मीरा जीवन कथा 8

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मीरा चरित ( 76 )

क्रमशः से आगे ...............

  मीरा अपने भाव आवेश में ही थी। श्री श्यामसुन्दर उससे हँस हँस कर बातें कर रहे थे। वह लज्जा वश अभी कुछ मन की कह भी न पाई थी कि श्यामसुन्दर न जाने कहाँ चले गये ।नयन और ह्रदय अतृप्त ही रह गये और वह रूप-रस का सरोवर लुप्त हो गया।

अभी तक तो दासियाँ उसे बाहर बरखा में भावावेश में प्रसन्नता से भीगता हुआ देख रही थी -अब उन्हें मीरा का विरह प्रलाप सुनाई दिया ," हे नाथ ! मुझे आप यूँ यहाँ अकेले छोड़ कर क्यूँ परदेस चले गये ? देखो , श्रावण में सब प्रकृति प्रसन्न दिखाई पड़ती है -पर आपके दर्शन के बिना मुझे कुछ भी नहीं सुहाता। मेरा ह्रदय धैर्य नहीं धारण कर पा रहा नाथ ! मैंने अपने आँसुओ में भीगे  आपको कितने ही संदेश ,कितने ही पत्र लिख भेजे है, मैं कब से आपकी बाट निहारती हूँ ...... आप कब घर आयेंगे ? हे मेरे गिरधर नागर ! आप मुझे कब दर्शन देंगे ? "

दासियाँ स्वामिनी को किसी प्रकार भीतर ले गई , किन्तु मीरा के भावसमुद्र की उत्ताल तरंगे थमती ही न थी -" आप मुझे भूल गये न नाथ ! आपने तो वचन दिया था कि शीघ्र ही आऊँगा। अपना वह वचन भी भूल गये ? निर्मोही ! तुम्हारे बिन अब मैं कैसे जीऊँ ? सखियों ! श्यामसुन्दर कितने कठोर हो गये है ?"

देखो सइयाँ हरि मन काठों कियो ।

आवन कहगयो अजहुँ न आयो करि करि वचन गयो।
खानपान सुधबुध सब बिसरी कैसे करि मैं जियो॥

वचन तुम्हारे तुमहि बिसारे मन मेरो हरि लियो।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर तुम बिन फटत हियो॥

दासियाँ प्रयत्न करके थक गई, किन्तु मीरा ने अन्न का कण तक न ग्रहण किया। रह रह कर जब बादल गरज उठते और मोर पपीहा गाते तो वह भागकर बाहर की ओर भागती-" हे मतवारे बादलों ! क्या तुम दूर देस से उड़कर मुझ विरहणी के लिए मेरे प्रियतम का संदेश लाये हो ?"

मतवारे बादल आये रे.....
   हरि का संदेसो कबहुँ न लाये रे ॥

दादुर मोर पपीहा बोले .....
     कोयल सबद सुनाये रे ॥

कारी अंधियारी बिजुरी चमकें...
    बिरहणि अति डरपाये रे ॥

गाजे बाजे पवन मधुरिया ....
    मेहा मति झड़ लाये रे ॥

कारो नाग बिरह अति जारी...
     मीरा मन हरि भाये रे ॥

इधर न उसकी आँखों से बरसती झड़ी थमती थी और न गगन से बादलों की झड़ी। उसी समय कड़कड़ाहट करती हुई बिजली चमकी और बादल भयंकर रूप से गर्जन कर उठे। श्रावण की भीगी रात्रि में श्री कृष्ण के विरहरस में भीगी  मीरा भयभीत हो किन्हीं बाँहों की शरण ढूँढने लगी........

बादल देख डरी हो स्याम मैं बादल देख डरी।

काली पीली घटा उमड़ी बरस्यो एक घड़ी ।
जित जोऊँ तित पाणी पाणी हुई हुई भौम हरी॥

जाकाँ पिय परदेस बसत है भीजे बाहर खरी।
मीरा के प्रभु हरि अविनाशी कीजो प्रीत खरी॥

बादल देख डरी हो स्याम मैं ....

क्रमशः ....................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 77)

क्रमशः से आगे ...................

