मीरा जीवन कथा 7

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मीरा चरित (61)

क्रमशः से आगे ...............

मीरा के आने से मेड़ते में भक्ति की भागीरथी उमड़ पड़ी ।मीरा के दर्शन -सत्संग के लिए चित्तौड़ गये संत- महात्मा लौटकर मेड़ता आने लगे  ।श्याम कुन्ज की रौनक देखते ही बनती थी ।।मेड़ते से एक वर्ष के पश्चात मीरा ने चित्तौड़ पधारने के लिए प्रस्थान किया ।

चित्तौड़ की सीमा पर मीरा को दिखाई दिए उजड़े हुए गाँव जले हुए खेत , उजड़े हुये खेत और सताये हुये मनुष्य और पशु । ऊपर से सैनिक उन्हें कर के लिए और परेशान कर रहे थे ।चारों ओर अराजकता देख मीरा को बहुत दुख हुआ ।उसने प्रजा को यूँ विवश और दुखी देख अपने और दासियों के गहने उतरवा कर सैनिकों के दे दिये ।मीरा के चित्तौड़ पहुँचते ही क्रोधित होकर राणा उनके महल में पहुँच बरस पड़ा -" आज अर्ज कर रहा हूँ कि मुझे मेरा काम करने दें ।अब कभी बीच में न पड़ियेगा ।नहीं तो मुझसे बुरा कोई न होगा ।चारों ओर बदनामी हो रही है कि मेवाड़ की कुवंरानी बाबाओं की भीड़ में नाचती है ।सुन सुन कर हमारे कान पक गये , पर आपको क्या चिन्ता ।?"

एक भक्त को अपने ठाकुर जी से जुड़ी हर बात प्रिय लगती है यहाँ तक की इस भक्ति के सम्बन्ध से मिली बदनामी भी वह मधुर अमृत की तरह स्वीकार कर लेता है ।

शान्त, अविचलित , धीर, गम्भीर समुद्र की सी मुखमुद्रा धारण किए -मीरा ने अपना सदा का अवलम्बन तानपुरा उठाया और गाने लगी ........

या बदनामी लागे मीठी हो हिन्दूपति राणा ।
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मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर,
 चढ़ गयो रंग मजीठी हो हिंदूपति राणा॥
मजीठी -पक्का रंग , जिसके ऊपर कोई और रंग न चढ़ सके ।

क्रमशः ............................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित  (62)

क्रमशः से आगे ................

महाराणा का क्रोध मीरा के लिए षडयन्त्र के जाल बुनने लगा ।एक दिन उदयकुँवर बाईसा ने आकर मीरा से कहा- "राणाजी ने आपकी सेवा में यह दासियाँ भेजी है ।""

          " बाईसा! मेरी क्या सेवा है ? मेरे पास तो एक ही दो पर्याप्त है ।" मीरा ने हँस कर कहा ।" चलो लालजीसा ने भेजी है तो छोड़ पधारो ।"

दस बारह दिन बाद  मिथुला की सारी देह में दाह उत्पन्न हो गया । वैद्यजी आये और उन्होंने कहा कि छोरी बचेगी नहीं ।जाने- अन्जाने में पेट में विष उतर गया है ।

उस दिन मीरा मन्दिर में नहीं पधारी ।रसोई बंद रही ।दासियों के साथ समवेत स्वर में कीर्तन के बोलों से महल गूँजता रहा ।मिथुला का सिर गोद में लेकर मीरा गाने लगी-

हरि मेरे जीवन प्राण अधार ।
और आसरो नाहीं तुम बिन तीनों लोक मँझार॥
तुम बिन मोहि कछु न सुहावै निरख्यो सब संसार।
मीरा कहे मैं दासी रावरी दीजो मती बिसार॥��

          " बाईसा हुकम ! "मिथुला ने टूटते स्वर में कहा -" आशीर्वाद दीजिये कि जन्म -जन्मान्तर आपके चरणों की सेवा प्राप्त हो ।"

        " मिथुला ! तू भाग्यवान है ।" मीरा ने उसके सिर पर हाथ फैरते हुये कहा-" प्रभु तुझे अपनी सेवा में बुला रहे है ।उनका ध्यान कर, मन में उनके नाम का जप कर ।दूसरी ओर से मन हटा ले ।जाते समय यात्रा का लक्ष्य ही ध्यान में रहना चाहिए , अन्यथा यात्रा निष्फल होती है ।" मीरा ने मिथुला के मुख में चरणामृत डाला ।

" बाईसा हुकम ! देह में बहुत जलन हो रही है ।ध्यान टूट -टूट जाता है ।"

            "पीड़ा देह की है मिथुला ! तू तो प्रभु की दासी है ।अपना स्वरूप पहचान । पीड़ा की क्या मजाल है तेरे पास पहुँचने की ? देह की पीड़ा आत्मा को स्पर्श नहीं  करती पगली ! देख , ध्यान से सुन, मैं पद गाती हूँ , तू इसके अनुसार  प्रभु की छवि का चिन्तन करने का प्रयास कर.........

जब सों मोहि नन्दनन्दन दृष्टि पर्यो माई।
तब तें लोक परलोक कछु न सोहाई॥

मोरन की चँद्रकला सीस मुकुट सोहे।
केसर को तिलक भाल तीन लोक मोहे॥

कुण्डल की झलक अलक कपोलन पै छाई।
मनो मीन सरवर तजि मकर मिलन आई॥

कुटिल भृकुटि तिलक भाल चितवन में टोना।
खंजन अरू मधुप मीन भूले मृग छौना॥

सुन्दर अति नासिका सुग्रीव तीन रेखा।
नटवर प्रभु भेष धरें रूप अति विसेषा॥

अधर बिम्ब अरूण नैन मधुर मंद हाँसी।
दसन दमक दाड़िम दुति चमके चपला सी॥

छुद्र घंटि किंकणी अनूप धुनि सुहाई ।
गिरधर के अंग अंग मीरा बलि जाई ॥

मिथुला ने श्री कृष्ण का नाम ले देह त्याग दी ।मिथुला के यूँ जाने से चम्पा चमेली को ज्ञात हो गया था कि आने वाली दासियाँ कैसी है ।उन्होंने मिलकर मन्त्रणा कर सतर्कता से अपनी स्वामिनी के सारे कार्य स्वयं ही बाँट लिये ।पर फिर भी आये दिन कुछ न कुछ राणा की साजिश से घट ही जाता ।

क्रमशः ...................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (63)

क्रमशः से आगे.............

मीरा की प्रेम भक्ति , भजन-वन्दन की प्रसिद्धि फैलती जा रही थी ।महाराणा विक्रमादित्य ने बहुत प्रयत्न किया कि उनका सत्संग छूट जाये , परन्तु पानी के बहाव को और मनुष्य के उत्साह को कौन रोक पाता है ।सारंगपुर के नवाब ने मीरा की ख्याति सुनी तो वह अपने मन को रोक नहीं पाया ।अतः वह वेश बदल कर अपने वज़ीर के साथ वह मीरा के दर्शन करने के लिए हाजिर हुआ ।

दोनों वेश बदल कर घोड़े पर आये और मन्दिर में आकर साधु-सन्तों के पीछे बैठ गये ।मीरा मन्दिर की वेदी के समक्ष बाँई ओर अपनी दासियों के साथ विराजित थी ।घूँघट न होते हुये भी सिर के पल्लू से उसने मस्तक तक स्वयं को ढक रखा था ।चम्पा और अन्य कई साधु लिखने की सामग्री और पोथी लेकर बैठे हुए थे ।पर्दा खुलते ही सब लोग उठ खड़े हुये ।
" बोल गिरधरलाल की जय!"
" साँवरिया सेठ की जय !"

