द्वारिकाधीश
: श्री द्वारिकाधीश
भाग - 1
अकेली द्वारिका है जो मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में भी है और धामों में भी है। धाम चार हैं, ये भारतवर्ष की चारों दिशाओं में हैं। पूर्व में श्रीजगन्नाथ धाम, दक्षिण में श्रीरामेश्वरम, पश्चिम में द्वारिका और उत्तर में श्रीबद्रीनाथ। मोक्षदायिनी सात पुरियाँ है- 1. अयोध्या, 2. मथुरा, 3. मायापुरी (हरिद्वार), 4. अवन्तिका (उज्जैन), 5. काशी (वाराणसी), 6. काञ्ची, 7. द्वारिका।
‘कुशस्वलीं दिवि भुवि संस्तुताम्
एक कथा है महाराज शर्याति ने गर्व में आकर अपने पुत्रों के सम्मुख एक दिन कहा- ‘यह सम्पूर्ण पृथ्वी मेरी है। मैंने अपने बल से इसका उपार्जन और पालन किया है।’ शर्याति के शेष समस्त पुत्रों ने मौन रहकर पिताजी की बात स्वीकार कर ली किन्तु राजकुमार आनर्त ने कहा- ‘पिताजी पृथ्वी-भू देवी तो श्रीहरि की नित्या प्रिया है। वही प्रभु सबके पालन-धारक है। आप, हम सब तो भूमि-पुत्र है। श्रीहरि के आश्रित है।’
शर्याति को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा- ‘तू दुर्बुद्धि है। तू मेरे राज्य पर्यन्त से पृथ्वी का त्याग कर दे। मैंने तुझे निर्वासित कर दिया। अब तू अपने रहने के लिए श्रीहरि से पृथ्वी प्राप्त कर।’ यद्धपि शर्याति चक्रवर्ती राजा थे लेकिन राजकुमार आनर्त परम भागवत, महामनस्वी थे। उन्होंने कहा- ‘मैं आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ। समुद्र पर आपका शासन नहीं है। अतः जहाँ तक समुद्र का जल धरा पर आता है, मैं उतने स्थल में रहकर अपने प्रभु से अपने लिए धरा की प्रार्थना करूँगा।’
आनर्त पश्चिम समुद्र-तट पर आ गये और सागर-तट पर खड़े होकर तपस्या करने लगे। समुद्र ज्वार के समय अपनी लहरियों से उनके चरण धोता और भाटे के समय उनके पैरों के समीप अपने मोटी बिखेरकर पीछे हट जाता। निर्जल व्रत, निष्कम्प आनर्त तप कर रहे थे। वर्षों अविचल खड़े रहे वे। ‘वत्स!’ ध्यानस्थ आनर्त का रोम-रोम आनन्द मग्न हो गया जब यह अमृत ध्वनि श्रवण में पड़ी। नेत्र खोला उन्होंने, सम्मुख गरुड़ासन, वनमाली, चतुर्भुज भगवान नारायण मन्द-मन्द मुस्कराते खड़े कह रहे थे- ‘पुत्र यह दिव्य धरा अब तुम्हारी है।’ ‘प्रभु! ये मेरी माता’ आनर्त ने समुद्र में सम्मुख सौ योजन विस्तीर्ण प्रकट दिव्य भूमि को साष्टांग प्रणिपात किया।
‘यह मेरे नित्यधाम बैकुण्ठ का भाग है। तुम्हारे और तुम्हारे वंशजों के लिए मैंने इसे समुद्र पर स्थापित किया है’-भगवान नारायण ने कहा- ‘अब यह प्रदेश तुम्हारे नाम से प्रख्यात होगा।’ ‘यहाँ कोई पर्वत नहीं है।’
आनर्त के पुत्र रेवत को यह बात अखरने लगी। पर्वत न हो तो राज्य की शोभा क्या। पाषाण, वनधातुएँ, काष्ठ, औषधियाँ, तो पर्वत से मिलती हैं। परम पराक्रमी रेवत श्रीशैल के पुत्र श्रीशैल समुद्भद एक पर्वत को उखाड़ लाये और उस धरा पर स्थापित किया। उनके द्वारा लाये जाने के कारण उसका नाम 'रैवतक-गिरि' पड़ा। इन्हीं महाराज रेवत के पुत्र ककुद्मी की पुत्री रेवतीजी हैं।
(श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 2
वह बैकुण्ठ का भाग-दिव्यभूमि, श्रीहरि का नित्यधाम द्वारावती। श्रीकृष्णचन्द्र के आदेश से समुद्र ने वहाँ कुछ और भूमि छोड़ दी। विश्वकर्मा ने द्वादश योजन सहस्रपुरी बनायी, किन्तु नगर का भाग बारह योजन लम्बा, आठ योजन चौड़ा था। नगर के दो सिरे समुद्र के समीप थे और दोनों पार्श्वों में दो-दो योजन चौड़े उद्यान, क्रीड़ा-स्थान रखे गये थे। द्वारिका का समीपस्थ प्रदेश उपवनीय भाग नगर से दुगुना था। नगर से आठ महामार्ग थे। सोलह बड़े चौराहे थे। सात महा-राजमार्ग थे। इसके चारों ओर चार पर्वत थे और वे तथा नगर का वाह्योपवन वनों से घिरा था।