श्रावण की रात्रि में मीरा श्री कृष्ण के विरह में व्याकुल अपने महल के बाहर आंगन में झर झर झरती बूँदो को देख रही है ।उसे महल के भीतर रहना ज़रा भी सुहा नहीं रहा । दासियाँ उसे विश्राम के लिए कह कहकर थक गई है , पर वह अपलक वर्षा की फुहार को निहारे जा रही है।

 प्रेमी ह्रदय का पार पाना , उसे समझना बहुत कठिन होता है। क्योंकि भीतर की  मनोस्थिति ही प्रेमी के बाहर का व्यवहार निश्चित करती है। अभी तो मीरा को बादल गरज गरज कर और बिजुरिया चमक चमक कर भयभीत कर रहे थे। और अभी एकाएक मीरा की विचारों की धारा पलटी - उसे सब प्रकृति प्रसन्न और सुन्दर धुली हुई दिखने लगी।

         मीरा भाव आवेश में पुनः बरसाने के उपवन में पहुँच कर प्रियालाल जी की झूलन लीला दर्शन करने लगी ---" कदम्ब की शाखा पर अति सुसज्जित रेशम की डोरी से सुन्दर झूला पड़ा हुआ है। सखियों ने झूले को नाना प्रकार के रंगों और सुगंधित फूलों से सुन्दर रीति से आलंकृत किया है । श्रीराधारानी और नन्दकिशोर झूले पर विराजित है और सखियाँ मधुर मधुर ताल के साथ तान ले पंचम स्वर में गा रही है।कोयल और पपीहरा  मधुर रागिनी में स्वर मिला कर सखियों का साथ दे रहे है ।शुक सारिका और मोर विविध नृत्य भंगिमाओं से प्रिया प्रियतम की प्रसन्नता में उल्लसित हो रहे है। हे सखी ! ऐसी दिव्य  युगल जोड़ी के चरणों में मेरा मन बलिहार हो रहा है ।"

          बरसती बरखा में श्री राधा श्यामसुन्दर के इस विहार को वह मुग्ध मन से निहारते गाने लगी........

आयो सावन अधिक सुहावना
     बनमें बोलन लागे मोर||

उमड़ घुमड़ कर कारी बदरियाँ
      बरस रही चहुँ और।
     अमुवाँ की डारी बोले कोयलिया
     करे पप्पीहरा शोर||

चम्पा जूही बेला चमेली
     गमक रही चहुँ ओर।
     निर्मल नीर बहत यमुना को
     शीतल पवन झकोर||

वृंदावन में खेल करत है
     राधे नंद किशोर।
     मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर
     गोपियन को चितचोर||

चार-चार, छ:-छ: दिन तक मीरका आवेश नहीं उतरता। दासियोंके सतत प्रयत्न से ही थोड़ा पेय अथवा नाम-मात्रका भोजन प्रसाद उनके गले उतर पाता।

क्रमश:..................

||श्री राधारमणाय समर्पणं||

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मीरा चरित ( 78 )

 क्रमशः से आगे ..............

महाराणा विक्रमादित्य के मन का परिताप ,क्रोध मीरा के प्रति बढ़ता ही जा रहा था ।वह अपनी प्रत्येक राजनीतिक असफलता के लिए , परिवारिक सम्बन्धों की कटुता के लिए मीरा को ही दोषी ठहरा रहा था ।

सौहार्द से शून्य वातावरण को देखकर मीरा के मन की उदासीनता बढ़ती जा रही थी। प्राणाराध्य की भक्ति तो छूटने से रही , भले ही सारे अन्य सम्बन्ध टूट जाए। परिवार की विकट परिस्थिति में क्या किया जाये , किससे राय ली जाये ,कुछ सूझ नहीं रहा था।मायके याँ ससुराल में उसे कोई ऐसा अपना  नहीं दिखाई दे रहा था , जिससे वह मन की बात कह कोई सुझाव ले सके।  भक्तों को तो एकमात्र गुरूजनों का याँ संतो का ही आश्रय होता है। मीरा ने कुछ ही दिन पहले रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास जी की भक्ति -महिमा और यश-चर्चा के बारे में सुना था।एक भक्त की स्थिति को एक भक्त याँ संत ही सही समझ सकता है ,अपरिचित होते ही भी दो भक्तों में एक रूचि होने से एक आलौकिक अपनत्व का सम्बन्ध रहता है। सो , मीरा ने उनसे पथ प्रदर्शन के आशय से अपने ह्रदय की दुविधा को  पत्र में लिख भेजा .........।

स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषण दूषण हरण गुँसाई।
बारहिं बार प्रणाम करऊँ अब हरहु सोक समुदाई॥

घर के स्वजन हमारे जेते सबन उपाधि बढ़ाई।
साधु-संग अरू भजन करत मोहि देत कलेस महाई॥

बालपन में मीरा कीन्हीं गिरधर लाल मिताई ।
सों तो अब छूटत नहिं क्यों हूँ लगी लगन बरियाई॥

