के उन्माद में व्यक्ति इसे कहाँ समझ पाता है। इसलिए सत्पुरुष वार्धक्य को भगवान का वरदान मानते हैं क्योंकि तब शरीर के सौन्दर्य-बल का गर्व नष्ट हो जाता है। इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। यदि विवेक जागृत हो तो मनुष्य देहासक्ति एवं विकारों से परित्राण पाकर अन्तर्मुख हो जाता है।

द्वारिका में जरा, मृत्यु, रोग, क्लान्ति, श्रान्ति का प्रवेश नहीं था क्योंकि पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ विराजमान थे और सुरपादप कल्पवृक्ष वहाँ आरोपित था। इस अलौकिक सुविधा ने लाभ से वंचित भी किया था सबको। इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया था, साम्ब का कैसे जाता किन्तु श्रीहरि के अपने जनों में अपने ही पुत्रों में शरीर का अभिमान- यह अभिनिदेश सर्वथा असङ्गत था। उसे दूर तो होना ही चाहिए था।

गर्व मर्यादा का अतिक्रमण कराता है। साम्ब अपने शरीर के प्रदर्शन का कोई अवसर खोना नहीं चाहते थे। वे अनवसर भी व्यायाम, स्नान आदि का कोई-न-कोई बहाना बनाकर सार्वजनिक स्थानों पर वस्त्राभरण उतार देते थे और केवल कच्छे में अपने सुगठित सिन्दूरारुण शरीर को दिखलाना चाहते थे।

रैवतक गिरि पर श्रीकृष्णचन्द्र अपनी महारानियों के साथ स्नान कर रहे थे। जलक्रीड़ा चल रही थी। वहाँ केवल दासियाँ थीं रानियों की किन्तु वे श्रीकृष्णचन्द्र के कुमार को ही कैसे रोकतीं। साम्ब अकेले वहाँ पहुँच गये और स्नान का बहाना बनाकर उन्होंने वस्त्र उतार दिये।

यह ठीक है कि पुत्र को माता-पिता के सामने कभी भी जाने का अधिकार है और उसे कोई संकोच वहाँ नहीं होता, किन्तु पुत्र भी जब युवा हो जाता है तब उसे माता के सम्मुख जाने एवं व्यवहार करने में मर्यादा का ध्यान रखना आवश्यक है। पिता-माता एकान्त में हों, स्नान करते हों तो वहाँ युवा-पुत्र का पहुँच जाना सर्वथा ही अनुचित है। साम्ब के पहुँचने से रानियों को संकोच होना ही था। वे साम्ब की ओर देखने लगीं। सब उनके सुन्दर शरीर को आकृष्ट होकर देखते हैं, यह साम्ब को मानसिक तृप्ति देने वाला था, वे स्मरण ही नहीं कर पाते थे कि इसमें कुछ अनौचित्य भी है।

'तुझे अपने शरीर की सुन्दरता का गर्व हो गया है।' श्रीकृष्ण ने रोष भरे स्वर में कहा- 'श्वित्र तेरे इस गर्व को नष्ट कर देगा।'

रानियों ने, साम्ब ने भी देखा कि उनके शरीर पर श्वेतकुष्ट के चकत्ते स्थान-स्थान पर उभर आये हैं। शीघ्रतापूर्वक साम्ब ने वस्त्र लपेटा और भाग खड़े हुए।

जलक्रीड़ा समाप्त हो गयी। रानियों ने वस्त्र पहिने। सब रैवतक से राज-सदन आ गयीं किन्तु किसी का साहस श्रीकृष्णचन्द्र से कुछ कहने का नहीं हुआ। उनका रोष भरा मुख, साम्ब को ही शाप दे दिया तो बोलकर विपत्ति बुलाने का साहस कौन करे।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 171

कुष्ट रोगी अपना वह अंग जो श्वेत हो गया है किसी की भी दृष्टि में आने नहीं देना चाहता किन्तु साम्ब के मुख पर भी पर्याप्त भाग था श्वेतकुष्ट का। वे उसे छिपाने की स्थिति में भी नहीं थे।

जो द्वारिका में अपने को सबसे सुन्दर समझता था और सचमुच था, उसको श्वेत कुष्ठ होने से कितनी मनोव्यथा हुई होगी इसे समझना कठिन नहीं होना चाहिए। श्रीकृष्ण के शाप से उत्पन्न रोग को कल्पवृक्ष तो दूर नहीं कर सकता था, उसकी कोई औषधि भी संभव नहीं थी।