मीरा के तानपुरा उठाते ही चम्पा के साथ-ही -साथ कइयों की कलमें काग़ज़ पर चलने लगी ।मधुर राग-स्वर की मोहिनी ने सबके मनों को बाँध लिया ।भावावेग से मीरा की  बड़ी बड़ी आँखें मुँद गई ।शांति कैसी होती है, यह तो ऐसे सात्विक वातावरण में बैठे बहुत लोगों ने पहली बार ही जाना ।शाह के ह्रदय में तो सुख और शांति का समुद्र जैसे हिलोरें लेने लगा । यह उसके लिये एक आलौकिक अनुभव था ।

मैं तो साँवरे के रंग राची ।
साजि सिंगार बाँध पग घुँघरू ,
लोक लाज तजि नाचि रे......॥

  गई कुमति ,लई साधु की संगति,
     भगत रूप भई साँची ।
     गाये गाये हरि के गुण निसदिन,
      काल व्याल सों बाचि रे......॥

    उन बिन सब जग खारो लागत ,
     और बाट सब बाँचि रे ।
     मीरा श्री गिरधरन लाल की ,
     भकति रसीली जाँचि रे.....॥

    मैं तो साँवरे के संग राची......॥

मीरा के ह्रदय का हर्ष फूट पड़ा था ।उसकी आँखो से झरते आँसू तानपुरे पर गिर मोतियों की तरह चमक रहे थे ।रागिनी धीमी होती ठहर गईं ।सभी के मन धुले हुये दर्पण की तरह स्वच्छ उजले हो चमक उठे ।भजन पूरा होने पर भी उसकी आँखें न उघड़ी ।शाह प्रेम भक्ति का यह स्वरूप देख असमंजस में था ।वह उस प्रेम की ऊँचाईयों को मापने का प्रयत्न कर रहा था जिसमें खुदा के लिये यूँ झरझर आँसू झरते है ।

क्रमशः .....................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (64)

क्रमशः से आगे ...................

मीरा का  गान  विश्रमित हुआ तो एक साधु ने गदगद कण्ठ से कहा ," थोड़ी कृपा और हो जाये ।"

       " अब आप ही कृपा करें बाबा ! प्रभु के रूप -गुणों का बखान कर प्यासे प्राणों की तृषा को शांत करने की कृपा हो !" मीरा ने विनम्रता से कहा ।

          " यह तृषा कहाँ शांत होती है ?" दूसरे संत बोले -" यह तो जितनी बढ़े और दावानल का रूप ले ले, इसी में लाभ है । आप ही श्री श्यामसुन्दर के रूप माधुरी का पद सुनाईये ।"

मीरा ने तानपुरा उठा फिर तान छेड़ी ।समय एकबार फिर मधुर रागिनी की झंकार से बँध गया ........

बृज को बिहारी म्हाँरे हिवड़े बस्यो छे॥

कटि पर लाल काछनी काछे,
   हीरा मोती वालो मुकुट धरयो छे ॥

गहि रह्यो डाल कदम की ठाड़ो ,
      मोहन मो तन हेरि हँस्यो छे ॥

मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
     निरखि दृगन में नीर भरयो छे ॥

भजन पूरा होने के पश्चात भी कुछ देर तक वातावरण में आनन्दाधिक से सन्नाटा रहा ।फिर मीरा ही ने एक संत की ओर देखकर कहा ," आप कुछ फरमाईये कि सब लोग लाभान्वित हो ।"

तो किसी ने जिज्ञासा की - "गुरू कौन ? कहाँ मिले ? कैसे मिले ?"

संत कहने लगे ," सबसे पहले तो यह समझे कि गुरु का स्वरूप क्या है ? परम गुरु शिव ही है ।हम गुरु को देह रूप में भले देखते हो , पर उसमें जो गुरूतत्व है वह शिव ही है ।यह ठीक वैसे ही है जैसे शिवलिंग में शिव है ।हम पूजा अर्चना शिवलिंग की करते है , किन्तु उस पूजा को स्वीकार करनेवाले  शिव स्वयं है ,और वही हमारा कल्याण करते है ।गुरु की पाञ्चभौतिक देह, पूजा -भक्ति - श्रद्धा का माध्यम है किन्तु उपदेश देने वाले  याँ प्रसन्न -रूष्ट होने वाले शिव ही है ।"

              " अब प्रश्न यह है कि गुरु कैसे मिले ? शिव सर्वत्र है ।यदि सचमुच में आपको आवश्यकता है , आतुरता है तो वह किसी भी स्वरूप में मिलेंगे ही , इसमें सन्देह नहीं ।अब घर बैठे मिले याँ, खोज से ? गुरु की आवश्यकता होने पर वे चाहे भी तो चैन से बैठ नहीं पायेंगे -वे अपनी समझ से अपने क्षेत्र में खोज करेंगे और इसमें भटक भी सकते है ।किन्तु खोज अगर सच्ची है तो गुरु अवश्य मिलेंगे ।जो खोज नहीं कर सकते उनके लिए प्रार्थना और प्रतीक्षा ही अवलम्ब है ।उन्हें वह स्वयं उपलब्ध होंगे , किस रूप में होगें, कहा नहीं जा सकता , पर उनका मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा ।"

        "अब कैसे ज्ञात हो कि ये संत है , गुरु है ? जिनके सानिध्य -सामीप्य से अपने इष्ट की ह्रदय में स्वयं स्फूर्ति हो , वह संत है ।और भगवन्नाम सुनकर जिसका ह्रदय द्रवित हो जाये ,वह है साधक ।यह आवश्यक है कि अपनी रूचि का इष्ट और अधिकार के अनुरूप गुरु हो, अन्यथा लाभ होना कठिन है ।" संत ने जिज्ञासा अनुसार सब प्रश्नों का उत्तर देकर कितने ही और पहलुओं पर प्रकाश डालते हुये कहा ।

क्रमशः ...................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (65)

क्रमशः से आगे...............आगे

इतना आलौकिक वातावरण , भावभक्तिपूर्ण संगीत और फिर ज्ञान से भरी कथा -वार्ता श्रवण कर नवाब का मस्तक श्रद्धा से झुक गया ।उसके लिए यह अनुभव नया था ।उसने अपना आप संभाला और धीरेधीरे मीरा के सम्मुख जाकर हाथ जोड़कर गदगद कण्ठ से बोला ," हुनर (कला ), नूर ( तेज़ )और उसके ऊपर खुदाई मुहब्बत यह सब एक साथ नहीं मिलते और न ही एक ज़िंदगी की बख्शीश ( एक जन्म का फल ) हो सकते है ।आज आपका दीदार करके और खुदा का ऐसा करिश्मा देखकर यह नाचीज़ सुर्खरू हुआ ।अपने खुदा के लिये इस नाचीज़ की छोटी सी भेंट कबूल करके मुझ पर एहसान फरमाईये ।" उसने ज़ेब से हीरों का हार निकाला और अंजलि में लेकर नीचे झुका ।

            " ये जैसे मेरे है , वैसे ही आपके भी है , किन्तु ये शुद्ध मन के निश्छल भावों के भूखे है ।यह प्रजा का धन आप गरीबों में सेवा में लगाये ।इन्हें धन नहीं , केवल भक्ति चाहिए ।" मीरा ने कहा ।

