द्वारिका धीश 17
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 177
आपको स्वयं द्वारिका जाना चाहिए।' कर्ण और शकुनि ने दुर्योधन को समझाया- 'यद्यपि यह स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण पांडवों के पक्ष में हैं, किन्तु वे आपके भी संबंधी हैं। यदि आप पांडवों से प्रथम उन्हें युद्ध में सहायता करने को आमंत्रित करने पहुँच जाते हैं तो आपको अस्वीकार कर देना उनके लिए कठिन होगा।'
'चक्रधर श्रीकृष्ण से युद्ध करके विजय की आशा नहीं की जा सकती।' कर्ण ने यह बात कभी छिपाई नहीं।
पितामह भीष्म ने कह दिया था- 'मैं अपने उन आराध्य के विरुद्ध शस्त्र नहीं उठाऊँगा। मैं तुम्हारे पक्ष में तभी युद्ध कर सकता हूँ, जब श्रीकृष्ण चक्र उठाये सामने न हों।'
'राजन! मैं युद्ध तो करूँगा, किन्तु मेरे पास श्रीकृष्ण के वेग को अथवा उनके चक्र को कुछ क्षण भी रोक सके, ऐसा कोई दिव्यास्त्र नहीं है।'
आचार्य द्रोण ने समझाया था दुर्योधन को- यद्यपि अर्जुन मेरा शिष्य हैं, किन्तु सुरों से तथा भगवान पुरारि से अस्त्र पाकर वह हम सबके लिए दुर्धर्ष हो गया है। हम सब मिलकर उसी को रोक लें इतना बहुत है। क्रुद्ध श्रीकृष्ण त्रिलोकी की प्रलय करने में सहज समर्थ हैं।'
'भगवान संकर्षण का अनुग्रह प्राप्त है आपको।'
कर्ण ने संपत्ति दी- 'आशा नहीं है कि वे अपने अर्जुन के विरुद्ध युद्ध में आयेंगे किन्तु यदि आपके जाने से वे श्रीकृष्ण को युद्ध से तटस्थ भी कर दें तो हमारी विजय की आशा हो जायगी।'
दुर्योधन को भी दूसरा मार्ग नहीं दीख रहा था। उसने रथ सजवाया और अपनी पुत्री, जामाता साम्ब एवं महाराज उग्रसेन, वसुदेव आदि सबके लिए उपहार सामग्री लेकर द्वारिका पहुँचा। उसे उसके मित्रों ने समझा दिया था कि पहले उसे सीधे श्रीकृष्ण से मिलना चाहिए। पांडवों में कोई पहुँचे, इससे पहिले पहुँच जाना चाहिए।
पांडवों की गतिविधि का पूरा पता रखने के लिए दुर्योधन ने चर नियुक्त कर रखे थे। उसे यह समाचार मिल गया कि अर्जुन द्वारिका के लिए प्रस्थान करने वाले हैं। अतः दुर्योधन ने शीघ्रता की।
दुर्योधन ने उपहार सामग्री भिजवा दी महाराज उग्रसेन तथा वसुदेव जी के समीप। वह स्वयं अकेले महारानी रुक्मिणी के भवन में पहुँचा। सेवक, द्वारपाल आदि सबने स्वागत सहित प्रणाम किया। महारानी उसे आते देख कक्ष से चली गयीं। श्रीकृष्णचन्द्र मध्याह्न भोजन करके विश्राम कर रहे थे। दुर्योधन गया और शैय्या के सिरहाने की ओर स्वर्ण-सिंहासन पर बैठ गया। यह सिंहासन उसके लिए महारानी ने भिजवाया था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 178
दुर्योधन बैठा ही था कि अर्जुन भी आ गये। अर्जुन द्वारिका में अनेक बार आ चुके थे। श्रीकृष्ण के अन्तःपुर में सब उनसे परिचित थे। उनके स्वागत की औपचारिकता अनावश्यक हो चुकी थी श्रीकृष्णचन्द्र के सदन में।
दुर्योधन वहाँ न बैठे होते तो महारानी रुक्मिणी स्वागत कर लेतीं अर्जुन का किन्तु अब कोई आवश्यकता हो तो अर्जुन स्वयं भी सेवकों को कह सकते थे अथवा महारानी के समीप जा सकते थे। अतः उनके आने पर ध्यान देना आवश्यक नहीं था।
अर्जुन आये और शयन कर रहे अपने सखा के चरणों के समीप शैय्या पर ही बैठ गये। अकस्मात श्रीकृष्णचन्द्र ने नेत्र खोले और अपने पैरों के समीप बैठे विजय को देखते ही उठकर बैठते हुए बोले- 'अर्जुन तुम कब आ गये? कहो, कैसे आये?'