द्वारिकापुरी में चारों ओर चार महाद्वार रखे गये। जल, अग्नि, इन्द्र तथा पार्थिव ये इन द्वारों के नाम थे। इनके बहिर्द्वार तोरणपर शुद्धाक्ष, ऐन्द्र, भल्लाट एवं पुष्पदन्त की मूर्तियाँ निर्मित हुई। ये द्वार-देवता हुए। भागवान वासुदेव- श्रीद्वारिकाधीश का भवन जो वस्तुतः भवनों का समूह था। चार योजन लम्बा और इतना ही चौड़ा था।
महारानियों के पृथक-पृथक भवनों की पंक्तियाँ थीं इसके भीतर। द्वारिका के भवन अनेक रंगों के थे। श्रीकृष्णचन्द्र के भवनों में पीछे जो पटरानियों को दिये गये श्रीरुक्मिणीजी का भवन स्वर्ण वर्ण, सत्यभामाजी का चन्द्रश्वेत, मित्रविन्दा का वैदूर्यमणिका। इस प्रकार कोई पद्मराग वर्ण, कोई नील वर्ण, कोई स्फटिक का था।सभी भवनों के साथ उपासना-गृह, पुष्पोद्यान, सरोवर, कृत्रिम क्रीड़ा पर्वत आदि थे। प्रत्येक भवन ही अपने आप में पूर्ण था और प्रजा के भवन भी इन सब सुविधाओं से युक्त थे।
द्वारिकापुरी समुद्र के मध्य में थी। समुद्र के संकीर्ण भाग पर रथों, गजों के गमन के लिए सेतु बनाया गया था। यह ऐसा सेतु था जो चाहे जब उठा लिया जा सकता था। इस प्रकार किसी भी आक्रमणकारी के लिये द्वारिका अत्यन्त दुर्गम दुर्ग था। विश्वकर्मा ने पुरी की स्वच्छता की अदभुत व्यवस्था की थी। उनक अदृश्य रहने वाले सेवक पुरी को रात्रि में स्वच्छ कर देते थे। वे वनों, उपवनों तथा जलाशयों को स्वच्छ रखते थे। सिञ्चन एवं संरक्षण भी वही करते थे। यादव नगर रक्षक एवं दुर्गपाल तो थे ही किन्तु विश्वकर्मा के सेवक भी अदृश्य रहकर पुरी का रक्षण करते थे।
महाराज उग्रसेन यादव सिंहासनाधीश थे। अनाधृष्ट महासेनापति, विकद्रु प्रधानमंत्री बनाये गये। उद्धव, कडक, विपृथु, श्वफल्क, अक्रूर, चित्रक, गद, सत्यक, पृथु और बलरामजी विविध विभागों के मंत्री संचालक हुए। सात्यकि प्रधान योद्धा तथा दारुक रथसेना के सारथियों के नायक नियुक्त हुए। कृतवर्मा उपसेनापति बनाये गये। द्वारिका में ब्राह्मणों, साधुओं और भगवद्भक्त आराधकों का सर्वत्र अबाध प्रवेश था। श्रीकृष्णचंद्र के अपने अन्तःपुर में जाने में इनको द्वारपाल से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं थी, केवल विशेष समय में विशेष अवसरों पर ही द्वारपाल विनम्रतापूर्वक कारण सूचित करते हुए भीतर न जाने की प्रार्थना कर सकते थे।
द्वारिका में अन्न, वस्त्र, जल, फल, गन्ध, पुष्प आदि सब आवश्यक सामग्री- सब प्रसाधन, आभरण कैसे उपलब्ध होते थे, इस ओर किसी नागरिक का ध्यान भी नहीं जाता था क्योंकि कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि द्वारिका के लिए श्रीद्वारिकाधीश के रहते सामान्य वस्तुयें बन जाती थीं।
‘ये वासुदेव ही इसे समुद्र को दे देंगे’ देवर्षि नारद ने प्रारंभ में ही भविष्यवाणी कर दी- ‘इनके धराधाम से स्वधाम जाने पर यहाँ कोई नहीं रह सकेगा।’ यह द्वारिका के साथ लगा अभिशा किन्तु नित्यधाम धरा पर सदा कैसे रहेगा वैकुण्ठ जिनके आगमन के लिए धरा पर उतरा, उनके रहने तक ही तो रहने वाला था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशःश्री द्वारिकाधीश
भाग - 3
