मीरा जीवन कथा 6
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मीरा चरित (51)
क्रमशः से आगे ..................
वचन टूटने के पछतावे से भोजराज का मन तड़प उठा ।प्रातःकाल सबने सुना कि महाराजकुमार को पुनः ज्वर चढ़ आया है ।बाँह का सिया हुआ घाव भी उधड़ गया ।फिर से दवा - लेप सब होने लगा , किन्तु रोग दिन-दिन बढ़ता ही गया ।यों तो सभी उनकी सेवा में एक पैर पर खड़े रहते थे , किन्तु मीरा ने रात -दिन एक कर दिया ।उनकी भक्ति ने मानों पंख समेट लिए हो ।पूजा सिमट गई और आवेश भी दब गया ।
भोजराज बार बार कहते ," आप आरोग लें ।अभी तक आप विश्राम करने नहीं गईं ? मैं अब ठीक हूँ- अब आप विश्राम कर लीजिए ।अभी पीड़ा नहीं है ।आप चिन्ता न करें ।"
मीरा को नींद आ जाती तो भोजराज दाँतों से होंठ दबाकर अपनी कराहों को भीतर ढकेल देते ।
ऐसे ही कितने दिन -मास निकलते गये ।पर भोजराज की स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ ।फिर भी मुस्कुराते हुये एक दिन उत्सव का समय जान कहने लगे ," आज तो वसंत पंचमी है ।ठाकुर जी को फाग नहीं खेलायी ? क्यों भला ? आप पधारिये , उन्हें चढ़ाकर गुलाल का प्रसाद मुझे भी दीजिये ।"
एक दो दिनों के बाद उन्होंने मीरा से कहा - आज सत्संग क्यों रोक दिया ।? यह तो अच्छा नहीं हुआ । आप पधारिये , मैं तो अब ठीक हो गया हूँ ।" वे कहते ,मुस्कराते पर उनके घाव भर नहीं रहे थे ।
" आपसे कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ मैं " एक दिन एकान्त में भोजराज ने मीरा से कहा ।
" जी फरमाईये " समीप की चौंकी पर बैठते हुये मीरा ने कहा ।
" मैं आपका अपराधी हूँ ।मेरा आपको दिया वचन टूट गया " भोजराज ने अटकती वाणी में नेत्र नीचे किए हुये कहा - " आप जो भी दण्ड बख्शें , मैं झेलने को प्रस्तुत हूँ ।केवल इतना निवेदन है कि यह अपराधी अब परलोक - पथ का पथिक है ।अब समय नहीं रहा पास में ।दण्ड ऐसा हो कि यहाँ भुगता जा सके ।अगले जन्म तक ऋण बाक़ी न रहे ।" उन्होंने हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से मीरा की ओर देखा ।
" अरे, यह क्या ? आप यूँ हाथ न जोड़िये ।" फिर गम्भीर स्वर में बोली -" मैं जानती हूँ ।उस समय तो मैं अचेत थी, किन्तु प्रातः साड़ी रक्त से भरी देखी तो समझ गई कि अवश्य ही कोई अटक आ पड़ी होगी ।इसमें अपराध जैसा क्या हुआ भला ?"
" अटक ही आ पड़ी थी " भोजराज बोले - याँ तो आपको झरोखे से गिरते देखता याँ वचन तोड़ता ।इतना समय नहीं था कि दासियों को पुकारकर उठाता ।क्यों वचन तोड़ा , इसका तनिक भी पश्चाताप नहीं है, किन्तु भोज अंत में झूठा ही रहा........ ।" भोजराज का कण्ठ भर आया ।तनिक रूक कर वे बोले ," दण्ड भुगते बिना यह बोझ मेरे ह्रदय पर रहेगा ।"
" देखिये , मेरे मन में तनिक भी रोष नहीं है ।मैं तो अपने
ही भाव में बह गिर रही थी - तो मरते हुये को बचाना पुण्य है कि पाप ? मेरी असावधानी से ही तो यह हुआ ।यदि दण्ड मिलना ही है तो मुझे मिलना चाहिए , आपको क्यों ?"
" नहीं ,नहीं ।आपका क्या अपराध है इसमें ?"भोजराज व्याकुल स्वर में बोले -" हे द्वारिकाधीश ! ये निर्दोष है ।खोटाई करनहार तो मैं हूँ ।तेरे दरबार में जो भी दण्ड तय हुआ हो ,वह मुझे दे दो ।इस निर्मल आत्मा को कभी मत दुख देना प्रभु !" भोजराज की आँखों से आँसू बह चले ।
" अब आप यूँ गुज़री बातों पर आँसू बहाते रहेंगे तो कैसे स्वस्थता लाभ करेगें ? आप सत्य मानिये , मुझे तो इस बात में अपराध जैसा कुछ लगा ही नहीं " मीरा ने स्नेह से कहा ।
" आपने मुझे क्षमा कर दिया ,मेरे मन से बोझ उतर गया "भोजराज थोड़ा रूक कर फिर अतिशय दैन्यता से बोले ," मैं योग्य तो नहीं, किन्तु एक निवेदन और करना चाहता था ।"
" आप ऐसा न कहे, आदेश दीजिए , मुझे पालन कर प्रसन्नता होगी ।"
" अब अन्त समय निकट है ।एक बार प्रभु का दर्शन पा लेता........... ।"
मीरा की बड़ी बड़ी पलकें मुँद गई ।भोजराज को लगा कि उनकी आँखों के सामने सैकड़ों चन्द्रमा का प्रकाश फैला है ।उसके बीच में खड़ी वह साँवरी मूरत , मानों रूप का समुद्र हो, वह सलोनी छवि नेत्रों में अथाह स्नेह भरकर बोली -" भोज ! तुमने मीरा की नहीं , मेरी सेवा की है ।मैं तुमसे प्रसन्न हूँ ।"
" मेरा अपराध प्रभु !" भोजराज अटकती वाणी में बोले ।
वह मूरत हँसी , जैसे रूप के समुद्र में लहरें उठी हों ।" स्वार्थ से किए गये कार्य अपराध बनते है भोज ! निस्वार्थ से किए गये कार्यों का कर्मफल तो मुझे ही अर्पित होता है ।तुम मेरे हो भोज ! अब कहो, क्या चाहिए तुम्हें ?" उस मोहिनी मूर्ति ने दोनों हाथ फैला कर भोजराज को अपने ह्रदय से लगा लिया ।
आनन्द के आवेग से भोजराज अचेत हो गये ।जब चेत आया तो उन्होंने हाथ बढ़ा कर मीरा की चरण रज माथे चढ़ायी ।पारस तो लोहे को सोना ही बना पाता है, पर यह पारस लोहे को भी पारस बना देता है ।दोनों ही भक्त आलौकिक आनन्द में मग्न थे ।
क्रमशः ............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (52)
क्रमशः से आगे..............
