Dwarkadhish 2

श्री द्वारिकाधीश
भाग -21

श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका में नहीं हैं। जरासन्ध तथा अनेक दूसरे शत्रु हैं यादवों के। अतः पुरी को छोड़कर श्रीसंकर्षण कहीं जा नहीं सकते। उनका सन्देश- 'श्रीकृष्ण के लिये त्रिभुवन में कहीं कोई भय नहीं है। उनकी चिन्ता छोड़कर लोग लौट आवें'

बारह दिन-रात प्रतीक्षा करके वे लौट गये। अत्यन्त दुःख से, श्रीबलराम का आदेश स्वीकार करके लौटे और लौटकर मणि के अन्वेषण में उन्होंने जो कुछ देखा था, महाराज उग्रसेन की राजसभा में उपस्थित होकर सुना दिया। सत्राजित को बुलाकर राजसभा में सुनाया उन्होंने और सभी धिक्कारने लगे उसे। वह उठकर सिर झुकाये चुपचाप घर चला गया। उससे अपराध हो गया था किन्तु अब क्या उपाय था। उसके प्रति लोगों का आक्रोश उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था।

स्यमन्तक मणि अत्यन्त प्रभावशाली सूर्यमणि, वह प्रसेन के लिए प्राणघातक बनी। वह सिंह के द्वारा मारा गया। सिंह उसे लेकर चला तो उसे भी मृत्यु ने मुख में रख लिया किन्तु जाम्बवन्त के लिये उन श्रीरघुनाथ के अनन्त भक्त के लिये मणि अशुभ नहीं हो सकती थी। सूर्यवंश शिरोमणि के सेवक के घर मणि आयी तो महामंगल लेकर ही आना था उसे। जाम्बवान उस दिन अपनी गुफा से घूमने निकले थे। सतयुग के उन दिव्यदेही को द्वापरान्त के छुद्र प्राणियों में कोई रुचि नहीं थी। वे कभी कदाचित एकान्त में ही निकलते थे गुफा से और घूम-घामकर भीतर चले जाते थे। उनकी गुफा भीतर बहुत विस्तृत थी। वहाँ पूरा प्रदेश ही था। केवल प्रकाश ही नहीं था, निर्झर था, फल-भार से लदा वन था और देवसदन के समान सुसज्जित दिव्य भवन था रीछपति का। गुफा तो वहाँ पहुँचने का केवल मार्ग थी।

वहाँ जाम्बवान का पूरा परिवार सुखपूर्वक रहता था। अनेक दिनों से जाम्बवान कुछ चिन्तित रहने लगे थे। उनकी देवकन्या सी कुमारी युवती हो गयी थी और उसके योग्य वर सोचकर भी दीख नहीं रहा था कहीं। देवता भोगपरायण हैं और दैत्य निसर्ग क्रूर।मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक को दोनों तुच्छ लगते थे। यद्यपि ब्रह्मलोक उनके पिता का लोक था और पाताल तक भी उनकी गति निर्वाध थी किन्तु किसी लोक के अधिपति को भी कन्या दान करना उन्हें अभीष्ट नहीं था।

'कर्म लोक केवल धरा है। यहीं बार-बार निखिल लोकनियंता अवतार लेते हैं' जाम्बवान ने देखा था श्रीराघवेन्द्र को और उन्हें जिन नेत्रों ने एक बार देख लिया, दूसरा कोई उसे कैसे जँच सकता है। जाम्बवान की कठिनाई उन्होंने स्वयं बढ़ा ली थी। श्रीरघुनाथ के स्वरूप, सौन्दर्य, पराक्रम, गुणगण गायन के व्यसनी थे वे।उन्हें अपने आराध्य के वर्णन के समय अपने तन-मन का स्मरण भी नहीं रहता था। उनकी कन्या ने शैशव से पिता के मुख से बार-बार यह वर्णन सुना था और वे हृदयहारी उसके अन्तर में आसीन हो गये थे। वही- अब वही चाहिये उसे। वह उनकी दासी दूसरे पुरुष की चर्चा भी वह सुनने को प्रस्तुत नहीं। वे सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं, करुणावरुणालय हैं, भक्तवत्सल हैं, घट-घट वासी हैं। यह सब पिता ने ही तो कहा है। जाम्बवती जानती है कि उनके पिता का असत्य स्पर्श नहीं करता, तब वे अन्तर्यामी क्या उनके हृदय की नहीं जानते? वे सर्वसमर्थ वे अनन्त दया धाम, क्या उनको अपने सेवक की कन्या पर दया नहीं आवेगी? जाम्बवान क्या करें। उनके आराध्य मर्यादापुरुषोत्तम हैं और धरा पर तो वे त्रेता में थे। यह तो द्वापरान्त है।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -22

पृथ्वी पर तो अब उपदेवताओं की रीछ जाति में अकेला जाम्बवान का परिवार ही रह गया। वानर उपदेवों में द्विविद बचा और वह संगदोष से असुर बन गया। श्रीहनुमान पता नहीं कहाँ हैं, वे मिल जाते तो उनसे जाम्बवान कुछ कहते-पूछते किन्तु वे अब पता नहीं कहाँ रहते होंगे। अकेले उदासीन पुत्री की समस्या से चिन्तित जाम्बवान अपने आराध्य का चिन्तन करते-करते उस दिन गुफा द्वार से पर्वत पर घूमने निकल आये थे।

'यह मणि ऐसी प्रकाशमय मणि' -सिंह पर्वत पर बैठकर पंजे से मणि को सम्मुख रखकर सूंघ रहा था। जाम्बवान की दृष्टि पड़ी। ऐसी मणियाँ तो उन्होंने केवल अयोध्या के राजसदन में देखी है। यह पशु कहाँ से ले आया इसे?