दुर्योधन को लगा कि अब अवसर हाथ से निकल ही जाने वाला है। उसने कहा- 'मैं अर्जुन से पहिले आपके समीप पहुँचा हूँ।'
'सुयोधन जी! श्रीकृष्णचन्द्र ने मस्तक वाम की ओर झुकाकर पीछे देखा और शैय्या पर ही दोनों को दो पार्श्व में करते सीधे बैठ गये। अब अर्जुन उनके दाहिने और दुर्योधन बाँये हो गये। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के प्रणाम का उत्तर दिया और पूछा- 'आपने कैसे कष्ट किया?'
'आपको युद्ध में हमारी सहायता करनी चाहिए।'
दुर्योधन ने अपनी बात कही- 'मैं युद्ध में सहायता के लिए आपको आमन्त्रित करने आया हूँ।'
'मैं भी इसी निमित्त प्रार्थना करने आया हूँ।' श्रीद्वारिकाधीश ने अर्जुन की ओर देखा तो उन्होंने भी हाथ जोड़कर कह दिया।
'आप दोनों ही सम्मान्य संबंधी हैं। आप यहाँ पहले आये हैं और मैंने अर्जुन को पहिले देखा है।'
श्रीकृष्णचन्द्र दुर्योधन से बोले- 'एक ओर मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना रहेगी और दूसरी ओर मैं अकेला रहूँगा किन्तु युद्ध में मैं शस्त्र ग्रहण नहीं करूँगा। दोनों ही पक्ष अपने स्वजन हैं, अतः मैं शस्त्र लेकर किसी पक्ष से युद्ध नहीं करूँगा। अर्जुन आयु में आपसे छोटा है, अतः इसे दोनों में से जो स्वीकार हो, ले लेने का अवसर पहिले मिलना चाहिए।
'मैं आपको चुनता हूँ।' अर्जुन ने तत्काल कहा।
'मुझे सेना स्वीकार है।' दुर्योधन ने भी देर नहीं की। वह डर रहा था कि अर्जुन सेना न ले ले। उसने फिर कहा- 'आप तो शस्त्र लेकर युद्ध नहीं करेंगे?'
'इस युद्ध में शस्त्र न उठाने की मेरी प्रतिज्ञा है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने वचन दिया।
'अब आप अनुमति दें।' दुर्योधन तत्काल उठ गया हाथ जोड़कर। उसे विदा देते समय श्रीकृष्ण ने कह दिया- "द्वारिका की सेना के सेनापति के रूप में कृतवर्मा जायेंगे आपके पास में। सात्यकि को पांडव पक्ष में जाने से रोका नहीं जा सकता। वे विजय के शिष्य हैं। दूसरे कोई महारथी किसी पक्ष में जा सकते हैं। मेरे पुत्र-पौत्र युद्ध में सम्मिलित नहीं होंगे।"
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 179
दुर्योधन यहाँ से श्रीबलराम जी के यहाँ पहुँचा। उन्हें प्रणाम करके उसने युद्ध में सहायता की प्रार्थना की।
श्रीबलराम ने कहा- 'श्रीकृष्ण मेरी आत्मा हैं। मैं उनके विपक्ष में खड़े होने की कल्पना स्वप्न में भी नहीं कर सकता। इस युद्ध में मैं सर्वथा तटस्थ रहूँगा।'
'अर्जुन! तुमने यह क्या बचपना किया। मैंने तो तुम्हें अवसर दिया था।' दुर्योधन के जाते ही हँसकर श्रीकृष्णचन्द्र ने सखा से कहा- 'मैं शस्त्रहीन युद्ध में तुम्हारे किस उपयोग में आऊँगा? तुम चाहो तो अब भी तुम्हें एक अक्षौहिणी सेना मिल सकती है और दुर्योधन को मिलने वाली सेना से यह हमारी सुरक्षित सेना श्रेष्ठ है। महासेनापति अनाधृष्ट इसका संचालन करते हैं।'
'केशव! अपनी इस माया से मुझे सम्मोहित मत करो। तुम्हारी माया के भय से ही मैं तुम्हारे इन चरणों की शरण आया हूँ।' अर्जुन ने दोनों चरण पकड़ लिये श्रीकृष्ण के- 'मैं द्वारिका सेना लेने नहीं आया। आप चाहें तो यह दूसरी सेना भी दुर्योधन को दे दें। पाण्डु पुत्रों को आपसे रहित विजय भी नहीं चाहिए। हम विजयी हों या पराजित, आपके इन पादपद्यों के साथ ही रहेंगे, यह मेरा ही नहीं, धर्मराज का भी दृढ़ निश्चय है।'
'अब तो तुमने मुझे ले ही लिया है।' श्रीद्वारिकाधीश ने मित्र के दोनों हाथ अपने हाथ में ले लिये और पूछा- 'तुम मुझसे युद्ध में कराना क्या चाहते हो?'
