द्वारिकाधीश 1
श्री द्वारिकाधीश
भाग - 11
जरासन्ध कह रहा था- 'फिर भी न शोक करता हूँ, न हर्षित हूँ।अब इस बार हम सब वीरों के यूथप एकत्र थे। सब सदल थे। सबने सम्पूर्ण शक्ति लगा दी, किन्तु हम हार गये। श्रीकृष्ण के द्वारा पालित, अल्पसाधन वाले यादवों से हार गये और शत्रु विजयी हो गये क्योंकि काल हमारे विपरीत तथा उनके अनुकूल था। हम विजयी होंगे- विजयी होकर रहेंगे किन्तु जब काल हमारे अनुकूल होगा। तुम धैर्य धारण करो। मैं इसी मास तुम्हारा विवाह करूँगा।'
जरासन्ध ने केवल धैर्य ही नहीं दिया, वहीं उसने मित्र नरेशों में-से एक की कन्या का वरदान शिशुपाल के लिए ले लिया। 'महामनस्वी रुक्मी का क्या हुआ?' कठिनाई से शिशुपाल ने कहा। रुक्मी उसका मित्र है, सहायक है। उसी के स्नेह के कारण श्रीकृष्ण का विरोधी हुआ।
'वे प्रतिज्ञा कर गये हैं कि विजयी हुए बिना मैं कुण्डिनपुर नहीं लौटूँगा।
'जरासन्ध ने दक्षिणात्य नरेशों को तत्काल भेज दिया। उन लोगों का एक समूह पहिले ही राजकुमार रुक्मी के पीछे चल पड़ा था। श्रीकृष्ण ने राजकन्या का हरण कर लिया।यह समाचार जब रुक्मी को मिला, वह जरासन्ध के समीप ही था। वह निश्चिन्त था- 'सब राजाओं की सन्नद्धता का उपहास करता था। उसे लगता ही नहीं था कि उसके रहते यादव ऐसा दुस्साहस करेंगे। कन्या-हरण सुनते ही वह क्रोध से काँपने लगा। उसने सब राजाओं के सम्मुख प्रतिज्ञा की- 'मैं अपने इस धनुष को छूकर शपथ लेता हूँ कि कृष्ण को युद्ध में मारकर अपनी बहिन को लौटा लाऊँगा, तभी इस नगर में आऊँगा, अन्यथा कुण्डिनपुर में मुख नहीं दिखाऊँगा।' एक अक्षौहिणी सेना रुक्मी के साथ थी। वह साथ चली भी किन्तु वह सेना तो यादव वीरों ने घेरकर समाप्त कर दी। रुक्मी ने सारथी से कहा था- 'इन छुद्र यदुवंशियों के दल को छोड़कर रथ बढ़ाओ। शीघ्र कृष्ण के पास चलो। उस दुर्मति गोपकुमार का घमण्ड आज मैं अपने बाणों से चूर्ण कर दूँगा। उसका इतना साहस कि मेरी बहिन को बलात उठा ले चला वह।'
'रुक! एक क्षण रुक!' गरुड़ध्वज रथ दीखते ही रुक्मी पूरे बल से चिल्लाया- 'मेरी बहिन को लेकर तू कहाँ जा रहा है। यदि जीवित रहना चाहता है तो इस बच्ची को तुरन्त रथ से उतार दे, नहीं मैं अभी अपने तीक्ष्ण बाणों से मार दूँगा।'
नर्मदा तट तक गरुड़ध्वज पहुँचा था कि रुक्मी का रथ पीछा करता आ गया था। रुक्मी ने किसी को साथ नहीं लिया था। उसे पता भी नहीं था कि उसके पीछे दक्षिण के नरेश आ रहे हैं। उसने अपना विशाल धनुष चढ़ाया और शर-वर्षा प्रारम्भ कर दी। श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर अपना शारंग धनुष उठा लिया।
(साभार भगवान वासुदेव से)
क्रमशःश्री द्वारिकाधीश
भाग - 12
श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर अपना शारंग धनुष उठा लिया। रुक्मी के बाण काट फेंके उन्होंने। उसके रथ के अश्व, उसका सारथी मारा गया। रुक्मी को गर्व था- उसका रथ दिव्य है, उसके अश्व मरेंगे नहीं। उसका धनुष कट नहीं सकता; किन्तु जब चतुर्भुज शांरगधन्वा के कर से बाण छूटे- कोई दिव्यता टिकती है? अश्व-चारों अश्व और सारथी मारा गया। धनुष कट गया शारंग के एक बाण से। रुक्मी ने नहीं देखा कि उसकी सहायता के लिये बढ़े आ रहे दक्षिणात्य शूर नरेशों में से अंशुमान का वक्ष बाण लगने से विदीर्ण हो गया। उसके शेष सहायक पलक मारते श्रीकृष्ण की बाण वर्षा में या तो मरे पड़े थे या आहत हो चुके थे। जो दो-चार बचे, पीछे भागकर बचे थे और उनमें आगे बढ़ने का साहस नहीं रहा था।