मेरे मात पिता सम तुम हो हरिभक्तन सुखदाई ।
मोंको कहा उचित करिबो अबसो लिखियो समुझाई॥

पत्र लिखकर मीरा ने श्री सुखपाल ब्राह्मण को बुलवाया और कहा ,"पंडित जी ! आप यह पत्र महाराज श्री तुलसीदास गुँसाई जी को जाकर दीजियेगा ।उनसे हाथ जोड़ कर मेरी ओर से विनती कर कहियेगा कि मैंने पिता सम मानकर मैंने उनसे राय पूछी है , अतः मेरे लिए जो उचित लगे , सो आदेश दीजिये। बचपन से ही भक्ति की जो लौ लगी है ,सो तो अब कैसे छूट पायेगी। वह तो अब प्राणों के साथ ही जायेगी। भक्ति के प्राण सत्संग हैं और घर के लोग सत्संग के बैरी है संतों के साथ मेरा उठना-बैठना , गाना-नाचना और बात करना उन्हें घोर कलंक के समान लगता है ।नित्य ही मुझे क्लेश देने के लिए नये नये उपाय ढूँढते रहते है ।स्त्री का धर्म है कि घर नहीं छोड़े , कुलकानि रखे , शील न छोड़े , अनीति न करे , इनके विचार के अनुसार मैंने घर के अतिरिक्त सब कुछ छोड़ दिया है। अब आप हुकम करें कि मेरे लिए करणीय क्या है ? मेरे निवेदन को सुनकर वे जो कहें ,वह उत्तर लेकर आप शीघ्र पधारने की कृपा करें ,मैं पथ जोहती रहूँगी। "

क्रमशः ...............

॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 79)

क्रमशः से आगे ................

मीरा चित्तौड़ की परिस्थिति से ,परिवारिक व्यवहार से उदासीन थी ।सो , उसने अपने मन की दुविधा को एक पत्र में लिखा और अत्यंत अपनत्व से मार्ग दर्शन पूछते हुए  उसने  सुखपाल ब्राह्मण को तुलसीदास गोस्वामी जी के लिए पत्र दिया और उन्हें शीघ्र उत्तर लेकर आने की प्रार्थना भी की।

" पण हुकम ! तुलसी गुँसाई म्हाँने मिलेगा कठै ( कहाँ )? वे इण वकत कठै बिराजे ? " पंडित जी ने पूछा। 

" परसों चित्रकूट से एक संत पधारे थे ।उन्होंने भी मुक्त स्वर से सराहना करते हुये मुझे तुलसी गुँसाई जी की भक्ति , वैराग्य , कवित शक्ति आदि के विषय में बताया था ।उनका जीवन वृत्त कहकर बताया कि इस समय वे भक्त शिरोमणि चित्रकूट में विराज रहें है । आप वहीं पधारे ! जैसे तृषित जल की राह तकता है , वैसे ही मैं आपकी प्रतीक्षा करूँगी।" इतना कहते कहते मीरा की आँखें भर आई।

           " संत पर साँई उभो है हुकम ! ( सच्चे लोगों का साथ सदा भगवान देते है ) आप चिन्ता न करें। " श्री सुखपाल ब्राह्मण मीरा को आशीर्वाद देकर चल पड़े ।

कुछ दिनों की प्रतीक्षा के पश्चात जब वह ब्राह्मण तुलसीदास जी का पत्र लाये तो वह पत्र पढ़कर मीरा का रोम-रोम पुलकित हो उठा। उसने आनन्द से आँखें बन्द कर ली तो बन्द नेत्रों से हर्ष के मोती झरने लगे। उसने तुलसीदास जी के पत्र का पुनः पुनः मनन किया ............

जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम स्नेही॥

तज्यो पिता प्रह्लाद विभीषण बंधु भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रजबनितनि भये मुद मंगलकारी॥

नातो नेह राम सों मनियत सुह्रद सुसेव्य लौं।
 अंजन कहा आँखि जेहि फूटे बहु तक कहौं कहाँ लौं॥

तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्राण ते प्यारो।
जासो बढ़े सनेह राम पद ऐसो मतो हमारो॥

