मीरा जीवन कथा 10
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मीरा चरित (96)
क्रमशः से आगे ............
एक रात्रि मीरा की नींद अचानक से उचट गई। उन्हें लगा कि जैसे कोई खटका सा हुआ है ।मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छत से बने इस साधारण से कक्ष में भूमि पर ही मीरा के सोने का बिछौना था। पैरों की ओर तीनों दासियाँ सोयी हुईं थी। दोनों सेवक आगे वाले दूसरे कक्ष में थे। अंधेरे से अभ्यसत हो जाने में आँखों को दो क्षण लगे।
मीरा ने देखा कि चम्पा अपनी शय्या से उठ खड़ी हुई है , किन्तु क्या यह वही उनकी प्रिय दासी और सखी चम्पा है ? हाँ और नहीं भी ।वृन्दावन आते समय उनके स्वयं की और दासियों की देह पर एक भी अलंकार नहीं था। सबके वस्त्र सादे और साधारण किस्म के थे, किन्तु इस समय तो चम्पा दिव्य रत्न जड़ित वस्त्र आभूषणों से अलंकृत खड़ी थी। वैसे भी चम्पा गौरवर्णा थी , किन्तु इस समय उसका वर्ण स्वर्ण चम्पा के समान था। उसका गुजरिया के समान ऊँचा घेरदार घाघरा , कंचुकी और ओढ़नी , पैरों में मोटे घुँघरू के नूपुर गूँथे छड़े , हाथों में मोटे मोटे स्वर्ण कंगनों के बीच हीरक जटित चूड़ियाँ थी उसके मुख की शोभा के सम्मुख मीरा का अपना सौन्दर्य फीका लग रहा था ।उसके नेत्रों में कैसी सरलता .........!!!
🌿मीरा ने देखा कि चम्पा उसकी ओर बढ़ी उसकी प्रथम पदक्षेप से नुपूरों की क्षीण मधुर झंकार ने ही उन्हें जगाया था। दो पद आगे बढ़कर वह नीचे झुकी और मीरा का हाथ थामकर बोली -" माधवी !!! उठ चल !!!"
🌿मीरा चकित रह गई ।चम्पा सदा उन्हें आदरपूर्ण शब्दों से सम्बोधित करती रही है। यद्यपि मीरा उसे दासी से अधिक सखी मानती थीं , पर उसने अपने को दासी से अधिक कभी कुछ नहीं समझा ।वही चम्पा आज इस प्रकार बोल रही है और यह माधवी कौन है ? क्षण भर में ये सब विचार उसके मस्तिष्क में घूम गये।
🌿चम्पा ने फिर उसे उठने का संकेत किया तो वह उठकर खड़ी हो गई ।मीरा ने कुछ कहना चाहा तो, चम्पा ने अपनी सुन्दर अंगूठी से विभूषित तर्जनी अंगुली को अपने अरूण अधरों पर धरकर चुप रहने का संकेत किया। ऐसा लगता था कि इस समय चम्पा स्वामिनी है और मीरा मात्र दासी। वे दोनों धीरेधीरे चलकर द्वार के समीप आई ।अपने आप रूद्ध द्वार -कपाट उदघाटित हो गये और वे दोनों बाहर आ गई।
🌿मीरा ने देखा कि जिस वृन्दावन में वह रहती है , घूमती है , यह वैसा नहीं है। वृक्ष , लता ,पुष्प सब दिव्य है। पवन , धरा और गगन भी दिव्य है। इस सबकी उपमा कैसे दें ? क्योंकि यह सब इस जगत का नहीं ब्लकि सब दिव्य , आलौकिक है।हवा चलती है तो ऐसा लगता है कि जैसे कानों के समीप मानों चुपके चुपके कोई भगवन्नाम ले रहा हो। वृक्षों के पत्ते हिलते है तो मानों कीर्तन के शब्द मुखरित होते है। रात्रि होने पर भी भंवरे गुनगुना रहे है और वह गुनगुनाहट और कुछ नहीं भगवन्नाममयी ही है। तनिक ध्यान देने पर लगता है कि सम्पूर्ण प्रकृति श्री राधा-माधव-प्रेम-रस में निमग्न है ।
🌿सघन वन पार कर के वे दोनों गिरिराज की तरहटी में पहुँची। गिरिराज की नाना रत्नमयी शिलाओं से प्रकाश विकीर्ण हो रहा था। तरहटी में कदम्ब वृक्षों से घिरा हुआ निकुञ्ज भवन दिखाई दिया। कैसा आश्चर्य ?? इस भवन की भीतियाँ ,वातायन ( खिड़कियाँ एवं रोशनदान ) आदि सब कुछ कमल,। मालती , चमेली और मोगरे के पुष्पों से निर्मित है गिरिराज जी का दर्शन करते ही मीरा को कुछ देखा देखा सा लगा ऐसा लगता था मानों उसकी स्मृति पर हल्का सा पतला पर्दा पड़ा हुआ है । अभी याद आया , अभी याद आया की ऊहापोह में वह चलती गई..........।
क्रमशः ..........