रुक्मी ने दूसरा धनुष उठाया और दिव्यास्त्र प्रयोग करने लगा। व्यर्थ था उसका प्रयास। आग्नेयास्त्र पार्जन्यास्त्र से शान्त हो गया। ऐसे ही चार छः दिव्यास्त्रों का श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया और फिर रुक्मी का धनुष काट दिया। रुक्मी के रथ में धनुष बहुत क्यों रहते? वह तो अपने धनुष को अछेद्य मानता था। धनुष दोनों कट गये। परिघ, पट्टिश, शूल, भल्ल, गदा- जो भी आयुध रुक्मी ने उठाया, श्रीकृष्ण के बाणों ने उनके प्रयोग से पूर्व ही टुकड़े कर दिये। अन्त में तलवार लेकर रुक्मी अपने रथ से कूदा और पैदल दौड़ा।
श्रीकृष्णचन्द्र ने बाणों से उसकी तलवार, ढाल, कवच, शिरस्त्राण के टुकड़े उड़ा दिये और अपना नंदक खड़्ग लेकर रथ से कूद पड़े क्रोध में भरे हुए। कर दिये। रुक्मिणी चकित भीत देख रही थीं यह युद्ध। कुछ पल- केवल कुछ क्षण ही तो लगे थे कि उनका भाई कवचहीन, शस्त्रहीन हो गया था और उसे श्रीकृष्ण ने झपटकर गिरा दिया था जैसे कोई महासिंह किसी सिंह-शावक को दबा ले। बड़ी शीघ्रता से रुक्मिणी रथ से उतरीं और आतुरतापूर्वक चलीं। उनके लिये इतनी त्वरा से दौड़ने का प्रथम अवसर था जीवन में।
'योगेश्वरेश्वर! अप्रमेय पराक्रम! देवदेवेश! जगन्नाथ! मेरे महाबाहु स्वामी!' रुक्मिणी ने झपटकर चरण पकड़ लिये और चीत्कार कर उठीं- 'ये मेरे अग्रज हैं। इनका वध नहीं,कृपा,कृपा।'
श्रीकृष्णचन्द्र ने देखा कि रुक्मिणी का शरीर भय से काँप रहा है। भय और शोक से कण्ठ से ध्वनि स्पष्ट नहीं निकल रही है। मुख सूख गया है। कण्ठ की रत्नमाला बिखर गयी है आतुरता के कारण टूटकर। दया आ गयी। उठा हुआ दक्षिण कर नीचे आ गया। पटुके से कसकर बाँध दिये रुक्मी के कर और उसे लाकर रथ के ऊपर रखकर ध्वज-दण्ड में बाँध दिया। उसके मस्तक के, श्मश्रुके केश काट दिये खड़्ग से। तलवार से कटे अस्त-व्यस्त केश- कुरूप हो गया रुक्मी का मुख। 'रुक्मिणी चुपचाप रथ में आकर बैठ गयीं। उनके मुख से स्वर भी नहीं निकल रहा था- 'इतना क्रोध इनका!'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग - 13
श्रीकृष्ण का क्रुद्ध स्वरूप उन्होंने देखा और भयभीत स्तब्ध रह गयीं। पता नहीं, उनके भाई का ये क्या करेंगे। बहुत आशंका किन्तु बोलने का साहस नहीं रह गया। रुक्मी का रथ आगे निकल गया है बचकर।श्रीसंकर्षण ने राजाओं से युद्ध में लगे रहने पर भी यह देख लिया। एकाकी रुक्मी का रथ- उसकी सेना को यादव वीरों ने घेर लिया था। अकेला रुक्मी भला श्रीकृष्ण का क्या कर लेगा किन्तु राजाओं को पराजय देकर, उनके भागते ही बलराम जी ने अपना रथ बढ़ा दिया। 'छिः! यह क्या किया तुमने? कहीं अपने सम्बन्धी स्वजनों का ऐसा अपमान किया जाता है? सुहृद को कुरूप करना तो उसके वध के समान है।' रुक्मी को रथ में बाँधकर श्रीकृष्ण चलने वाले ही थे कि अग्रज का रथ आ गया। वे रथ से उतरे और छोटे भाई को स्नेह से झिड़कते हुए रुक्मी को खोलने लगे- 'यह तुमने अच्छा नहीं किया श्रीकृष्ण ऐसा नहीं करना था तुम्हें क्या हुआ जो ये क्रोध में युद्ध करने आ गये। अन्ततः अब हमारे सम्बन्धी हो गये हैं ये।'
रुक्मी को बन्धन मुक्त कर दिया। वह मस्तक झुकाये लौट पड़ा। एक शब्द नहीं बोला वह। अब बोलने को रहा भी क्या था। श्रीकृष्णचन्द्र भी सिर झुकाये बड़े भाई की झिड़की सुनते रहे।
'वधू तुम कुछ दूसरा मत समझना' रुक्मिणी की ओर देखे बिना ही उन नीलाम्बर धारी ने कहा- 'क्षत्रियों का धर्म ही बड़ा निष्करुण है। युद्ध में सम्मुख आने पर भाई भी भाई को मार देता है। इसमें जो कुछ हुआ- उसे भूल जाओ।' रुक्मिणी जी संकोच से सिकुड़ गयी थीं- 'अग्रज इतने स्नेहमय हैं और ये इतना सम्मान करते हैं जगदीश्वर होकर भी बड़े भाई का' इस शील-स्नेह ने उनको आश्वस्त किया, आप्लावित किया। श्रीसंकर्षण के संकेत पर दारुक ने रथ बढ़ा दिया। यादव महारथियों के रथ बढ़े आ रहे थे। अनन्त पराक्रम भगवान संकर्षण संरक्षक बने साथ चल रहे थे और अब शत्रु थे ही कहाँ। अब तो वह वाद्यों का तुमुल नाद करती बारात वधू को लेकर लौट रही थी।