          " पर दिल की बात किसी न किसी चीज़ के ज़रिये ही तो रोशन होती है ।मेहरबानी होगी आपकी ...........!" कहते हुए उसने माला धरती पर रख दी और आँसू पौंछते हुये वह मन्दिर से बाहर निकल आया ।

नवाब और वज़ीर दोनों बाहर आ घोड़े ले अपनी सरहद की तरफ रवाना हुये ।वज़ीर ने कहा," आपने ठीक नहीं किया जाँहपनाह ! आपने वहाँ बोलकर और वह तोहफा नज़र कर एक तरह से खुद को रोशन ही कर दिया ।आपको भूलना न चाहिए था कि हम दुश्मन के इलाके में है ।"

     " ठीक कहते हो खान !मैं अपने आप को ज़ब्त न कर सका ।ओह ,मैं तो अभी तक सोच रहा हूँ कि दुनिया का कोई कलावंत ऐसा भी गा सकता है? लेकिन गायेगा भी कैसे? वह सब लोगों को खुश करने के लिए गाते है और यह मल्लिका खुदा के लिए गाती है ।सच सब कुछ बेनज़ीर है खान ! मेरा यह सफर कामयाब रहा ।बड़े खुशनसीब है यह चित्तौड़ के बाशिन्दे जिन्हें ऐसी मल्लिका नसीब हुई । अगर अब राजपूत आ भी जायें  और मैं मारा भी जाऊं तो मुझे अफसोस न होगा ।"

हीरों के हार और नवाब की बोली ने मन्दिर में बैठे लोगों में थोड़ी खलबली मचा दी कि आने वाले मुसलमान थे ।मीरा के कहा ,"सबको एक ही भगवान ने बनाया है और बेटे के आने से बाप का घर भृष्ट नहीं होता ।"

पर यह खबर महाराणा तक पहुँचने में देर न लगी ।

क्रमशः ......................

!! श्री राधारमणाय समर्पणं !!

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मीरा चरित (66)

क्रमशः से आगे ..............

महाराणा का क्रोध सातवें आसमान पर था ।वह उदयकुँवर के पास पहुँचा और क्रोध से तमतमाते हुये उसने सारी बात बतलाई -" जीजा ! आप सोचो, सारंगपुर के नवाब ने मन्दिर में बैठकर भाभी म्हाँरा के भजन भी सुने और बातचीत भी की ।उसने हीरे की कण्ठी भी भेंट की ।"

उदयकुँवर ने भय और आश्चर्य से भाई को देखा ।

         " बहुत सबर कर लिया ।अब तो याँ मैं रहूँगा याँ फिर मेड़तणीजीसा रहेंगी ।इन्होंने तो हमारी पाग ही उछाल दी है ।पहले तो बाबा और महात्मा ही आते थे, अब तो विधर्मियों ने भी रास्ता देख लिया ।अरे हीरे , मोती ही चाहिए थे तो मुझसे कह देती ।कहीं बोलने योग्य नहीं छोड़ा इन कुलक्षिणी ने तो ।जब मैं घर में ही अनुशासन नहीं रख पा रहा तो राज्य कैसे चलाऊँगा ?"

महाराणा ने राजवैद्य को बुलाया और दयाराम पंडा के हाथ सोने के कटोरे में जगन्नाथ जी का चरणामृत कह मीरा के लिए भिजवाया ।दयाराम के पीछे पीछे उदयकुँवर बाईसा भी चली ।मीरा प्रभु के आगे भोग पधरा रही थी ।दयाराम ने कटोरा सम्मुख रख काँपते स्वर से कहा ,"राणाजी ने श्री जगन्नाथजी का चरणामृत भिजवाया है आपके लिये ।"

            " अहा ! आज तो सोने का सूर्य उदय हुआ पंडाजी ! लालजीसा ने बड़ी कृपा की । यह कहते हुये मीरा ने कटोरा उठा लिया और उसे प्रभु के चरणों में रखते हुये बोली ," ऐसी कृपा करो कि प्रभु कि राणाजी को सुमति आये ।" फिर पंडाजी से पूछा ," कौन आया है जगन्नाथपुरी से ?"

       " मैं नहीं जानता सरकार ! कोई पंडा याँ यात्री आये होगें ।"

चम्पा ,गोमती आदि दासियाँ थोड़ी दूर खड़ी हुई भय और लाचारी से देख रही थी इन चरणामृत लानेवालों को और कभी अपनी स्वामिनी के भोलेपन को ।उनकी आँखें भर-भर आती -" क्यों सताते है इस देवी को यह राक्षस ? क्या चाहते है ? "

उदा भी भाभी का वह शांत -स्वरूप, निश्छल मुस्कुराहट,  दर्पण की तरह उज्ज्वल ह्रदय और भगवान पर अथाह विश्वास देख आश्चर्य चकित थी ।

मीरा ने तानपुरा उठाया और तारों पर उँगली फेरते हुये उसने आँखें बंद कर ली........

 तुम को शरणागत की लाज ।
भाँत भाँत के चीर पुराये पांचाली के काज॥

प्रतिज्ञा तोड़ी भीष्म के आगे चक्र धर्यो यदुराज।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर दीनबन्धु महाराज ॥

क्रमशः ................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (67)

क्रमशः से आगे.............

 मीरा की भक्ति और विश्वास देख उदयकुँवर बाईसा के ह्रदय में विचारों का एक उफान सा उमड़ आया ।मन में आया -" भाभी म्हाँरा को एक बार भी ध्यान नहीं आया कि महाराणा उनसे कितने रूष्ट है ?मिथुला की मौत ने उन्हें चेतावनी नहीं दी कि उनकी भी यही दशा होने वाली है ? फिर भी कितनी निश्चिंत हैं भगवान के भरोसे ? कहते है , भक्त और भगवान दो नहीं होते , ये अभिन्न होते है, और इन्हीं भक्त का अनिष्ट करने पर राणाजी तुले है ।और मैं , मैं भी तो उन्हीं का साथ दिए जा रही हूँ ।यदि भाभी मर जाये तो मुझे क्या मिलने वाला है ? केवल पाप ही न ? और यदि नहीं मरी तो ? भगवान का कोप उतरेगा । "

उदयकुँवर के मन में स्वयं के लिये ग्लानि भर गई , वह सोचने लगी -" यह जन्म तो वृथा ही चला गया ।मेरे भाग्य से घर बैठे गंगा आई - और मैं मतिहीन राणाजी का साथ दे  भाभीसा का विरोध कर अपने पापों की पोटली  भारी करती रही ।चेत जा ...अभी भी प्रायश्चित कर ले उदा ! मानव जीवन अलोना बीता जा रहा है , इसे संवार कर प्रायश्चित कर ले ।तू लोहा है उदा ! इस पारस का स्पर्श पाकर स्वर्ण बन जायेगी ।यदि कपूर उड़ गया तो तू सड़ी खाद की तरह गंधाती रह जायेगी । दाजीराज और बावजी हुकम क्या पागल थे जो इन्हें सब सुविधाएँ देकर प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते थे -उस समय राजकार्य भी ठीक से चलता था ।और अब सब अस्त-व्यस्त सा हो रहा है ।चेत.....उदा !अवसर बीतने पर केवल पछतावा ही शेष रह जाता है ....... ।"

भजन पूरा हुआ और मीरा ने कटोरा होंठों से लगाया ।तभी उदयकुँवर चीख पड़ी - " भाभी म्हाँरा ! रूक जाइये ।"