" रत्नसिंह ! तुम्हारी भाभी का भार मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ ।मुझे वचन दो कि उन्हें कभी कोई कोई कष्ट नहीं होने दोगे ।" एकान्त में भोजराज ने रत्नसिंह से कहा ।
" यह क्या फरमा रहे है आप बावजी हुकम ! " वह भाई के गले लग रो पड़े ।
" वचन दो भाई ! अन्यथा मेरे प्राण सहज नहीं निकल पायेंगे ।अब अधिक समय नहीं रहा ।"
रत्नसिंह ने भाई के पाँवो को छूकर रूँधे हुये कण्ठ से बोले -" भाभीसा मेरे लिए कुलदेवी बाणमाता से भी अधिक पूज्य है ।इनका हर आदेश श्री जी (पिता -महाराणा सांघा) के आदेश से भी बढ़कर होगा ।इनके ऊपर आनेवाली प्रत्येक विपत्ति को रत्नसिंह की छाती झेल लेगी ।"
भोजराज ने हाथ बढ़ा कर भाई को छाती से लगा लिया ।दूसरे ही दिन भोजराज ने शरीर छोड़ दिया ।
राजमहल और नगर में उदासी छा गई ।मीरा के नेत्रों में एकबार आँसू की झड़ी लगी और दूसरे दिन ही वह उठकर अपने सदैव के नित्यकर्मों में, ठाकुर जी की सेवा में लग गई ।
कुछ बूढ़ी औरतें कुछ रस्में करने आई तो मीरा ने किसी भी श्रंगार उतारने से मना कर दिया कि मेरे पति गिरधर तो अविनाशी है ।
और जब उन्होंने पूछा ," तो महाराजकुमार भोजराज ?"
मीरा ने कहा," महाराजकुमार तो मेरे सखा थे ।वे मुझे यहाँ ले आये तो मैं आ गई ।अगर आप मुझे वापिस भेजना चाहें तो चली जाऊँगी ।पर मैं अपने पति के रहते चूड़ियाँ क्यूँ उतारूँ?"
बात सबके कान में पहुँची तो एकबार तो सब भन्ना गये ।किन्तु रत्नसिंह ने आकर निवेदन किया -" भाभीसा तो आरम्भ से ही यह फरमाती रही है कि मेरे पति ठाकुर जी है ।अब उन्होंने ऐसा नया क्या कह दिया कि सब बौखलाये-से फिर रहे है ? अगर उन्हें यह सब उचित नहीं लग रहा तो किसी को भी उनसे ज़ोर ज़बरदस्ती करने की कोई आवश्यकता नहीं ।" ऐसा कहकर रत्नसिंह ने रनिवास की स्त्रियों को डाँट कर शांत कर दिया ।
जिसने भी सुना ,वह आश्चर्य में डूब गया ।स्त्रियों के समाज में थू थू होने लगी ।उसी दिन से मेड़तणी मीरा परिवार में उपेक्षिता ही नहीं घृणिता भी हो गई ।दूसरी ओर संत समाज में उनका मान सम्मान बढ़ता जा रहा था ।पुष्कर आने वाले संत मीरा के दर्शन -सत्संग के बिना अपनी यात्रा अधूरी मानते थे ।उनके सरल सीधे - सादे किन्तु मार्मिक भजन जनसाधारण के ह्रदय में स्थान बनाते जा रहे थे ।
क्रमशः ...............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (53)
क्रमशः से आगे............
बाबर ने राजपूतों पर हमला बोल दिया ।यही निश्चय हुआ कि मेवाड़ के महाराणा साँगा की अध्यक्षता में सभी छोटे मोटे शासक बाबर से युद्ध करें ।शस्त्रों की झंकार से राजपूती उत्साह उफन पड़ा । सबके दिल में वीर भोजराज का अभाव कसक रहा था ।रत्नसिंह वीर हैं , किन्तु उनकी रूचि कला की ओर अधिक झुकी है ।महाराणा सांगा युद्ध के लिए गये और रत्नसिंह को राज्य प्रबन्ध के लिए चित्तौड़ ही रह जाना पड़ा ।
एक दिन रत्नसिंह ने भाभी से पूछा ," जब संसार में सब मनुष्य भगवान ने बनाए हैं-उनके स्वभाव और रूप गुण कला भी भगवान का ही दिया है तो मनुष्य क्यों मेरा मेरा कर दूसरे को मारता और मरता है ? मनुष्य को मारना कहाँ का धर्म है भाभीसा ?"