रुक्मी को कुछ दूर ही पैदल चलना पड़ा। श्रुतर्वा अपना रथ बढ़ा लाया। उसने आग्रह करके रुक्मी को रथ में बैठाया- 'आपकी ही राजधानी है मेरा नगर भी आपको कुण्डिनपुर नहीं जाना तो वहाँ पधारें' रुक्मी उसके साथ उसके नगर में गया। दूसरे ही दिन उपयुक्त स्थान ढूँढ़कर उसने नवीन नगर की नींव डाली। उस नगर का नाम रखा गया भोजकटपुर। रुक्मी अपनी राजधानी इसे बनाकर दक्षिणात्य प्रदेश का शासन करने लगा। उसके पिता महाराज भीष्मक और शेष भाई कुण्डिनपुर में ही रहे। शिशुपाल तथा साथियों को लेकर मगधराज लौट चुका था।
विदर्भ में कोई भी खिन्न नहीं था। महाराज भीष्मक को चिंता थी किन्तु रुक्मी के बच जाने से वे संतुष्ट हो गये थे। वहाँ उत्सव मनाया जा रहा था मानों उन्होंने कन्या-दान ही किया हो। द्वारिका में श्रीकृष्ण का विवाहोत्सव इस रुक्मिणी-कल्याण महोत्सव का वर्णन शब्दों में सम्भव ही नहीं है।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -15
'ये देव आदित्य नहीं है' श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर कहा- 'ये सूर्यदेव के भक्त सत्राजित हैं। लगता है भगवान भास्कर ने उन्हें अपना मणि आज प्रदान किया है। उस मणि के तेज से ही प्रकाशमय हो रहे है।'
युवक फिर दौड़ गये।सत्राजित अपने भवन चले गये। वहाँ उन्होंने अपने पुरोहित तथा ब्राह्मणों को बुलवाया। विधिपूर्वक मणि की पूजा करके उसकी स्थापना करायी। इस प्रकार यह पद्मराग (लाल) मणि भगवान सूर्य की प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। उस मणि से आठ भार स्वर्ण प्रतिदिन प्रकट होने लगा। सत्राजित द्वारिका में प्रसिद्ध दानी और सम्पन्न बन गये थोड़े ही समय में।
'आपको स्यमन्तक मणि महाराज उग्रसेन को अर्पित कर देना चाहिये' एक दिन श्रीकृष्णचन्द्र ने सत्राजित से कहा। अकस्मात ही सत्राजित से भेंट हो गयी थी- 'प्रजा के पास जो उत्कृष्ट रत्न होते हैं, उनकी शोभा राजा के पास रहने में है। अपने सम्मान्य संरक्षक से अधिक ऐश्वर्य अपने पास रखना किसी के लिए शोभास्पद नहीं है'
'वह मेरे आराध्य प्रसाद है। उनका पूज्य प्रतीक' सत्राजित ने स्पष्ट अस्वीकार कर दिया। उनके मन में मणि में श्रद्धा का भाव नहीं था। मन में लोभ आ गया था- मणि से प्रतिदिन मिलने वाले स्वर्ण का लोभ। इतना स्वर्ण जिससे प्रतिदिन मिलता है, उसे दूसरे को- भले वे अपने राजा ही हों, क्यों दे दिया जाय। श्रीकृष्णचन्द्र ने कुछ नहीं कहा। सत्राजित भी शीघ्र चले गये वहाँ से, जिससे उनसे आग्रह न किया जा सके। लेकिन सत्राजित ने नहीं समझा कि ये त्रिलोकेश्वर रमाकांत क्यों उनको मणि महाराज उग्रसेन को देने को कह रहे हैं। सत्राजित ने नहीं समझा कि जिस भक्ति ने, जिस श्रद्धा ने उनको भुवन भास्कर का मित्र बनाया था, वह उनसे जा चुकी थी। मणि यदि आराध्य का प्रतीक रहती- सुपूजित रहती तो परमपावन थी।
देवता के पावन प्रतीक को किसी को दूसरे को देने की चर्चा श्रीकृष्ण क्यों करेंगे किन्तु मणि अब भगवान सूर्य का प्रतीक नहीं हो रही थी। वह सत्राजित के लिये स्वर्ण पाने का माध्यम- लोभ की पोषिका हो गयी थी। सत्राजित को मणि के दर्शन, पूजन से सूर्यनारायण का स्मरण नहीं होता था अब। अब उनका ध्यान स्वर्ण पर रहने लगा था। अब स्वर्ण-दान करके मिलने वाला यश- लोकेषणा- महत्त्वपूर्ण हो गयी थी।