अन्यमनोलग्ना कन्या को पाने में मेरा कोई उत्साह नहीं है' -यह कथन कहकर श्रीकृष्णचन्द्र कुण्डिनपुर से यादव महारथियों के साथ चले गये थे। रुक्मिणी ने भी यह सुना। किसी न किसी प्रकार समाचार तो पहुँच ही गया। प्राण जिनकी जन्म-जन्म से प्रतिक्षा करते थे, जो हृदय के अधीश्वर बनकर पता नहीं, कब से वहाँ आसीन हो चुके, वे कुण्डिनपुर आये, उनका पल-पल का समाचार पाने को समुत्सुक होना स्वाभाविक ही था और जब उत्सुकता सच्ची होती है, मार्ग मिल ही जाता है; किन्तु जब उन नवघनसुन्दर के लौटने का समाचार मिला- 'हाय वे मुझे अन्यमनोलग्ना कहकर लौट गये'- रुक्मिणी मूर्च्छित हो गयीं। पिता ने यह क्या किया? रुक्मिणी ने कहाँ स्वयम्वर सभा में जाना अस्वीकार किया था। उनको वहाँ जाने में आपत्ति क्या थी। कहाँ उन्हें इधर-उधर देखना था। जयमाला लिये सीधे चले जाना था और अपने उन जन्म-जन्मान्तर के आराध्य के गले में डाल देना था, किन्तु वे तो लौट गये। अन्यमनोलग्ना कहकर लौट गये। अब वे कैसे आवेंगे? रुक्मिणी की व्यथा का पार नहीं।
माता ने पति से कहा- स्वयम्वर सभा भंग करना अच्छा नहीं हुआ। आपकी पुत्री बहुत संकोचशीला है। वह कितना भी पूछो, कुछ कहेगी नहीं किन्तु दिन-दिन घुलती जा रही है। उसका विवाह शीघ्र कर देना अच्छा है। महाराज भीष्मक ने पत्नी को आश्वासन दिया। राजसभा में उन्होंने रुक्मिणी के विवाह का प्रश्न उठाया।
कुलपुरोहित शतानन्द जी ने कहा- 'रुक्मिणी का पाणिग्रहण श्रीकृष्ण करेंगे। यह संबंध ब्रह्मा ने ही निश्चित कर दिया है। अतः अन्य पात्र का अन्वेषण व्यर्थ है। श्रीकृष्ण के पास ब्राह्मण भेजिये।'
महाराज भीष्मक प्रसन्न हुए किन्तु उनका ज्येष्ठ पुत्र रुक्मी क्रोध से लाल होकर उठ खड़ा हुआ- 'क्या है कृष्ण के पास? कालयवन का धन हड़पकर कृष्ण ने द्वारिका में धनी बने हैं।
मगधराज के भय से दस्युओं की भाँति समुद्री द्वीप में जा छिपे हैं। मैं महर्षि दुर्वासा का शिष्य हूँ। मेरे समबल या तो परशुराम जी हैं या शिशुपाल हैं।
उस नन्द पुत्र को- गोप को मैं बहिन दूँगा? मेरी बहिन का विवाह शिशुपाल से होगा। वह राजधिराज जरासन्ध का मान्य पुत्र है।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
: श्री द्वारिकाधीश
भाग - 4
इसी समय मगध से जरासन्ध का भेजा ब्राह्मण पहुँचा। उसने संदेश भेजा था- 'मैं अपने अत्यंत प्रिय पुत्र, महा सेनापति चन्द्रिकापुर नरेश शिशुपाल के लिए आपकी कन्या रुक्मिणी की याचना करता हूँ। मुझे आशा है कि विदर्भाधिप इस संबंध को स्वीकार करके मुझे उपकृत करेंगे।'
'मुझे यह संबंध स्वीकार है।' रुक्मी ने तत्काल घोषणा कर दी। महाराज भीष्मक मना नहीं कर सके। मना करने का अर्थ था मगध नरेश से शत्रुता लेना और अपना ज्येष्ठ पुत्र ही अड़ा था। महाराज जानते थे कि रुक्मी हठ छोड़ने वाला नहीं है। रुक्मी बहुत हठी, बहुत अधिक घमण्डी हो गया था, क्योंकि महर्षि दुर्वासा ने अनुग्रह करके उसे अग्नि से प्रकट दिव्य रथ दे दिया था। किम्पुरुषराजद्रुम से उसे दिव्यास्त्र मिले थे। परशुराम जी ने उसे ब्रह्मास्त्र दे दिया था। फलतः वह दुर्जय हो गया था। कौशिक गोत्रीय, दक्षिणावर्त विजेता, दक्षिणात्येश्वर महाराज हिरण्यरोमा, जिनका लोकप्रसिद्ध नाम भीष्मक था, आज अपने पुत्र से ही विवश हो गये।
उन्होंने मगधराज को स्वीकृति दे दी और शिशुपाल के पिता महाराज सुनीथ को जिन्हें 'दमघोष' भी कहा जाता है, ब्राह्मण भेजकर बारात लाने का आमंत्रण किया। चेदिराज उपरिचर वसु के पुत्र वृहद्रथ ने ही मगध में गिरिव्रज नगर बसाया था। वृहद्रथ का पुत्र जरासन्ध दमघोष (सुनीथ) का चचेरा भाई ही था। दमघोष ने अपना पुत्र शिशुपाल उसे सौंप दिया था। यद्यपि पीछे जरासन्ध के पुत्र हुआ सहदेव, किन्तु शिशुपाल पर उसका वात्सल्य पूरा बना रहा। वह शिशुपाल को अपना बड़ा पुत्र मानता था।शिशुपाल के विवाह का सबसे अधिक उत्साह मगधराज जरासन्ध को ही था। श्रीकृष्ण स्वयम्बर में आये थे। स्वयंवर सभा भले भंग हो गयी, रुक्मिणी का हरण करने वे आवेंगे- आ सकते हैं, यह संभावना पूरी थी।