सहजभाव से मणि देखने जाम्बवन्त बढ़े थे किन्तु सिंह को लगा कि वे उसे छीनने आ रहे हैं। वह उत्तोजित होकर कूद पड़ा। उसे मार देना रीछपति के लिए अप्रयास सरल था। सिंह को मारकर मणि उठा ली उन्होंने और अपनी गुफा में लौट पड़े। उनके लिये मणि का कोई महत्त्व नहीं था। गुफा में आकर उनके परिवार के एक छोटे शिशु ने उस चमकीले पदार्थ को पाने के लिये हाथ उठाया तो जाम्बवान ने मणि उसे खेलने के लिये दे दी। शिशु को यह खिलौना इतना प्रिय लगा कि वह उसे साथ लिये फिरने लगा। मणि वह छोड़ना ही नहीं चाहता था। मणि भले वहाँ महत्त्वहीन हो गया हो, मणि का प्रभाव तो महत्त्वहीन नहीं हो गया था। मणि को ढूँढ़ते श्रीकृष्णचन्द्र गुफा में प्रविष्ट हुए। आगे बढ़ने पर पर्याप्त भीतर जाकर प्रकाश दिखलायी पड़ा और जब भीतर पहुँच गये, स्यमन्तक जैसा ज्योतिर्मय मणि क्या छिपा रहता है।

वह रीछ-शिशु के करों में था- उपदेव जाति के रीछ-शिशु के करों में। वह शिशु मणि से खेल रहा था। बालक को भयभीत नहीं करना था। उससे मणि छीनकर उसे दुःखी भी नहीं करना था। श्रीकृष्ण समीप जाकर खड़े हो गये। बालक इस खिलौने से ऊबकर इसे छोड़ दे तो उठा लें, इतना ही चाहते थे वे किन्तु बालक की धाय ने बालक के समीप एक अपिरिचित पुरुष को देखा तो डरकर चिल्ला पड़ी- 'दौड़ो बचाओ पता नहीं, कौन आ गया। शिशु को पकड़ने आया यह।'

जाम्बवान दौड़ पड़े रोष में भरे, और आते ही उन्होंने उस अपरिचित पुरुष पर मुष्टि-प्रहार किया। श्रीकृष्णचन्द्र ने भी मुष्टि-प्रहार से ही उत्तर दिया। जाम्बवान भूल गये किन्तु ये नीलसुन्दर तो भूलते नहीं। त्रेता में इन रीछाधिप ने एक दिन श्रीरघुनाथ जी से कहा था- 'मेरी द्वन्द्व-युद्ध की इच्छा लंका के युद्ध में भी अतृप्त ही रही। दशग्रीव भी मेरे आघात से मूर्च्छित हो गया।'
'मैं ही कभी तम्हारी यह इच्छा तृप्त कर दूँगा' -हँसकर राघवेन्द्र ने कह दिया था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 23

जाम्बवान हुंकार करके, गर्जना करके, उछल-उछलकर घूँसे मार रहे थे। श्रीकृष्ण स्थिर खड़े थे। उनका दक्षिण कर केवल आघात कर रहा था किन्तु उनके श्रीमुख पर रोष- श्रम की कोई रेखा नहीं थी।

जाम्बवान को आश्चर्य था- कौन है यह? लेकिन उनका क्रोध बढ़ता जा रहा था। उनके शरीर पर पड़ने वाली प्रत्येक मुष्टि का बहुत कठिन, बहुत पीड़ादायक थी। लगता था कि मांस, स्नायु और अस्थि तक कुचल उठी हो। एक क्षण का विराम किये बिना पूरे अट्ठाइस दिन-रात यह मुष्टि का युद्ध चलता रहा। जाम्बवान शिथिल पड़ने लगे। उनका उछलना और गर्जना करना बन्द हो गया। उनकी गुर्राहट घट गयी। उनको लगा कि शरीर का अंग-अंग, एक-एक पेशी, एक-एक स्नायु-बंधन टूट रहा है। पूरा शरीर भारी मुष्टि-प्रहार से कुचला जा चुका है। अस्थियाँ तक आहत हो गयी हैं। अब और नहीं- अब और आघात सहन नहीं किया जा सकता। अब मूर्छा आयी- अब नेत्रों के आगे चिनगारियाँ उड़ने लगीं। पूरी शक्ति एकत्र करके दोनों हाथों की मुट्ठियां बाँधकर उछलकर श्रीकृष्णचन्द्र के वक्षस्थल पर आघात किया जाम्बवान ने और चीत्कार करके चरणों पर गिर पड़े।