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 97 )
क्रमशः से आगे ..............
दिव्य वृन्दावन की एक दिव्य रात्रि में चम्पा और मीरा गिरिराज जी की तरहटी में पहुँची है। पुष्पों से निर्मित एक निकुञ्ज द्वार पर पहुँच मीरा को सब वातावरण पहले से ही पहचाना सा ही लग रहा है।
निकुञ्ज द्वार पर खड़ी एक रूपसी ने चम्पा को अतिशय स्नेह के साथ आलिंगन करते हुए पूछा ," अरे चम्पा ! आ गई तू ?"
" क्यों बहुत दिन हो गये न?" चम्पा ने भी उतने ही स्नेह से गले लगे हुये कहा।
" नहीं अधिक कहाँ ? अभी कल परसों ही तो गई थी तू ? यह कौन ? माधवी है न ?"
🌿माधवी ? यह सब मुझे माधवी क्यों कहते है ? मीरा के अन्तर में एक क्षण के लिए यह विचार आया और फिर जैसे बुद्धि लुप्त हो गई हो।
" श्री किशोरीजू , श्री श्यामसुन्दर .................! चम्पा ने बात अधूरी छोड़ कर उसकी ओर देखा।
"आओ न। भीतर तुम दोनों की ही प्रतीक्षा हो रही है।मैं तो तुम्हारी अगवानी के लिए ही यहाँ खड़ी थी ।"
" चलो रूप ! कल और आज दो ही दिन में ऐसा लगता है कि मानों दो युग बीत गये हों ।पर बताओ कि प्रियालाल जी प्रसन्न तो हैं न ? " चम्पा रूप के साथ चलते हुये बोली।
" हाँ ! दोनों बहुत प्रसन्न है। किशोरीजू तो तुम्हारे त्याग और प्रेम की प्रशंसा करती रहती है ।"
" मेरी क्या प्रशंसा रूप !और क्या त्याग ? हमारे प्राणधन श्यामसुन्दर और प्राणेश्वरी श्री किशोरीजू जिसमें प्रसन्न रहे वही हमारा सर्वस्व है। "
इन्हें आते देख बहुत सी सखियाँ हँसती हुई उठ गई-" चलो ! भीतर किशोरीजू प्रतीक्षा कर रही है। "
🌿अगले कक्ष में प्रवेश करते ही जैसे मीरा ,मीरा न रही ।प्रेम पीयूष से उसका ह्रदय यों ही सदा छलकता रहता था , पर आज इस क्षण तो जैसे उसका रोम रोम रस- सागर बन गया। सामने विराजित नीलघनद्युति मयूरमुकुटी श्यामसुन्दर और स्वर्ण चम्पकवर्णीया श्री किशोरीजू की दृष्टि उस पर पड़ने से वह आपा भूल गई। रूप और सौरभ की छटा का दर्शन हो वह मुग्ध सी हो अपना अस्तित्व खो बैठी। नेत्र उस घनश्याम वपु के सौन्दर्य -सिंधु की थाह पाने में असमर्थ -थकित होकर डोलना भूल गये। नासिका सौरभ सिन्धु में खो गई। और कर्ण ? तभी आकर्षण की सीमा पार कर वे दीर्घ नेत्र उसकी ओर हुये और कर्णो में मिठास घोलते हुये बोले -" माधवी ! तुझे माधवी कहूँ कि मीरा ?" वह कहते हुये हँसे ,और उनके शब्दों और हँसी की माधुरी चहुँ दिशा में फैल गई।
🌿श्री किशोरीजू के संकेत पर चम्पा मीरा को लेकर उनके समीप गई। मीरा और चम्पा दोनों ने राशि राशि के उदगम उन चरणों पर सिर रखा। श्री राधारानी के सौन्दर्य ने तो मीरा की चेतना ही हर ली। जब नेत्र खुले तो प्रियाजी का करकमल उसके मस्तक पर था। मीरा के नेत्रों से आँसुओं की धारायें बह चलीं।