श्रीकृष्ण का स्वभाव बन्धन देना नहीं है, बन्धन काटना है। सूर्य ने मणि देकर पिण्ड छुड़ा लिया। मोह-लोभ, यशेच्छा दे दी है और श्रीकृष्ण चाहते थे कि सत्राजित मणि त्यागकर इन दुर्बलताओं से ऊपर उठ जायें।वे फिर सच्चे आराधक हो जायें। मणि सत्राजित के लिये आराध्य का प्रतीक नहीं रह गयी थी, यह बात उस दिन स्पष्ट हो गयी जब उनके छोटे भाई प्रसेन ने पूज्यपीठ पर से उठकर मणि को कण्ठ में बाँध लिया। सत्राजित को अपना छोटा भाई बहुत प्रिय था। बहुत स्नेह था भाई पर। प्रसेन ने कहा- 'भैया मैं इसे पहिनकर आखेट करने जा रहा हूँ।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -14
उपासना नैष्ठिकी हो, प्रेमपूर्णा हो तो वह उपासक को उपास्य के समीप ला देती है। उपास्य से अभिन्न कर देती है। जीविका सोचना उचित ही है कि वह सर्वात्मा का अंश, उनका दास है किन्तु सर्वेश्वर की वाणी श्रुति तो 'द्वा सुपर्णा सयुजा सखायौ' कहती है।
सत्राजित द्वारिका में प्रख्यात सूर्योपासक थे। उनकी अनन्य निष्ठा, सतत, आराधना, दृढ़भक्ति ने उन्हें भगवान आदित्य का सखा बना दिया। पृथ्वी पर रहने वाला मनुष्य आदित्य मण्डलाधिदेव का मित्र- बात समझ में आना कठिन है किन्तु भक्ति हो तो दूर कहाँ रहती है। निखिल ब्रह्माण्ड नायक प्रेमपरवश जब मानव का पुत्र, मित्र, सेवक तक बन सकता है तो सूर्याधिदेव आराधना से मित्र क्यों नहीं बन सकते।
सत्राजित के लिये भगवान सूर्य दूर नहीं थे। उन्हें लगता कि वे शशिवर्ण, चतुर्भुज नारायण उपासना के समय समीप उतर आते हैं, बातें करते हैं, पूजा स्वीकार करते हैं। यह केवल सत्राजित की कल्पना नहीं थी। भगवान भास्कर उन पर प्रसन्न थे, उन्होंने सत्राजित को एक दिन आग्रह करके अपने प्रेमोपहार के रूप में स्यमंतक मणि देते हुए कहा- 'इसे मेरा स्वरूप ही समझना। इसकी पूजा करना। जहाँ यह मणि सपूजित रहेगी, उस प्रदेश में कोई महामारी, कोई अरिष्ट नहीं आवेगा। इससे आठ भार स्वर्ण प्रतिदिन प्रकट होगा। लेकिन इसे सपूजित- सावधानी से पवित्रता से ही रखना' - सत्राजित ने आदरपूर्वक आराध्य का प्रसाद मानकर मणि लिया और उसे कण्ठ में बाँध लिया। अरुणोदयकालीन सूर्य के समान ज्योतिर्मयी उस मणि को कण्ठ में बाँधकर सत्राजित जब नगर में लौटने लगे, लोगों ने समझा कि साक्षात भगवान सूर्य धरा पर उतर आये हैं।
'देवदेवेश्वर निखिल लोकाराध्य श्रीद्वारिकानाथ! आपका दर्शन करने भगवान सूर्य आ रहे हैं'- बहुत से युवक एक साथ दौड़े आये और उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा- 'आप शंख, चक्र, गदाधारी साक्षात नारायण हैं। मनुष्यों में मनुष्य बनकर हम यादवों में छिपे हैं किन्तु लोक के नेत्राधिदेवता ने आपको पहिचान लिया है।सूर्यदेव कितना भी अपने तेज को कम करें, कितने भी सौम्य बनें- कहाँ तक बनेंगे। वे द्वारिकाधीश के दर्शनार्थ आ रहे हैं तो उनके नगर में आने से किसी अनर्थ की आशंका तो नहीं है किन्तु उनका कुछ स्वागत भी तो होना चाहिये।
'ये देव आदित्य नहीं है' श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर कहा- 'ये सूर्यदेव के भक्त सत्राजित हैं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -16
सत्राजित को लगा कि प्रसेन लोगों को दिखलाना चाहता हूँ कि उसके पास इतना अलौकिक कण्ठाभरण है। सत्राजित भी तो स्वर्णदान करके प्रसिद्धि प्रिय हो गये थे।भाई की अभिलाषा उन्हें अनुचित नहीं लगी। छोटे भाई का मन क्यों तोड़ा जाय। केवल कह दिया- 'इसे बहुत सावधानी से रखना और सायंकाल तक आकर पूजा के लिये रख देना' -मणि से रात्रि में ही स्वर्णराशि प्रकट होती है, अतः दिन में वह आभरण बनी रहे, इसमें कोई हानि सत्राजित को नहीं दीखी। यह बात ही मन में नहीं आयी कि मणि आराध्य की मूर्ति बन गयी प्रतिष्ठा के पश्चात। अब उसे आभरण नहीं बनाया जाना चाहिये। आखेट में हिंसा कर्म के समय मणि कण्ठ में बंधी रहे, उसे बाँधकर आखेट में मारे पशु उठाये जायें, छुए जायँ, यह अनुचित है, ऐसी कोई बात ध्यान में नहीं आयी। रत्नों के गुण-दोष-प्रभाव जानने वाले जौहरी और ज्योतिषी जानते हैं कि सब रत्न सबके लिये शुभ नहीं होते। जो रत्न जितना प्रभावशाली होता है, उतना ही शुभ या अशुभ होता है।