जरासन्ध इस ओर से उदासीन नहीं था। गोमन्तक पर्वत के चक्र-मौसल युद्ध में पराजित होकर जरासन्ध एक बार साहस खो बैठा था। स्वयम्वर के समय इसी से श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करने में हिचक हुई थी लेकिन अन्तिम बार बलराम-श्रीकृष्ण दोनों भाई उसके सम्मुख युद्ध किये बिना ही भाग खड़े हुए। जरासन्ध को लगा कि वासुदेव के दोनों पुत्र भीरु हैं। वह व्यर्थ इनसे डर रहा था।
यह स्पष्ट था सब इसे समझते थे कि जरासन्ध के भय से ही यादव मथुरा त्यागकर द्वारिका में जा बसे हैं। इससे जरासन्ध ही नहीं, उसके सभी साथी, समर्थकों का साहस बढ़ गया था। विदर्भ के लिए जब जरासन्ध ने ब्राह्मण भेजा, शिशुपाल के लिए कन्या-माँगने का सन्देश देखकर तो उसे विश्वास था कि उसकी प्रार्थना अस्वीकृत नहीं होगी। उसने उसी समय अपने सहायक नरेशों के पास सम्पूर्ण सेना लेकर आने का सन्देश भेजते हुए कहला दिया- ‘विदर्भाधिप की कन्या रुक्मिणी का शिशुपाल से विवाह होने वाला है। यदि यादव कन्या-हरण का प्रयत्न करें तो हम पूरी शक्ति से प्रतिकार करेंगे।' जो-जो भी नरेश श्रीकृष्ण से रुष्ट थे, सबको मगध राज ने आमन्त्रित किया गया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग - 5
श्री कृष्ण के सभी विरोधियों को मगध राज ने आमन्त्रित किया। दन्तवक्र का महामायावी पुत्र सुवक्र, पौण्ड्रक का पुत्र सुदेव, एकलव्य का पुत्र, पाण्ड्यराज का पुत्र, कलिंग नरेश, राजावेणुदारि, क्रथ का पुत्र अंशुमान, श्रुतधर्म, कलिंगराज, गांधार नरेश, कौशाम्बी पति- ये विशेष आग्रह करके बुलाये गये और अपनी पूरी सेना लेकर आये।शाल्व, भगदत्त, दन्तवक्र, शल, विदूरथ, भूरिश्रवा, कुन्तिवीर्यादि जरासन्ध के साथी तो आये ही।
शिशुपाल की राजधानी चन्द्रिकापुरी से इस बारात ने प्रस्थान किया। बारात की अपेक्षा यह बड़ी सेना थी अनेक पराक्रमी प्रसिद्ध नरेशों की और युद्ध-यात्रा जैसा ही प्रबंध था। मगधराज की सम्मति के अनुसार सुनीथ (दमघोष) ने अपने पुत्र के वैवाहिक मंगलकृत्य कुण्डिनपुर पहुँचकर ही करने का निश्चय किया था। क्योंकि इस बारात को सुरक्षा की दृष्टि से पहिले पहुँचना था।
बारात विदर्भ पहुँची तो विदर्भ-नरेश महाराज हिरण्यरोमा (भीष्मक) जी तथा उनके चार पुत्र रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश एवं रुक्ममाली में कोई उत्साह नहीं था। उत्साह था ज्येष्ठ कुमार युवराज रुक्मी में। महाराज भीष्मक तथा उनके छोटे चारों पुत्र श्रीकृष्ण को रुक्मिणी देना चाहते थे किन्तु एक ही कन्या- पांच भाइयों में सबसे छोटी, उसके विवाह में विवाद उठे- इससे सब बचाना चाहते थे। अतः सभी कर्तव्य के पालन में लगे थे। बारात का बड़े उत्साह से स्वागत किया युवराज रुक्मी ने। उन्होंने सभी नरेशों को निवास दिया। मगधराज जरासन्ध ने राजधानी कुण्डिनपुर के चारों ओर दूर दूर तक के प्रदेश का निरीक्षण किया।
कृष्ण यदि आवें और कन्या का हरण करना चाहें तो उनका पथ क्या होगा? किधर से निकल सकना संभव है उनका? इन सब बातों पर रुक्मी से मगधराज ने स्पष्ट बात कर ली और सुरक्षा की दृष्टि से साथ आये नरेशों तथा सेना को ठहराया गया। शीघ्र सब ओर से घेरा डाला जा सके और परस्पर सहयोग पूर्वक व्यूह बनाया जा सके, यह व्यवस्था की गयी। 'वे इतना साहस नहीं करेंगे।' रुक्मी अपने गर्व में कहता था- 'यदि उन्होंने दुस्साहस किया तो केवल विदर्भ की सेना ही उन्हें अच्छा पाठ पढ़ा देने में समर्थ है।'
'पता नहीं मेरे बड़े भाई को मुझसे किस जन्म की शत्रुता है' रुक्मिणी ने सुना कि शिशुपाल को विवाह का आमन्त्रण दिया गया है तो लगा कि पृथ्वी कुम्हार के चाक पर चढ़ी घूम रही है- 'वे नहीं आवेंगे? वे मेरे आराध्य नहीं पधारेंगे? सुना है कि वे सर्वज्ञ हैं, अन्तर्यामी भी हैं, इस किंकरी को अन्यमनोलग्ना कह दिया उन्होंने?'
