द्वारिका धीश 16

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 174

मैं याचक होकर आया हूँ।' अश्वत्थामा बोला- 'आप उदार चक्र-चूड़ामणि हैं। आपके लिए ब्राह्मण को अदेय कुछ भी नहीं है। आपके ब्रह्मण्यदेव सुयश ने ही मुझे प्रलुब्ध किया है, किन्तु......।'

'आप संकोच त्यागकर आज्ञा करें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने तनिक स्मितपूर्वक कहा।

'मैं आपसे आपके अमोघ चक्र की याचना करता हूँ।' अश्वत्थामा ने अपनी माँग प्रस्तुत कर दी। इसके बदले आप मेरे मस्तक में लगी मणि ले लें, यह मणि संसार में अत्यन्त दुर्लभ है।'

'मुझे कोई आपत्ति नहीं है।' श्रीकृष्ण का स्वर-शांत गंभीर था- 'यदि आप इसे उठा सकें, अवश्य ले जायँ। मणि आप अपने ही समीप रहने दें। मुझे मणि नहीं चाहिए। चक्र के अतिरिक्त भी मेरी गदा, खड्ग, धनुष यहाँ हैं। जो-जो आयुध आप उठा सकें, वह सब ले लें।'

चक्र संपत्ति नहीं है कि उसे कोई कहीं धर रखेगा। वह आयुध है और आयुध का उसी के लिए उपयोग है जो उसका प्रयोग करने की क्षमता रखता हो। जो उसका प्रयोग ही न कर सके, वह आयुध माँगे तो उसकी याचना का कोई अर्थ नहीं है। उनकी माँग अज्ञ बालक के समान है। अश्वत्थामा को भी श्रीकृष्ण की बात में कोई असंगति नहीं लगी।

अश्वत्थामा उठा और उसने चक्र को एक हाथ से उठाने का प्रयत्न किया। जब वह इसमें असफल हो गया तो उसने दोनों हाथ लगाकर पूरा बल लगाया, किन्तु चक्र उससे अपने स्थान से नहीं उठा। अब लज्जा से मस्तक झुकाकर वह जाने के लिए प्रस्तुत हुआ। उसने कहा- 'आपका चक्र त्रिभुवन में अद्वितीय है और उसे उठाने में केवल आप ही समर्थ है।'

'मुझे बहुत खेद है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'यदि आप कोई और आज्ञा करें।'
अश्वत्थामा खिन्न होकर बोला- 'आप जो स्वेच्छापूर्वक देंगे, वहीं ले लूँगा।'
श्रीकृष्णचन्द्र ने अश्वत्थामा को बहुत से उत्तम अश्व तथा रत्न देकर संतुष्ट किया। अंत में उससे सविनय पूछा- 'यदि अनुचित न हो, आप चक्र लेकर क्या करना चाहते थे, यह बतलाने की कृपा करें।'

'मैं आपका चक्र लेकर, आप पुरुषोत्तम वासुदेव को प्रणाम करके आपसे ही युद्ध करना चाहता था।' अश्वत्थामा ने स्पष्ट कह दिया- 'आप मेरी धृष्टता को क्षमा करें।'

'मैं ब्राह्मण के ऊपर शस्त्र नहीं उठाता।' श्रीकृष्ण ने गंभीरतापूर्वक अश्वत्थामा की ओर देखा- 'लेकिन धनंजय मेरा अभिन्न स्वरूप है। मुझसे युद्ध की आपकी कामना वह संतुष्ट कर देगा अवसर आने पर।'

अज्ञ अश्वत्थामा, चिद्घनवपु श्रीकृष्णचन्द्र के अस्त्र, आभरणादि सब चिन्मय हैं, यह कभी स्वप्न में भी उसने नहीं सोचा था। चक्र उन चक्रपाणि के अतिरिक्त दूसरे किसी का आयुध बन नहीं सकता, यह बात उसकी कल्पना में ही नहीं थी। द्वारिका से वह अपने सब स्वप्न खोकर लौटा।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 175

बहिन सुभद्रा को विदा करना है। पांडवों ने वनवास के बारह वर्ष व्यतीत कर लिये और गुप्तवास का एक वर्ष वेश बदलकर महाराज विराट के यहाँ रहे। इस काल में अर्जुन वृहन्नला बनकर महाराज विराट की पुत्री उत्तरा को नृत्य-संगीत की शिक्षा दी। परिचय हो जाने पर विराट ने प्रस्ताव किया कि अर्जुन उनकी पुत्री स्वीकार कर लें।

यह मेरे लिए पुत्री के समान है। मैंने उसे स्नेह से सुता समझकर ही शिक्षा दी है। अपनी शिष्या को मैं केवल अपनी स्नुषा के रूप में ही स्वीकार कर सकता हूँ। अर्जुन के इस प्रस्ताव को विराट ने स्वीकार कर लिया। अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह निश्चित हो गया और यह विवाह महाराज विराट की इच्छानुसार तत्काल करना था। अतः बहिन सुभद्रा को अभिमन्यु के साथ विदा करना आवश्यक हो गया।

कौरवों के साथ युद्ध अनिवार्य ही लगता था। विराट जैसे नरेश के संबंधी बना लेने में पांडवों का सब प्रकार लाभ था। इस समय युधिष्ठिर को भाईयों के साथ कोई सम्मानपूर्ण स्थान, युद्ध की तैयारी की सुविधा भी आवश्यक थी।