'अपने रथ का सारथ्य।' अर्जुन बिना किसी संकोच के कह दिया- 'तुम्हारे हाथ में अपने रथ की रश्मि देकर मैं निश्चित हो जाना चाहता हूँ कि हम पांडवों के भाग्य-संचालन का सूत्र तुमने अपने हाथ में ले लिया है और फिर जो कुछ भी होता हो, उसमें हम सबको परम प्रसन्नता होगी।'
श्रीकृष्णचन्द्र खूब खुलकर हँसे- 'अच्छी बात। तुम जानते ही हो कि अश्वपरिचर्या और अश्व-संचालन में मेरी समता कर सकने वाला कदाचित ही प्राप्त हो।'
तनिक रुककर श्रीद्वारिकाधीश ने फिर कहा- 'तुम यहाँ जिनसे भी चाहो, मिल लो। जो भी तुम्हारा साथ देना चाहेंगे, मैं उन्हें मना नहीं करूँगा।'
'मुझे और किसी से मिलना नहीं है।
अर्जुन ने दृढ़ स्वर में कह दिया- 'जो स्वेच्छा से आयेंगे हम उनका स्वागत करेंगे किन्तु तुम मिल गये, हम संतुष्ट हो गये। अब और किसी से सहायता की प्रार्थना करने मैं नहीं जाना चाहता।'
अर्जुन को शीघ्रता थी। उन्हें विराट नगर में युद्ध की पूर्व भूमिका सम्हालनी थी। द्वारिका से वे भली प्रकार संतुष्ट होकर विदा हुए।
श्रीद्वारिकाधीश के चरणों में पहुँचकर कोई असंतुष्ट, अतृप्त रह जाय यह संभव नहीं है। दुर्योधन भी द्वारिका से पूर्ण संतुष्ट होकर ही विदा हुआ था। उसने श्रीकृष्ण को लगभग तटस्थ बना दिया था। श्रीबलराम से तटस्थ रहने का आश्वासन प्राप्त कर लिया था। दिग्विजयी प्रद्युम्न और अनिरुद्ध तथा श्रीकृष्ण के महारथी पुत्र-पौत्र युद्ध में आ नहीं रहे थे। अपने प्रचण्ड पराक्रम के लिए प्रसिद्ध नारायणी सेना की एक अक्षौहिणी उसे मिल गयी थी।
हस्तिनापुर में मित्रों ने दुर्योधन की सफलता का स्वागत किया। केवल भीष्म पितामह ने सब सुनकर कहा- 'नारायण रहित नारायणी सेना?' और मौन रह गये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 180
अभिमन्यु के विवाह के समय श्रीबलराम विराट नगर गये और वहाँ से लौटे तो उनका चित्त बहुत खिन्न था। सात्यकि ने वहाँ पांडव पक्ष के नरेशों की सभा में ही कहा था- 'आपको तो अपने शिष्य दुर्योधन का पक्षपात है। आप उसके दोष भी दूसरों के सिर डालना चाहते हैं।'
सात्यकि की बात सर्वथा निराधार तो नहीं थी। श्रीकृष्ण ने सात्यकि का खण्डन नहीं किया था किन्तु श्रीसंकर्षण क्या करें। वे जीवों के परमाचार्य हैं। उनके स्वभाव में ही कृपा है। उन्हें लगता है कि जो शिशु जितना दुर्बल है वह उनकी कृपा का उतना ही अधिक पात्र है। उन्हें किसी के दोष-दुर्गुण कहाँ दीखते हैं। यह तो जीव की दुर्बलता है।
पाण्डु पुत्र धर्मात्मा हैं। इन्हें धर्म का बल तथा श्रीकृष्ण की सहायता प्राप्त है। दुर्योधन अपने अहंकार के कारण बहुत दुर्बल है। उसे कृपा मिलनी चाहिए, किन्तु बहिन सुभद्रा?