'इस शरीर को इसके अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष स्पर्श नहीं कर सकेगा- प्राण रहते तो नहीं ही' रुक्मिणी जी के लिए प्राण-त्याग न कोई समस्या थी, न कठिन था। कठिन तो यह था कि शरीर किसी को संकल्पित हो चुका था। वह सर्वज्ञ है, दयामय है, समर्थ है तब उसकी वस्तु नष्ट कैसे कर दी जाय? वह क्या कहेगा- क्या सोचेगा? 'उनकी तो कोई चर्चा भी नहीं करता।'
(साभार द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग - 6
रुक्मिणी जी को लगा कि वे धरा पर अवतीर्ण हुए हैं तो धरा की मर्यादा भी तो है। उन्हें समाचार तो मिलना चाहिये। बाल्यकाल से जिन वृद्ध कुलपुरोहित का वात्सल्य मिला था, जिन्होंने राजसभा में कहा था कि 'यह ब्रह्मा का विधान है कि श्रीकृष्ण रुक्मिणी का पाणिग्रहण करेंगे।' वही एकमात्र आशा दीखी राजकुमारी को। वे अन्तःपुर में पधारे तो रोती रुक्मिणी ने उनके चरण पकड़ लिये। यह पौत्री आज लज्जाहीना बन गयी है। यह प्राण दे देगी, किन्तु.... आप इसे जीवित ही देखना चाहते हों तो द्वारिका चले जायें। उनके चरणों में इसका सन्देश पहुँचा दें। यदि उन दयाधाम समर्थ ने इसे स्वीकार नहीं किया, देह त्याग कुछ कठिन नहीं है।'
'वत्से! अधीर मत हो। सृष्टिकर्ता का विधान अन्यथा नहीं हुआ करता' -ब्राह्मण ने आश्वासन दिया- 'मैं स्वयं द्वारिका जाना चाहता था। तुमसे मिलने ही आया हूँ। तुम चिंता त्याग दो। उन गरुड़ासन को पहुँचने में कितने क्षण लगेंगे और उन चक्रपाणि का अवरोध करने में कौन समर्थ है। वे स्वजनपाल अपनों की उपेक्षा नहीं करते। उनके श्रीचरणों में लगी आशा निष्फल नहीं होती।'
वे ब्राह्मणवर्य उसी दिन एकाकी विदर्भ से निकल पड़े थे। वे तपोधन- रथ उन्होंने स्वीकार नहीं किया और अश्वारोहण उन वृद्ध के उपयुक्त नहीं था। वे उसी दिन कुण्डिनपुर से चले गये थे, जिस दिन राजा भीष्मक का भेजा ब्राह्मण चेदिराज दमघोष के पास रुक्मिणी-विवाह का आमन्त्रण एवं विवाह तिथि की सूचना लेकर भेजा गया था। वे विप्रवर्य दीर्घमार्ग पार कर द्वारिका पहुँचे। द्वारपाल ने उन्हें श्रीकृष्णचन्द्र के सदन में पहुँचाया।
ब्राह्मण को देखते ही वे आदिपुरुष अपने रत्नासन से उठे, दण्डवत गिरे चरणों पर, और आदरपूर्वक ले जाकर स्वर्णसिंहासन पर बैठाया। स्वयं चरण धोये। चन्दन, अक्षत, पुष्पमाल्य, धूप, दीप से सविधि पूजा की ब्राह्मण की। भोजन कराया और उत्तम शैया पर जब वे विप्रदेव विश्राम करने लगे तो वे द्वारिकाधीश स्वयं उनके चरण दबाने बैठ गये।
'आप ब्राह्मणोत्तम हैं। आपका शास्त्र-वृद्ध सम्मत धर्म निर्बाध तो है? उसके पालन में काई कठिनाई या असन्तोष का हेतु तो नहीं है?' जो समस्त विघ्नों को दूर करने में समर्थ है, वही तो ऐसा प्रश्न कर सकते हैं। 'आप संकोच मत करें।' ब्राह्मण देवता को बड़ा संकोच हो रहा था कि सर्वेश्वरेश्वर उनके पैर दबाने बैठे हैं।
इसे लक्ष्य करके श्रीकृष्ण ने कहा- 'जो ब्राह्मण अपनी स्थिति में संतुष्ट रहते हैं, समस्त प्राणियों के सहृद हैं, अंहकारहीन शान्त हैं, उन्हें प्रणाम करने में मुझे सुख मिलता है। उनका चरण स्पर्श मुझे आनन्द देता है।आपके प्रजापालक नरेश सकुशल तो हैं? अर्थात महाराज भीष्मक ने किसी संकट में पड़कर तो आपको नहीं भेजा? आप बहुत कठिन-मार्ग पार कर बड़ी दूर से आये हैं। आपकी इतनी बड़ी यात्रा चाहे जितनी गुप्त बात हो, बतला दें। मैं आपकी क्या सेवा करूँ?'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग - 7
आप सर्वज्ञ हैं और सर्वसमर्थ हैं'- ब्राह्मण ने कहा 'मैं विदर्भराज-दुहिता का संदेशवाहक बनकर आया हूँ। उनके ही शब्दों में सुना देता हूँ'
'भुवन सुन्दर! आपके चरणों के अनुरागी महामुनि यदा कदा इस राजसदन को भी अपनी चरणरेणु से पवित्र करने आ जाते हैं। उनके श्रीमुख से आपके गुणों का वर्णन कर्ण मार्ग से हृदय में जाकर समस्त ताप-हरण कर लेता है। आपका रूप तो नेत्रवानों के नेत्र मिलने का परम लाभ है- यह सुनकर मेरा चित्त निर्लज्ज होकर आप में प्रविष्ट हो गया। मुकुन्द! महान कुल में उत्पन्न, रूप, शील, विद्या, वय, धन आदि में अपने तुल्य आपका वरण कौन-सी कन्या करने योग्य समय आने पर नहीं करेंगी। नरश्रेष्ठ! आपका तो भुवनाभिराम हो। मुझे तो वरण का यह अवसर ही नहीं मिला, मैंने कहाँ स्वयम्वर में आकर आपका वरण करना अस्वीकार किया था।'