 मीरा तुलसीदास जी के लिखे शब्दों की सत्यता से अतिशय आनन्दित हुई -" जिसका सिया राम जी से स्नेह का सम्बन्ध न हो, वह व्यक्ति चाहे कितना भी अपना हो, उसे अपने बैरी के समान समझ कर त्याग कर देना चाहिये। जिस प्रकार प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु  का ,विभीषण ने भाई रावण का,भरत ने माँ कैकयी का , राजा बलि ने गुरु शुक्राचार्य का , और ब्रज की गोपियों ने पति का त्याग किया तथा ये त्याग इन सबके लिए अति मंगलकारी हुआ। ऐसे अंजन के प्रयोग से क्या लाभ जिससे कल को आँख ही फूट जाये तथा ऐसे सम्बन्ध का क्या लाभ जिससे हमें अपने इष्ट से विमुख होना पड़े। तुलसीदास तो शास्त्रों के आधार पर यही सुमति देते है कि हमारे अपने और हितकारी तो इस जगत में बस वही है जिनके सुसंग से हमारी भक्ति श्री सीता राम जी के चरणों में और प्रगाढ़ हो। "

मीरा ने उठकर श्री सुखपाल ब्राह्मण के चरणों में सिर रखा और अतिशय आभार प्रकट करते हुये बोली ," क्या नज़र करूँ ?इस उपकार के बदले मैं आपको कुछ दे पाऊँ- ऐसी कोई वस्तु नज़र नहीं आती ।" फिर उसने भरे कण्ठ से कहा ," आपने मेरी फाँसी काटी है। प्रभु आपकी भव -फाँसी काटेंगे ।आपकी दरिद्रता को दूर करके प्रभु अपनी दुर्लभ भक्ति आपको प्रदान करें , यह मंगल कामना है। यह थोड़ी सी दक्षिणा है। इसे स्वीकार करने की कृपा करें।" मीरा ने उन्हें भोजन कराकर तथा दक्षिणा देकर विदा किया।

क्रमशः ........

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 80 )

क्रमशः से आगे ...................

 संत तुलसीदास जी से अनुमति एवं आशीर्वाद पा मीरा ने उसी निर्देशित राह पर पग बढ़ाने का निश्चय किया । चित्तौड़ के लोगों , महलों , चौबारों से और विशेषतः भोजराज द्वारा बनाए गये मन्दिर आदि सभी से मीरा अपना मन उधेड़ने लगी। मेड़ते में मीरा का पत्र पहुँचा तो वीरमदेव जी ने तुरन्त जयमल के पुत्र मुकुन्द दास और श्याम कुँवर ( मीरा के देवर रत्न सिंह की पुत्री ) को चित्तौड़ मीरा को लिवाने के लिए भिजवाया। वीरमदेव जी का आशय था कि बीनणी मायके में सबको मिल भी लेगी और जमाई मुकुन्द दास के साथ राणा मीरा को बिना किसी तर्क के शांति से मेड़ते जाने भी देगा।

जब मुकुन्द दास और श्याम कुँवर मीरा के महलों में पहुँचे तो मीरा ने ममत्व की खुली बाँहों से दोनों को  स्वागत किया। एक में भाई जयमल की छवि थी तो दूसरे में देवर रत्न सिंह की। श्याम कुंवर ने मां और पिता के जाने के पश्चात मीरा को ही माँ जाना था। मीरा ने दोनों को अच्छे से दुलारा ,खिलाया पिलाया और कहा ," थोड़ा विश्राम कर लो तो  काकीसा और दादीसा को भी मिल आना। उनके लिए भी तो देखने को बस तुम्हीं हो। मैं तो तुम्हारे साथ ही अब मेड़ता चलूँगी। "

श्याम कुँवर माँ की गोद में सिर रखकर रोते हुई बोली ," मेरे तो प्रियजन और सगे सम्बन्धी आपके चरण ही है म्होटा माँ !आपका हुकम है तो सबसे मिल आऊँगी। अपने मातापिता तो मुझे स्मरण ही नहीं है। मैंने तो आपको और दादीसा को ही मातापिता जाना है। वँहा सुना करती थी कि काकोसा हुकम आपको बहुत दुख देते है -तो मैं बहुत रोती थी। पता नहीं किस पुण्य प्रताप से आप चित्तौड़ को प्राप्त हुई पर मेरे पितृ वंश का दुर्भाग्य को देखिए, जो घर आई गंगा का लाभ भी नहीं ले पा रहे है ।वहाँ भी मैं मन ही मन पुकारा करती थी कि मेरी म्होटा माँ को दुख मत दो .....प्रभु !"

बेटी के आँसू पौंछते हुये मीरा ने कहा," मुझे कोई दुख नहीं मेरी लाडली पूत ! तू ऐसे ही अपने मन को छोटा कर रही है। उठ ! गिरधर का प्रसाद ले !"