" सुन माधवी ! " अतिशय स्नेह से सिक्त सम्बोधन सुन मीरा ने आँसू से भरी आँखें उठाकर ठाकुर की तरफ़ देखा। " सुन माधवी ! अभी तेरी देह रहेगी कुछ समय तक संसार में " उन्होंने कहा ।
वह ऐसे चौंक पड़ी मानों जलते हुये अंगारों पर पैर पड़ गया हो ।उसने मौन पलकें उठाकर प्रभु की ओर देखा। जैसे पीड़ा का महासागर ही लहरा उठा हो मानों उस दृष्टि में ।मीरा ने रूदन स्वर में कहा ," मैं जन्म जन्म की अपराधिनी हूँ , पर आप करूणासागर हो ,दया निधान हो, मेरे अपराधों को नहीं , अपनी करूणा को ही देखकर अपनी माधवी को इन चरणों में पड़ी रहने दो ।जगत की मीरा को मर जाने दो। अब और विरह नहीं सहा जाता ........नहीं सहा जाता प्रभु। "
क्रमशः ...................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (98 )
क्रमश: से आगे..........
🌿 मीरा , श्री गिरिराज जी की तरहटी के भीतर पुष्पों से निर्मित निकुञ्ज भवन में प्रियालाल जी के दर्शन पा अतिशय भावुक एवं आनन्दित है। पर एकाएक प्रभु के मुख से अपने संसार में अभी कुछ समय और रहने की बात से मीरा चौंक कर प्रभु से स्वयं को अपने चरणों में स्थान देने के लिए विनती करती हैं।
🌿'माधवी !' प्रभु का कण्ठ भर आया । करुणार्णव प्रभु के नेत्रों से कई बूँदे चरणों में पड़ी मीरा के मस्तक पर गिरी तो चौंककर मीरा ने सिर उठाया । प्रभु की आँखों में आँसू देख मीरा विह्वल हो उठी- अरे , यह मैंने क्या कह दिया ? प्रभु को मुझ तुच्छ जीव के लिए यह कष्ट ?? मीरा ने स्वयं को धिक्कारते हुए मन में सोचा," यह तो शरणागति की परिभाषा नहीं ??? "
" मैं रहूँगी-रहूँगी....जो भी आप मेरे लिए निर्धारित करें प्रभु ,वही रह लूँगी; प्रभु ,आप प्रसन्न रहे,,, आपके निर्णय में ,न्याय में ही मेरी प्रसन्नता और मंगल निहित है प्रभु !!! " मीरा ने झट से आँचल से अपने आँसू प्रभु से छिपाते हुये कहा ।
🌿 श्यामसुन्दर मधुर स्वर से फिर बोले ," प्राकृत देह से, यहाँ मेरी कृपा के बिना कोई प्रवेश नहीं कर सकता माधवी ! यहाँ केवल भावदेह अथवा चिन्मयदेह का ही प्रवेश हो पाता हैं । परन्तु माधवी अब तुम्हारी देह पूर्णत: प्राकृत नहीं रही । यहाँ प्रवेश पाकर अब यह देह आलौकिक हो गयी हैं । देखने में भले ही साधारण लगे , पर माधवी अब तुम्हारी देह को ना अग्नि जला सकती हैं,,,ना जल डुबा सकता हैं,,,, ना पवन सुखा सकता हैं । वर्षों तक पड़ी रहने पर भी यह देह विकृत नहीं होगी । तेरी यह देह धरा पर पड़े रहने के योग्य नहीं हैं किन्तु.......