लालजीसा ! जिसने मनुष्य और उनके गुण स्वभाव बनाये है उसीने कर्तव्य , धर्म और न्याय भी बनाये है इनका सामना करने के लिए उसी ने पाप अधर्म और अन्याय की भी रचना की है ।धर्म की गति बहुत सूक्ष्म है लालजीसा ! बड़े बड़े मनीषी भी संशय में पड़ जाते है क्योंकि जो कर्म एक के लिए धर्म की परिधि में आता है , वही कर्म दूसरे के लिए अधर्म के घर जा बैठता है ।जैसे सन्यासी के लिए भिक्षाटन धर्म है, किन्तु गृहस्थ के लिए अधर्म ।ब्राह्मण के लिए याचना धर्म हो सकता है, किन्तु क्षत्रिय के लिए अधर्म ।ऐसे ही अपने स्वार्थवश किसी को मारना हत्या है और युद्ध में मारना धर्म सम्मत वीरता है ।समय के साथ नीति -धर्म बदलते रहते है ।"
आगरा के पास हो रहे युद्ध से आये समाचार से पता लगा कि महाराणा सांगा एक विषबुझे बाण से मूर्छित हो गये है ।उन्हें जयपुर के पास किसी गाँव में चिकित्सा दी जाने लगी । उन्हें हठ था कि बाबर को जीते बिना मैं चित्तौड़ वापिस नहीं जाऊँगा और वह स्वस्थ होने लगे ।राजपूतों की वीरता देखकर बाबर भी एकबारगी सोच में पड़ गया ।पर किसी विश्वासघाती ने महाराणा को विष दे दिया । महाराणा के निधन से हिन्दुआ सूर्य अस्त हो गया । मेवाड़ की राजगद्दी पर कुँवर रत्नसिंह आसीन हुये ।
महाराणा सांगा की धर्मपत्नी धनाबाई के पुत्र थे रत्नसिंह और उनकी दूसरी पत्नी कर्मावती बाई के पुत्र थे- विक्रमादित्य और कुंवर उदयसिंह ।रानी कर्मावती की तरफ महाराणा का विशेष झुकाव था और उसने कुछ जागीरें अपने पुत्रों के नाम पहले से ही लिखवा ली थी और अब उसकी दृष्टि मेवाड़ की राजगद्धी पर थी ।
यह परिवारिक वैमनस्य रत्नसिंह के कोमल ह्रदय के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ ।और रत्नसिंह के साथ ही उनकी पत्नी पँवार जी सती हो गई ।इनके एक पुत्री थी श्याम कुँवर बाईसा जिसे अपनी बड़ी माँ मीरा से खूब स्नेह मिला ।
चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे कलियुग के अवतार राणा विक्रमादित्य । वह अविश्वासी और ओछे स्वभाव के थे जो सदा खिदमतगारों, कुटिल और मूर्ख लोगों से घिरे रहते । जिन विश्ववसनीय सामन्तों पर पूर्ण राज्य टिका था , उन्हें दूध की मक्खी की तरह बाहर निकाल दिया गया ।
राणा विक्रमादित्य ने एक दिन बड़ी बहन उदयकुँवर को बुला कहा," जीजा ! भाभी म्हाँरा को अर्ज़ कर दें कि नाचना-गाना हो तो महलों में ही करने की कृपा करें ।वहाँ मन्दिर में चौड़े चौगान , बाबाओं की भीड़ में अपने घाघरा फहराती हुई अपनी कला न दिखायें ।यह रीत इनके पीहर में होगी , हम सिसौदियों के यहाँ नहीं है ।"
उदयकुँवर बाईसा ने मीरा के पास आकर अपनी ओर से नमक मिर्च मिला कर सब बात कह दी- "पहले तो अन्नदाता और भाईसा आपको कुछ नहीं कहते थे पर भाभी म्हाँरा ! राणा जी यह सब न सहेगें ,वह तो आज बहुत क्रोध में थे ।सो देखिए आपका फर्ज़ है कि इन्हें प्रसन्न रखें ।और अबसे आप मन्दिर न पधारा करें ।"
इसका उत्तर मीरा ने तानपुरा उठाकर गाकर दिया ..........
राणाजी मैं तो गोविंद के गुण गासूँ ।
राजा रूठै, नगरी राखै।
हरि रूठयो कहाँ जासूँ ?
हरि मन्दिर में नृत्य करासूँ,
घुँघरिया धमकासूँ ॥
यह संसार बाढ़ का काँटा ,
जीया संगत नहीं जासूँ ।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर,
नित उठ दरसन पासूँ॥
राणाजी मैं तो गोविंद के गुण गासूँ ।
क्रमशः ....................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (54)
क्रमशः से आगे.............
उदयकुँवर तो मीरा का भजन सुनकर और क्रोधित हो उठी -" अरे, राणाजी विक्रमादित्य बाव जी हुकम भोजराज नहीं है जो विष के घूँट भीतर ही भीतर पीकर सूख गये ।एकदिन भी आपने मेरे भाई को सुख से नहीं रहने दिया । जब से आपने इस घर में पाँव रखा है हमारे घराने की लाज के झंडे फहराती रही हो।अरे, अपने माँ बाप को ही कह देती कि किसी बाबा को ही ब्याह देते ।मेरे भीम और अर्जुन जैसे वीर भाई तो निश्वास छोड़ -छोड़ कर न मरते ।" फिर उदयकुँवर हाथ जोड़ कर बोली - " अब तो देखने को बस , ये दो भाई रह गये है ।आपके हाथ जोड़ूँ लक्ष्मी ! इन्हें दुखी न करो , अपने ताँगड़े तम्बूरे लेकर घर में बैठो , हमें मत राँधो ।"
मीरा ने धैर्य से सब आरोप सुने और किसी का भी उत्तर देना आवश्यक न समझा ।ब्लकि स्वयं की भजन में स्थिति और भक्ति में दृढ़ रहने के संकल्प को बताते हुये मीरा ने फिर तानपुरे पर उँगली फेरी..........