'मैंने तो अपने आपको आपके चरणों में उत्सर्ग कर दिया। मैं आपकी हो गयी। अब आप इसे स्वीकृति देकर सनाथ करें। मैं आपका वीरभाग हूँ- केशरी के इस भाग को शिशुपालादि दूसरे शृगाल स्पर्श करें- यह आपके लिये शोभास्पद नहीं होगा।मैंने पूर्त, इष्ट, दान, नियम, व्रत, देव तथा विप्रपूजन किया हो- आप परात्पर प्रभु की आराधना की हो तो आप गदाग्रज ही आकर मेरा पाणिग्रहण करें। दूसरा कोई इस कर का स्पर्श न कर सके।अजित परसों ही मेरा विवाह है। आप यादव महासेना से रक्षित होकर पधारें विदर्भ, और जरासन्ध, शिशुपालादि की सेना को रौंदकर मुझे ले जायें। मैं अब पराक्रम के मूल्य से ही मिलने वाली हो गयी हूँ।'
'आप कह सकते हैं कि तुम अन्तःपुर में रहती हो। तुम्हारे बंधु-बान्धवों को मारे बिना तुमको कैसे लाया जा सकता है?- इसका उपाय बतला देती हूँ कि हमारे कुल में विवाह से पहिले दिन कुलदेवी के पूजनार्थ कन्या को नगर से बाहर देवी-मन्दिर जाना पड़ता है।'
'कमलनयन! भगवान शशांक शेखर भी आपकी चरणरज में स्नान करने की कामना करते हैं जैसे वे भी इससे निर्मल होना चाहते हों। ऐसे आपकी कृपा यदि मुझे न मिली इस जन्म में तो मैं अनशन करके देहत्याग कर दूँगी। भले ही सैकड़ों जन्म इसी प्रकार मरना पड़े- आपके श्रीचरणों का आश्रय ही इस किंकरी का स्थान बनेगा।'
ब्राह्मण ने कहा- 'राजपुत्री का यह संदेश गुप्त है। वे दृढ़ संकल्प हैं। पवित्र हैं। अब आप ही इस पर विचार करके जो उचित हो, करें।' श्रीकृष्णचन्द्र हँस पड़े। उन्होंने ब्राह्मण का हाथ पकड़ लिया- 'मेरा चित्त भी राजकुमारी में आसक्त है। मुझे उनके चिन्तन में रात्रि में निद्रा नहीं आती। यह भी जानता हूँ कि द्वेष के कारण रुक्मी ने मेरा विवाह रोक दिया। राजकुमारी अग्निशिखा के समान पवित्र हैं। मैं उन अपनी परायणा को तुच्छ राजाओं को कुचलकर ले आऊँगा।'
'देव राजकन्या को परसों ही देव-पूजन करने राजसदन से निकलना है'- ब्राह्मण ने स्मरण दिलाया, 'उसके अगले दिन विवाह है। मुझे मार्ग में बहुत समय लगा है। यद्यपि मैं बिना रात्रि-विश्राम के कहीं रुका नहीं हूँ।'
'आप चिंता न करें' ब्राह्मण को आश्वासन दिया श्रीकृष्णचन्द्र ने।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग - 8
'आप चिंता न करें' -ब्राह्मण को आश्वासन दिया श्रीकृष्णचन्द्र ने और दारुक को बुलवाया- 'हम प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में चल देंगे। रथ में मेरे सब शस्त्र रख लेने हैं।'
ब्राह्मण मौन बने रहे। लेकिन बहुत चकित- गरुड़ नहीं, सेना नहीं, दूसरा कोई साथ नहीं लेना- सामर्थ्य इसका नाम है। सर्वसमर्थ अश्वों से जाना चाहते हैं तो भी उनके लिए दूरी का क्या अर्थ है।
ब्राह्मण ने ब्रह्ममुहूर्त के प्रारम्भ में ही स्नान किया। संक्षिप्त सन्ध्या कर ली।श्रीद्वारिकाधीश उनसे पहिले प्रस्तुत हो गये। ब्राह्मण को उन्होंने अपने साथ रथ पर बैठाया और दारुक ने रथ को हाँक दिया।
शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक- चारों श्यामकर्ण, चारों दिव्य अश्व और वे गरुड़ध्वज दिव्य रथ को लेकर मानो उड़े जा रहे थे। ब्राह्मण को लगा कि वह किसी आकाशगामी विमान पर बैठा है। उसे आशा तो दूर, कल्पना भी नहीं थी कि रथ भी इतना तीव्रगामी हो सकता है। उसने नेत्र बन्द कर लिये, क्योंकि वायु के वेगमान झौंके उसके नेत्र सहन नहीं कर पाते थे।
चमत्कार श्रीकृष्ण का रथ नहीं था। चमत्कार तो आगे होना था। प्रातःकाल श्रीसंकर्षण पिता के गृह में माता-पिता की पद-वन्दना करने पहुँचे। वहाँ उन्हें प्रतिदिन श्रीकृष्ण मिल जाते थे। आज वे क्यों नहीं आये? यहाँ नहीं आये तो गये कहाँ? श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारपाल ने बतलाया- 'प्रभु ने जाते-जाते कहा है कि वे कुण्डिनपुर जा रहे हैं। वहाँ से कल कोई विप्र आये थे। उनको भी साथ ले गये, दारुक ने रात्रि को ही रथ शस्त्र-सज्जित कर दिया था।'