युद्ध के पश्चात क्या होगा, कोई कैसे निश्चित कह सकता है। क्षत्रिय कन्या का जब वाग्दान हो चुका, उसका विवाह युद्ध के पश्चात टाला नहीं जा सकता था क्योंकि अब दूसरे का वरण तो वह किसी भी अवस्था में करेगी नहीं।

धर्मराज युधिष्ठिर का प्रस्ताव उचित था कि बिना धूमधाम के अभिमन्यु का विवाह कर दिया जाय क्योंकि इस समय पूरा ध्यान पूरी शक्ति भावी संग्राम के लिए संचित करने में लगानी थी।
संदेश आया और द्वारिका में सुभद्रा के विदा की तैयारी प्रारंभ हो गयी। बहिन को विराट नगर भेजना था क्योंकि अभी तो उसका अपना घर कहीं था ही नहीं। उसके पति को अपने शौर्य से अपना राज्य अपना निवास प्राप्त करना था।

अद्भुत परिस्थिति थी। बहिन को विदा करना था, भागिनेय विवाह करने जा रहा था किन्तु उनके साथ उपहार सामग्री बहुत अधिक भेजने का कोई अर्थ नहीं था। इस समय पांडवों को सब सहायता अपेक्षित थी- वह सब सहायता तो स्वजन कर सकें किन्तु उपयोगी सहायता। बहुमूल्य वस्त्राभरण इस समय उनके लिए व्यर्थ भार बनते।

श्रीबलराम जी ने स्वयं सामग्री सज्जित करायी और श्रीकृष्णचन्द्र से पूछा- 'तुम बहिन के साथ जा रहे हो?'

'हम दोनों द्वारिका से चले जायँ, यह उचित नहीं होगा।' श्रीद्वारिकाधीश ने अग्रज को बतलाया- 'सात्यकि मेरे साथ जायेंगे।'

अभिमन्यु को महाराज उग्रसेन ने उत्साहित किया कि वह द्वारिका की गजशाला, अश्वशाला में-से जितने और जो भी अश्व, गज चाहें, छाँट लें। उसे आग्रह करके श्रीबलराम प्रद्युम्नादि से दुर्लभतम अस्त्र, दिव्यास्त्र तथा कवच, खड्ग गदादि शस्त्र दिये।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 176

'अभिमन्यु का विवाह पांडव अपने स्वतंत्र शिविर से करेंगे और तुम उस शिविर को सम्राट युधिष्ठिर के अनुरूप सज्जित कर दोगे।' श्रीसंकर्षण ने छोटे भाई को बहिन को विदा करते समय आदेश दिया- 'महाराज विराट पर दोनों ओर की व्यवस्था का भार डालना उचित नहीं है।'

'मैं आर्य की आज्ञा का ध्यान रखूँगा।'
श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'विश्वकर्मा आर्य के संकल्प से अपरिचित नहीं हो सकते क्योंकि वे देवता हैं। वे वहाँ पहुँच चुके होंगे।'

'भैया! तुम्हारी यह बहिन एक ही वरदान चाहती हैं' सुभद्रा ने बड़े भाई से पहिली बार जीवन में अनुरोध किया- "तुम दोनों इसको अपने से दूर मत करना।"

'तू सदा हमारे समक्ष रहेगी।' श्रीकृष्णचन्द्र की ओर देखते हुए श्रीबलराम ने स्वीकार कर लिया। कलियुग में दारु-विग्रह श्रीजगन्नाथ के साथ बहिन के बने रहने की यह भूमिका बन गई।

माता रोहिणी, देवकी जी, श्रीकृष्णचन्द्र की सब महारानियाँ, श्रीरेवती जी एवं प्रद्युम्नादि की पत्नियाँ- सबकी अत्यन्त प्रिय सुभद्रा, सबका स्नेहभाजन अभिमन्यु बहुत ही दुःखद होता है स्वजनों से वियुक्त होना किन्तु सुभद्रा पति के समीप जा रही थी। अभिमन्यु विवाह के लिए विदा किया जा रहा था- हर्ष और विषाद का अद्भुत मिलन था हृदयों में। यादवकुमारों का मिलन-उत्साह वर्णन नहीं किया जा सकता।

'बहिन! मैं आज तुझे द्वारिका से बिना ठिकाना दिये पहुँचाने चल रहा हूँ'
श्रीकृष्णचन्द्र ने सबके सम्मुख कहा- 'किन्तु तुझे हस्तिनापुर के राजसदन में प्रतिष्ठित करने का वचन देता हूँ।'

'भैया! मेरा मंगल तुम्हारे करो में सदा सुरक्षित है, सुभद्रा ने यह विश्वास कभी नहीं खोया।' बहिन ने भाई के सम्मुख मस्तक झुका दिया।

सुभद्रा और अभिमन्यु को श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने रथ में बैठाया। सात्यकि ने सुरक्षा के लिए साथ चलने वाली सेना का नायकत्व स्वयं लिया।

उत्तम मुहूर्त में, स्वस्ति पाठ, शंखनाद, वाद्य ध्वनि, मंगलगान के तुमुल स्वर के साथ बहिन सुभद्रा विदा हुई और उसे लेकर श्रीद्वारिकाधीश के गरुड़ध्वज रथ ने विराट नगर की ओर प्रस्थान किया। दूर तक श्रीबलराम प्रद्युम्नादि पहुँचाकर लौटे।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:

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