माणिक (क्योंकि शुद्ध रक्त के रंग का आठरत्ती से बड़ा लाल मिलता नहीं) बड़ा हो, शुद्ध हो,रक्त के रंग का हो तो जिसे शुभ होगा- ऐश्वर्य स्वास्थ्य, प्रभुत्व से पूर्ण कर देगा किन्तु वही जिसे अशुभ होगा,दुर्घटना, रक्तस्त्राव एवं मृत्यु का हेतु भी बन सकता है। स्यमन्तक तो लाल भी नहीं था। वह तो दिव्य सूर्यमणि था। उसे पूजित रखा जा सकता था, आभूषण बनाने की वस्तु ही वह नहीं था।प्रसेन कण्ठाभरण बनाकर मणि को आखेट करने निकला और लौटकर नहीं आया।
'प्रसेन नहीं आया' सत्राजित सायंकाल ही व्याकुल होने लगे। रात्रि जैसे-जैसे बीतती गयी- व्याकुलता बढ़ती गयी। पहिले रोष आया प्रसेन पर- 'मणि की पूजा नहीं हो सकी आज'- यह मन ने कहा किन्तु अन्तर्मन में था कि आज मिलने वाला आठ स्वर्ण-भार गया। रात्रि व्यतीत हो गयी। दिन चढ़ आया। अब चिन्ता का स्वरूप बदला- 'भाई का क्या हुआ?' सत्राजित स्वयं अश्व पर बैठकर दूर तक देख आये। सेवक दौड़ाये। पता लगाने के लिये जितने प्रयत्न थे, सब कर देखे किन्तु प्रसेन को न लौटना था, न उसका कोई पता लगा। जिस अश्व पर बैठकर प्रसेन गया था, उसका भी कोई पता नहीं था।
'लगता है कि मणि के लोभ में कृष्ण ने मेरे भाई को मार डाला'
बात पहिले मन में आई और फिर मुख से निकल गयी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -17
'मुझसे उन्होंने मणि माँगा था। अपने लिये माँगने में संकोच लगता होगा- महाराज उग्रसेन का नाम लेकर माँगा। मैं क्या इतना भी नहीं समझता। मणि मेरे आराध्य की प्रतीक थी- कैसे दे देता मैं किन्तु जानता कि उसके लिये भाई मारा जायेगा तो दे ही देता।'
कितने भी अन्तरंग व्यक्ति से, कितने भी रहस्यपूर्ण ढंग से, कितना भी गुप्त रखने का आग्रह करके ऐसी बात कही जाय- जो बात आप स्वयं अपने भीतर नहीं पचा सके, वह दूसरे के भीतर पच जायगी? ऐसी चर्चा अपने आप प्रचारित होती है- बहुत शीघ्र प्रचारित होती है। लोक मानस ही ऐसा है कि दूसरे की दोष चर्चा बहुत उत्सुकता से- आग्रह से सुनता और कहता है। सब दूसरे से कहते हैं कि किसी से कहना मत, तुमसे कहता हूँ, और सब इसी प्रकार दूसरे से कहते है। सम्पूर्ण द्वारिका में यह चर्चा कानाफूसी के रूप में फैल गयी।
दासी ने रुक्मिणी जी से कहा और उन्होंने रात्रि में श्रीकृष्ण चन्द्र के चरण पकड़कर रोते-रोते निवेदन किया- 'मैं यह क्या सुन रही हूँ। आपने सत्राजित से उनकी स्यमन्तक मणि माँगा था?'
श्रीकृष्णचन्द्र से, महाराज उग्रसेन से वसुदेव जी से या सात्यकि से, श्रीसंकर्षण से कोई कहे ऐसी बात, यह साहस किसी में नहीं था। प्रवाद तो जनसामान्य में फैलते हैं और बढ़ते हैं। मुख्य व्यक्तियों तक उनके पहुँचने में बहुत बिलम्ब होता है।
'मैंने उनसे कहा था कि मणि वे महाराज उग्रसेन को अर्पित कर दें'-श्रीकृष्णचन्द्र ने सहज भाव से कहा- 'उन्होंने कह दिया कि वह उनके आराध्य का प्रतीक है, बात समाप्त हो गयी। तुमको किसने कहा?'
‘कितनी स्यमन्तक मणियाँ चाहिये आपको?' -साक्षात रमादेवी रुक्मिणी उनको कैसे सहन हो कि उनके आराध्य पर कोई लांछन लगावे।
उनके स्वर में व्यथा, रोष, आवेश, सब फूट पड़ा था- 'यह किंकरी मर तो नहीं गयी है'
'मुझे स्यमन्तक कहाँ चाहिये' श्रीकृष्णचन्द्र ने पट्टमहिषी को उठाया चरणों पर से- 'किन्तु बात क्या है?'