बरजी मैं काहू की नाहिं रहूँ ।
सुण री सखी तुम चेतन होय के मन की बात कहूँ ॥
साधु संगति कर हरि सुख दलेऊँ जग सूँ दूर रहूँ।
तन मन मेरो सब ही जावौ भल मेरो सीस लहू॥
मन मेरो लागो सुमिरन सेती सब का बोल सहूँ।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी सतगुरू चरण गहूँ॥
तुनक करके उदयकुँवर बाईसा चली गई ।राणाजी ने बहिन को समझाया - "गिरधर गोपाल की मूर्ति ही क्यों न चुरा ली जाये ।सब अनर्थों की जड़ यही बला ही तो है ।"
दूसरे दिन सचमुच ही मीरा ने देखा कि ठाकुर जी का सिहांसन खाली पड़ा है तो उसका कलेजा ही बैठ गया । कहते हैं न- गिलहरी की दौड़ पीपल तक ! मीरा किसको कहे और क्या ? उसने तानपुरा उठाया और रूँधे कण्ठ से वाणी फूट पड़ी .........
म्हाँरी सुध ज्यूँ जाणो त्यूँ लीजो ।
पल पल ऊभी पंथ निहारूँ दरसन म्हाँने दीजो।
मैं तो हूँ बहु औगुणवाली औगुण सब हर लीजो॥
मैं तो दासी चरणकँवल की मिल बिछड़न मत कीजो
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणाँ चित दीजो॥
(ऊभी -अर्थात किसी की प्रतीक्षा में खड़े रहना )
झर झर आँसूओं से मीरा के वस्त्र भीग रहे थे ।दासियाँ इधरउधर खड़ी आँसू बहाती विवशता से हाथ मल रही थी ।मीरा का गान न रूका ।एक के बाद एक विरह का पद मीरा गाती जा रही है -आँसूओं की तो मानों बाढ़ ही आ गई हो ।
तभी मिथुला ने उतावले स्वर में कहा- " बाईसा हुकम, बाईसा हुकम !"
मीरा की आकुल दृष्टि मिथुला की ओर उठी तो उसने सिंहासन की ओर संकेत किया ।उस ओर देखते ही हर्ष के मारे मीरा ने सिंहासन से उठाकर गिरधर के विग्रह को ह्रदय से लगा लिया ।आँसुओं से गिरधर को अभिषिक्त करती हुई कहने लगी-" मेरे नाथ ! मेरे स्वामी ! मुझ दुखिया के एकमात्र आधार !!! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये थे आप ? रूँधे हुये कण्ठ से वह ठाकुर को उलाहना देते न थक रही थी......
मैं तो थाँरे भजन भरोसे अविनासी ।
तीरथ बरत तो कुछ नहीं कीणो,
बन फिरे है उदासी॥
जंतर मंतर कुछ नहीं जाणूँ,
वेद पढ़ी नहीं कासी॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
भई चरण की दासी ॥
क्रमशः ............ .....
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (55)
क्रमशः से आगे...........
" ये भागवत पुराण सब सच्चे है क्या, बाईसा हुकम ?" एक बार मिथुला ने पूछा ।
"क्यों , तुझे झूठे लगते है क्या ?" मीरा ने हँसकर कहा ।
"इनमें लिखी बातें अनहोनी लगती है । रावण के दस माथे थे । ऋषियों में इतनी सिद्धि कि वह क्रोध में श्राप भी दे देते थे ।"
" कालचक्र के साथ संसार , इसके प्राणी और उनकी शक्तियाँ -रूप आदि सब कुछ बदलते रहते है ।आज हम जो कुछ देख रहे है, सम्भवतः पाँच सौ वर्षों के पश्चात लोग इसे झूठ याँ अनहोनी कहने लग जायें ।"
" सुना है बाईसा हुकम , कि प्रभु का विधान सदा मंगलमय होता है और उसी में जीव का भी मंगल निहित होता है ।फिर आप जैसी ज्ञानी और भक्त के साथ इतना अन्याय क्यों ? खोटे लोग आराम पाते है और भले लोग दुख की ज्वाला में झुलसते रहते है ।लोग कहते है कि धर्मात्मा को भगवान तपाते है , ऐसा क्यों हुकम ? इससे तो भक्ति का उत्साह ठंडा पड़ता है " मिथुला ने हिम्मत जुटाकर मीरा के पास अपनी गद्दी सरकाते हुये कहा ।फिर हाथ जोड़ कर बोली ," बहुत बरसों से मन की यह उथल पुथल मुझे खा रही है ।यदि कृपा हो तो ............।."
" कृपा की इसमें क्या बात है ।" मीरा ने कहा -"जो सचमुच जानना चाहता है उसे न बताना जाननेवाले के लिए भी दोष है ।"
" हाँ , भगवान के विधान में जीव का उसी प्रकार मंगल है , जिस प्रकार माँ के हर व्यवहार में बालक का मंगल निहित है ।वह बालक को खिलाती , पिलाती, सुलाती अथवा मारती भी है तो उसके भले के लिए ही, उसी प्रकार ईश्वर भी सदैव जीव का मंगल ही करते है ।"
" पर हुकम ! आपने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया , फिर क्यों दुख उठाने पड़ रहे है ?"
