द्वारिका धीश 3

hश्री द्वारिकाधीश
भाग -31

श्री कृष्ण ने ने समीप पहुँचकर उसके मस्तक पर पीछे से मुष्टि-प्रहार किया और मस्तक फट गया। उसके वस्त्र एवं शरीर को भली प्रकार देखकर श्रीकृष्ण लौटे। बड़े भाई से उन्होंने कहा- 'शतधन्वा के समीप तो मणि नहीं मिली। यह व्यर्थ मृत्यु का ग्रास बना'

'शतधन्वा के समीप मणि नहीं मिली तो वह और किसी को दे आया होगा' श्री बलराम ने रथ में बैठे-बैठे समीप का प्रदेश देख लिया था। सारथि से वहाँ का परिचय पूछ लिया था। वे रथ से उतर पड़े- 'तुम इस रथ से लौटो और द्वारिका में उसका पता लगाओ। मिथिला नरेश- मेरे बहुत प्रिय हैं। यहाँ तक आकर उनसे मिले बिना मैं लौटना नहीं चाहता' श्रीसंकर्षण रूक्ष हो उठे थे। उन्हें मणि के संबंध में श्री कृष्ण पर सन्देह हो गया था- 'धन्य मायादेवी। तुम्हारी लीला विलक्षण है।'

द्वारिका में सत्राजित का शव अभी तक अन्तेष्टि के लिये पड़ा था। श्रीकृष्णचन्द्र चुपचाप द्वारिका लौट आये। इस समय बड़े भाई को समझाने का प्रयास सफल नहीं होगा, यह वे जानते थे। शतधन्वा का शव श्रृगाल, कुत्ते, गीध आदि का आहार बना पड़ा रहा। श्रीकृष्ण द्रोही की अन्त्येष्टि कौन करता। सत्राजित की अन्त्येष्टि श्रीकृष्णचन्द्र ने सविधि सम्पन्न की।

श्रीबलराम के आगमन का सन्देश मिलते ही मिथिला नरेश अपने कुलगुरु तथा प्रमुख नागरिकों-ब्राह्मणों आदि के साथ स्वागत करने आये। बड़े आदर से ले गये। नगर में उनका आदर आतिथ्य दिन-दिन बढ़ता गया। आज कल करते-करते भी श्रीबलराम वहाँ कई वर्ष रुके रह गये। दुर्योधन को पता लगा कि श्रीसंकर्षण मिथिला में हैं। द्वारिका में उसके अनेक प्रतिस्पर्धी थे। उसे भय था कि वह वहाँ गदा-युद्ध सीखने गया तो कुछ और सहपाठी बन जायेंगे।

श्रीबलराम पृथ्वी के अद्वितीय गदायुद्ध के मर्मज्ञ- उनकी कला का वह एकमात्र शिष्य होना चाहता था। मिथिला में उनकी उपस्थिति ने उसे अवसर दिया। वह मिथिला आ गया। उसके जैसे योग्य शिष्य को प्रशिक्षण देने में लगने के कारण भी श्रीबलराम मिथिला में रुके रहे। प्रशिक्षण अपूर्ण छोड़कर वे जाना नहीं चाहते थे।

'आर्य आप मुझ पर अविश्वास करते हैं? मुझ अपने अनुज पर?'  श्रीकृष्ण का सन्देश आया- 'अन्ततः स्यमन्तक ऐसी मणि तो नहीं कि उसे छिपाकर रखा जा सके। उससे प्रकट स्वर्ण भार कोई कब तक छिपा सकेगा। मणि द्वारिका में नहीं है- यह विश्वास करें और पधारें' भाई का अनुरोध टाला नहीं जा सकता था। मणि की विशेषता उसे छिपने नहीं दे सकती, यह बात भी ठीक थी। अपने स्वजनों-परिवार से दूर रहते हुए बहुत दिन बीत चुके थे। श्रीसंकर्षण अन्ततःद्वारिका लौट आये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशःश्री द्वारिकाधीश
भाग -32

श्रीश्वफल्क जी की विशेषता थी कि जहाँ जाते थे वहाँ वर्षा हो जाती थी। काशी में अकाल पड़ा तो वहाँ के नरेश ने उन्हें काशी बुलाया। उनके वहाँ पहुँचते ही काशी में वर्षा हो गयी। इससे प्रसन्न होकर काशी नरेश ने उन्हें अपनी कन्या गान्दिनी विवाह दी थी।
द्वारिका में यह चर्चा फैलने लगी कि उनके पुत्र अक्रूर में पिता से अधिक प्रभाव है। वे जहाँ जाते हैं, वहाँ वर्षा हो जाती है। वहाँ महामारी या दूसरा कोई दैविक-भौतिक उत्पात होता हो तो दूर हो जाता है।