" क्या हुआ बाईसा ?" मीरा ने नेत्र खोलकर पूछा ।

            " यह विष है भाभी म्हाँरा ! आप मत आरोगो !" उसने समीप जाकर भाभी का हाथ पकड़ लिया ।

         " विष ?" वह खिलखिला कर हँस पड़ी -"आप जागते हुये भी कोई सपना देख रही है क्या ? यह तो लालजीसा ने जगन्नाथजी का चरणामृत भेजा है । देखिये न, अभी तो पंडाजी भी मेरे सामने खड़े है ।"

         " मैं कुछ नहीं जानती । यह ज़हर है , आप मत आरोगो ।" उदयकुँवर ने रूँधे हुये कण्ठ से आग्रह किया ।

" यह क्या फरमाती है आप !चरणामृत न लूँ ? लालजीसा को कितने दिनों बाद भगवान और भाभी की याद आई और मैं उनकी सौगात वापिस भेज दूँ ? और वो भी चरणामृत ? अगर विष था भी, तो  अब प्रभु को अर्पण कर वैसे भी चरणामृत बन गया है ।आप चिन्ता मत करें बाईसा , मेरे प्रभु की लीला अपार है -जिसे वे जीवित रखना चाहे , उन्हें कौन मार सकता है ?आप निश्चिंत रहे ।"

दासियाँ भी हैरान थी ।पर मीरा ने देखते देखते कटोरा उठाया और पलक झपकाते ही खाली कर पंडाजी को लौटा दिया ।

मीरा ने फिर इकतारा उठाया और  एक हाथ में करताल ले खड़ी हो गई ।चम्पा ! घुँघरू ला ! आज तो प्रभु के सम्मुख मैं नाचूँगी ।"

चम्पा ने चरणों में घुँघरू बाँधे और मीरा पद भूमि पर छन्न -छन्नाते हुए स्वयं को ताल दे गाने लगी ...........

पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे  ।

मैं तो मेरे साँवरिया की आप ही हो गई दासी रे।
लोग कहे मीरा भई बावरी न्यात कहे कुलनासी रे॥

विष को प्यालो राणाजी नेभेज्यो पीवत मीरा हाँसी रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सहज मिलया अविनासी रे॥

क्रमशः ............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (68)

क्रमशः से आगे.............

मीरा को यूँ नृत्य करते देख दासियाँ आँखों में आँसू भरकर निश्वास छोड़ रही थी और उदयकुँवर बाईसा के आश्चर्य की सीमा न थी ।भजन पूरा होने पर मीरा ने धोक दी ।उदयकुँवर  उठकर धीरे से बाहर चली गई ।

         "  बाईसा हुकम ! बाईसा हुकम ! " दासियाँ उदयकुँवर के जाते ही रोती हुई एक साथ ही अपनी स्वामिनी के चरणों में जा पड़ी -" यह आपने क्या किया ? अब क्या होगा ? हम क्या करें ?"

        " क्या हो गया बावरी ! क्यों रो रही हो तुम सब की सब ? " मीरा ने चम्पा की पीठ सहलाते हुए कहा ।

         " आपने ज़हर क्यों आरोग लिया ?"

मीरा हँस पड़ी ।- ज़हर कब पिया पागल ! मैंने तो चरणामृत पिया ।विष होता तो मर न जाती अब तक ।उठो, चिंता मत करो ।भगवान पर विश्वास करना सीखो । प्रह्लाद को तो सांपों से डँसवाया गया , हाथियों के पाँव तले कुचलवाया गया और आग में जलाया गया , पर क्या हुआ ?यह जान लो कि मारनेवाले से बचानेवाला बहुत बड़ा है ।"

            " बाईसा हुकम ! हम सब  अपने मेड़ते चले जायें"- चम्पा ने आँसू ढरकाते हुये कहा ।

               " क्यों भला ? प्रभु मेड़ते में है और चित्तौड़ में नहीं बसते ? यह सारी धरती और इसपर बसने वाले जीव भगवान के ही उपजायें हुये है ।तुम भय त्याग दो ।भय और भक्ति साथ नहीं रहते  ।"

उधर जब राणा को जब पता लगा कि मीरा पर विष का कोई प्रभाव नहीं हुआ और ब्लकि वह तो भक्ति के उत्साह में निमग्न हो नृत्य कर रही है तो वह आश्चर्य चकित रह गया ।राणा ने तुरन्त वैद्यजी को बुला भेजा ।

वैद्यजी को देखते ही महाराणा उफन पड़े ," तुम तो कहते थे कि इस विष से आधी घड़ी में हाथी मर जायेगा , किन्तु यहाँ तो मनुष्य का रोम भी गर्म न हुआ ।"

               " यह नहीं हो सकता सरकार ! मनुष्य के लिए तो उसकी दो बूँद ही काफी है मुझे बताने की कृपा करे हज़ूर ! मैं भी आश्चर्य में हूँ कि ऐसा कौन सा लोहे का मनुष्य है ?" वैद्यजी ने कहा ।

           " चुप रह नीच ! "राणा ने दाँत पीसते हुए कहा-" मेरा ही दिया खाता है और मुझसे ही चतुराई ?जैसे तुझे पता ही नहीं कि भाभी म्हाँरा के लिए यह विष बनवाया था ,और वह तो आनन्द में नाच गा रही है ।"

वैद्यजी सत्य सुनकर भीतर तक काँप गये ।फिर हिम्मत जुटाकर बोले ," भक्तों का रक्षक तो भगवान है अन्नदाता ! जहाँ चार हाथवाला रक्षा करने के लिए खड़ा हो , वँहा दो हाथवालों की क्या बिसात ?अन्यथा मनुष्य के लिए तो इस कटोरे में शेष बची ये दो बूँदे ही काफ़ी है ।"

महाराणा गरज़ उठा-" मुझे भरमाता है ? ये दो बूँदे तू पी और मैं फिर जानूँ कि तेरी बातों में कितनी सच्चाई है ?"

वैद्यजी बहुत गिड़गिड़ाये ,"यह हलाहल है अन्नदाता ! मेरे बूढ़े माँ बाप का और छोटे बच्चों का कौन धणी है ? " पर राणा ने एक न सुनी ।वैद्यजी ने काँपते हाथों से कटोरा उठाया और भगवान से क्षमा याचना करते बोला ," हे नारायण ! तुम्हारे भक्त के अनिष्ट में मैंने सहयोग दिया , उसी का दण्ड हाथों -हाथ मिल गया प्रभु ! पर मैं अन्जान था ।मेरे परिवार पर कृपा दृष्टि बनाये रखना  ।" उसने कटोरा उठाया, और जैसे ही शेष दो बूँदे जीभ पर टप-टप गिरी, वैद्यजी चक्कर खा गिर गये और आँखें फटी सी रह गई ।

क्रमशः .....................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 69 )

क्रमशः से आगे ...............

उदयकुँवर बाईसा विक्रमादित्य महाराणा के कक्ष में पीछे खड़ी सब देख रही थीं । दोनों बार विष पीने का दृश्य उसकी आँखों के सामने घटा ।जिस कटोरे भरे ज़हर से मेड़तणीजी का रोयाँ भी न काँपा , उसी कटोरे की पेंदे में बची दो बूँदो से वैद्यजी मर गये ।मीरा की भक्ति का प्रताप और राणाजी की कुबुद्धि दोनों ही उदयकुँवर के सामने आ गई ।वह सोचने लगी -" इस बेचारे को क्यों मारा ? किसी कुत्ते याँ बिल्ली को पिलाकर क्यों नहीं देख लिया ।मैंने बहुत बुरा किया जो इस मतिहीन का साथ देती रही ।"

महाराणा ने पहले तो समझा कि वैद्य नखरे कर रहा है किन्तु जब गर्दन एक तरफ लुढ़क गई तो उसके मुख से निकला -" अरे ! यह क्या सचमुच मर गया ?"