" बता तो , चौमासे में बोयी फसल कब काटी जाती है ? " मीरा ने हँसकर पूछा ।
" आश्विन -कार्तिक में ।"
"और कार्तिक में बोयी हुई को ?"
" चैत्र-विशाख में ।""
तो फिर कर्मों की खेती तुरन्त कैसे पक जायेगी ? वह भी इस जन्म का कर्मफल अगले जन्म में मिलेगा ।कोई कोई प्रबल कर्म अवश्य तुरन्त फलदायी होते है ।"
" किन्तु हुकम ! अगले जन्म तक तो किसी को याद ही नहीं रहता ।इसी कारण अपने दुख के लिए मनुष्य दूसरे लोगों को अथवा ईश्वर को दोषी ठहराने लगता है ।हाथों -हाथ कर्मफल मिल जाये तो शिक्षा भी मिल जाये और मन-मुटाव भी कम हो जाये ।"
" यह भूल न होती मिथुला ! तो अपने कर्मों का बोझ उठाये मनुष्य कैसे जी पाता ? यदि हाथों -हाथ कर्मफल मिल जाये तो उसे प्रायश्चित करने का अवसर कब मिलेगा ? भगवान के विधान में सज़ा नहीं सुधार है, मिथुला ! जैसे बालक गंदे कीचड़ में गिरकर पूरा लथपथ होकर घर आये , माँ के मन में अथाह वात्सल्य होते हुये भी जब तक माँ उसे नहलाकर स्वच्छ नहीं कर लेती , तबतक गोद में नहीं लेती ।अब नासमझ बालक यह न समझ पाये और रोये - चिल्लाये , माँ को भला बुरा कहे तो क्या माँ बुरा मानती है ? वह तो बालक को स्वच्छ करके ही मानती है ।और हम सब उस बालक जैसे ही है -जो अपना अच्छा बुरा नहीं समझते ।
क्रमशः ...................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (56)
क्रमशः से आगे ................
मिथुला, चम्पा और दूसरी दासियाँ धैर्य से अपनी बाईसा से ज्ञान की बातें सुन रही थी ।
मीरा ने फिर कहा," इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है ।सुख और आनन्द जुड़वा भाई है - इनके मुख की आकृति भी एक सी है - पर स्वभाव एक दूसरे से विपरीत है ।मानव ढूँढता तो है आनन्द को, किन्तु मुख -साम्य के कारण सुख को ही आनन्द जानकर अपना लेता है ।और इस प्रकार ।आनन्द की खोज में वह जन्म जन्मान्तर तक भटकता रहता है ।"
" इनके स्वभाव में क्या विपरीतता है ?" मिथुला ने जिज्ञासा की ।
" आनन्द सदा एक सा रहता है ।इसमें घटना बढ़ना नहीं है ।पर सुख मिलने के साथ ही घटना आरम्भ हो जाता है ।इस प्रकार मनुष्य की खोज पूरी नहीं होती और जीवन के प्रत्येक पड़ाव पर वह सुखी होने का स्वप्न देखता रहता है ।" एक बा त और सुन मिथुला , इस सुख का एक मित्र भी है और यह दोनों मित्र एक ही स्वभाव के है ।उसका नाम है दुख ।दुख भी सुख के समान ही मिलते ही घटने लग जाता है अतः यदि सुख आयेगा तो उसका हाथ थामें दुख भी चला आयेगा ।"
" आनन्द की कोई पहचान बाईसा ? ।उसका ठौर ठिकाना कैसे ज्ञात हो कि पाने का प्रयत्न किया जाये ।"
" पहचान तो यही है कि वह इकसार है , वह ईश्वर का रूप है ।ईश्वर स्वयं आनन्द स्वरूप है ।जैसे सुख के साथ दुख आता है , उसी प्रकार आनन्द से ईश्वर की प्रतीति होती है ।इसे पाने के बाद यह खोज समाप्त हो जाती है ।अब रही ठौर ठिकाने की बात , तो वह गुरु और संतो की कृपा से प्राप्त होता है ।उसके लिए सत्संग आवश्यक है ।संत जो कहे, उसे सुनना और मनन- चिन्तन करना और भी आवश्यक है ।"
मीरा धैर्य से मिथुला की जिज्ञासा के उत्तर में कितने ही भक्तों के प्रश्नों का समाधान करती जा रही हैं ।फिर मीरा ने आगे कहा," दुख और सुख दोनों का मूल इच्छा है और इच्छा का मूल मोह है ।एक इच्छा की पूर्ति होते ही उसी की कोख से कई और इच्छायें जन्म ले लेती है ।यही तृष्णा है और इसका कहीं भी अन्त नहीं ।"
मीरा ने थोड़ा रूककर फिर कहा," अब हम आनन्द का भी स्वरूप समझें ।जैसे हमें दूसरे सुखी दिखाई देते है , पर वे सुखी है नहीं ।उसी प्रकार जिनको आनन्द मिलता है ,वे बाहर से दुखी दिखाई देने पर भी दुखी नहीं होते ।"
क्रमशः ..............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (57)
क्रमशः से आगे.........