'सत्राजित कहते हैं कि आपने मणि के लोभ में उनके भाई को मारकर शव भी लुप्त कर दिया है' देवी रुक्मिणी ने रोते-रोते सुना दिया- 'नगर के सामान्यजनों में यह प्रवाद फैल चुका है'
'तब इस मिथ्या प्रवाद का मार्जन दूसरा स्यमन्तक देने से तो सम्भव नहीं' श्रीकृष्णचन्द्र गम्भीर हो गये- 'उसी मणि को लाना पड़ेगा। वह कहीं भी हो, उसे मैं ढूँढ़ने निकलूँगा, कल प्रतिष्ठित लोगों को लेकर किन्तु मेरे आने में विलम्ब हो तो व्याकुल मत होना।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -18
दूसरे दिन प्रातःकाल ही नगर में राजकीय दूत दौड़ने लगे। द्वारिका की प्रशासकीय महासभा में पहिली बार सभी वर्गों के प्रमुख, विद्वान, वयोवृद्ध तथा प्रतिष्ठित जन आमन्त्रित किये गये थे।
श्रीकृष्णचन्द्र उस महासभा में खड़े हुए- 'बात मेरे सम्बन्ध की है किन्तु मेरे व्यक्तित्व को द्वारिका के प्रशासन से पृथक नहीं किया जा सकता। मेरे कृत्य का यश-अपयश का प्रभाव पूरे प्रशासन एवं प्रजा पर पड़ता है। सत्राजित के छोटे भाई प्रसेन अश्वारूढ होकर आखेट करने निकले और लौटकर नहीं आये। सत्राजित के पास देवदुर्लभ स्यमन्तक मणि थी। उनसे मैंने वह मणि यादव सम्राट के लिये माँगी थी। उन्होंने अस्वीकार कर दिय। उस दिन प्रसेन स्यमन्तक कण्ठ में धारण करके गये थे। अब यदि सत्राजित सन्देह करते हैं कि मैंने उनके भाई को कहीं मारकर मणि ले ली है तो सत्राजित को दोष नहीं दिया जा सकता किन्तु मुझे भी अपने पर लगे इस कलंक को दूर करने का अवसर मिलना चाहिये। आप अपने में से एक तटस्थ धार्मिक, सम्मानित, जनों का प्रतिनिधि मण्डल चुन दें, जिन्हें साथ लेकर मैं मणि तथा प्रसेन का अन्वेषण करने जाऊँ।मैं अपने साथ जाने वाले लोगों की सुरक्षा का दायित्व लेता हूँ किन्तु वन में अन्वेषण करना है। पथ का कष्ट सहन करना अनिवार्य होगा।'
स्पष्ट बिना किसी पर आपेक्ष किये श्रीकृष्णचन्द्र ने जो विवरण दिया, लोगों के मन का संदेह उसी से दूर हो गया। अनेक वयोवृद्ध, सम्मानित जन सत्राजित की छुद्रता पर रुष्ट हो उठे किन्तु वासुदेव ने कहा- 'प्रसेन का क्या हुआ, यह पता लगाना प्रशासन का कर्तव्य है और स्यमन्तक कहीं किसी के पास रहे, उसके प्रभाव का लाभ संपूर्ण द्वारिका को मिलना है, अतः उसे खोया नहीं जा सकता। उसकी शोध होनी ही चाहिये।' महाराज उग्रसेन की सम्मति से द्वारिका के प्रतिष्ठित लोगों का एक दल निश्चित हुआ। इसमें यदुवंश के- विशेषतः महाराज उग्रसेन तथा श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखने वाले लोग नहीं लिये गये। सत्राजित से भी साथ चलने का आग्रह किसी ने नहीं किया; क्योंकि लोगों की दृष्टि में सत्राजित का सम्मान नहीं रह गया था। वे अत्यन्त ओछे चित्त सिद्ध हुए थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने आखेट के विशेषज्ञ, वन में चिह्नों को समझने वाले दो व्यक्ति साथ लिये। प्रसेन के अश्व के पदचिह्न देखते वे चल पड़े। शेष सबको उनके पीछे चलना था। अश्व ने कहाँ मूत्र त्याग किया, मल त्याग किया, कहाँ दौड़ा, कहाँ धीरे चला, यह सब उनकी दृष्टि सहज देख लेती थी। सबको वे उन चिह्नों को दिखाते-समझाते वन में बढ़ते चले गये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -18
दूसरे दिन प्रातःकाल ही नगर में राजकीय दूत दौड़ने लगे। द्वारिका की प्रशासकीय महासभा में पहिली बार सभी वर्गों के प्रमुख, विद्वान, वयोवृद्ध तथा प्रतिष्ठित जन आमन्त्रित किये गये थे।