आघात तो आवेश में हो गया किन्तु आघात के साथ वक्षस्थल पर दृष्टि चली गयी। 'यह श्रीवत्सांकित, भृगुलताभूषित वक्ष- जाम्बवन्त के लिये यह वक्षस्थल भी क्या अपरिचित है। वे सीधे गिरे चरणों पर- मेरे स्वामी क्षमा ........'
अपने आराध्य से ही युद्ध कर रहे थे वे। दूसरा कोई भला उनके प्रहार को सहन करने में समर्थ कहाँ था किन्तु आराध्य के साथ ही यह धृष्टता।

जाम्बवन्त को पश्चात्ताप करने के लिये दो क्षण भी नहीं मिले। उनके सदा-सदा के परिचित अमृतस्यन्दीकर उसी स्नेह, उसी वात्सल्य से उनके शरीर पर मस्तक से कटि तक घूम रहे थे। पीड़ा-व्यथा सब जैसी कभी थी ही नहीं। शरीर में नवीन जीवन, बल, उत्साह परिपूर्ण हो रहा था- अमृत-संचार हो रहा था। वे दयाधाम अपने स्नेहासिक्त कण्ठ से कह रहे थे- 'उठो रीछपति मैं सन्तुष्ट हुआ। प्रसन्न हूँ मैं। उठो तो सही।'

जाम्बवान उन चरणों को छोड़कर उठना ही नहीं चाहते थे किन्तु झुककर विशाल बाहु में भरकर प्रभु ने सदा की भाँति उठाकर वक्ष से लगा लिया। 'प्रभु पधारे' जाम्बवान गद्गद कंठ बोल नहीं पा रहे थे।
'मैं तो इस मणि की शोध में निकला था। इसी के लिये यहाँ आ गया' श्रीकृष्णचन्द्र हँसे- 'इसे लेकर मुझ पर लांछन लगा है। मणि जिसकी है, उसे देकर वह लांछन दूर करना है मुझे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -24

'यह मणि तो मैंने सिंह को मारकर प्राप्त की है' जाम्बवान ने मणि की ओर देखा। उन्हें लगता ही नहीं है कि उनके ये आराध्य युगों के पश्चात मिले हैं। उन्हें तो ऐसा ही लगता है कि अभी-अभी कुछ क्षण पीछे ही वे अपने प्रभु के श्रीचरणों में पुनः बैठ गये हैं और उन परमोदार से संकोच कैसा। इन्होंने सदा सम्मान ही दिया है जाम्बवान को। अतः मणि पर अपना स्वत्व प्रकट करके उन रीछपति ने कहा- 'प्रभु जब इस रीछ के बिल को धन्य करने पधारे हैं तो यदि इसकी अर्चा स्वीकार करें, मणि उस अर्चा का उपहार बन सकती है।'

श्रीकृष्णचन्द्र कैसे कह देंगे कि मणि पर अब जाम्बवान का स्वत्व नहीं है। इस अपने नैष्ठिक सेवक से बलपूर्वक मणि छीनी भी कैसे जा सकती है। इतनी भूमिका और 'यदि' जिसके साथ है, वह अर्चा सामान्य तो नहीं होगी। सामान्य अर्चन तो जाम्बवन्त कर ही रहे हैं। उन्होंने चरण धो लिये हैं और अब माल्य, चन्दन- ये न भी हों उनकी गुफा में तो कन्द-मूल-फल स्वीकार करने के लिये तो आग्रह की आवश्यकता नहीं है।

'आपकी इच्छा पूर्ण हो' श्रीकृष्णचन्द्र ने सस्मित कह दिया। जाम्बवन्त उठे और अपनी कन्या को ले आये- 'हम पशुओं में कोई औपचारिक कृत्य आवश्यक नहीं होता। आप इसका कर-ग्रहण कर लें और मणि के साथ इसे भी अपनी सेवा मे स्वीकार करें'
'आप उपदेव, सृष्टिकर्ता के मानसपुत्र, आप ब्राह्म-विवाह भी कर रहे हैं इस विनम्रता से' श्रीकृष्णचन्द्र ने जाम्बवती का पाणि-ग्रहण किया।

'आपके इस संबंध से मैं सम्मानित हुआ'  मणि इस कन्या-दान का उपहार बनकर मिली श्रीकृष्णचन्द्र को। जाम्बवन्त ने कोई और औपचारिकता नहीं की। गुहा के द्वार तक वे केवल पहुँचाने आये। अपने को वे अपने इन आराध्य का नित्य सेवक ही समझते रहे हैं, अतः इनके साथ औपचारिकता क्या। जाम्बवान ने तो फिर नहीं देखा पुत्री की ओर भी। वह आराध्य के चरणों में अर्पित हो गयी- उनकी हो गयी।जाम्बवान निश्चिन्त हो गये।