" ये भागवत पुराण सब सच्चे है क्या, बाईसा हुकम ?" एक बार मिथुला ने पूछा ।"क्यों , तुझे झूठे लगते है क्या ?" मीरा ने हँसकर कहा ।"इनमें लिखी बातें अनहोनी लगती है । रावण के दस माथे थे । ऋषियों में इतनी सिद्धि कि वह क्रोध में श्राप भी दे देते थे ।"" कालचक्र के साथ संसार , इसके प्राणी और उनकी शक्तियाँ -रूप आदि सब कुछ बदलते रहते है ।आज हम जो कुछ देख रहे है, सम्भवतः पाँच सौ वर्षों के पश्चात लोग इसे झूठ याँ अनहोनी कहने लग जायें ।"" सुना है बाईसा हुकम , कि प्रभु का विधान सदा मंगलमय होता है और उसी में जीव का भी मंगल निहित होता है ।फिर आप जैसी ज्ञानी और भक्त के साथ इतना अन्याय क्यों ? खोटे लोग आराम पाते है और भले लोग दुख की ज्वाला में झुलसते रहते है ।लोग कहते है कि धर्मात्मा को भगवान तपाते है , ऐसा क्यों हुकम ? इससे तो भक्ति का उत्साह ठंडा पड़ता है " मिथुला ने हिम्मत जुटाकर मीरा के पास अपनी गद्दी सरकाते हुये कहा ।फिर हाथ जोड़ कर बोली ," बहुत बरसों से मन की यह उथल पुथल मुझे खा रही है ।यदि कृपा हो तो ............।."" कृपा की इसमें क्या बात है ।" मीरा ने कहा -"जो सचमुच जानना चाहता है उसे न बताना जाननेवाले के लिए भी दोष है ।"" हाँ , भगवान के विधान में जीव का उसी प्रकार मंगल है , जिस प्रकार माँ के हर व्यवहार में बालक का मंगल निहित है ।वह बालक को खिलाती , पिलाती, सुलाती अथवा मारती भी है तो उसके भले के लिए ही, उसी प्रकार ईश्वर भी सदैव जीव का मंगल ही करते है ।"" पर हुकम ! आपने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया , फिर क्यों दुख उठाने पड़ रहे है ?"" बता तो , चौमासे में बोयी फसल कब काटी जाती है ? " मीरा ने हँसकर पूछा ।
" आश्विन -कार्तिक में ।""और कार्तिक में बोयी हुई को ?"
" चैत्र-विशाख में ।""तो फिर कर्मों की खेती तुरन्त कैसे पक जायेगी ? वह भी इस जन्म का कर्मफल अगले जन्म में मिलेगा ।कोई कोई प्रबल कर्म अवश्य तुरन्त फलदायी होते है ।"" किन्तु हुकम ! अगले जन्म तक तो किसी को याद ही नहीं रहता ।इसी कारण अपने दुख के लिए मनुष्य दूसरे लोगों को अथवा ईश्वर को दोषी ठहराने लगता है ।हाथों -हाथ कर्मफल मिल जाये तो शिक्षा भी मिल जाये और मन-मुटाव भी कम हो जाये ।"" यह भूल न होती मिथुला ! तो अपने कर्मों का बोझ उठाये मनुष्य कैसे जी पाता ? यदि हाथों -हाथ कर्मफल मिल जाये तो उसे प्रायश्चित करने का अवसर कब मिलेगा ? भगवान के विधान में सज़ा नहीं सुधार है, मिथुला ! जैसे बालक गंदे कीचड़ में गिरकर पूरा लथपथ होकर घर आये , माँ के मन में अथाह वात्सल्य होते हुये भी जब तक माँ उसे नहलाकर स्वच्छ नहीं कर लेती , तबतक गोद में नहीं लेती ।अब नासमझ बालक यह न समझ पाये और रोये - चिल्लाये , माँ को भला बुरा कहे तो क्या माँ बुरा मानती है ? वह तो बालक को स्वच्छ करके ही मानती है ।और हम सब उस बालक जैसे ही है -जो अपना अच्छा बुरा नहीं समझते ।
क्रमशः ..................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (58)
क्रमशः से आगे .................
मीरा ज्ञान ,वैराग्य और भक्ति के कठिन विषयों को सरल शब्दों में अति स्नेह से समझाती हुई बोली ," मिथुला ! अगर भगवान परिस्थितियों में निज जन को डालते हैं तो क्षण क्षण उसकी संभाल का दायित्व भी स्वयं लेते है ।देखो, दुखों की सृष्टि मनुष्य को उजला करने के लिए हुई है ।क्योंकि दुख से ही वैराग्य का जन्म होता है और प्रभु सुख प्राप्ति के लिए किए गये प्रत्येक प्रयत्न को निरस्त कर देते है ।हार थककर वह संसार की ओर पीठ देकर चलने लगता है ।फिर तो क्या कहें ? संत, शास्त्र और वे सभी उपकरण , जो उसकी उन्नति में आवश्यक है , एक एक करके प्रभु जुटा देते है ।इस प्रकार एक बार इस भक्ति के पथ पर पाँव धरने के पश्चात लक्ष्य के शिखर तक पहुँचना आवश्यक हो जाता है , भले दौड़कर पहुँचे याँ पंगु की भांति सरकते-खिसकते पहुँचे ।"
" जिसने एक बार भी सच्चे मन से चाहा कि ईश्वर कौन है ? अथवा मैं कौन हूँ , उसका नाम भक्त की सूची में लिखा गया ।उसके लिए संसार के द्वार बन्द हो गये ।अब वह दूसरी ओर जाने के लिए चाहे जितना प्रयत्न करे कभी सफल नहीं हो पायेगा ।गिर -गिर कर उठना होगा ।भूल -भूल कर पुनः भक्ति का पथ पकड़ना होगा ।पहले और पिछले कर्मों में से छाँट-छूँट करके वे कर्मफल प्रारब्ध बनेंगे जो उसे लक्ष्य की ओर ठेल दें ।"
" जैसे स्वर्णकार स्वर्ण को ,जब तक खोट न निकल जाये, तबतक बार -बार भठ्ठी में पिघला कर ठंडा करता है और फिर कूट-पीट कर, छीलकर और नाना रत्नों से सजाकर सुन्दर आभूषण तैयार कर देता है , वैसे ही प्रभु भी जीव को तपा तपा कर महादेव बना देते है ।एक बार चल पड़ा फिर तो आनन्द ही आनन्द है ।"
" परसों एक महात्माजी फरमा रहे थे कि कर्मफल याँ तो ज्ञान की अग्नि में भस्म होते है अथवा भोग कर ही समाप्त किया जा सकता है , तीसरा कोई उपाय नहीं है ।" चम्पा ने पूछा ," बाईसा हुकम ! भक्त यदि मुक्ति पा ले तो उसके संचित कर्मों का क्या होगा ?"