श्रीकृष्णचन्द्र उस महासभा में खड़े हुए- 'बात मेरे सम्बन्ध की है किन्तु मेरे व्यक्तित्व को द्वारिका के प्रशासन से पृथक नहीं किया जा सकता। मेरे कृत्य का यश-अपयश का प्रभाव पूरे प्रशासन एवं प्रजा पर पड़ता है। सत्राजित के छोटे भाई प्रसेन अश्वारूढ होकर आखेट करने निकले और लौटकर नहीं आये। सत्राजित के पास देवदुर्लभ स्यमन्तक मणि थी। उनसे मैंने वह मणि यादव सम्राट के लिये माँगी थी। उन्होंने अस्वीकार कर दिय। उस दिन प्रसेन स्यमन्तक कण्ठ में धारण करके गये थे। अब यदि सत्राजित सन्देह करते हैं कि मैंने उनके भाई को कहीं मारकर मणि ले ली है तो सत्राजित को दोष नहीं दिया जा सकता किन्तु मुझे भी अपने पर लगे इस कलंक को दूर करने का अवसर मिलना चाहिये। आप अपने में से एक तटस्थ धार्मिक, सम्मानित, जनों का प्रतिनिधि मण्डल चुन दें, जिन्हें साथ लेकर मैं मणि तथा प्रसेन का अन्वेषण करने जाऊँ।मैं अपने साथ जाने वाले लोगों की सुरक्षा का दायित्व लेता हूँ किन्तु वन में अन्वेषण करना है। पथ का कष्ट सहन करना अनिवार्य होगा।'
स्पष्ट बिना किसी पर आपेक्ष किये श्रीकृष्णचन्द्र ने जो विवरण दिया, लोगों के मन का संदेह उसी से दूर हो गया। अनेक वयोवृद्ध, सम्मानित जन सत्राजित की छुद्रता पर रुष्ट हो उठे किन्तु वासुदेव ने कहा- 'प्रसेन का क्या हुआ, यह पता लगाना प्रशासन का कर्तव्य है और स्यमन्तक कहीं किसी के पास रहे, उसके प्रभाव का लाभ संपूर्ण द्वारिका को मिलना है, अतः उसे खोया नहीं जा सकता। उसकी शोध होनी ही चाहिये।' महाराज उग्रसेन की सम्मति से द्वारिका के प्रतिष्ठित लोगों का एक दल निश्चित हुआ। इसमें यदुवंश के- विशेषतः महाराज उग्रसेन तथा श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखने वाले लोग नहीं लिये गये। सत्राजित से भी साथ चलने का आग्रह किसी ने नहीं किया; क्योंकि लोगों की दृष्टि में सत्राजित का सम्मान नहीं रह गया था। वे अत्यन्त ओछे चित्त सिद्ध हुए थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने आखेट के विशेषज्ञ, वन में चिह्नों को समझने वाले दो व्यक्ति साथ लिये। प्रसेन के अश्व के पदचिह्न देखते वे चल पड़े। शेष सबको उनके पीछे चलना था। अश्व ने कहाँ मूत्र त्याग किया, मल त्याग किया, कहाँ दौड़ा, कहाँ धीरे चला, यह सब उनकी दृष्टि सहज देख लेती थी। सबको वे उन चिह्नों को दिखाते-समझाते वन में बढ़ते चले गये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
: श्री द्वारिकाधीश
भाग -19
यहाँ अश्व भड़क उठा है। यह भयभीत हो गया था किसी कारण किन्तु लगता है कि प्रसेन को वह भय नहीं दीख पड़ा। वह बलपूर्वक अश्व को रोकता रहा है-आखेट के लक्षणज्ञों ने एक स्थान पर रुककर कहा। श्रीकृष्ण के साथ का यह सम्पूर्ण दल अश्वारोही था। वहाँ से थोड़ी दूरी से दुर्गन्ध उठ रही थी। गृद्ध उड़ते दीखे। समीप जाने पर प्रसेन का शव मिला उसके घोड़े के शव के साथ। दोनों शव मांसभक्षी पशुपक्षियों ने विकृत कर दिये थे।
'इनको सिंह ने मारा है' सिंह के रक्त ने पंजों के चिह्न स्पष्ट थे। वे चिह्न न होते तो प्रसेन को तो केवल वस्त्रों से पहिचानना पड़ा था। उसके तथा अश्व के कंकाल में मांस का अंश बहुत थोड़ा बचा था।
'मणि का क्या हुआ?' श्रीकृष्ण चन्द्र ने पूछा। वहाँ शव-कंकाल के वस्त्रों, अंगों पर या आस पास मणि नहीं है, यह उन दोनों व्यक्तियों ने देख लिया- 'कोई गीध या चील मांसखण्ड समझकर ले उड़ी हो तो?' एक नागरिक ने संदेह किया।
'मणि केसरी ले गया है।' एक चिह्न सूचक ने पृथ्वी की ओर देखते कहा- 'उसके अगले पंजे में मणि है, यह चिह्न से स्पष्ट है' केसरी ने रक्ताक्त लाल मणि को मांसखण्ड माना हो, इसमें आश्चर्य की बात नहीं थी।
एक अश्वारोही द्वारिका भेजा गया सत्राजित को समाचार देने कि वे अपने भाई का शव संस्कार करने के लिये मँगा लें। एक व्यक्ति को शव के समीप छोड़कर शेष लोग सिंह के पद चिह्नों के पीछे चल पड़े। सिंह पर्वत पर चढ़ता गया था। अश्व छोड़ देने पड़े एक के संरक्षण में। पर्वत के शिखर पर सिंह का शव मिल गया। उसके शव की भी वही दशा थी जो पहिले दोनों शवों की। उसे भी पक्षियों तथा पशुओं ने नोंच खाया था। मणि वहाँ भी नहीं मिली।