"कृष्णचन्द्र उस घोर अन्धकार पूर्ण गुहा से नहीं निकले"- वन में मणि की शोथ करने जो लोग साथ गये थे, उन्होंने जो समाचार दिया था वह बड़ा ही भयानक समाचार था- 'रात्रि दिन उस गुहा से भंयकर गुर्राहट ओर वज्रपात जैसा शब्द आ रहा था'  श्रीवसुदेव जी, देवी देवकी, रुक्मिणी जी, महाराज उग्रसेन- सभी सुहृद, सजातीय द्वारिकावासी अत्यंत दुःखी थे। लोभी क्षुद्र हृदय क्रूर सत्राजित ने द्वारिका के जीवन-धन को ही संकट में डाल दिया। पता नहीं क्या हुआ उनका?'
'क्या किया जाय? क्या उपाय?' उस अन्धकार पूर्ण भयानक गुफा में प्रवेश का उद्योग पता नहीं भीतर क्या परिणाम उत्पन्न करे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -25

श्री कृष्ण जब तक उसमें है, उसके सम्बन्ध में कुछ भी करना उनके संकट को बढ़ा दे सकता है। जब कोई भौतिक उपाय न रह जाय, मनुष्य को दैवी-सहायता का सहारा लिये बिना त्राण कैसे मिले। भगवती दुर्गा, महामाया, महाशक्ति-सर्वेश्वरी आद्या ही संकटहारिणी, क्लेशनाशिनी, शीघ्राभीष्टदायिनी हैं। उन भुवनेश्वरी की आराधना में लग गये द्वारिका के लोग। श्रीकृष्णचन्द्र की प्राप्ति उन पराम्बो ललिता के अनुग्रह बिना होती भी तो नहीं। सभी उनकी स्तुति, पूजन, अनुष्ठानों में लगे थे- 'श्रीद्वारिकाधीश सकुशल लौट आवें'

श्रीकृष्ण के चरणाश्रित, उनके स्वजन, स्वयं महालक्ष्मी, रुक्मिणी, वसुदेवजी और देवकी माता अनुष्ठान करें- पाक्षिक अनुष्ठान और देवी दुर्गा प्रसन्न न हों, वे कभी वासुदेव के जनों पर अप्रसन्न भी हुई हैं। वे वात्सल्यमयी, नित्यसुप्रसन्न, सदा भक्ताभीष्टदायिनी किन्तु वे करें भी क्या। श्रीकृष्णचन्द्र सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हैं और वे अपने अनन्य भक्त के युद्धातिथ्य की स्वीकृति में लगे हैं। उनको विवश तो कभी किया नहीं जा सकता। उनसे निवेदन- इस निवेदन का भी अवसर नहीं इस समय। देवी का पाक्षिक अनुष्ठान द्वारिकावासियों का पूर्ण हुआ। अनुष्ठान की पूर्णाहुति-भगवती की आशीर्वाद वाणी गूँजी मन्दिर में- 'अभीष्ट पूर्णमस्तु।'

सहसा मन्दिर से बाहर तनिक दूर से पांचजन्य की मंगलध्वनि गूँजी। देवी का आशीर्वाद जैसे साकार हो गया। आनन्द-विह्वल लोग दौड़े। 'श्रीद्वारिकाधीश आये।नवीन महारानी लेकर पधारे' श्रीकृष्णचन्द्र ने माता-पिता की पद-वन्दना की। माता देवकी ने अपने पैरों से झुकी जाम्बवती को उठाकर वक्ष से लगा लिया। श्रीकृष्ण के संकेत पर जाम्बवती महारानी रुक्मिणी के चरण स्पर्श करने बढ़ीं- 'यह आपकी दासी।' 'मेरी अनुजा' महारानी ने भुजाओं में भर लिया उन्हें।

श्रीकृष्णचन्द्र ने वहीं से सत्राजित के पास सन्देश भेज दिया राजसभा में उपस्थित होने का। महाराज उग्रसेन की ओर से राजसभा के सदस्य तथा नगर के प्रतिष्ठित जन आमन्त्रित किये गये। उस सभा में स्यमन्तक मणि श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने हाथ में ली और सत्राजित को सम्बोधित किया- 'आपके भाई प्रसेन ने इसे खो दिया। उन्हें मारकर सिंह ने ली और सिंह को मारकर रीछपति जाम्बवन्त ने। वे सृष्टिकर्ता के मानसपुत्र हैं, उन सम्मान्य अमित पराक्रमी से युद्ध की बात भी नहीं सोची जा सकती। मणि पर धर्मतः उनका स्वत्व हो गया था। इसे वे केवल अपनी कन्या को उपहार में देने को प्रस्तुत थे'
'मणि देवी जाम्बवती का मायके का उपहार है' सभा में कई बार स्वर साथ उठे- उनके पिता का ठीक स्तत्त्व था मणि पर।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -25