शतधन्वा मार दिया गया, यह समाचार श्रीकृष्ण के लौटते ही अक्रूर- कृतवर्मा को मिल गया था। शतधन्वा को उकसाने वाले ये दोनों भयभीत होकर उसी समय द्वारिका से भाग गये थे। अक्रूर के सम्बन्ध में उनके यश की यह गाथा लोक में फैलने लगी थी।

'अक्रूर में यह प्रभाव सहज तो नहीं है?' एक दिन उद्धव ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा- 'जानता हूँ' गम्भीर होकर द्वारिकाधीश बोले- 'तुम उनको द्वारिका ले आओ। उन्हें किसी भी कारण भय नहीं करना चाहिये।' अक्रूर जानते हैं कि जगदीश्वर श्रीकृष्ण से बचकर त्रिलोकी में कहीं भागा नहीं जा सकता। श्रीकृष्ण के स्वरूप का साक्षात्कार किया है उन्होंने। अब उन्हें अभय देकर बुलाया गया है तो द्वारिका आना ही चाहिये। अक्रूर आये और सीधे राजसभा में बुला लिये गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने उनका स्वागत किया। उनकी कीर्ति की प्रशंसा की। कहा- 'चाचा जी आपका स्नेह सदा रहा है मुझ पर। अब भी आप कृपा करेंगे, यह मुझे विश्वास है। मुझे पता है कि शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि आपके पास छोड़ी है। आप इधर वर्षों से लगातार यज्ञ कर रहे हैं और उन यज्ञों में स्वर्ण की वेदियाँ बनवाते हैं।'

सभी चमत्कृत हो गये। अक्रूर जी के यज्ञ स्वर्ण-वेदियों वाले हो रहे हैं- इसके कारण पर तो किसी का ध्यान गया ही नहीं था। श्रीकृष्ण ठीक कहते हैं। स्यमन्तक के बिना इतना स्वर्ण कहाँ से आया अक्रूर के समीप।
'सत्राजित के कोई दूसरी संतान नहीं है। धर्मतः उनकी सम्पत्ति उनका ऋण देकर जो बचे, उसके दौहित्र की- दौहित्र न होने तक दुहिता की होती है। हम जानते हैं कि उन पर किसी का कोई ऋण नहीं है।'

श्रीकृष्ण की बात का कोई प्रतिवाद नहीं। धर्मशास्त्र संगत बात है। जिसके समीप स्वर्णदायिनी मणि थी, उसको किसी से ऋण लेने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती।

'स्यमन्तक मणि किसी के लिये शुभ नहीं हुई। वह जिसके समीप गयी, उसी के लिये अनर्थकारिणी हुई' श्रीकृष्ण ने एक बार सभासदों पर दृष्टि डाल ली 'और किसी के लिये उसे रखना कठिन है। आपके पास भी वह इसलिये बिना अमंगल किये है, क्योंकि आप उससे प्राप्त स्वर्ण अपने उपयोग में नहीं लेते। उससे यज्ञ कर देते हैं। आपका व्रत श्लाघनीय है। अतः मणि आपके समीप ही रहनी चाहिये।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -33

मणि वस्तुतः समस्या बन चुकी थी। वह स्वत्व एवं सम्मान का प्रतीक बन गयी थी। महाराज उग्रसेन के लिये माँगी गयी पहिले, श्रीबलराम ज्येष्ठ भ्राता थे, पट्टमहिषी रुक्मिणी का स्वत्व पहिले, जाम्बवती देवी की दहेज थी, सत्यभामा के पिता की सम्पत्ति थी, सब चाहते थे उसे किन्तु मणि अशुभ है, यह तो किसी ने नहीं सोचा था। स्वर्ण का लोभ किसी को नहीं था। मणि के सम्बन्ध की इस नवीन सूचना ने सबको उसके प्रति उपेक्षापूर्ण कर दिया।

'मेरे अग्रज मणि के सम्बन्ध में मुझ पर विश्वास नहीं करते हैं, अतः आप केवल मणि दिखला दें' श्रीकृष्ण की बात समाप्त होते ही अक्रूर ने वस्त्रों के कई आवरण में छिपाकर रखी मणि निकालकर उनके हाथ पर रख दी। सबको दिखलाकर मणि अक्रूर को लौटा दी गयी। लज्जित अक्रूर अपने भवन गये।
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पाण्डव लाक्षागृह में जले नहीं, वे बच निकले थे। पांचाल में द्रौपदी-स्वयंवर के समय ही श्रीकृष्णचन्द्र उनसे मिल आये थे किन्तु जब वे हस्तिनापुर लौट आये और इन्द्रप्रस्थ में धृतराष्ट्र ने उन्हें निवास दिया श्रीद्वारिकाधीश सात्यकि, उद्धव को लेकर पुनः उनसे मिलने गये। पाण्डु के पुत्रों को धृतराष्ट्र ने इस बार थोड़ा-सा राज्य दे दिया था। इन्द्रप्रस्थ का ग्राम उन्हें दे दिया था निवास के लिये। भले छोटा राज्य था, ग्राम ही राजधानी थी किन्तु यहाँ वे स्वतन्त्र हो गये थे। अब उनकी व्यवस्था की जा सकती थी।