अब युद्ध अनिवार्य है। दुर्योधन तो सहायता की याचना ही करने आ गया था। युद्ध से पूर्व पता नहीं कितनी मन्त्रणा सभा होंगी और उनमें सम्मिलित न हुआ जाय अथवा मौन रहा जाय, ऐसा संभव नहीं है।
अब सभी पराक्रमी नरेश पांडव अथवा कौरव पक्ष में युद्ध में सम्मिलित होने के लिए सैन्य-सज्जा में लगे हैं। अन्यत्र कहीं कोई आक्रमण करे- कोई छोटा युद्ध भी हो इसकी संभावना नहीं है। द्वारिका के लिए किसी भय की आशंका नहीं। अतः विराट नगर से लौटते ही श्रीसंकर्षण ने घोषणा कर दी कि वे तीर्थयात्रा करने जायेंगे।
उत्तम मुहूर्त में तीर्थयात्रा के नियम स्वीकार करके पत्नी के साथ उन्होंने रथ के द्वारा प्रस्थान किया और प्रभास पहुँचे। ब्रह्मचर्य का पालन तो तीर्थयात्री के लिए अनिवार्य ही है। द्विदल, मधु, तैल का यात्री सर्वथा त्याग कर देता है। आभूषण, अंगराग, तैलाभ्यंग, पुष्पमाल्य धारण, संगीत-नृत्यादि दर्शन भी छूट जाते हैं।
हविष्यान्न का एक समय भोजन, जप, देवदर्शन-पूजन, संत-दर्शन, तीर्थ-स्नान, तर्पण, दान यही मुख्य कर्म होते हैं उसके। प्रत्येक तीर्थ में पहुँचकर पहिले दिन वह उपवास करता है और दूसरे दिन तीर्थ-कर्म सम्पन्न करके तब आहार-प्रमाद ग्रहण करता है।
पत्नी के साथ श्रीबलराम जी ने सभी नियम स्वीकार कर लिये थे। उत्तरीय के स्थान पर उन्होंने मृगचर्म धारण कर लिया था। किसी को अपराध करने पर भी दण्ड न देना, कठोर वचन न कहना, दुःखी की सहायता करना- यह तो यात्री का कर्तव्य ही है। उन अनन्त ने आयुध त्याग दिया था और हाथ में कुश-दण्ड रखने का नियम कर लिया था। यह प्रतीक था कि वे अपराधी को भी दण्ड नहीं देंगे।
सभी तीर्थों में तीर्थ-पुरोहितों की परंपरा प्राचीनकाल से है। संपन्न यात्री दान का संकल्प करता है और तीर्थ-पुरोहित वे पदार्थ यजमान को दान के लिए देते हैं। पीछे सुविधानुसार पदार्थ अथवा उनका मूल्य वे स्वयं यजमान के यहाँ से मँगा लेते हैं। तीर्थयात्री के निवास, आहार, तीर्थ-दर्शन, स्नानादि की वे सब व्यवस्था करते हैं। सामान्य यात्री को भी यह व्यवस्था प्राप्त होती है, श्रीबलराम जी के लिए तो सर्वत्र सुलभ थी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 181
अनेक तीर्थ थे, जहाँ रथ नहीं जा सकता था। जहाँ तक रथ जा सकें, रथ से जाया जाय और उसके पश्चात पैदल यात्रा की जाय। रथ आगे उपयुक्त स्थान पर मिले यही किया जा सकता था।
श्रीबलराम जी के साथ अनेक विद्वान ब्राह्मण तथा कुछ ऋषि भी तीर्थयात्रा में सम्मिलित हो गये थे। कुछ सेवक भी साथ थे और अन्यों को भी जो यात्रा करना चाहें, साथ चलने की सुविधा थी। उस समय देश का बहुत अधिक भाग दुर्गम वनों से पूर्ण था। एकाकी तीर्थयात्रा संभव नहीं थीं। कोई समर्थ पुरुष यात्रा में निकलते थे तो दूसरों को भी उनके साथ तथा सहायता से तीर्थयात्रा का अवसर मिल जाया करता था। भगवान संकर्षण ने ऐसे मिलने वाले तीर्थयात्री को सभी सुविधाएँ प्रदान करने की व्यवस्था कर ली थी।