" ये कर्म भक्त का भला बुरा करने वालों में और कहने वालों में बँट जायेंगे ।समझी ?"
मीरा अपनी दासियों की जिज्ञासा से प्रसन्न हो मुस्कुरा कर बोली," आजकल चम्पा बहुत गुनने लगी है ।"
चम्पा सिर झुका कर बोली ," सरकार की चरण -रज का का प्रताप है ।लगता है , मैंने भी किसी जन्म में," ईश्वर कौन है ," यह सत्य जानने की इच्छा की होगी जो प्रभु ने कृपा करके आप जैसी स्वामिनी के चरणों का आश्रय प्रदान किया है ।"
क्रमशः ..................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (59)
क्रमशः से आगे ...................
राणा विक्रमादित्य का क्रोध मीरा पर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था ।रनिवास की स्त्रियाँ भी दो भागों में बँटी हुई थी - कुछ मीरा की ओर और कुछ कर्मावती बाई एवं उदयकुँवर बाईसा की ओर ।इस दल को महाराणा की भी शह मिली हुई थी ।कभीकभी तो कर्मावती कहती," जब से यह मेड़तणी का हमारे का यहाँ पाँव पड़ा है -कष्टों की सीमा नहीं , यह मरे तो राज्य में सुख शांति आये ।"
एक दिन उदयकुँवर के पति पधारे तो उन्होंने उलाहना दिया ," तुम्हारी भाभी बाबाओं के बीच नाचती गाती है -- यह कैसी रीति है हिन्दू पति राणा के घर की ?"
उदयकुँवर ने दूसरे ही दिन मन की सारी भड़ास मीरा पर निकाल दी -"आपको पता है भाभी म्हाँरा ,आपके जँवाईसा पधारे है और आपके कारण मुझे उनके कितने उलाहने, कितनी बातें सुननी पड़ रही है ।"
मीरा ने शांत मन से कहा ," बाईसा ! जिनसे मेरा कोई परिचय याँ स्नेह का सम्बन्ध ही नहीं , उनके द्वारा दिए गये ।उलाहनों का कोई प्रभाव मुझ पर नहीं होता ।"
मीरा का शांत और उपेक्षित उत्तर सुन उदा मन ही मन जल उठी -" किन्तु भाभी आप इन बाबाओं का संग छोड़ती क्युँ नहीं ?सारे सगे -सम्बन्धियों में थू-थू हो रही है ।जब बावजी हुकम का कैलाश वास हुआ तब तो आप सोलह श्रृगांर कर आप शोक मनाती रही और अब ये तुलसी की मालाओं को हाथों और गले में बाँधे फिरती है जैसे कोई निर्धन औरत हो ।पूरा राजपरिवार आपके व्यवहार के कारण लाज से मरा जा रहा है ।"
मीरा ने उसी तरह शांत स्वर में कहा ," जिसने शील और संतोष के गहने पहन लिए हो, उसे सोने और हीरे- मोतियों की आवश्यकता नहीं रहती बाईसा ।"
उदयकुँवर और क्रोधित होकर कहने लगी ," किसी बहू -बेटी को कोई ढंग से सुसज्जित हो मिलने आये तो किसी को अच्छा भी लगे पर आपको तो मिलने वाले तो कोई करताल खड़काते , गेरूआ वस्त्र पहने ,विभूति लगाये , मुण्डित मस्तक , तुलसी और रूद्राक्ष की मालायें पहने, जटाओं वाले बाबाओं का ही झुंड आता दिखाई देता है जैसे शिव जी की बारात आ रही हो ।" उदा ने मुँह बिचकाया ।
मीरा मुस्कराई ,"बाईसा ! यहाँ शिव एकलिंग नाथ ही हैं तो उनकी बारात से लज्जित होना तो अच्छी बात नहीं है ।मैं तो अपने झरोंखों से झाँककर जब इन साधु बाबाओं को देखती हूँ तो फूली नहीं समाती, ब्लकि अपना भाग्य सराहती हूँ ।साधु-संग तो जगत से तार देता है बाईसा !" उदयकुँवर क्रोधित हो चली गई ।
इधर मीरा का यश बढ़ता जा रहा था ।मन्दिर में और महल की ड्योढ़ी पर यात्रियों और संतों की भीड़ लगी रहती । मीरा जब भी मन्दिर पधारती , मिथुला , चम्पा साथ ही रहती ।जो मीरा के भजन लिखना चाहते , वे चम्पा को घेरे रहते क्योंकि भजनों की पुस्तिका उसी के पास रहती ।मीरा ने ठाकुर जी को प्रणाम किया और फिर आये हुये संत भक्तों को भी । एक साधु ने मीरा के दर्शन कर गदगद कण्ठ से आग्रह किया ," माँ ! कुछ कृपा हो जाये........ ।"
मीरा ने विनम्रता से गाना प्रारम्भ किया ...........