श्यामकुँवर ने प्रसाद लिया और फिर सिसकने लगी ," इस प्रसाद की याद करके न जाने कितनी बार छिप छिप कर आँसू बहाये है। कितने बरस के बाद यह स्वाद मिला है ?"

" बेटा ! तुम मुझे बहुत प्रिय हो। तुम्हारी आँखों में आँसू मुझसे देखे नहीं जाते। अब उठो ! स्नान कर गिरधर के दर्शन करो !" मीरा के बार बार कहने पर श्याम कुँवर ने स्नान कर गिरधर के दर्शन किए तो फिर उसकी आँखों से आँसू बह चले ," म्हाँरा वीरा ! अगर तुम ही मुझे बिसार दोगे तो मैं किसकी आस करूँगी ?" अपने त्रिलोकीनाथ भाई के चरणों को उसने आँसुओं से धोकर मन के उलाहने आँखों के रास्ते बहा दिये ।

राणा का मीरा के प्रति व्यवहार बेटी और जमाई के आने से एकदम बदल गया ।कभी वह स्वयं गिरधर के दर्शन के लिए आ जाता याँ कभी भगवान के लिए कुछ न कुछ उपहार भिजवा देता। मीरा ने सोचा शायद लालजीसा में परिवर्तन आ गया है पर दासियों को कभी भी राणाजी पर विश्वास नहीं आता था ।उन्हें महलों से आई प्रत्येक वस्तु पर  शंका होती थी और वह सावधानी से सबकी परख स्वयं करती।

क्रमशः ..............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (81 )

क्रमशः से आगे.............

श्याम कुंवर ने काकोसा का यह बदला व्यवहार देखा तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। मीरा के महल में होली के उत्सव की तैयारियाँ चल रही है।

मीरा ने श्याम कुंवर की मनोधारा बदलते हुए उसे भी उत्सव का  उत्साह दिलाया।श्याम कुंवर को श्री कृष्ण की वेशभूषा पहनाई गई , मीरा स्वयं बनी राधा और दासियाँ सखियों के रूप में थीं ही । बनी राधा और दासियाँ सखियों के रूप में थीं ही ।होली की पदपदावली का गायन आरम्भ हुआ।  थोड़ी ही देर में सब ज़गह रंग की ही फुहार पड़ रही थी..........

साँवरो होली खेल न जाँणे ।
    खेल न जाणे खेलाये न जाँणे ॥

बन से आवै धूम मचावे
     भली बुरी नहीं जाँणे ।
    गोरस के मिस सब रस चाखे
    भोर ही आँण जगावै॥
    ऐसी रीत पर घर म्हाँणे,
    साँवरो होली खेल न जाँणे॥

छैलछबीलो महाराज साँवरिया
     दुहाई नंद की न माँणे।
     मीरा के प्रभु गिरधर नागर
     तट यमुना के टाँणे ॥
     मेरो मन न रह गयो ठिकाँणे,
     साँवरो होली खेल न जाँणे॥

होली खेलते खेलते मीरा के अंग शिथिल हो गये और नयन स्थिर हो गये। वह भाव राज्य में प्रवेश कर देखती है........." वह बरसाना जा रही है।आज होरी है। शीघ्रता से वह पद बढ़ाये जा रही है। श्याम जू के संग होरी खेलने के लिए सखियों ने बुलाया है । श्यामसुंदर भी सखाओं  के साथ पहुँचते ही होंगे बरसाने ......... कहीं राह में ही न भेंट हो जाए ............ मैं अकेली हूँ और वे बहुत से। कैसे पार पड़ेगी ?तभी दाऊ दादा की डफ के साथ कई कण्ठों से समवेत स्वर सुनाई दियो--" होरी खेलन को आयो री नागर नन्द कुमार ।" मैं चौंक कर एक झाड़ी की ओट में हो गई और देखा सब तो वहाँ थे पर एक श्याम न हते। विशाल दादा के के सिर पर रंग को घड़ा और सबके कंधों पर अबीर गुलाल की झोरी। सब बहुत उत्साह में नाचते गाते फिरकी लेते बढ़ रहे थे ।सबके पीठ पै ढाल बंधे थी। वे आगे चले गये तो मैंने संतोष की सांस ली और जैसे ही चलने को उद्यत हुई , किसी ने पीछे से आकर मुख पर गुलाल मल दी। मैं चौंक कर खीजते हुई बोली --" अरे , कौन है लंगर ( ढीठ ) ?"

क्रमशः ...................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 82 )

क्रमशः से आगे ............