साम्ब अपने अन्तःपुर में अपनी पत्नियों के सम्मुख भी जाने का साहस नहीं कर सके। वे एकान्त कक्ष में अपने को बन्द करके बैठ गये। उनकी पत्नी काश्या ने देवी जाम्बवती से प्रार्थना की। उन्होंने स्पष्ट कह दिया- 'मैं कुछ भी करने में असमर्थ हूँ। मैं उनकी चरण-सेविका, उनके सम्मुख मैं क्या कहूँगी। लेकिन वह बड़ो की शरण ले तो कोई मार्ग निकल सकता है।'

साम्ब को शैशव से ही श्रीबलराम का अत्यन्त स्नेह प्राप्त हुआ था। उन संकर्षण ने ही उसे शस्त्र शिक्षा दी थी। पत्नी के द्वारा माता का संदेश मिला तो साम्ब ने रात्रि में जाकर उन सबके आश्रय एवं जीवमात्र के आद्याचार्य के सम्मुख भूमि पर सिर धर दिया और फूट कर रो पड़ा- 'अब मैं आपके चरणों के स्पर्श के योग्य भी नहीं रहा। मुझे अनाहार द्वारा देह-त्याग की आज्ञा दे दें।'

"किसने कहा कि तुम मेरा स्पर्श नहीं कर सकते।" वे परमाचार्य ही जीव के दोष-दुर्गुण देखने लगें तो आर्तप्राणी फिर किससे अभय की आशा करेगा। उन अनंत दयाधाम ने अंक में खीचं लिया साम्ब को- "तुम्हें इतना समझना चाहिए कि शरीर का सौंदर्य नश्वर है, महत्त्वहीन है और इसका अभिमान अनिष्टकारी है। तुम्हारे पिता तुम्हें यह समझाना चाहते थे। देहत्याग की आवश्यकता नहीं होगी। श्रीकृष्ण के स्वभाव में ही रोष नहीं है। वे तो कृपा करते हैं रोष के भी मिस से। मैं कल उनसे कहूँगा।"

"तुम्हीं दण्ड देने लगोगे तो अज्ञ बालकों को क्षमा कौन करेगा?" श्रीबलराम जी ने प्रातःकाल मिलते ही छोटे भाई को उलाहना दिया- 'जीव के कर्म देखना तुमने कब से प्रारंभ किया? तुम्हारा काम तो क्षमा करना, अपनाना, आश्रय देना मात्र है तुम्हारे स्वरूप में दण्ड कहाँ से आ गया?"
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 172

आर्य! आप अनन्त करुणावरुणालय हैं और अघी, अपराधी, अनधिकारी प्राणियों को भी सदा अपनाते आये हैं।" श्रीकृष्ण ने अग्रज को मस्तक झुकाया।

'यह स्तुति इस समय रहने दो।'
भगवान बलराम बोले- 'साम्ब पर अनुग्रह करो। बालक बहुत दुःखी है अनाहार करके देहत्याग की अनुमति लेने आया था। मैंने उसे आश्वासन दिया है।'

'आपने अभय दे दिया, अब शेष क्या रहा।' भगवान संकर्षण किसी को अपना लें उनका आशीर्वाद प्राप्त हो जाय तो श्रीकृष्ण उससे रुष्ट कैसे रह सकते हैं। उन्होंने हँसकर कह दिया- 'उसे उसी सरोवर के समीप भगवान भास्कर की आराधना करनी चाहिए।'

साम्ब ने श्रीबलराम जी से ही मन्त्र तथा सम्पूर्ण विधि प्राप्त की। वे रैवतक गिरि पर रहकर सूर्योपासना करने लगे। त्रिकाल स्नान, रक्त चन्दन, रक्त कर्णिकार पुष्प से सूर्य-अर्चा तथा सूर्य मन्त्र का जप। लवण उन्होंने सर्वथा त्याग दिया। दिन में केवल एक बार ही अन्न का आहार करते थे।

सूर्य नेत्राधि देवता हैं और नेत्र रोगों में सूर्योपासना, रविवार का व्रत बहुत महत्त्व का प्राचीन समय से माना गया है। रंगो की उपलब्धि विनाश का संबंध भी सूर्य रश्मियों से ही है, इतनी बात सीधी है किन्तु साम्ब के संबंध में तो तथ्य यह था कि उन्हें रोग अपने पिता के शाप से हुआ था। दूसरा कोई उसका निवारण कर सके, संभव नहीं था। सूर्यनारायण उन श्रीद्वारिकाधीश के ही स्वरूप हैं, अतः उनकी आराधना बतला दी गयी थी।