श्री कृष्ण जब तक उसमें है, उसके सम्बन्ध में कुछ भी करना उनके संकट को बढ़ा दे सकता है। जब कोई भौतिक उपाय न रह जाय, मनुष्य को दैवी-सहायता का सहारा लिये बिना त्राण कैसे मिले। भगवती दुर्गा, महामाया, महाशक्ति-सर्वेश्वरी आद्या ही संकटहारिणी, क्लेशनाशिनी, शीघ्राभीष्टदायिनी हैं। उन भुवनेश्वरी की आराधना में लग गये द्वारिका के लोग। श्रीकृष्णचन्द्र की प्राप्ति उन पराम्बो ललिता के अनुग्रह बिना होती भी तो नहीं। सभी उनकी स्तुति, पूजन, अनुष्ठानों में लगे थे- 'श्रीद्वारिकाधीश सकुशल लौट आवें'

श्रीकृष्ण के चरणाश्रित, उनके स्वजन, स्वयं महालक्ष्मी, रुक्मिणी, वसुदेवजी और देवकी माता अनुष्ठान करें- पाक्षिक अनुष्ठान और देवी दुर्गा प्रसन्न न हों, वे कभी वासुदेव के जनों पर अप्रसन्न भी हुई हैं। वे वात्सल्यमयी, नित्यसुप्रसन्न, सदा भक्ताभीष्टदायिनी किन्तु वे करें भी क्या। श्रीकृष्णचन्द्र सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हैं और वे अपने अनन्य भक्त के युद्धातिथ्य की स्वीकृति में लगे हैं। उनको विवश तो कभी किया नहीं जा सकता। उनसे निवेदन- इस निवेदन का भी अवसर नहीं इस समय। देवी का पाक्षिक अनुष्ठान द्वारिकावासियों का पूर्ण हुआ। अनुष्ठान की पूर्णाहुति-भगवती की आशीर्वाद वाणी गूँजी मन्दिर में- 'अभीष्ट पूर्णमस्तु।'

सहसा मन्दिर से बाहर तनिक दूर से पांचजन्य की मंगलध्वनि गूँजी। देवी का आशीर्वाद जैसे साकार हो गया। आनन्द-विह्वल लोग दौड़े। 'श्रीद्वारिकाधीश आये।नवीन महारानी लेकर पधारे' श्रीकृष्णचन्द्र ने माता-पिता की पद-वन्दना की। माता देवकी ने अपने पैरों से झुकी जाम्बवती को उठाकर वक्ष से लगा लिया। श्रीकृष्ण के संकेत पर जाम्बवती महारानी रुक्मिणी के चरण स्पर्श करने बढ़ीं- 'यह आपकी दासी।' 'मेरी अनुजा' महारानी ने भुजाओं में भर लिया उन्हें।

श्रीकृष्णचन्द्र ने वहीं से सत्राजित के पास सन्देश भेज दिया राजसभा में उपस्थित होने का। महाराज उग्रसेन की ओर से राजसभा के सदस्य तथा नगर के प्रतिष्ठित जन आमन्त्रित किये गये। उस सभा में स्यमन्तक मणि श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने हाथ में ली और सत्राजित को सम्बोधित किया- 'आपके भाई प्रसेन ने इसे खो दिया। उन्हें मारकर सिंह ने ली और सिंह को मारकर रीछपति जाम्बवन्त ने। वे सृष्टिकर्ता के मानसपुत्र हैं, उन सम्मान्य अमित पराक्रमी से युद्ध की बात भी नहीं सोची जा सकती। मणि पर धर्मतः उनका स्वत्व हो गया था। इसे वे केवल अपनी कन्या को उपहार में देने को प्रस्तुत थे'
'मणि देवी जाम्बवती का मायके का उपहार है' सभा में कई बार स्वर साथ उठे- उनके पिता का ठीक स्तत्त्व था मणि पर।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -26

कोई नहीं चाहता था कि मणि सत्राजित को लौटायी जाये। इसका अब कोई औचित्य नहीं था। स्वयं सत्राजित चाहते थे कि मणि श्रीकृष्णचन्द्र रख लें तो अच्छा हो। इससे कुछ तो उनके ऊपर लोगों का आक्रोश घटेगा लेकिन -'यह आपको भगवान भास्कर ने प्रसाद स्वरूप प्रदान की है' श्रीकृष्णचन्द्र ने किसी की बात पर ध्यान नहीं दिया- 'यह आपकी है। आप इसे ग्रहण करें'
किसी प्रकार सत्राजित ने मणि ले ली। लेना पड़ा उन्हें। सिर झुकाये ग्लानि से खिन्न अपने भवन चले गये वे। उन्होंने पूरे मार्ग पर लोगों की व्यंगोक्तियां सुनीं- 'यह लोभी यह अर्थ-पिशाच यह द्वारिकाधीश तक को अपने जैसा समझता है। मणि से प्राप्त स्वर्ण अब भरता रहे अपने गृह में' सचमुच सत्राजित को मणि से प्राप्त स्वर्ण अब अपने भवन में ही भरना था। कोई भिक्षुक भी उसका दान लेने को प्रस्तुत नहीं था।वह और उसका धन द्वारिका में तिरस्करणीय हो गया। कोई उससे न मिलना चाहता था, न बोलना चाहता था।