उसने प्रहरी को वैद्यजी को उठा ले जाने के लिए उनके घर समाचार भेजा ।

उदयकुँवर ने धीरेधीरे अपने महल की ओर पद बढाये ।वहाँ पहुँच कर दासी से कहा," तू कहीं ऐसी ज़गह जाकर खड़ी हो जा , जहाँ कोई तुझे देख न सके ।जब वैद्यजी के घर वाले उन्हें लेकर जाने लगे तो उन्हें कहना कि वैद्यजी को मेड़तणीजी के महल में ले जाओ, वह इन्हें जीवित कर देंगी ।"

वह स्वयं भी मीरा के महल की ओर चली ।" भाभी म्हाँरा ! मुझे क्षमा करें ।मैंने आपको बहुत दुख दिये है  ।" उदा ने सुबकते हुए मीरा की गोद में सिर रख दिया ।

" यह न कहिये बाईसा! दुख सुख तो मनुष्य को अपने प्रारब्ध से प्राप्त होता है ।मुझे तो कोई दुख नहीं हुआ  ।प्रभु के स्मरण से समय बचे तो दूसरी अलाबला समीप आ पाये "मीरा ने ननद के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुये कहा ।

           " मुझे भी कुछ बताईये , जिससे जन्म सुधरे ।" उदयकुँवर आँसू ढरकाती हुई बोली ।

              " मेरे पास क्या है बाईसा ! बस भगवान का नाम है , सो आप भी लीजिए ।प्रभु पर विश्वास रखिये और सभी को भगवान का रूप , कारीगरी या चाकर मानिये ।और तो मैं कुछ नहीं जानती ।ये संत महात्मा जो कहते है , उसे सुनिए और मनन कीजिए ।बस आप भगवान के चरणों को विश्वास से पकड़िये -वही सर्वसमर्थ है ।"

            " मैं किसी को नहीं जानती भाभी म्हाँरा ।आप मेरी है और मैं आपकी बालक हूँ ।मेरे अपराध क्षमा करके मुझे अपना लें ।मैंने भगवान को नहीं देखा कभी ।मैं तो आपको जानती हूँ बस ।"उदयकुँवर ने रोते हुए कहा ।

         " जब आपकी सगाई हुई , पीठी चढ़ी ,तब आपने जवाँईसा को देखा था क्या ? पर बिना देखे ही आपको उनपर विश्वास और प्रेम था न ?" मीरा ने समझाते हुए कहा - जैसे बिना देखे ही बींद पर विश्वास -प्रेम होता है , उसी तरह विश्वास करने पर भगवान भी मिलते है ।"

          " किन्तु बींद को तो बहुत से लोगों ने देखा होता है और बात भी की होती है । इसी से बींद पर विश्वास होता हैं पर भगवान को किसने देखा है ?"

"यदि मैं कहूँ कि मैंने देखा है तो ? मैंने ही क्या , बहुतों ने देखा है उन्हें ।अन्तर केवल इतना है कि कोई कोई ही पहचानते है , सब नहीं पहचानते । "

उदयकुँवर मीरा की बाते सुन और उनका अविचलित विश्वास अनुभव कर स्तब्ध रह गई  ।

मीरा ने तानपुरा ले आलाप ले तान छेड़ी .................

म्हाँरा तो गिरधर गोपाल........"

क्रमशः ..............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (70)

क्रमशः से आगे..........

उदयकुँवर बाईसा मीरा से भक्ति ज्ञान की बातें श्रवण कर रही थी ,उसकी आँखों से आँसुओं की धारायें बहकर उसके ह्रदय का कल्मष धो रही थी ।तभी कुछ लोगों के रोने की आवाज़ से उनका ध्यान बँटा ।मीरा ने कहा," अरी गोमती ! ज़रा देख तो ! क्या कष्ट है ?"       " कुछ नहीं भाभी म्हाँरा ! आपको विष से न मरते देखकर राणा ने समझा कि वैद्यजी ने दगा किया है ।उन्होंने उस प्याले में बची विष की दो बूँदे वैद्यजी को पिला दी ।वे मर गये है ।लगता है उनका शव लेकर घर के लोग जा रहे होंगे ।" उदा ने कहा ।            " वैद्यजी को महाराणा जी ने ज़हर पिला दिया ।उनका शव लेकर घरवाले आपके पास अर्ज़ करने आये है " इधर से गोमती ने भी आकर निवेदन किया ।          " हे मेरे प्रभु ! यह क्या हुआ ? मेरे कारण ब्राह्मण की मृत्यु ? कितने लोगों का अवलम्ब टूटा ? इससे तो मेरी ही मृत्यु श्रेयस्कर थी " मीरा ने भारी मन से निश्वास छोड़ते हुए कहा ।मीरा सोच ही रही थी कि वैद्यजी के घरवाले उनका शव लेकर आ पहुँचे । वैद्य जी की माँ आते ही मीरा के चरणों में गिर पड़ी है --" अन्नदाता ! हम अनाथों को सनाथ कीजिए ।हमें कौन कमा कर खिलायेगा ? महाराणा जी ने हमें क्यों ज़हर नहीं पिला दिया ? हम आपकी शरण में है ! याँ तो हमें इनका जीवन दान दीजिए अन्यथा हम भी मर जायेंगे ।"वृद्ध माँ के आँसू देख मीरा की आँखें भी भर आई । कैसी भी स्थिति हो , उसे तो बस गिरधर का ही आश्रय था और सत्य में जिसको उसका आश्रय हो उसे किसी और ठौर की आवश्यकता भी क्या ? मीरा ने सबको धीरज रखने को कहा और इकतारा उठाया .............हरि तुम हरो जन की पीर ।द्रौपदी की लाज राखी तुरत बढ़ायो चीर ॥भक्त कारन रूप नरहरि धरयो आप सरीर।हिरणकस्यप मार लीनो धरयो नाहिन धीर॥बूढ़तो गजराज राख्यो कियो बाहर नीर ।दासी मीरा लाल गििरधर चरनकमल पर सीर॥चार घड़ी तक राग का अमृत बरसता रहा । मीरा की बन्द आँखों से आँसू झरते रहे ।सब लोग मीरा की करूण पुकार में स्वयं के भाव जोड़ रहे थे ।किसी को ज्ञात ही न हुआ कि वैद्यजी कब उठकर बैठ गये और वह भी तन मन की सुध भूल कर इस अमृत सागर में डूब गये है ।भजन पूरा हुआ तो सबने वैद्यजी को बैठा हुआ देखा ।उनके मुख से अपने आप हर्ष का अस्पष्ट स्वर फूट पड़ा ।उन सभी ने धरती पर सिर टेककर मीरा की और गिरधर गोपाल की वन्दना की ।चम्पा ने सबको चरणामृत और प्रसाद दिया ।वैद्यजी की पत्नी ने मीरा के चरण पकड़ लिये ।उसके मन के भावों को वाणी नहीं मिल रही थी ,सो भाव ही आँसुओं की धारा बनकर मीरा के चरण धोने लगे ।   " आप यह क्या करती है ?आप ब्राह्मण है ।मुझे दोष लगता है इससे ।उठिये ! प्रभु ने आपका मनोरथ पूर्ण किया है  ।इसमें मेरा क्या लगा ? भगवान का यश गाईये । सबको स्नेह से भोजन करा और बालकों को दुलार करके  विदा किया ।डयोढ़ी तक पहुँचते पहुँचते सबके हर्ष को मानो वाणी मिल गई- "मेड़तणीजीसा की जय ! मीरा बाई की जय ! भक्त और भगवान की जय !!!"" यह क्या मंगला ! दौड़ कर जा तो उन्हें कह कि केवल भगवान की जय बोलें ।यह क्या कर रहे है सब ?"            " बोलने दीजिए भाभी म्हाँरा ! उनके अन्तर के सुख और भीतर के हर्ष को प्रकट होने दीजिए ।लोगों ने , राजपरिवार ने अब तक यही जाना है कि मेड़तणीजी कुलक्षिणी है ।इनके आने से सब मर-खुटे है ।उन्हें जानने दीजिये कि मेड़तणीजी जी तो गंगा की धारा है, जो इस कुल का और दुखी प्राणियों का उद्धार करने आई है " उदयकुँवर बाईसा ने कहा ।

क्रमशः .................

॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (71)

क्रमशः से आगे ...........

"वैद्यराज जी जीवित हो गये हुकम !" दीवान ने महाराणा से आकर निवेदन किया ।

          " हैं क्या ?" महाराणा चौंक पड़े ।फिर संभल कर बोले ," वह तो मरा ही न था ।यों ही मरने का बहाना किए पड़ा था डर के मारे ।मुझे ही क्रोध आ गया था , सो प्रहरी को उसे आँखों के सामने से हटाने को कह दिया ।भूल अपनी ही थी कि मुझे ही उसे अच्छे से देखकर उसे भेजना चाहिए था ।वह विष था ही नहीं - विष होता तो दोनों कैसे जीवित रह पाते ?"

सामन्त और उमराव मीरा को विष देने की बात से क्रोधित हो महाराणा को समझाने आये तो उल्टा विक्रमादित्य उनसे ही उलझ गया -" वह विष था ही नहीं , वो तो मैने किसी कारणवश मैंने वैद्यजी को डाँटा तो वह  भय के मारे अचेत हो गये ।घर के लोग उठाकर भाभीसा के पास ले आये तो वे भजन गा रही थी ।भजन पूरा हो गई तो तब तक उनकी चेतना लौट आ गई ।बाहर यह बात फैला दी कि मैंने वैद्य ज़ीको मार डाला  और भाभी जी ने उनको जीवित कर दिया ।"

महाराणा के स्वभाव में कोई अन्तर न था । उनको तो यह लग रहा था मानो वह एक स्त्री से हार रहे हो -जैसे उनका सम्मान दाँव पर लगा हो ।वे एकान्त में भी बैठे कुछ न कुछ मीरा को मारने के षडयन्त्र बनाते रहते ।एक दिन रानी हाँडी जी ने भी बेटे को समझाने का प्रयास किया ," मीरा आपकी माँ के बराबर बड़ी भाभी है, फिर उनकी भक्ति का भी प्रताप है ।देखिए , सम्मान तो शत्रु का भी करना चाहिए ।जिस राजगद्धी पर आप विराजमान है , उसका और अपने पूर्वजों का सम्मान करें ।ओछे लोगों की संगति छोड़ दीजिये ।संग का रंग अन्जाने में ही लग जाता है ।दारू, भाँग ,अफीम और धतूरे का सेवन करने से जब नशा चढ़ता है , तब मनुष्य को मालूम हो जाता है कि नशा आ रहा है , किन्तु संग का नशा तो इन्सान को गाफिल करके चढ़ता है ।इसलिए बेटा , हमारे यहाँ तो कहावत है कि " काले के साथ सफेद को बाँधे, वह रंग चाहे न ले पर लक्षण तो लेगा ही ।" आप सामन्तो की सलाह से राज्य पर ध्यान दें । आप मीरा को  नज़रअन्दाज़ करें , मानो वह जगत में है ही नहीं ।"

उधर मीरा की दासियाँ रोती और सोचती ," क्या हमारे अन्नदाता (वीरमदेव )जी जानते होंगे कि बड़े घरों में ऐसे मारने के षडयन्त्र होते होंगे ।ऐसी सीधी , सरल आत्मा को भला कोई सताता है ? बस भक्ति छोड़ना उनके बस का काम नहीं ।भगवान के अतिरिक्त उन्हें कुछ सूझता ही नहीं ,मनुष्य का बुरा सोचने का उनके पास समय कहाँ ।?पर इनकी भक्ति के बारे में जानते हुये यह सम्बन्ध स्वीकार किया था अब उसी भक्ति को छुड़वाने का प्रयास क्यों ? छोटे मुँह बड़ी बात है पर ....... चित्तौड़ों के भाग्य से ऐसा संयोग बना था कि घर बैठे सबका उद्धार हो जाता , पर दुर्भाग्य ऐसा जागा कि कहा नहीं जाता ।दूर दूर से लोग सुनकर दौड़े दर्शन को आ रहे है और यहाँ आँखों देखी बात का भी इन्हें विश्वास नहीं हो रहा ।भगवान क्या करेंगे , सो तो भगवान ही जाने , किन्तु इतिहास सिसौदियों को क्षमा नहीं करेगा ।"

इधर मीरा भक्ति भाव मे सब बातों से अन्जान बहती जा रही थी ।भगवा वस्त्र और तुलसी माला धारण कर वह सत्संग में अबाध रूप से रम गई ।जब मन्दिर में भजन होते तो वह देह -भान भूल कर नाचने गाने लगती .........

मैं तो साँवरे के रंग राची......

क्रमशः ............

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मीरा चरित ( 72)

क्रमशः से आगे ...........

राजमाता पुँवार जी मीरा को दी जाने वाली यातनाओं की भनक पड़ रही थी ।उन्हें मन हुआ कि एक बार स्वयं जाकर मीरा को मिल कर कहें कि वह पीहर चली जायें ।

मीरा के महल राजमाता पधारी और सस्नेह कहने लगी ," बेटी ! तुम्हें देखती हूँ तो आश्चर्य होता है कि तुम्हें राणाजी ने दुख देने में कोई कसर नहीं रखी , पर एक तुम्हारा ही धैर्य और भक्ति में अटूट विश्वास है जो तुम अपने पथ पर प्रेम निष्ठा से बढ़ती जा रही हो ।बस अपने गिरिधर की सेवा में रहते हुये न तो अपने कष्टों का ही भान है और न ही भूख प्यास का ।"

मीरा ने सासूमाँ को आदर देते हुये कहा ," बहुत बार किसी काम में लगे होने पर मनुष्य को चोट लग जाती है हुकम ! किन्तु मन काम में लगे होने के कारण उस पीड़ा का ज्ञान उसे होता ही नहीं ।बाद में चोट का स्थान देखकर वह विचार करता है कि यह चोट उसे कब और कहाँ लगी , पर स्मरण नहीं आता क्योंकि जब चोट लगी , तब उसका मन पूर्णतः दूसरी ओर लगा था ।इसी प्रकार मन को देह की ओर से हटाकर दूसरी ओर लगा लिया जाय तो देह के साथ क्या हो रहा है , यह हमें तनिक भी ज्ञात नहीं होगा ।"

             " पर बीनणी ! राणा जी नित्य ही तुम्हें मारने के लिए प्रयास करते ही रहते है ।किसी दिन सचमुच ही कर गुजरेंगे ।सुन-सुन करके जी जलता है, पर क्या करूँ ? रानी हाँडी जी के अतिरिक्त तो यहाँ हमारी किसी की चलती नहीं ।मैं तो सोचती हूँ कि तुम पीहर चली जाओ" राजमाता ने कहा ।

           " हम कहीं भी जाये , कुछ भी करे, अपना प्रारब्ध तो कहीं भी भोगना पड़ेगा हुकम ! दुख देनेवाले को ही पहले दुख सताता है , क्रोध करने वाले को ही पहले क्रोध जलाता है, क्योंकि जितनी पीड़ा वह दूसरे को देना चाहता है, उतनी वही पीड़ा उसे स्वयं को भोगनी पड़ती है " मीरा ने हँसते हुये कहा- अगर मुझ जैसे को कोई पीड़ा दे और मैं उसे स्वीकार भी न करूँ तो ? आप सत्य मानिये , मुझे राणाजी से किसी तरह का रोष नहीं ।आप चिंता न करें ।प्रभु की इच्छा के बिना कोई भी कुछ नहीं कर सकता और प्रभु की प्रसन्नता में मैं प्रसन्न हूँ ।"

         " इतना विश्वास , इतना धैर्य तुममें कहाँ से आया बीनणी ?"