मीरा के महल में रंगीली होली का उत्सव है। श्यामकुँवर ने श्यामसुन्दर की वेशभूषा पहनी है ,मीरा ने राधारानी की ।भावावेश में मीरा बरसाने की होली के लिए जा रही है कि राह में पीछे से आकर किसी ने मुख पर गुलाल मल दी - " अरे कौन है रे लंगर ?"

 मैं सचमुच खीज गईं थी -उधर पहुँचने की जल्दी थी ,वहाँ किशोरीजू और कान्हा जू के साथ होली जो खेलनी थी।" और यह कौन आ गया -बीच में मूसरचंद।" एकदम पल्टी मैं। देखा तो, श्यामजू दोनों हाथों में गुलाल लिए हँसते खड़े थे -" सो लंगर तो मैं हूँ सखी ! मन न भरा हो तो एक -दो गाली और दे दे। "

उनको देख कर एकबार तो लाज के मारे पलकें झुक गई। फिर होरी में लाज को क्या काज है , सोचकर मैनें नज़र उठाई -मैं .......भी तोको गुलाल लगाये दूँ ? "

 मेरी बात पर वे ठठाकर हँस पड़े-। " अरे होली में कोई पूछकर रंग लगाता है भला ? यह होरी तो बरजोरी का त्यौहार है। जो मैं कह दूँ नहीं लगाना ? मान जायेगी क्या ?" वह और ज़ोर से हँसने लगे।

" तो.......तो ......" मैंने एक ही क्षण सोचा पर खीज में झपटकर उन्हीं की झोली से दो मुट्ठियों में अबीर और गुलाल भरा , और इससे पहले कि वे पीछे हटें , उनके मुख पर अच्छे से गुलाल मल दिया ।बस हाथ मैं अभी नीचे भी नहीं कर पाई थी कि श्यामसुन्दर ने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये और बोले ," ठहर , अब मेरी बारी है। "

थोड़ा खींचातनी हुई तो हाथ तो छुड़ा लिए और मैं भागी पर इसी बीच मेरी ओढ़नी का छोर उनके हाथ में आ गया। मैं लज्जा से दौड़ कर आम के वृक्ष के पीछे छिपकर खड़ी हो गई।

      " ऐ मीरा ! यह ले चुनरी अपनी ।मैं इसका क्या करूँगा ?" उन्होंने कहा।

           " वहीं धर दो। मैं ले लूँगी ।" मैंने लाज से धीमे से कहा ।

         " लेनी है तो आकर ले जा। नहीं तो मैं बरसाने जा रहा हूँ। "
           " नहीं ! तुम्हीं यहाँ आकर दे जाओ। " मैंने विनय की।
           " अच्छा !यह ले पकड़ ।" उन्होंने कहा।

 मैं श्याम जू से बचने के लिए वृक्ष के तने की परिक्रमा -सी करने लगी। वे इधर तो मैं उधर। आखिर झल्ला कर खड़े हो गये -" समझ गया। तुझे चुनरी नहीं चाहिए। मुझे देर हो रही है , अभी कोई न कोई सखा मुझे ढूँढता आता होगा। "

उन्होंने जैसे ही जाने के लिए पीठ फेरी , मैंने दबे पाँव उनका उत्तरीय ( पटका ) खींच लिया और भागी .......मैं पूरे प्राणों का ज़ोर लगा कर बरसाना की ओर भागी।

         " ए बंदरिया ! ठहर जा ।अभी पकड़ता हूँ। " ऐसा कहते वह मेरे पीछे दौड़े।

जब बरसाना पास आया तो मैं लाज के मारे सोचने लगी -" ऐसे कैसे बिना चुनरी के जाऊं ?" पहले सोचा कि श्यामसुन्दर का दुपट्टा ओढ़ लूँ , पर नहीं। यह कैसे हो सकता है ? यह तो मैंने किशोरीजू के लिए लिया है। मैं ओढ़ लूँगी तो उन्हें क्या दूँगी ? मैंने पथ बदला और सखी करूणा के घर की तरफ चली। उसी के यहाँ से कोई चुनरी ले लूँगी। पीछे देखा तो कोई न था। श्यामसुन्दर सम्भवतः अपने सखाओं के साथ दूसरी ओर चले गये थे। फिर भी मैंने अपनी गति मन्द न होने दी ।उस छलिया का क्या भरोसा ? कौन जाने किस ओर से आ जाये ?

क्रमशः ...................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 83)

क्रमशः से आगे ..................