द्वारिका में महोत्सव हुआ- श्रीकृष्णचन्द्र का विवाह महोत्सव। विधिपूर्वक उन द्वारिकाधीश ने जाम्बवती से विवाह किया। द्वारिका का जन-जन आनन्दमग्न हुआ किन्तु सत्रजित अपने सदन से बाहर निकलने में भी भयभीत, संकुचित था। उसे सर्वत्र ही तो लोग तिरस्कृत करते थे। उसका प्रतिदिन बढ़ता स्वर्ण उसके लिए विष बन गया। जाम्बवती का पाणि-ग्रहण किया श्रीकृष्ण ने और महाभाग जाम्बवान ने मणि उपहार में दे दी अपनी पुत्री को। सत्रजित को प्रकाश मिला तिरस्कार-ग्लानि-दुःख के उस अपार अन्धकार में- 'उसके भी एक कन्या है। एकमात्र सन्तान है उसकी और सुन्दर है-अतिशय सुन्दर है। कृतवर्मा जैसे सेनापति ने उसकी याचना की, अक्रूर उसे अपने पुत्र के लिए मांगने आये। कितने लोग आते हैं, कितने शूर-प्रतापी, विख्यात लोग। सत्राजित अभी तक सबको प्रतीक्षा करने को कह देते हैं। उनकी कन्या महारत्न है और मणि उनके पास है ही। जाम्बवन्त के समान वे भी श्रीकृष्ण को कन्यादान करके उसे उपहार में मणि देंगे।

श्रीद्वारिकाधीश जमाता बन जायेंगे तो द्वारिका में कोई अंगुली उठाने का साहस नहीं कर सकता। सत्राजित के लिये समाज में पुनः प्रतिष्ठा पाने का यही मार्ग रहा है- वे अच्युत भी प्रसन्न हो जायेंगे। उनका रोष- उनकी उपेक्षा दूसरे किसी मार्ग से दूर नहीं हो सकती।

सत्राजित ने चरण पकड़कर कुलपुरोहित को प्रसन्न किया। वे नारियल लेकर द्वारिकाधीश के यहाँ पहुँचे- 'यादव श्रेष्ठ सत्राजित ने अपनी भुवनसुन्दरी कन्या का सम्बन्ध स्वीकार करने का अनुरोध किया है' श्रीकृष्णचन्द्र ने ब्राह्मण को पिता के समीप भेज दिया, नारियल स्वीकृत हो गया। द्वारिका में दूसरे विवाह की धूम प्रारम्भ हो गयी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -27

जन-रुचि अद्भुत होती है। जनता किसी से उपकार-अपकार अधिक दिन स्मरण नहीं रखती। व्यक्ति का वर्तमान कृत्य ही जन-मन का हेतु होता है। कल तक सबसे तिरस्कृत सत्राजित सबके सहसा सम्मान्य हो गये। सत्यभामा का पाणि-ग्रहण सविधि, सोल्लास श्रीकृष्णचन्द्र ने किया किन्तु जब विवाह की उपहार वस्तुओं, स्वर्णराशि के साथ सत्राजित ने स्यमन्तक मणि रखी तो उसे उठाकर लौटाते हुए बोले- 'राजन आपके आराध्य का यह प्रसाद आपके ही समीप रहना चाहिये। इससे प्रकट होने वाली स्वर्ण राशि आप अपनी पुत्री के सदन में भेजते रह सकते हैं। हम तो अब इसके फलभागी हैं ही।'

सत्राजित ने मणि रख ली। उनके दूसरी कोई सन्तान है नहीं। मणि अन्त में इसी गृह में आनी है और उससे प्रकट स्वर्णराशि स्वीकृत हो गयी। मणि की पूजा का भार सत्राजित पर रहे पर यह उन्हें अस्वीकार कहाँ है।

अपनी माता कुन्ती के साथ पाण्डु पुत्र अग्नि लगने से भस्म हो गये' यह समाचार हस्तिनापुर से द्वारिका पहुँचा।

'आर्य समाचार को सत्य मानकर व्यवहार करना अपनों के हित में है' यह स्पष्ट हो चुका था कि पाण्डवों को माता-सहित वहाँ रहने को धृतराष्ट्र ने भेजा था और दुर्योधन के द्वारा वह भवन लाक्षा गया एवं अन्य ज्वलनशील पदार्थों के संयोग से बनवाया गया था। उसमें अग्नि स्वतः नहीं लगी थी, लगवायी गयी थी, यह चर्चा भी चलने लगी थी। भगवान संकर्षण का मत था कि पाण्डव मर नहीं सकते इस प्रकार किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र ने दूसरी बात कही- 'धृतराष्ट्र-पुत्रों को जब अपनी सफलता का विश्वास है, उन्हें संदिग्ध बना देना अच्छा नहीं होगा'

बड़े भाई तथा सात्यकि को लेकर श्रीकृष्णचन्द्र हस्तिनापुर गये। भीष्म पितामाह, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और देवी गान्धारी अतिशय दुःखी थे, यह उनसे मिलते ही ज्ञात हो गया। विदुर ने एकान्त में सूचित किया कि उन्होंने युधिष्ठिर को संकेत से सावधान किया था किन्तु विदुर को सन्देह था। जले भवन से बहुत ही जले पाँच पुरुषों एवं एक नारी का अवशेष मिला लगता था। यह अनुमान ही था क्योंकि वे अत्यल्प अवशेष थे। जलकर भस्ममात्र बची थी उनकी। पाण्डवों को जलदान दोनों भाई द्वारिका में ही कर आये थे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -28