प्रभास पहिला तीर्थ था। वहाँ स्नान-दान पूजन करके सरस्वती के तट का मार्ग अपनाया और पृथूदक, विन्दुस,त्रितकूप, विशालापुरी, ब्रह्मतीर्थ, प्राची सरस्वती, नैमिषारण्य यहाँ तक पहुँचने में कोई सीधा मार्ग नहीं था। गंगा तट और यमुना तट के भी बहुत से तीर्थों की यात्रा करते हुए नैमिष क्षेत्र पहुँचे थे।
नैमिषारण्य में महर्षि शौनक की प्रमुखता में अट्ठासी सहस्र ऋषि उन दिनों निवास कर रहे थे और उन्होंने बहुत दीर्घकाल तक के लिए सत्र प्रारम्भ कर रखा था।
चक्रतीर्थ में स्नान करके, तीर्थकृत्य समाप्त करने के पश्चात श्रीबलराम वहाँ पहुँचे जहाँ ऋषियों का सत्र चल रहा था। उस समय ऋषिगण हवनादि करके पुराण श्रवण करने बैठे थे। भगवान संकर्षण के पहुँचने पर महर्षि शौनक तथा दूसरे सब ऋषि-मुनिगण उठकर खड़े हो गये। सबको बलराम जी ने प्रणाम किया और उन अनन्त को ऋषि-मुनियों ने प्रणाम किया।
सपरिवार श्रीबलराम का मुनियों ने सत्कार किया। कथा-स्थल की मर्यादा के अनुसार उनको आसन दिया। चन्दन, माला, तुलसी प्रदान की प्रसाद-स्वरूप। उनके साथ आये सभी का यथोचित सत्कार किया।
अत्यन्त सम्मानित अतिथि के पधारने पर कथा के मध्य में अल्प-विराम करके अतिथि का उचित सत्कार करना प्राचीन शिष्टता ही है। जब सत्कार करके, प्रसाद देकर सब ऋषि-मुनि यथास्थान बैठ गये, अपने चारों ओर खड़े ऋषि-मुनियों का समुदाय अपने आसनों पर जा बैठा तब श्रीबलराम जी का ध्यान सर्वोच्च आसन पर, व्यासपीठ पर शान्त बैठे भगवान व्यास के पौराणिक शिष्य रोमहर्षण की ओर गया। व्यासपीठ पर आसीन होने के कारण वे उठे नहीं थे और न उन्होंने प्रणाम ही किया था।
'यह सूत है- प्रतिलोमज है, यह इन ब्राह्मणों, ऋषि-मुनियों के समाज में सर्वोच्च आसन पर कैसे बैठा है?'
सहसा श्रीबलराम जी क्रोधपूर्वक बोले- 'यह भगवान वेदव्यास का शिष्य है, उनसे बहुत अधिक अध्ययन किया इसने- इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र सब पढ़े और इस अजितेन्द्रिय, अभिमानी में, अपने को व्यर्थ पण्डित मानने वाले में उचित शिष्टाचार तक नहीं आया? इसे इतना भी ज्ञान नहीं कि अपने से श्रेष्ठों के साथ कैसे व्यवहार किया जाता है। यह पाखण्डी है, ऐसे धर्मध्वजी सबसे बड़े पापी होते हैं। दुष्ट, पापियों को मार देने के लिए ही मैंने धरा पर अवतार लिया है और उनमें दम्भी सबसे पहिले मार देने योग्य हैं।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 182
कोई ऋषि-मुनि कुछ कहे, कुछ बोले कोई उठे, इससे पहिले ही श्रीबलराम जी ने अपने हाथ से कुश को फेंककर सूत को मारा। जिनका संकल्प ही सृष्टि को प्रलय के गर्भ में फेंक देने के लिए पर्याप्त होता है उनके हाथ से कुश का आघात वज्र के आघात से कम कहाँ था। कुश लगते ही रोमहर्षण का शरीर निष्प्राण होकर व्यासासन पर ही लुढ़क गया।
'हाय! अनर्थ हो गया।' समस्त ऋषि-मुनि चीत्कार कर उठे। अब श्रीबलराम चौंके। उन्हें लगा कि उनसे कुछ अनुचित हो गया है। उन्होंने ऋषियों से पूछा- 'क्या बात है?'