'कुण्डिनपुर' भगवान संकर्षण चौंके। वहाँ से ब्राह्मण विवाह का निमन्त्रण लेकर आता तो ऐसे चुपचाप जाना क्यों होता? कुण्डिनपुर जाने का एक ही प्रयोजन संभव है- राजकुमारी का हरण और तब वहाँ युद्ध अनिवार्य है। रुक्मी का द्वेष है यादवों से और वह अकेला भी दुर्जय योद्धा है।श्री कृष्ण उस राजकन्या को सम्भालेंगे या युद्ध करेंगे? भगवान बलराम के अधरों से उसी समय शंख लग गया और सेना का आह्वान करने के स्वर में गूँजने लगा। दो क्षण में तो द्वारिका युद्ध-भेरी के घनघोष, योद्धाओं के हुँकार से भर उठी।
'कौन आया? किसने धृष्टता की?' महासेनापति अनाधृष्ट, सात्यकि, कृतवर्मा, गद आदि तत्काल अपने रथों पर पहुँचे। यादव-वीरों को सज्जित होने में थोड़ी भी देर नहीं हुई। गज, रथ, अश्व, और पैदल- सम्पूर्ण चतुरंगिणी सेना अस्त्र-शस्त्र सन्नद्ध नगर से बाहर आ गयी। महासेनापति को भी पता नहीं विपक्ष कौन है, कहाँ है। लेकिन भगवान संकर्षण रथारूढ़ पहुँचे और उन्होंने सबको सम्बोधित किया- 'श्रीकृष्ण प्रभात में ही निकल पड़े हैं। वे विदर्भ गये हैं। 'विदर्भ-कुण्डिनपुर- वहाँ से उस अपूर्ण स्वयंवर में जाकर लौटना सबको बहुत अपमानजनक लगा था। सब ने तभी निश्चय किया था- 'विदर्भ-राजादुहिता महारानी होंगी भगवान वासुदेव की। उनका परिणय दूसरे से होने दिया नहीं जा सकता।'
इस समाचार ने सब में उत्साह भर दिया। सब प्रस्तुत-युद्ध-प्रस्तुत क्योंकि वहाँ युद्ध तो अनिवार्य है और भगवान वासुदेव वहाँ गये हैं तो इस बार केवल स्वागत लेने तो गये नहीं।'
'श्रीकृष्ण अकेले गये हैं। पूरे वेग से गया है उनका गरुड़ध्वज रथ। हमारा वहाँ पहुँचना व्यर्थ हो जायेगा यदि हम उनसे पीछे पहुँचते हैं।' श्रीसंकर्षण, छोटे भाई को युद्ध करना पड़ेगा अकेले, इस सम्भावना से ही आवेश में आ गये थे। उन्होंने कहा- 'सब लोग अपने नेत्र बंद कर लें। तब तक बन्द रखें जब तक मेरा शंख नहीं बजता।'
श्रीकृष्णचंद्र का रथ पूरे वेग से गया। दूसरा कोई रथ विश्व में उसके समान गति नहीं पकड़ सकता।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग - 9
श्रीकृष्णचंद्र का रथ पूरे वेग से गया। दूसरा कोई रथ विश्व में उसके समान गति नहीं पकड़ सकता और यादव-वाहिनी में तो रथ ही नहीं है, अश्व हैं, गज सेना और पदातिसेना भी है। इस सेना की सफलता तभी है जब यह श्रीकृष्णचन्द्र के विदर्भ पहुँचने से पूर्व उनके साथ मार्ग में मिल जायें लेकिन अनन्त-पराक्रम, भगवान अनन्त का संकल्प-ब्राह्मणों के उद्भव और प्रलय जिनके संकल्प से होते हैं, उनका संकल्प- समस्या कहाँ थी वहाँ कोई।
यादव सेना के सभी लोगों को लगा कि उन्होंने क्षण भर को नेत्र बन्द किये और श्रीसंकर्षण शंख गूँजने लगा। नेत्र खोलने पर कुछ क्षण लगा उन्हें यह समझने में कि विदर्भ की सीमा पर पहुँच गये हैं। उन्होंने नेत्र खोला और देखा कि गरुड़ध्वज रथ सामने ही है और खड़ा हो गया है।
'तुम केवल राजकन्या को ले आओगे' अग्रज ने कोई उलाहना नहीं दिया। आदेश दिया पहुँचते ही- 'शेष सब हम सब पर छोड़ दो।' ब्राह्मण देवता देखते ही रह गये। इतनी विशाल चतुरंगिणी सेना कब प्रस्तुत हुई? कब चली? किधर से कैसे आ गयी? वह भी तो द्वारिका से ही आ रहा है और ऐसे उड़ने वाले रथ में आया है।
श्रीकृष्णचन्द्र ने चकित ब्राह्मण की ओर सस्मित देखा- 'हम सब कुण्डिनिपुर से बहुत दूर नहीं हैं। आप रथ से साथ चलेंगे?' 'नहीं आप मुझे यहीं उतार दें। मैं आपके यहाँ गया था, यह समाचार नगर में नहीं फैलना चाहिए। मैं पैदल भी अब शीघ्र पहुँच जाऊँगा।' ब्राह्मण देवता वहीं रथ से उतर गये। एक अश्वारोही महाराज भीष्मक के पास चला गया समाचार देने कि उनकी कन्या का विवाह देखने द्वारिका से बलराम-श्रीकृष्ण आये हैं अपने परिकर के साथ।