" किन्तु क्या मेरे प्रभु ! अपनी सेविका से क्या संकोच ? जो भी हो निःसंकोच कहिये । दासी वही करेगी, जो प्राणसंजीवन को प्रिय हो।"
🌿 " संसार में रहकर कुछ वर्षो तक भक्ति भागीरथी-- प्रवाहित कर,,माधवी ! तेरी आलौकिक प्रीति,भक्ति,विरक्ति,और प्राण-परित्याग-लीला को देखकर घोर कलिकाल में भी भक्ति की और लोग आकर्षित होंगें । मीरा तुम्हारा नाम पढ़-सुनकर के लोग कठिन से कठिन यातना सहकर भी भक्ति करेंगे । तुम्हारी दृढ़ता उन्हें वैराग्य की असिधार पर चढ़ने की प्रेरणा देगी ।लोक-कल्याण के लिए बस कुछ समय और .....! " कहते हुए कंठ भर आया निजजनप्राण श्यामसुंदर का ।
🌿 " लोक-कल्याण के लिए नहीं प्राणधन ! आपकी इच्छा के लिए रहूंगी । जब तक आप चाहेंगे,,तब तक रहूंगी । आपकी आज्ञा शिरोधार्य प्रभु ! आप मेरी ओर से निश्चिंत रहें और तनिक भी खेद न करें !"- मीरा स्वयं को संभालते हुये घुटनों के बल बैठ गयी ।
🌿 " खेद नहीं माधवी ! मुझे स्वयं तेरा वियोग असह्य हो जाता हैं । मैंने ही तो तुझे इस आनंद - सागर से दूर जा पटका । अत्यंत कठोर हूँ मैं !" - ठाकुर रूँधे हुये कण्ठ से बोले।
🌿मीरा श्यामसुन्दर के रतनारे नेत्रों में आँसुओं को फिर से लहराते देख घबरा गई। और फिर बल जुटाकर स्वयं और प्रभु को आश्वासन देते हुये कहने लगी ,"जीव अपने ही कर्मों से कष्ट पाता हैं प्रभु ! आपने तो पल-पल मेरी संभाल की हैं । आपकी कृपा ने ही तो प्रत्येक विपत्ति को फूल बना दिया ।" मीरा उठकर जाने को प्रस्तुत हुई --मन-ही-मन मीरा कहने लगी -"इस दिव्य प्रदेश में प्रवेश ! अहा ! ठाकुर आपकी करुणा की थाह कहा हैं ???"
श्यामसुंदर ने मीरा के दोनों हाथों को अपने हाथ में लिया और पुछा -" कुछ चाहिये , माधवी !"
" बस प्रभु , सहन-शक्ति, आपका मधुर नाम और यह आपकी मनोहारी मूर्ति मेरे नयनों में बसी रहे ,बस यही ...यही एक अभिलाषा है प्रभु !!" मीरा ने कहा।
" यह तो पहले से ही तेरे अधिकार में हैं ! मैं और क्या प्रिय करू तेरा ! "
" मुझे भुला ना देना प्रभु !",कहते-कहते मीरा के नेत्र पुन: भर आये ।
ठाकुर ने स्वयं को संयत कर कहा ," चम्पा अब यही रहेगी । "वह अपनी इच्छा से इतने दिन तुम्हारे साथ रही।"
क्रमशः,..............
।।श्री राधारमणाय समर्पणं।।
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मीरा चरित ( 99 )
क्रमशः से आगे ............
🌿श्री श्यामसुन्दर की आज्ञा से चम्पा उसी दिव्य वातावरण में ही नित्य निकुञ्ज सेवा में ही रह गई और मीरा उस दिव्य जगत के दर्शन कर अभी कुछ समय और कलियुग में भक्ति भागीरथी प्रवाहित करने हेतु धरती पर ही रहेगी ।चम्पा ने सस्नेह मीरा को आलिंगन कर आश्वस्त किया ।मीरा ने कृतज्ञता से चम्पा को सिर निवाया और कहा ," आपके मेरे साथ रहने से मुझे बहुत संबल था। "
🌿 तभी ठाकुर की स्निग्ध वाणी वातावरण में घुल गई ," ललिते !!" तुरन्त ही ललिता सखी श्री राधारानी के कक्ष से उपस्थित हुई तो ठाकुर ने फिर कहा ," ललिते ! माधवी को पहुँचा आ और नित्य प्रति रात्रि इसे साथ लेकर यहाँ की लीला -स्थलियों के दर्शन करा देना ।यदा-कदा यहाँ भी लाती रहना ।"
" जी ! और स्वामिनी जू का आग्रह है कि मैं माधवी को समय ,स्थान देखकर पूर्व जीवन की भी स्मृति करा दूँ। " ललिता ने ठाकुर से निवेदन किया।
" हाँ ! यह उचित होगा। " श्रीकृष्ण ने कहा।
🌿मीरा प्राणधन को प्रणाम कर चली तो जैसे उसके पाँव में किसी ने मनों भार बाँध दिया हो- ऐसे दिव्य निकुञ्ज के साक्षात दर्शन करने के पश्चात , किस का ह्रदय अपने स्वामी स्वामिनी जू से विलग होने पर भारी नहीं होगा ? पर वह लीलाधारी की लीला पर आश्चर्य चकित थी कि चम्पा इतने वर्ष उसके साथ रही और वह उसका स्वरूप पहचान न पाई और ........ कहाँ मेड़ता .....फिर चित्तौड़ और आज मुझे यहाँ मेरे गन्तव्य नित्य दिव्य वृन्दावन तक पहुँचा कर .........."। मीरा ने चिन्तन धारा को वहीं विराम दे भरे कण्ठ से ललिता जू से कहा ," एक बार किशोरीजू के दर्शन हो जाते........ !!"