'हम लोगों ने आग्रह करके इन्हें ब्रह्मासन दिया था।'
महर्षि शौनक ने बतलाया- 'यह हमें पता था कि इनकी आयु अधिक शेष नहीं है, अतः सत्र की समाप्ति तक की आयु तथा श्रान्तिरहित शरीर रहे, यह वरदान दिया था। इनको मारकर आपने अधर्म किया। यह यद्यपि ब्राह्मण नहीं थे किन्तु हमारे द्वारा ब्रह्मासन दिये जाने के कारण इनका वध ब्रह्महत्या के समान ही है। यह पाप आपसे अनजान में हुआ है।'
'आप सर्व समर्थ हो। योगेश्वर हो। कोई कल्मष आपका स्पर्श नहीं करता। आप लोकपावन हो। आपके स्मरण से मनुष्य कल्मषरहित हो जाते हैं।'
महर्षि शौनक ने संकोचपूर्वक कहा- 'किन्तु आप लोकनियामक हो। लोक आपके आदर्श का अनुकरण करते हैं। आपको आदेश तो कोई दे नहीं सकता किन्तु यदि आप स्वेच्छा से इस हत्या का प्रायश्चित करें तो यह लोकसंग्रह होगा।'
'प्रायश्चित्त मैं करूँगा।' श्रीबलराम जी ने बिना किसी हिचक, संकोच के कहा- 'लोक पर अनुग्रह करके मुझे प्रायश्चित्त करना ही चाहिए। बिना संकोच के आप सब प्रथम कल्प का- उत्कृष्ट प्रायश्चित्त विधान करें।'
'आपके सत्र में बाधा न पड़े, इसलिए मैं इनको दीर्घायु, इन्द्रिय शक्ति देकर जीवित कर देता हूँ।'
भगवान संकर्षण ने कहा- 'साथ ही आप सब और जो सेवा बतलावें उसे भी संपन्न कर दूँगा।'
आपका अस्त्र अमोघ है। आपका संकल्प व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। इनकी मृत्यु का समय भी आ गया था।'
महर्षि ने कहा- 'इस मर्यादा की रक्षा भी हो और हम लोगों के कार्य में भी विघ्न न पड़े, ऐसा प्रबंध करें।'
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 183
तब आप सब इनके पुत्र को इनके स्थान पर प्रवक्ता स्वीकार कर लें।'
श्रीबलरामजी ने कहा- 'श्रुति का कहना है कि पिता ही पुत्र के रूप में उत्पन्न होता है। इनका पुत्र दीर्घायु हो। उसकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ सशक्त रहे। उसे श्रान्ति न हो। इनकी समस्त विद्या उसे आ जायँ- यह वरदान मैं उसे देता हूँ।'
उसी समय रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा अपने पिता के समान विद्वान हो गये। उन्होंने श्रीबलराम के चरणों में मस्तक झुकाया।
भगवान संकर्षण ने उन्हें आशीर्वाद देकर आदेश दिया- 'वत्स! पिता का और्ध्वदैहिक कृत्य सविधि समाप्त करके तुम उनका उत्तरदायित्व स्वीकार करो। इन ऋषिगणों का यह सत्र पूरा करो तुम।'
'पिता के और्ध्वदैहिक कृत्य के काल में मुझे आपका सान्निध्य प्राप्त रहे।' उग्रश्रवा ने प्रार्थना की। श्रीबलराम जी ने वहाँ रहना स्वीकार कर लिया क्योंकि इस मृतसूतक की निवृत्ति के पश्चात ही ऋषिगण प्रायश्चित का विधान कर सकते थे। रोमहर्षण को ऋषियों ने ब्रह्मासन तथा आयु प्रदान की थी। अतः वे उनके पारिवारिक व्यक्ति हो गये थे।
और्ध्वदैहिक क्रिया सविधि संपन्न हो गयी। अब ऋषियों ने प्रायश्चित निर्णायक परिषद गठित की। मध्यस्थ स्वयं शौनक हुए। परिषद के सम्मुख श्रीबलराम ने अपना अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित की जिज्ञासा की।
'अपराध अनजान में हुआ है। मार देने का संकल्प नहीं था और धर्मरक्षा की सद्भावना के कारण हुआ है।' परिषद ने विचार करके प्रतिनिधि के माध्यम से निर्णय सुनाया- 'इसका प्रायश्चित है एक वर्ष तक भारत-भ्रमण करते हुए तीर्थ-स्नान। भारत के सम्पूर्ण प्रधान तीर्थों की यात्रा करके उनमें स्नान करने से आप शुद्ध हो जायेंगे।'