           " इसमें मेरा कुछ भी नहीं है हुकम ! यह तो संतों की कृपा है ।सत्संग ने ही मुझे सिखाया है कि प्रभु ही जीव के सबसे निकट और घनिष्ट आत्मीय है ।वही सबसे बड़ी सत्ता है ।तब प्रभु के होते भय का स्थान कहाँ ? प्रभु के होते किसी की आवश्यकता कहाँ ?फिर हुकम ! संतों की चरण रज में, उनकी वाणी और कृपा में बहुत शक्ति है हुकम ।"

         " तुम सत्य कहती हो बीनणी ! तभी तो तुम इतने दुख झेलकर भी सत्संग नहीं छोड़ती ।पर एक बात मुझे समझ नहीं आती ,भगवान के घर में यह कैसा अंधेर है कि निरपराध मनुष्य तो अन्याय की घानी में पिलते रहते है और अपराधी लोग मौज करते रहते है ।तुम नहीं जानती ,यह हाँडीजी राजनीति में बहुत पटु है ।हमारे लिए क्या इसने कम अंगारे बिछाये सारी उम्र और अब विक्रमादित्य को भी तुम्हें परेशान किए बिना शांति नहीं ।"

         "आप मेरी चिन्ता न करें हुकम ! बीती बातों को याद करके दुखी होने में क्या लाभ है ? वे तो चली गई , अब तो लौटेंगी नहीं ।आने वाली भी अपने बस में नहीं , फिर उन्हें सोचकर क्यों चिन्तित होना ? अभी जो समय है , उसका ही उचित ढंग से उपयोग करें दूसरों के दोषों से हमें क्या ? उनका घड़ा भरेगा तो फूट भी जायेगा ।न्याय किसी का सगा नहीं है हुकम ! भगवान सबके साक्षी है ।समय पाकर ही कर्मों की खेती फल देती है ।अपने दुख , अपने ही कर्मों के फल है ।दुख सुख कोई वस्तु नहीं जो हमें कोई दे सके ।सभी अपनी ही कमाई खाते है , दूसरे तो केवल निमित्त है  ।" मीरा ने सासूमाँ के आँसू पौंछ , उन्हें ज्ञान की बातें समझा कर सस्नेह विदा किया ।

क्रमशः ...............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (73)

क्रमशः से आगे ................

श्रावण की फुहार तप्त धरती को भिगो मिट्टी की सौंधी सुगन्ध हवा में बिखेर रही है ।रात्रि के बढ़ने के साथसाथ वर्षा की झड़ी भी बढ़ने लगी ।भक्तों के लिए कोई ऋतु की सुगन्ध हो याँ उत्सव का उत्साह , उनके लिए तो वह सब प्रियालाल जी की लीलाओं से जुड़ा रहता है  ।मीरा बाहर आंगन में आ भीगने लगी ।दासियों ने बहुत प्रयत्न किया कि वे महल में पधार जाये, किन्तु भाव तरंगो पर बहती हुई वह प्रलाप करने लगी ।

             " सखी ! मैं अपनी सखियों का संदेश पाकर श्यामसुंदर को ढूँढते हुये वन की ओर निकल गयी ।जानती हो , वहाँ क्या देखा ? एक हाथ में वंशी और दूसरे हाथ से सघन तमाल की शाखा थामें हुये श्यामसुन्दर मानों किसी की प्रतीक्षा कर रहे है  ।अहा......... कैसी छटा है........... क्या कहूँ .....! ऊपर गगन में श्याम मेघ उमड़ रहे थे ।उनमें रह रहकर दामिनी दमक जाती थी ।पवन के वेग से उनका पीताम्बर फहरा रहा था ।हे सखी ! मैं उस रूप का मैं कैसे वर्णन करूँ ? कहाँ से आरम्भ करूँ ? शिखीपिच्छ ( मोर के पंख ) से याँ अरूण चारू चरण से ? वह प्रलम्ब बाहु (घुटनों तक लम्बी भुजाएँ ), वह विशाल वक्ष , वह सुंदर ग्रीवा ,वह बिम्बाधर , वह नाहर सी कटि ( शेर सी कटि ) , दृष्टि जहाँ जाती है वहीं उलझ कर रह जाती है ।,उनके सघन घुँघराले केश पवन के वेग से दौड़ दौड़ करके कुण्डलों में उलझ जाते है ।"

          " आज एक और आश्चर्य देखा , मानों घन -दामिनी  तीन ठौर पर साथ खेल रहे हों ।गगन में बादल और बिजली , धरा पर घनश्याम और पीताम्बर तथा प्रियतम के मुख मण्डल में घनकृष्ण कुंतल ( घुँघराली अलकावलि ) और स्वर्ण कुण्डल ।"

            " मैं उन्हें विशेष आश्चर्य से देख रही थी कि उनके अधरों पर  मुस्कान खेल गई ।इधरउधर देखते हुए उनके कमल की पंखुड़ी से दीर्घ नेत्र मुझपर आ ठहरे ।रक्तिम डोरों से सजे वे नयन , वह चितवन ,क्या कहूँ ? सृष्टि में ऐसी कौन सी कुमारी होगी जो इन्हें देख स्वयं को न भूल जाये ।इस रूप के सागर को अक्षरों की सीमा में कोई कैसे बाँधे? "

          " इधर दुरन्त लज्जा ने कौन जाने कब का बैर याद किया कि नेत्रों में जल भर आया , पलकें मन-मन भर की होकर झुक गई ।मैं अभी स्वयं को सँभाल भी नहीं पाई थी कि श्यामसुन्दर के नुपूर , कंकण और करघनी की मधुर झंकार से मैं चौंक गई ।अहो , कैसी मूर्ख हूँ मैं ? मैं तो श्री जू का संदेश लेकर आई थी श्री श्यामसुन्दर को झूलन के लिये बुलाने के लिये और यहाँ अपने ही झमेले में ही फँस गई ।एकाएक मैं धीरे से धीमे स्वर में प्रियाजी का संकेत समझाते हुये गाने लगी......

म्हाँरे हिंदे हिंदण हालो बिहारी ,
     हिरदै नेह हिलोर जी ।

क्रमशः ..................

 ॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित (74)

क्रमशः से आगे ............