सत्यभामा से विवाह के तत्काल पश्चात यह समाचार मिला था। समाचार पहुँचा तो अन्त्येष्टि का समय व्यतीत हो चुका था। अब तो केवल शोक सहानुभूति और अस्थि चयन- क्योंकि दुर्योधन ने अस्थिचयन अनावश्यक मान लिया था। इस कार्य के लिये कोई हस्तिनापुर से कुल्यकरण ग्राम के लाक्षाभवन भेजा नहीं गया था। कहा जा रहा था कि भवन का अवशेष अभी शीतल नहीं हुआ है।

'श्रीकृष्ण-बलराम अभी द्वारिका में नहीं है। यही अवसर है' अक्रूर और कृतवर्मा दोनों शतधन्वा के यहाँ पहुँचे- 'सत्राजित ने हम सबको भुलवा दिया। हमको अपनी कन्या देना अस्वीकार नहीं किया और प्रतीक्षा करने को कहकर टालता रहा। तुम्हारे साथ भी यही हुआ। वह हम लोगों का सम्बन्धी या हितैषी कैसे हो सकता है'

शतधन्वा को बहुत आशा थी कि सत्राजित उसे कन्या देगा। सत्राजित की कन्या पाने का अर्थ मणि पाना था ही क्योंकि सत्राजित के कोई और सन्तान थी नहीं। अब अपनी कन्या उसने वासुदेव को विवाह दी। इससे शतधन्वा बहुत रुष्ट था। वह सत्यभामा के विवाह में सम्मिलित नहीं हुआ था। शीघ्र उत्तेजित होने वाला, अतिशय क्रोधी, आवेश में कुछ भी कर बैठने वाला वह प्रख्यात था। 'अब सत्राजित से बलपूर्वक मणि छीन क्यों न ली जाय?' कृतवर्मा ने कहा- 'अब तो बल-प्रयोग से ही मणि मिल सकती है और यही उपयुक्त अवसर है।'
'कन्या गयी, विलम्ब करने से मणि भी पाना असम्भव होगा' अक्रूर ने उकसाया- 'मणि तुम्हारे पास रहे तब हमें सन्तोष होगा'

'मैं मणि लेकर रहूँगा' शतधन्वा उत्तेजित हो गया- 'सत्राजित ने दूसरे को कन्या देकर मेरा अपमान किया है'  रात्रि में छिपकर वह सत्राजित के भवन में घुसा और सोते सत्राजित का वध करके मणि उठा लाया।

'सत्राजित मार दिये गये। शतधन्वा ने मारा उन्हें मणि के लोभ से' मूर्ख शतधन्वा ने स्वयं अक्रूर-कृतवर्मा से रात्रि में ही जाकर समाचार दिया और ऐसे समाचार को फैलते कितनी देर लगती है।

'मेरे पिता मार दिये गये' सत्यभामा ने सुना। वे रोती-क्रन्दन करती पितृगृह पहुँचीं। पिता का शव बड़ी तैलपूर्ण नौका में सुरक्षित किया किया और उसी समय रथ पर बैठकर हस्तिनापुर चल पड़ीं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -29

ये द्वारिकावासी- ये यादव उनके पिता की निन्दा करते थे, ये गालियाँ देते थे उन्हें, अन्त में इन्होंने उनका वध कर दिया। सत्यभामा को द्वारिका में कोई अपना अपने से सहानुभूति रखने वाला नहीं लगा। उन मनस्विनी ने किसी से कुछ नहीं कहा। उनके जो अपने हैं वे तो हस्तिनापुर चले गये अग्रज के साथ। वे उन्हीं के समीप चल पड़ीं रथ में एकाकी सत्यभामा। वृद्ध पिता के सारथी को लेकर वे रात-दिन यात्रा करके पहुँची थीं। रोते-रोते उनके नेत्र सूज गये थे। केश बिखरे थे। जाकर अपने स्वामी के चरणों पर गिर पड़ीं- 'हाय वे पितृचरण इस प्रकार मारे गये।'

श्रीकृष्णचन्द्र भी सुनकर रो पड़े। श्रीसंकर्षण ने क्रोध से काँपते हुए कहा- 'शतधन्वा की आयु पूरी हो चुकी। उसका वध करके ही श्रीकृष्ण श्वसुर की अन्त्येष्टि करेंगे' -सात्यकि को श्रीकृष्ण ने लाक्षागृह जाकर पाण्डवों की अस्थि-चयन का कार्य सौंपा और उसी समय सत्यभामा को अपने रथ पर बैठाकर द्वारिका चल पड़े। बलराम जी का रथ भी साथ ही चला। शतधन्वा ने आवेश में सत्राजित को मार दिया था किन्तु मणि लेकर घर पहुँचने पर जब प्रातःकाल पता लगा कि सत्यभामा हस्तिनापुर चलीं गयीं, भय ने उसे विमूढ़ बना दिया। उसने सोचा भी नहीं था कि सत्राजित की कन्या इतनी त्वरा करेगी। उसे तो लगता था कि श्रीकृष्ण-बलराम तक सन्देश कुछ महीनों बाद में ही पहुँचेगा। द्वारिका में सत्राजित की निन्दा पहिले हुई थी, उससे कोई सत्राजित की मृत्यु को महत्त्व नहीं देगा, यह वह मान बैठा था। भय के कारण उसे सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे। अपने भवन में छिपा बैठा था। उसमें तो चेतना तब आयी जब सुना कि दोनों भाई द्वारिका आ पहुँचे और सत्यभामा को सत्राजित के भवन में उतारा है वहाँ पर्याप्त सेवक-सेविकायें उसके साथ रखी उन्होंने।