होली के रागरंग में मीरा भावावेश में बरसाना जा रही है। श्यामसुन्दर राह में मिल गये और मीरा को रंग दिया। होरी की छीनाझपटी में मीरा की चुनरी श्रीकृष्ण के पास और उनका दुपट्टा मीरा के पास है। मीरा कान्हा जी को दुपट्टा किशोरीजू को नज़र करना चाहती है ।राह में सखी करूणा के घर से चुनरी ले जब वह बरसाना पहुँचती है तो उसे महलों में रानियाँ और दासियों के अतिरिक्त कोई नहीं दीखता।
मन में उत्सुकता थी कि किशोरीजू कहाँ है ? मैं उनके कक्ष में गई तो वहाँ दया बैठी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी -" आ गई तू ? कहाँ रह गई थी ? चल अब जल्दी !"
मैं उसके साथ गिरिराज परिसर में पहुँची। होली की धूम मच रही थी वहाँ। एक ओर बड़े बड़े कलशों में लाल पीला हरा रंग घोला हुआ था। सखियों के कन्धों पर टंगी झोलियों में और हाथों पर अबीर गुलाल था। दोनों ओर कठिन होड़ थी। कभी नन्दगाँव से आये हुये श्यामसुन्दर के सखा और वे पीछे हटते और कभी किशोरीजू सहित हमें पीछे हटना पड़ता ।पिचकारियों की बौछार से और गुलाल की फुहार से सबके मुख -वस्त्र रंगे थे। किसी को भी पहचानना कठिन हो रहा था ।
मैंने उस रंग की घनघोर बौछार में विशाखा जीजी को पहचान लिया। वे किशोरी जी की बाँई ओर थी। समीप जाकर मैंने धीमे से उनके कान में दुपट्टे की बात कही , किन्तु उसी समय श्याम जू और उनके सखाओं ने इतनी ज़ोर से हा-हा हू-हू की कि जीजी बात सुन ही न पाई। मैंने दुपट्टा निकाल कर उन्हें दिखाना चाहा , तभी पिचकारी की तीव्र धार मेरे मुँह पर पड़ी। मैंने उधर देखा तो श्यामसुन्दर ने मुँह बिचकाकर अँगूठा दिखा दिया। दूसरे ही क्षण उन्होंने डोलची से मेरी पीठ पर इतनी ज़ोर से रंग वाले पानी की बौछार की कि मैं पीड़ा से दोहरी हो गई । विशाखा जीजी हाथ पकड़ कर मुझे दूर ले गई -" अब कह क्या हुआ ?"
" यह देखो , कान्हा जू का उत्तरीय " मैंने दुपट्टा उनके हाथ में देते हुये कहा।
" यह कहाँ ,कैसे मिला ?" जीजी ने पूछा।
मैंने सब बात कह सुनाई तो वह प्रसन्न हो हँस पड़ी -" सुन अब श्यामसुन्दर को पकड़ पाये तो बात बने। बारबार हमारी मोर्चाबंदी को उनके सखा तोड़ देते है ।"
" जीजी ! आज श्याम जू मुझसे चिढ़े हुये है ,अतः मुझे ही अधिक परेशान करेंगे ।मैं आगे रहूँ तो अवश्य मुझे व रंगने याँ गिराने का प्रयास करेंगे। मैं कुछ आगे बढ़ूँगी तो वह भी आगे बढ़ेगें। जैसे ही वे मुझे गुलाल लगाने लगे , बस तभी दोनों ओर से सखियाँ उन्हें घेरकर पकड़ ले ।"
" बात तो उचित लगती है तेरी ।पर यह उत्तरीय पहले कहीं छिपा कर रख दूँ " जीजी ने प्रसन्न होते हुये कहा। मेरी राय सबको पसन्द आई। श्री किशोरीजू को संग लेकर मैं आगे आ गई और हँस हँस कर उनके ऊपर रंग डालने लगी। मेरी हँसी उन्हें चिढ़ा रही थी। मेरी चुनरी से उन्होंने अपनी कटि में फेंट बाँध रखी थी ।
मैं थोड़ा श्यामसुन्दर को ललकारती आगे बढ़ती हुई बोली ," हिम्मत है तो अब रंग लगा के दिखाओ ! मैं भी देखूँ , कितना दम है तुम में।!"
"ठहर जा तू ! " दोनों हाथ की मुट्ठियों में गुलाल भर कर जैसे ही मेरी ओर बढ़े , पीछे से सखा भी आ गये।
" अहा , हाँ बलिहार जाऊँ ऐसी हिम्मत पर। " मैनें चिढ़ा कर हँसते हुये कहा -" सखाओं की फौज़ लेकर पधार रहें हैं महाराज ! मुझसे निपटने ! अरे , तुमसे तो मैं ही अच्छी हो जो कि अकेली ललकार रही हूँ। आओ ज़रा देखें भला कौन जीते और कौन हारे ?"
श्रीकृष्ण वाकई चिढ़ गये थे। सखाओं को बरज करके वे अकेले ही दौड़े आगे आये। मैं एक दो पद पीछे हट गई, और जोश में आ तीव्र गति से श्याम जू ने मुझे अच्छे से पकड़ कर रंग दिया। मेरे हाथों में थमी अबीर बिखर गई । अपना मुख बचाने के लिए मैंने उनके कंधे पर धर दिया।

क्रमशः .................

॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 84 )

क्रमशः से आगे.............

 मीरा के महल में होली का उत्सव है। वह भावावेश में गिरिराज परिसर में किशोरीजू की सखियों के संग मिल श्यामसुन्दर के साथ होली खेल रही है।विशाखा से परिमर्श कर वह  ठाकुर की घेराबन्दी के लिए उनकी हिम्मत को ललकारती आगे बढ़ी तो ललित नागर ने उसे ही  पकड़ कर अच्छे से रंग दिया ।

मेरे हाथों में थमी अबीर बिखर गई और अपना मुख बचाने के लिए मैंने उनके कंधे पर धर दिया।

        " ए, मेरा उत्तरीय कहाँ छिपाया है तूने ?" उन्होंने एक हाथ से मुझे पकड़े हुये और दूसरे हाथ से मुझे गुलाल मलते हुये कहा ।

मुझे कहाँ इतना होश था कि किसी बात का जवाब दे पाऊँ ।ये धन्य क्षण ,यह दुर्लभ अवसर , कहीं छोटा न पड़ जाये , खो न जाये ......मेरे  हाथ पाँव ढीले पड़ रहे थे , मन तो जैसे डूब रहा था उस स्पर्श , सुवास,  रूप और वचन माधुरी में।

        " ए , नींद ले रही है क्या मज़े से ? " उन्होंने मुझे झकझोर दिया -" मैं क्या कह रहा हूँ , सुनती नहीं ?" फिर धीरे से कहा ," कहाँ है दे दे न, यह ले तेरी चुनरी ......ले ......। "

मेरा सुझाव काम कर गया। मुझसे उलझे रहने से श्याम जू को पता ही नहीं चला कि कब चारों ओर से सखियों ने उन्हें घेर लिया।

         " यह तो हम से धोखा किया। " उन्होंने और सखाओं ने चिल्ला कर कहा , पर सुने कौन ? सखियाँ उन्हें पकड़ कर गिरिराज निकुन्ज में ले चली। जाते जाते मेरी ओर देखकर ऐसे संकेत किया -" ठहर जा , कभी बताऊँगा तुझे। "

सखियों ने मिलकर श्याम जू को लहंगा फरिया पहना उन्हें छोरी बनाया और फिर श्रीदाम भैया से उनकी गाँठ जोड़ी। दोनों का ब्याह रचाया। खूब धूम मची ।सखियों ने तो अपनी विजय की प्रसन्नता में कितना हो -हल्ला किया। गाजे -बाजे के साथ बनोली निकली। सखियाँ गीत गा रही थी ।उनके सखा बाराती बन श्रीदाम के साथ चले। श्याम जू बेचारे -विवश से चलते लहंगा -फरिया में रह रहकर उलझ जाते। ललिता जीजी दुल्हन की बाँह पकड़े संभाले थी। ब्याह के बाद दुल्हा - दुल्हन को श्री किशोरीजू के चरणों में प्रणाम कराया तो प्रियाजी ने भी उदार मन से दोनों को शगुण और आशीर्वाद दिया ।हम सब हँस हँस कर दोहरी हो रही थी ।

सन्धया में सबने मल मल कर स्नान किया और रंग उतारा। किशोरीजू ने उन्हें निकुन्ज में पधराया और सखियों ने भोजन कराया। उनके सखा जीम- जूठकर प्रसन्न हो विदा हुए। भोजन के समय भी विविध विनोद होते रहे।

श्री किशोरीजू ने प्रसन्न हो मेरा   हाथ थामकर  समीप खींचा -" आज की बाजी तेरे हाथ रही बहिन ! " कहकर उन्होंने स्नेह से चम्मच में बची खीर मेरे मुख में दे
दी। " अहा सखी ! उसका स्वाद कैसे बताऊँ तुम्हें ? उस स्वाद -सुधा के आनन्द को संभाल पाना मेरे बस में न रहा और मैं अचेत हो गई ।"

क्रमशः ............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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