तीर्थ-यात्रा करने तो श्रीबलराम जी निकले ही थे। अब सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा का संकल्प बन गया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 184
भोजकटपुर से रुक्मी की पौत्री रोचना का विवाह अनिरुद्ध से करने के लिए ब्राह्मण नारियल लेकर आया।
धर्म के जो मुख्य रूप हैं- सार्वभौम और सामयिक। सत्य, अहिंसा, क्षमा, दया, अलोभ आदि धर्म सबके लिए, सब समय, सब देश में पालनीय हैं। ये सार्वभौम धर्म हैं। सामयिक धर्म देश, काल, व्यक्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं। जो जिस वर्ण में उत्पन्न है, जिस आश्रम में है, उस वर्ण एवं आश्रम के लिए विहित धर्म उसका धर्म है।
पृथक-पृथक देश में, पृथक-पृथक समय पर, पृथक-पृथक कुलों में आचार का पार्थक्य होता है और यह कुलाचार भी शास्त्रीय मर्यादा के समान ही पालन करने योग्य है। प्रायः गृह्यसूत्रों में इन कुलाचारों का पूरा विवरण रहता है।
राजा तथा राजकुल के विशेष धर्म होते हैं। जैसे आपत्ति में, प्रवास में पड़े व्यक्ति के विशेष धर्म होते हैं।
स्मृति शास्त्र के विपरित कुलाचार को धर्म मानना उचित नहीं होता। माता की तीसरी पीढ़ी में विवाह नहीं होना चाहिए, यह मत कई निबंधकारों ने याज्ञवल्क्य की टीका में प्रकट किया है। इसके अनुसार प्रद्युम्न का विवाह जब रुक्मी पुत्री से हो चुका तब उससे उत्पन्न अनिरुद्ध का विवाह रुक्मी की पौत्री से होना उचित नहीं था।
श्रीकृष्णचन्द्र के ध्यान में था कि वह संबंध धर्मसम्मत नहीं है किन्तु इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता था। रुक्मी पहले से ही बहुत रुष्ट था। प्रद्युम्न के विवाह से उसके साथ पुनः संपर्क बना था। वह अत्यन्त अभिमानी था। उसके इस संबंध प्रस्ताव को अस्वीकार करने का अर्थ था उसका अपमान करना और इस अपमान का अर्थ युद्ध भी हो सकता था।
महारानी रुक्मिणी ने कह दिया- उन्होंने स्वयं भाई से उनकी पौत्री अनिरुद्ध के लिए माँगी है।
ऐसी अवस्था में रुक्मी के द्वारा भेजे गये नारियल को अस्वीकार करने का अर्थ और भी अनर्थकारी था। महाभारत का युद्ध अभी-अभी ही समाप्त हुआ था। अब स्वजनों के संहार को आमन्त्रित करना उचित नहीं था जबकि यदुवंश को गान्धारी का शाप मिल चुका था।
एक बात और, धर्मशास्त्र के अनुसार जो विवाह धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करके होते हैं, उनसे उत्पन्न संतान उस कुल की धर्म सन्तति नहीं होती। यदुवंश का भावी विनाश श्रीकृष्ण की दृष्टि से अज्ञात नहीं था। अतः यदुवंश का बीज तभी रह सकता था जब यदुवंश में उत्पन्न होकर भी कोई उसकी धर्म-सन्तति न हो। यही बात अनिरुद्ध के इस विवाह से उत्पन्न पुत्र वज्रनाभ के संबंध में हुई। वे एकमात्र बचे यादव महासंहार से।
अनिरुद्ध के इस विवाह के अवसर पर भोजकटपुर श्रीबलराम, श्रीकृष्णचन्द्र, देवी रुक्मिणी, सपत्नीक प्रद्युम्न आदि बारात सजाकर पहुँचे। रुक्मी ने भी अपने मित्र नरेशों को बुला लिया था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
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