रुको! आगे मत बढ़ो,- विदर्भ के ही सैनिकों के एक दल ने शस्त्र उठाकर साथियों को रोका- 'राजकुमारी जिनके योग्य हैं, वे ही ले जा रहे हैं। हम पहिले से चाहते थे कि वे ले जायें। हम किसी को बाधक नहीं बनने देंगे।'
प्रारम्भ के आवेश में थोड़ा-सा युद्ध हुआ। विदर्भ के सैनिकों में ही दो दल हो गये थे किन्तु जो कन्या-हरण रोकना चाहते थे, वे संख्या में अल्प थे। उनमें भी उत्साह नहीं था। कुछ ही क्षणों में वे भी शान्त हो गये। किसी ने भी श्रीकृष्णचन्द्र के रथ का पीछा नहीं किया।
'राजकन्या का हरण हो गया' कुण्डिनपुर के सैनिकों के कोलाहल से जरासन्ध के सैनिकों का समाज भी सावधान हुआ। शीघ्रतापूर्वक वे उठे। अपने वस्त्र झाड़ने का भी स्मरण नहीं रहा। मुकुट-शिरस्त्राण सम्हाला, शस्त्र उठाया और वाहनों पर बैठकर झपटे किन्तु बहुत देर हो चुकी थी। इतने समय में तो यादवी सेना के व्यूहबद्ध शूरों ने पथावरोध कर लिया था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग - 10
श्रीसंकर्षण प्रलयंकर बन गये थे। वे जो भी वृक्ष पास मिलता, उखाड़कर शत्रुसेना पर पटकते जा रहे थे। रथ, गज, अश्व, पदाति जो सामने पड़ गया, उसका शव भी पहिचानने योग्य नहीं रह गया। श्रीकृष्णानुज गद ने रथ त्याग किया और गदा लेकर शत्रु-सेना में घुस पड़े। उनकी गदा प्रलय करने लगी। जरासन्ध आदि कइयों ने गद को घेर लिया किन्तु तभी श्रीबलराम अपना प्रज्वलित मुशल उठाये आ पहुँचे उनका पहिला ही आघात दन्तवक्र के मुख पर हुआ और उसका टेढ़ा दाँत टूटकर गिर पड़ा। उसके मुख से रक्त की धारा चलने लगी। मुशल ने बंगराज की कपाल-क्रिया कर दी। गरुड़ध्वज रथ वेग से द्वारिका की दिशा में जा रहा था किन्तु रुक्मिणी की दृष्टि पीछे लगी थी। इतने नरेश- इतनी भारी उनकी सेना- अब मन में आशंका उठी। द्वारिका के शूरों का समूह एकत्र होकर मार्गावरोध बन गया था किन्तु शत्रुओं की बाण-वर्षा में ढ़क गया यह समाज। रुक्मिणी भय से व्याकुल हो उठीं। उन्होंने लज्जापूर्ण, भयव्याकुल नेत्र पति की ओर उठाये।
दृष्टि ने कहा- 'अपने तो सब घिर गये। संकट में हैं आपका शांरग या चक्र......' श्रीकृष्णचन्द्र हँस पड़े- 'डरो मत तुमने कोई युद्ध भला क्यों देखा होगा। शत्रुओं की सेना तुम्हारे अपनों के लिए बहुत तुच्छ है। वे कुछ क्षणों में ही शत्रुओं का नाश कर देंगे।'
आश्वासन पर्याप्त नहीं होता किन्तु शत्रुदल सचमुच छिन्न होने लगा। वह सैनिकों का उमड़ता आता मेघ रुका, छिन्न-भिन्न हुआ और अदृश्य हो गया। रथ वेग में बढ़ता न होता तो रुक्मिणी सैनिकों, गजों, अश्वों का क्रन्दन, उनके शवों की राशियाँ, कटेफटे अंग- रक्त की बहुत दूर तक फैलकर बहती धार बहुत विचलित करती। यह दृश्य उनके देखने योग्य नहीं था।
जरासन्ध के साथ आये प्रायः सब सैनिक मारे गये। उसके साथ के राजाओं में भी कई मारे गये, कुछ घायल हुए। श्रीबलराम-श्रीकृष्ण के साथ युद्ध में सेना मरने लगे तो भागने में ही कुशलता समझी।
'तुम तो पुरुष सिंह हो, यह उदासी तुम्हें शोभा नहीं देती।' लौटकर जरासन्ध सीधे शिशुपाल के समीप पहुँचा। शिशुपाल वर बना बैठा था। वह न कन्या की देवी मन्दिर-यात्रा देखने जा सका और न युद्ध में गया। उसका मुख कान्तिहीन हो गया था। सूख गये अधर। वह इतना हताश- मुख लटकाये बैठा था, मानो काई स्वजन मर गया उसका। 'मनुष्य अपना प्रिय पाने या अप्रिय से बचने में स्वाधीन नहीं है। कठपुतली जैसे खिलौने खेलने वाले के हाथ के संकेत के अनुसार चलने को विवश है, वैसे ही सब प्राणी जगन्नियन्ता के वश में है।' मगधराज स्नेहपूर्वक समझाने लगा। शिशुपाल उसके लिये ज्येष्ठ-पुत्र है। उसका दुःखी होना जरासन्ध के लिये बहुत ही क्लेश देने वाला है।'
तुमने देखा ही है कि इन्हीं बलराम से मैं तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर लड़ा और सत्रह बार पराजित हुआ। अन्तिम बार मुझे अठारहवें उद्योग में विजय मिली।'
(साभार भगवान वासुदेव से)
क्रमशः
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