श्रावण की रात्रि में , बाहर आगंन में खड़ी मीरा भीग रही थी। अपनी भाव तरंगों में बहते बहते वह लीला स्मृति में खो गई। वह श्री राधारानी का श्री श्यामसुन्दर के लिये झूलन का संदेश लेकर आई थी पर दूर से ही श्री कृष्ण का रूप माधुर्य दर्शन कर स्वयं की सुध बुध खो बैठी।

            " श्री स्वामिनी जू ने कहा था ," कि हे श्री श्यामसुन्दर ! मेरे ह्रदय में आपके संग झूला झूलन की तरंग हिलोर ले रही है । ऐसे में आप कहाँ हो ? देखिए न ! बरसाना के सारें उपवनों में चारों ओर हरितिमा  ही हरितिमा छा रही है। कोयल ,पपीहा गा गाकर और मोर नृत्य कर हमें प्रकृति का सौन्दर्य दर्शन के लिये आमन्त्रित कर रहे है। हे श्यामसुन्दर ! आपके संग से ही मुझे प्रत्येक उत्सव मधुर लगता है ।हे राधा के नयनों के चकोर ! आप इतनी भावमय ऋतु में कहाँ हो ? मैं कब से सखियों के संग यहाँ निकुन्ज में आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ। प्रियतम के दर्शन के बिना मेरा ह्रदय अतिशय व्याकुल हो रहा है और मेरे तृषित नेत्र अपने चितचोर की कबसे बाट निहार रहे हैं। " यह सब श्री स्वामिनी जू का संदेश कहना था और यहाँ मैं अपने ही झमेले में उलझ गई। एकाएक प्रियाजी का संदेश मीरा गा उठी .........

म्हाँरे हिंदे हिंदण हालो बिहारी ,
     हिरदै नेह हिलोर जी।
     बरसाने रा हरिया बाँगा ,
      हरियाली चहुँ ओर जी ॥

...बाट जोवती कद आसी जी ,
   कद आसी चितचोर जी ॥

           " क्यों री ! कबकी खड़ी इधरउधर ताके जा रही है और अब जाकर तुझे स्मरण आया है कि " राधे ने संदेश भिजवाया है --" म्हाँरे हिंदे हिंदण हालो बिहारी " , चल ! कहाँ चलना है ?" कहते हुये मेरा हाथ पकड़ कर वे चल पड़े ।

       " हे सखी ! वहां हम सब सखियों ने विभिन्न विभिन्न रंगों से सुसज्जित कर रेशम की डोर से कदम्ब की डाली पर झूला डाला। उस झूले पर श्री राधागोविन्द विराजित हुये। दोनों तरफ़ से हम सब सखियाँ सब गीत गाते हुये उन्हें झुलाने लगी। दोनों हँसते हुये मधुर मधुर वार्तालाप करते हुये अतिशय आनन्द में निमग्न थे। हम प्रियालाल जी के आनन्द से आनन्दित थे।

क्रमशः ................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 75)

 क्रमशः से आगे ...............

सुन्दर फूलों से लदी कदम्ब की डारी पर झूला पड़ा है। मीरा भी अपनी भाव तरंग में अन्य सखियों के संग गाती हुईं श्री राधामाधव को झूला झुला रही है। झूलते झूलते जभी बीच में से श्यामसुन्दर मेरी ओर देख पड़ते तो मैं लज्जा भरी ऊहापोह में गाना भी भूल जाती ।थोड़ी देर बाद श्यामसुन्दर झूले से उतर पड़े और किशोरीजू को झूलाने लगे ।एक प्रहर हास-परिहास राग-रंग में बीता ।इसके पश्चात सखियों के साथ किशोरी जी चली गई ।श्यामसुन्दर भी गायों को एकत्रित करने चले गये ।

  
तब मैं झुरमुट में से निकलकर और झूले पर बैठकर धीरेधीरे झूलने लगी ।नयन और मन प्रियालाल जी की झूलन लीला की पुनरावृति करने में लगे थे। कितना समय बीता ,मुझे ध्यान न रहा ।मेरा ध्यान बँटा जब किसी ने पीछे से मेरी आँखें मूँद ली। मैंने सोचा कि कोई सखी होगी। मैं तो अपने ही  चिन्तन में थी -सो अच्छा तो नहीं लगा उस समय किसी का आना , पर जब कोई आ ही गया हो तो क्या हो ? मैंने कहा," आ सखी ! तू भी बैठ जा ! हम दोनों साथसाथ झूलेंगी ।"

वह भी मेरी आँखें छोड़कर आ बैठी मेरे पास। झूले का वेग थोड़ा बढ़ा ।अपने ही विचारों में मग्न मैंने सोचा कि यह सखी बोलती क्यों नहीं ? " क्या बात है सखी ! बोलेगी नाय ?" मैंने जैसे ही यह पूछा और तत्काल ही नासिका ने सूचना दी कि कमल , तुलसी , चन्दन और केसर की मिली जुली सुगन्ध कहीं समीप ही है ।एकदम मुड़ते हुये मैंने कहा ," सखी ! श्यामसुन्दर कहीं समीप ही .......... ओ......ह........!"

मैंने हथेली से अपना मुँह दबा लिया क्योंकि मेरे समीप बैठी सखी नहीं श्यामसुन्दर थे।

         " कहा भयो री ! कबसे मोहे सखी सखी कहकर बतराये रही हती ।अब देखते ही चुप काहे हो गई ?"

मैं  लज्जा से लाल हो गई। मुझे झूले पर वापिस पकड़ कर बिठाते हुये बोले ," बैठ ! अब मैं तुझे झुलाता हूँ। " मेरे तो हाथ पाँव ढीले पड़ने लगे। एक तो श्यामसुन्दर का स्पर्श और उनकी सुगन्ध मुझे मत्त किए जा रही थी। उन्होंने जो झूला बढ़ाना आरम्भ किया तो क्या कहूँ सखी , "चढ़ता तो दीखे वैकुण्ठ ,उतरताँ ब्रजधाम।यहाँ अपना ही आप नहीं दिखाई दे रहा था। लगता था , जैसे अभी पाँव छूटे के छूटे। जगत का दृश्य लोप हो गया था। बस श्रीकृष्ण की मुझे चिढ़ाती हँसी की लहरियाँ ,उनके श्री अंग की सुगन्ध एवं वह दिव्य स्पर्श ही मुझे घेरे था । अकस्मात एक पाँव छूटा और क्षण भर में  मैं धरा पर जा गिरती पर ठाकुर ने मुझे संभाल लिया। पर मैं अचेत हो गई ।"

"न जाने कितना समय निकल गया , जब चेत आया तो देखा हल्की हल्की फुहार पड़ रही है और श्यामसुन्दर मेरे चेतना में आने की प्रतीक्षा कर रहे थे ।मुझे आँखें खोलते प्रसन्न हो बोले ," क्यों री ! यह यूँ अचेत हो जाने का रोग कब से लगा ?ऐसे रोग को पाल कर झूला झूलने लगी थी ? कहीं गिरती तो ? मेरे ही माथे आती न ? आज ही सांझ को चल तेरी मैया से कहूँगा। इसे घर से बाहर न जाने दो ।अचेत होकर कहीं यमुना में जा पड़ी तो जय -जय सीता राम हो जायेगा। "

"वे खुल कर हँस पड़े । मैं उठ बैठी तो वह बोले ," अब कैसा जी है तेरा ?" हां बोलूँ कि न -बस ह्रदय निश्चित नहीं कर पा रहा था इस आशंका से कहीं ठाकुर चले न जाए -बस सोच ही रही थी कि आँखों के आगे से वह रूप रस सुधा का सरोवर लुप्त हो गया। हाय ! मैं तो अभी कुछ कह भी न पाई थी - नयन भी यूँ अतृप्त से रह गये ............।

क्रमशः ..............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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