उन्होंने द्वरिका पहुँचते ही पूछा- 'शतधन्वा है कहाँ? उस नराधम को किसी ने देखा है?'
कोई नहीं जानता था कि शतधन्वा अपने भवन में ही छिपा बैठा है। अब वह यहाँ सुरक्षित नहीं है। अपनी सौ योजन (सात सौ मील) लगातार दौड़ते जाने में समर्था घोड़ी हृदया पर मणि लेकर वह बैठा और रात्रि के अन्धकार में कृतवर्मा के घर गया- 'आप मेरी सहायता करें'
'मैं सर्वसमर्थ जगदीश्वर भगवान वासुदेव और संकर्षण की अवहेलना करके तुम्हारा पक्ष लेने का साहस नहीं कर सकता' कृतवर्मा ने डांट दिया- 'मैंने तो नहीं कहा था कि सत्राजित का वध कर दो। उनका अपराध करके कौन सकुशल रह सकता है? तुमने देखा नहीं कि कंस को दोनों भाईयों ने उसके सहायकों और भाइयों के साथ कैसे मार दिया। जरासन्ध जैसा पराक्रमी वीर सत्रह बार हारा इनसे। तुम कृपा करके यहाँ से तत्काल चले जाओ। मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं करूँगा।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -30

यादव सेनापति कृतवर्मा जैसे वीर ने टके-सा उत्तर दे दिया, अब किससे आशा हो सकती थी किन्तु शतधन्वा अक्रूर के भवन गया।

अक्रूर ने देखते ही कहा- 'तुमने सत्राजित को मारकर अपनी मृत्यु बुला ली। जो लीलापूर्वक इस विश्व की सृष्टि करते हैं, इसका पालन करते हैं, इसे मिटा देते हैं, उन परम प्रभु के पराक्रम का कौन पार पा सकता है। सात वर्ष की आयु में एक हाथ से पर्वत को छत्राक (बरसाती छत्रे) के समान उखाड़कर जिन्होंने सात दिन उठाये रखा, उन अनन्त, कूटस्थ, जगदात्मा का मैं सेवक हूँ। उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। मैंने केवल मणि लेने को तुम्हें कहा था।'
'अच्छा, आप यह मणि अपने पास रखें' शतधन्वा ने निराश स्वर में कहा और मणि अक्रूर को दे दी। मणि देकर वह अपनी घोड़ी को दौड़ाने लगा।

द्वारिका समुद्र से घिरा दुर्ग था। द्वार से, सेतु के द्वारा ही उससे बाहर जाया जा सकता था। घोड़ी को दौड़ाते हुए खुले दुर्ग-द्वार से शतधन्वा द्वार रक्षकों के सम्मुख से निकल गया किन्तु द्वार रक्षकों की दृष्टि बचाकर तो नहीं जा सकता था। एक ही रथ में बैठे श्रीकृष्ण-बलराम उसे ढूँढ़ने निकल चुके थे। द्वार रक्षकों ने सूचना दे दी। गरुड़ध्वज रथ शतधन्वा के पीछे दौड़ चला। शतधन्वा कुछ पहिले चला था। पर्याप्त दूर निकल गयी थी उसकी घोड़ी। रथ उसका पीछा करता बढ़ा आ रहा था। घोड़ी सौ योजन दौड़ सकती थी। पशु भी स्वामी का संकट समझते हैं। प्राण पर खेलकर पूरे वेग से वह स्वामिभक्ता पशु दौड़ती चली गयी किन्तु उसकी शक्ति की सीमा थी। सौ योजन दूर मिथिला के वाहयोपवन में पहुँचते-पहुँचते वह गिर पड़ी ठोकर खाकर और गिरते ही उसका श्वास समाप्त हो गया। अत्यधिक श्रम से उसका हृदय फट गया। घोड़ी के गिरते ही शतधन्वा कूदा और पैदल भागा।

श्रीकृष्णचन्द्र ने यह देखा। अग्रज से बोले- 'आर्य यह रथ के लिये अगम्य संकीर्ण पथ से भाग रहा है। आप यहीं रुकें थोड़े क्षण' श्रीकृष्णचन्द्र रथ से कूदे और शतधन्वा के पीछे दौड़े। शतधन्वा प्राण बचाने को दौड़ रहा था; किन्तु कहाँ तक दौड़ता?
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

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