'इसे तो किसी असाधारण आकार वाले रीछ ने मारा है' चिह्न देखने वालों ने सिंह के पंजों में रीछ के केशों का एक गुच्छा देख लिया- 'वह रीछ इसे मारकर मणि ले गया' रीछ कुछ पद चारों पैरों हाथ-पैर दोनों से चला था। इसके पश्चात वह केवल पैरों से गया था। उसके पैर रक्त सने न होते तो पर्वत पर वह किधर गया, यह पता भी नहीं लगता। उन चिह्नों का पीछा करते हुए पर्वत शिखर से कुछ नीचे दूसरी दिशा में उतरना पड़ा और वहाँ वे चिह्न एक बहुत गहरी अन्धकारपूर्ण गुफा में चले गये थे।
'लगता है यही रीछ का निवास है' चिह्न देखने वाले गुफा-द्वार तक आकर रुक गये 'ये चिह्न पैरों के इतने बड़े हैं और इतनी दूर-दूर पड़े हैं कि रीछ कितना बड़ा होगा, अनुमान करना कठिन है। कोई पर्वताकार रीछ होना चाहिये। इतना भारी रीछ सुनने में भी नहीं आया'
'आप सब यहीं रुकें और मेरी प्रतीक्षा करें' श्रीकृष्णचन्द्र ने सबसे कहा।
'क्या आवश्यकता है?' साथ का कोई भी नहीं चाहता था कि श्रीद्वारिकाधीश उस गुफा में प्रवेश करें।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -20
'यह तो स्पष्ट है कि मणि वह रीछ ही ले गया है। ऐसा रीछ जिसने सिंह को बिना कोई बड़ा संघर्ष किये मारा है। उस दानवाकार रीछ की इस भयानक अन्धकार भरी गुफा में जाना उचित नहीं है। आपने मणि नहीं लिया, यह तो अब स्पष्ट हो चुका है'
'आप सबको यहाँ कष्ट होगा। इनमें-से एक सेवक नगर तक जायेगा। वह आप सबके यहाँ रुकने, आहारादि की व्यवस्था कर देगा' श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'उस असाधारण मणि की हानि नहीं होनी चाहिये। प्रजा की सम्पत्ति की रक्षा का दायित्व होता है राज पर और मैं महाराज उग्रसेन का भृत्य ही तो हूँ। मुझे यह कर्तव्य पालन करना चाहिये'
श्रीकृष्णचन्द्र सबके मना करने पर भी उस भयानक गुफा में प्रविष्ट हो गये। लोगों ने इतनी दूर नगर में किसी को नहीं भेजा। वे वहीं प्रतीक्षा करने लगे। अब आते हैं, अब आते हैं, अब आते हैं। प्रतीक्षा करते-करते दिन बीता- रात्रि बीती और फिर दिन बीतने लगा।
साथ आये लोग योद्धा नहीं थे।
वे वृद्ध थे, विद्वान थे। नागरिकों में सम्मानित जन थे। केवल दो वन के विशेषज्ञ चिह्नसूचक उनके साथ थे। उनमें-से एक को नगर में भेज दें और यहाँ कोई आवश्यकता आ पड़े तो? ये दोनों वन से फल, कन्द, आदि कुछ ला देते थे। वहीं शिला पर पत्ते बिछा दिये थे सबके लिये दोनों ने। जल समीप था और ग्रीष्म ऋतु में रात्रि खुले स्थान पर काटना कठिन नहीं था। दिन में समीप ही सघन वृक्ष की छाया थी। मनुष्य विवश है, उसे उदर की क्षुधा-पिपासा शान्त करनी ही पड़ती है। निद्रा देवी भी कुछ देर को उसे अपनी गोद में न चाहने पर भी ले ही लेती है किन्तु प्राण अटके थे गुफा में गये भगवान वासुदेव में। वे अकेले गये। वे भगवान हैं, सर्वसमर्थ हैं किन्तु अन्धकार से आच्छन्न गुफा। उसमें कोई असाधारण आकार का रीछ। पता नहीं, वह अकेला है या उसका परिवार भी है भीतर।
भय, आशंका, दुःख से लोग प्रतीक्षा करते रहे।
पूरे बारह दिन प्रतीक्षा की उन्होंने किन्तु श्रीकृष्ण नहीं निकले गुफा से। पहिले दिन ही गुफा के भीतर से भयानक शब्द आने लगा। जैसे भीतर कोई बहुत भारी वस्तु निरन्तर पटकी जा रही हो और साथ ही कोई क्रोध में भरा गर्जना कर रहा हो- गुर्रा रहा हो। रात-दिन वह भयानक शब्द और गुर्राहट आती रही। उसने रुकने का नाम नहीं लिया है। पता नहीं, गुफा में क्या हो रहा है। सत्राजित ने सन्देश पाकर अपने भाई के शव का कंकाल आकर उठाया। बहुत थोड़े स्वजन उसके साथ आये। भाई का संस्कार किया जाना उसने- सविधि अन्तेष्टि किन्तु द्वारिका में उसके स्वजनों में भी गिने लोग सम्मिलित हुए। लोग सत्राजित के सम्मुख ही उसे गालियाँ देने लगे थे। उसे अर्थ-पिशाच कहा जाने लगा था। उसने श्रीद्वारिकाधीश पर आक्षेप किया, यह सबकी दृष्टि में कभी क्षमा न करने योग्य अपराध हो गया। भगवान बलराम का सन्देश आ गया कि प्रजाजनों को नगर में आ जाना चाहिये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
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