श्रीद्वारिकानाथ अपनी बुआ के इन पितृहीन भाइयों की व्यवस्था करने ही गये थे। इस व्यवस्था में पूरे वर्ष वे रुके रहे इन्द्रप्रस्थ। इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं थी। सात्यकि के मन में गाण्डीव धन्वा मध्यम पाण्डव से धनुर्वेद की शिक्षा लेने की उत्कण्ठा दीर्घ काल से थी। वे मानते थे कि अर्जुन के समान धनुर्धर पृथ्वी पर केवल भगवान परशुराम ही हैं किन्तु उन भार्गव ने तो क्षत्रिय-कुमार को शिष्य न बनाने का अब व्रत ले लिया था।

सात्यकि को सुयोग मिला और पार्थ ने भी सपरिश्रम उन्हें प्रशिक्षण दिया। एक वर्ष इन्द्रप्रस्थ रहकर श्रीद्वारिकाधीश लौटे तो उनके रथ में उनकी एक नवीन महारानी साथ आयीं।उनका विवाह भी द्वारिका आकर उत्तम मुहूर्त देखकर हुआ और पूरी धूम-धाम से हुआ। इस बार जो नवीन महारानी आयीं थीं वे श्रीकृष्णचन्द्र के समान ही अतसीकुसुम श्यामांगा थीं और उन्हें भी पीतवसन, पीतांगराग ही प्रिय था। यदुवंश इस संबंध से पृथ्वी में गौरवान्वित हो गया क्योंकि ये नवीन महारानी कालिन्दी भगवान भुवनभास्कर की साक्षात पुत्री थीं। श्रीकृष्ण का संबंध इस विवाह से देवताओं से सीधे हो गया।

'तुम तो मुझसे भी पूर्वजाता हो' श्रीसंकर्षण की पत्नी रेवती देवी ने अपनी इन देवरानी से हँसकर कहा था- 'मैं पितृवंश
के नाते तुमसे बहुत छोटी हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह पाने का स्वत्व है।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश)

क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -34

इस वैवस्वत मन्वन्तर के सतयुग में विवस्वान मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंश में महाराज रेवती की पुत्री हैं रेवती जी और सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान सूर्य से उनकी पत्नी संज्ञा से उत्पन्न, संयमिनी के स्वामी, जीवों के कर्मनियन्ता यमराज की साक्षात स्वसा कालिन्दी।

'आप बड़ी हैं बड़ा सौभाग्य पाया आपने। आपको अपने आराध्य को प्राप्त करने के लिये कुछ नहीं करना पड़ा' देवी कालिन्दी ने विनम्र होकर कहा- 'मुझे बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी। बहुत तप करना पड़ा। बहुत कुछ सीखना पड़ा। इतना सब करके आपके देवर के चरण मिले मुझे।'

'तुम अपनी कथा स्वयं सुना दो' रेवती जी ने कहा।रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती भी आ गयी थीं। सब उत्सुक थीं किन्तु अभी सबका संकोच मिटा नहीं था। भले कालिन्दी उनसे पीछे इस सदन में आयीं, वे साक्षात यमराज की बहिन हैं, सूर्यनारायण की पुत्री हैं। माता देवकी तक अब भी झिझक उठती हैं जब ये उनकी चरणवन्दना करने बढ़ती हैं।

'मैं बहुत अबोध थी शैशव में। मुझे पता ही नहीं था कि विवाह क्या होता है। विवाह की क्या मर्यादा है। इन श्रीद्वारिकाधीश के वर्ण के किंचित सदृश हैं मेरे भाई धर्मराज का वर्ण। हम दोनों एक साथ माता के गर्भ में रहे। एक साथ उत्पन्न-युग्मज हैं। भाई मुझसे कुछ क्षण ही बड़े हैं।'

कालिन्दी ने सलज्ज स्वर में सुनाया- 'हम दोनों साथ खेलते थे। मैंने भाई से ही कहा कि वे मुझसे विवाह कर लें।'
रेवती जी तथा रुक्मिणी पृभुति हँस पड़ीं। वैसे यह श्रुति-प्रतिपादित आख्यान उन्होंने पहिले भी सुना था किन्तु स्वयं कालिन्दी के मुख से इसे सुनना विनोद तो देता ही। वे कह रही थीं- 'भाई ने मुझे समझाया कि ऐसा संभव नहीं है। ऐसी बात सोचना और कहना भी बुरी बात है। यह धर्म के विपरीत है। इससे निन्दा होती है।'