" चलो ! हाँ हाँ क्यूँ नहीं सखी ?" कहकर ललिता उसे निकुञ्ज महल के द्वार की ओर चली ।
🌿"हे करूणामयी !!! " कहते मीरा ने स्वामिनी जू के अमल धवल चरणों पर अपना मस्तक रख दिया।
" उठ बहिन ! तेरे कलुष का निवारण हुआ। " कहते हुए श्री किशोरीजू ने मीरा के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा -" जब तक तुम वृन्दावन में हो , तब तक ललिता तुझे सब कुछ समझायेगी और दिखायेगी ।तुम अधीर न होना !! श्यामसुन्दर करूणावरूणालय हैं। उनके प्रत्येक विधान में जीव का मंगल ही मंगल निहित है, अतः घबराना नहीं। अन्त में तुम मुझे ही प्राप्त होओगी। " श्री जी ने अपने मुख का सुवासित प्रसादी पान देकर पूछा -" कुछ और चाहिये माधवी ?"
" ऐसी उदार स्वामिनी से मैं क्या माँगूँ , जो सब कुछ देकर भी पूछती है कि क्या चाहिये ? अब तो बस मात्र आपकी चरणरज का आश्रय ही चाहिये। "कहते हुए मीरा ने उनके चरणों के नीचे की रज मुठ्ठी में उठाकर अपनी ओढ़नी के छोर में बाँध ली।
क्रमशः ..................
🌾॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥🌾
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मीरा चरित ( 100 )
क्रमशः से आगे..........
🌿प्रातःकाल जब मीरा उठी तो चमेली ने पूछा ," चम्पा कहीं दिखाई नहीं देती बाईसा हुकम ! आपको कुछ कहकर गई है ?" मीरा की देह और मन में रात के दर्शनों की खुमारी भरी हुई थी। वे कुछ ठीक से सुन नहीं पाई। पर चम्पा का नाम सुनते ही मीरा ने अपनी ओढ़नी का छोर टटोला ।गाँठ खोलकर एक चुटकी रज मुख में डाली और थोड़ी मुख पर , ह्रदय पर मल ली। चमेली समझ नहीं पाई। फिर उसने सोचा -"शायद किसी महात्माजी की चरणरज होगी ।पर यह सुबहसुबह चम्पा कहाँ चली गई ?"
🌿और मीरा तो उन्मादिनी हो गई। आलौकिक जगत का यूँ साक्षात्कार पाकर कोई फिर स्वयं को कैसे संभाले - लौकिक संसार की उसे कैसे सुध रहे ? मीरा के मानस नेत्रों के समक्ष सारा समय रात्रि के दृश्यों का पुनरावर्तन होता रहता , वह कभी भाव में हँसती , कभी रोती और कभी गाने लगती। उस दिव्य अनिर्वचनीय रूप के दर्शन की स्मृति में मीरा के नेत्रों की पुतलियाँ स्थिर हो जाती , पलकें अपना कार्य भूल जाती। ह्रदय के आनन्द सिन्धु में ज्वार उठने लगता और उसकी उत्ताल तरंगो पर उसकी अवश देह डूबती उतरती रहती। मीरा आतुरता पूर्वक रात्रि की प्रतीक्षा में रहती और भरी दोपहरी में ही वह चमेली से पूछती-" रात हो गई क्या ? अभी तक ललिता क्यों नहीं आई ?"