राम कहिए, गोबिंद कही मेरे.....
....राम कहिए, गोबिंद कही मेरे।
संतो कर्म की गति न्यारी
..संतो
बड़े बड़े नयन दिए मृगनको,
बन बन फिरत उठारी।
उज्जवल बरन दीनि बगलन को,
कोयल करती निठारी।
संतो करम की गति न्यारी...
और नदी पण जल निर्मल कीनी
समुंद्र कर दिनी खारी..
.संतो कर्म की गति न्यारी...
मुर्ख को तुम राज दीयत हो,
पंडित फिरत भिखारी..
संतो कर्म की गति न्यारी.....संतो।।
क्रमशः ..............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (60)
क्रमशः से आगे..........
इन्हीं दिनों मेड़ते से कुँवर जयमल और उनके छोटे पुत्र भँवर मुकुन्द दास मीरा को लेने चित्तौड़ पधारे ।दस वर्ष के मुकुन्द दास की वीरता इतनी कि राजपूती गौरव ही देह धारण कर आया हो । दोनों परिवार के विचार विमर्श से रत्नसिंह की छः वर्ष की पुत्री श्यामकुँवर का ब्याह मुकुन्द दास के साथ कर दिया ।नयी बहू उसकी धाय माँ और मीरा के साथ नई बहू का सारा समान मेड़ता रवाना हुआ ।
मुकुन्द दास ने हुकम दाता वीरमदेव जी को चित्तौड़ का सब वृतान्त सुनाते हुये महाराणा विक्रमादित्य की ओछे स्वभाव के बारे में बताया और कहा," वह सारा समय भाँड और गवैयो के साथ रागरंग में डूबे नशा करते है ।सारे राज्य की बागडोर हिली हुई है ।और राणाजी बुवासा और उनकी भक्ति से बहुत नाराज़ है ।"
" मेरे फूफासा ( भोजराज ) कैसे थे बाबोसा ?"
" क्या कहूँ बेटा ! जैसे शांत रस रूप में घुलकर एक हो जाये , जैसे सोने में सुगंध मिल जाये । जैसे कर्तव्य और भक्ति मिल जायें, वैसे ही रूप ,
गुण और वीरता का भंडार था मेरा जवाई ।जैसे तेरी बुवासा भक्ति करती है, कोई और होता तो कितने विवाह कर लेता । मेवाड़ के राजकुवंर को बीनणी की क्या कमी थी पर उन्होंने पहले से ही दूसरे विवाह के लिए मना कर दिया था ।श्याम कुंभ के पास जो मन्दिर है न, वह तेरे फूफोसा ने ही बुवासा के लिए बनवाया था ।"
मीरा इतने बरसों के बाद मेड़ता आई ।मायके में न चिन्ता करने वाली माँ थी और न पिता जी ।वह कुछ बरस पहले ही युद्ध में मातृभूमि के लिए वीरगति को प्राप्त हो गये थे । मेड़ता में आकर मीरा ने जगत का परिवर्तनशील रूप देखा ।जिस महल में उसका बचपन माँ के साथ बीता था उसमें जयमल और उनकी पत्नी रहती है ।छोटे छोटे बालक जवान हो गये थे और जवानों के विवाह और बालक हो गये ।दाता हुकम (वीरम देव जी) थोड़े थोड़े दूदाजी की तरह ही दिखने लगे थे ।वैसे ही दूदाजी के पलंग पर विराज कर माला फेरते हुये अपनी काली धोली दाढ़ी को सँवारते पोते पोतियों से बतियाते........ ।मीरा को स्मरण हो आया अपना बचपन - जब पाँच बरस की मीरा आँखों में आँसू भरे पलंग के पास खड़ी पूछ रही है - "बाबोसा ! एक बेटी के कितने बींद होते है ?""
उसकी आँखों में आँसू और होंठों पर हँसी तैर गई । बाबोसा उसके सुघड़ शिल्पी , उन्होंने ही तो गढ़ा था उसे ।वे ही तो जगत में उसके पहले और सबसे बड़े अवलम्ब थे ।और दूसरे महाराजकुमार ( भोजराज ) , दोनों ही छोड़ गये ।
" दाता हुकम ! आप तो बाबोसा जैसे दिखने लगे है !" मीरा ने स्वयं को संभालते हुये कहा ।
" अब तो बुढ़ापा आ ही गया है बेटा ! चित्तौड़ के क्या हाल सुन रहा हूँ ।कहते है राणा जी राग-रंग में डूबे रहते है ।चौकियाँ भी सब ढीली है ।"
"बाबोसा ! राजमद सब पचा नहीं पाते ।"
वीरमदेव जी ने मीरा को नई नन्हीं बींदनी श्याम कुँवर का विशेष ध्यान रखने का कहा ताकि वह उदास न हो ।मीरा बाबोसा को प्रणाम कर निकली तो उसके पग स्वभावतः श्याम कुन्ज की ओर बढ़ चले ।
मीरा और गिरधर के आने से श्याम कुन्ज फिर से आबाद हो गया था, मानों उसके प्राण ही लौट आये हो ।मीरा ने पहले की तरह ही अपने गिरधर के लिए तान छेड़ी.........
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी ........
क्रमशः .................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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