'आप जानती ही हैं कि सुरों में शैशव नहीं होता। उत्पन्न होते ही किशोरावस्था आ जाती है और वह स्थायी होती है। तारुण्य या वार्थक्य नहीं आता' कालिन्दी सरल भाव से कहती गयीं- 'लेकिन शरीर का आकार कैसा भी हो, मेरा मानस शैशव जैसा ही था। मैं बहुत हठी थी और कोई व्यवहार समझती नहीं थी। पिता का अत्यधिक वात्सल्य पाया मैंने और भाई तो अब भी अपनी इस अनुजा पर बहुत स्नेह करते हैं।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -35

मैं हठी थी। भाई का श्याम वर्ण ही मुझे प्रिय था।भाई ने पिता से कहा तो मैंने उनसे कह दिया- 'मैं विवाह करूंगी तो ऐसे ही इन्दीवर सुन्दर, इनसे भी अधिक प्रभावशाली से अन्यथा मैं कुमारी ही रहूँगी।'

'तुम ठीक कहती हो।तुम सदा से जिनकी हो, उनका आकर्षण ही तुम्हें विवश कर रहा है' पिता ने गम्भीर होकर कहा- 'मैं स्वयं और यह यम जिनके अंश हैं, उन इन्दीवर सुन्दर, जगन्नियन्ता, कमल लोचन, चतुर्भुज भगवान वासुदेव से ही तुम्हारा विवाह संभव है किन्तु वत्से वे लोकमहेश्वर जब तक स्वयं प्रसन्न होकर वरण न करें, उन्हें पाया नहीं जा सकता। उनको प्राप्त करने के लिये दीर्घकालीन तप- आराधना आवश्यक है और उनकी कृपा की प्रतीक्षा भी।'

मैं सुनते ही चमत्कृत हो गयी। मुझे लगा कि मेरा हृदय यही चाहता था, निश्चय यही। मैं स्वयं समझ नहीं पाती थी अपने अन्तर की माँग।पिता के मुख से मेरे हृदय की पुकार व्यक्त हुई थी। मैंने कह दिया- 'मैं तप करूँगी- आराधना करूँगी और अनन्तकाल तक प्रतीक्षा करूँगी। वे अनाथाश्रय दयाधाम कभी तो दया द्रवित होंगे।'
मैं उसी क्षण वहीं तप प्रारंभ कर देती, किन्तु पिता ने समझाया कि यहाँ देवलोक में कोई कर्म फलदाता नहीं बनता। मुझे कर्मभूमि धरा पर जाना चाहिये। पिता की आज्ञानुसार द्रवरूप धारण करके मैं नगाधिप के शिखर पर उतरी। मेरे अवतरण के कारण उस शिखर का नाम कालिन्द-गिरि पड़ गया। हम देवता सत्य संकल्प होते हैं- अतः मेरा वह द्रवरूप-सरिता रूप शरीर कल्पान्त नित्य हो गया धरा पर। मैं उस रूप से प्राणियों को तृप्ति दान करने लगी।

पिता ने मेरी पुनः सहायता की। उन्होंने इन्द्रप्रस्थ से समीप मेरे प्रवाह में यमुना जल में मेरे लिये एक भवन बना दिया। मेरे इस शरीर के लिये वह संकल्पात्मक सदन हो गया। मैं उसी में रहकर तप करने लगी। अन्तर्यामी रूप से प्राणियों के भीतर स्थित अपने आराध्य की आराधना जल रूप से और तप इस साकार रूप से मैंने अपना जीवन बनाया। युग पर युग बीतते गये किन्तु मुझे चिन्ता नहीं थी। भगवान भास्कर की पुत्री को न जरा स्पर्श करती थी, न मृत्यु। देहधारियों को होने वाले क्लेश भी मुझे नहीं होते थे।

'वे परम प्रभु धरा पर अवतीर्ण हो रहे हैं' एक दिन भाई आये मेरे समीप। अनुजा का आतिथ्य स्वीकार किया उन्होंने। संभवतः कार्तिक शुक्ल द्वितीया थी वह। तभी से वह भ्रातृ-द्वितीया बन गयी। वे मुझे वरदान दे गये कि इस तिथि में जो छोटी बहिन के यहाँ जाकर उसका अतिथ्य स्वीकार करेगा, उसे दान-मान सत्कृत करेगा और यमुना जल में स्नान करेगा, उसके कर्म कैसे भी हों, मेरे नरकों की यातना उसे नहीं मिलेगी।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमशः

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