साम्ब के शरीर के श्वेत स्थान काले पड़ने लगे, धब्बे घटते गये। एक वर्ष आराधना करके उनको पूर्ववत स्वस्थ शरीर मिला किन्तु साम्ब ने जीवन-पर्यन्त रविवार का व्रत रखा और वे नैष्ठिक सूर्योपासक बने रहे।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 173

'श्रीकृष्ण का क्या होगा?' हस्तिनापुर में दुर्योधन और उसके समर्थकों की चिंता का यही प्रधान विषय था। पांडवों से युद्ध अनिवार्य था और श्रीकृष्ण पांडव पक्ष में हैं, यह छिपी बात नहीं थी। बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का गुप्तवास भले उन लोगों ने पूर्ण कर लिया हो, उनको राज्य तो देना नहीं था दुर्योधन को।

अश्वत्थामा अपने अहंकारी स्वभाव से विवश था। वह मानता था कि उसके पिता श्रीद्रोणाचार्य के समान कोई योद्धा सृष्टि में नहीं है और पिता के पश्चात दूसरा कोई शूर है तो वह स्वयं है। पांडवों के साथ युद्ध में कौरव पक्ष में प्रथम महासेनापति उसके पिता बनाये जायेंगे इसमें कोई संदेह नहीं था। यदि कथंचित वृद्ध होने के कारण पिता विजयश्री प्राप्त न कर सके तो उनके पश्चात महासेनापति का पद वह अपना स्वत्व मानता था।

'भीष्म वृद्ध हो चुके। अब वे केवल आशीर्वाद दे सकते हैं और उनकी सहानुभूति पांडवों के साथ है।' अश्वत्थामा के मत में 'कर्ण सूतपुत्र कायर है। वह केवल अपने पौरुष की डींग हाँकता है।'

'श्रीकृष्ण.......' अश्वत्थामा यहाँ आकर रुक जाता था। अर्जुन उसे अपने समबल लगते थे किन्तु श्रीकृष्ण का चक्र सचमुच अमोध है। उस चक्र का कोई भी प्रतिकार किसी के पास नहीं है।

'यदि श्रीकृष्ण के पास चक्र न हो?' अश्वत्थामा ने अपने मन में कल्पना की- 'यदि वह चक्र स्वयं उसके कर में हो?' इस कल्पना से अद्भुत स्वप्न दिखलाया। चक्र स्वयं उसके कर में हो और श्रीकृष्ण को वह युद्ध में पराजित कर दें- अमोध चक्र उसके कर में होगा तो श्रीकृष्ण की पराजय सुनिश्चित है। तब महाराज सुयोधन स्वयं प्रार्थना करेंगे कि उनकी सेना का यह महासेनापतित्व स्वीकार करे। वह अपना विजयाभिषेक करायेगा। उसके पिता और भीष्म उसके पार्श्वरक्षक होंगे। सूतपुत्र कर्ण को कृपा करके वह अपना पृष्ठ-रक्षक बना देगा। कौरव-सेना उसका जयघोष करेंगी और.....।

अश्वत्थामा अपने इस स्वप्न से, इस कल्पना से स्वयं अभिभूत हो गया कि किसी से कुछ कहे वह अकेला रथ में बैठा और द्वारिका चल पड़ा। वह ब्राह्मण है, अपने इस ब्राह्मणत्व का लाभ उसे उठाना ही चाहिए।
द्वारिका में द्रोणपुत्र से अधिकांश लोग परिचित थे। वैसे भी ब्राह्मणों के लिए द्वारिका के द्वार सदा उन्मुक्त थे। द्वारपाल प्रणाम करके केवल मार्ग सूचित कर सकते थे। अश्वत्थामा संपूर्ण ब्राह्मणोचित वेश में आया था।

द्वारिका में अश्वत्थामा कुछ दिन रहा। उसका वहाँ उचित सत्कार हुआ। एक दिन वह श्रीकृष्ण के समीप पहुँचा। अर्घ्य दिया श्रीद्वारिकेश ने प्रणिपात करके और विधिवत पूजन किया। अन्त में जब अश्वत्थामा भोजन करके ताम्बूल ग्रहण के पश्चात स्वस्थ बैठ गया तब श्रीकृष्णचन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा- 'आपके पधारने से मेरा गृह पवित्र हुआ। आपने मेरे पास आने का कष्ट कैसे उठाया? मैं आपकी क्या सेवा करूँ?'
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:

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