🌿मीरा चमेली को ही ललिता -चम्पा कहकर पुकारती। चमेली की व्यथा का पार नहीं था। वह अपनी स्वामिनी के उन्माद रोग के कारण दुखी होती -" हे भगवान ! यह क्या किया तूने ? घर से इतनी दूर लाकर इन्हें बिमार कर दिया। अब इस अन्जान ज़गह में किससे सहायता माँगूँ ? अब इस कठिन घड़ी में यह चम्पा भी न जाने कहाँ चली गई , वह बाईसा को ठीक से समझ लेती थी , अब कहाँ ढूँढूँ उसे ?"
वह अपने पति शंकर से किसी वैद्य को , चम्पा को ढूँढ कर लाने को कहती और उसके असफल लौटने पर खूब झगड़ती -" जैसा तुम्हारा नाम है वैसे ही हो गये हो तुम ! खाये बिना ही भाँग धतूरे का नशा चढ़ा रहता है तुम्हें !" ।
बीच में ही केसरबाई आकर टोकती -" जीजी! ऐसे धैर्य खोने से काम नहीं चलेगा ! तुम सारा क्रोध ,दुख चिन्ता जीजाजी पर निकाल देती हो। आँधी तूफ़ान की तरह इनपर बरसने से पहले उनकी हालत तो देखो ! सारा दिन अन्जान स्थान पर हम सब के लिये मेहनत कर कमा कर लावें कि अब चम्पा को ढूँढे ?" और केसर चमेली को समझाते हुये स्वयं भी रोने लगी।
🌿केसर को रोती देख चमेली ने उसे ह्रदय से लगा शांत किया -" क्या करूँ बहन ! वहाँ तो हम गढ़ की बड़ी बड़ी दिवारों के भीतर रहने के आदी थे और बाईसा भी। चित्तौड़ और मेड़ता में तो ये फिर भी बँधी रहती थीं। यहाँ आकर तो जैसे चारों दिशाओं के कपाट खुल गये हों। जहाँ कहीं संत का समाचार पाया कि तम्बूरा उठाकर पधारने लगती है। इनके चरण देखे हैं तुमने ? जब से यहाँ आई हैं पगरखी तो भूल से भी कभी धारण नहीं की "फिर स्वयं ही सोचती हुई बोली - "आवेश तो पहले भी इन्हें आता था, पर ऐसा नहीं कि कभी हाथ पाँव लम्बे हो जायें और कभी कछुआ की तरह सिकुड़ कर गठरी हो जाये ।बाईसा की हालत देखकर मेरे प्राण सूख जाते है। "
🌿चमेली चिन्ता करती हुईं फिर से कहने लगी ," और इसपर एक बात और कि घड़ी घड़ी में यह बाबा लोग दर्शन को चले आते है कहत हुये -" महाभागा मीरा माँ कहाँ है ?" "संत शिरोमणि मीरा की जय हो !" और ये बाबा बाईसा हुकम की दशा नहीं समझते , उन्हें आशीर्वाद नहीं देते , उनकी चिंता करने के बदले उल्टे धन्य हो ,धन्य हो कहते इनके चरणों में लोटने लगते है, इनकी चरण धूलि सिर पर चढ़ाने लगते है। तब तो मुझे लगता है केसर ,मैं पागल हो जाऊँगी। इनकी जिस दशा से हम चिंता से सूखी जा रही है ,वही उनके हर्ष का कारण है। ऐसे में चम्पा होती तो वह संभाल लेती , पर उसे भी अपनी भोली स्वामिनी पर दया नहीं आई जो हम सब को यूँ छोड़कर न जाने कहाँ बैठी है ? .......याँ तो कोई ढंग का वैद्य ही मिल जाता इस परदेस में !!" कहते कहते चमेली का धैर्य टूट गया और वह रोने लगी। उसे यूँ रोते देख केसर , शंकर और किशन की भी आँखें भर आई।
🌿मीरा कक्ष के भीतर अधमुँदे नेत्रों से अपने ह्रदय का विरह गीत में उड़ेल गिरधर को सुना रही थी........
🌿ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी ....
मेरो दर्द न जाने कोय.....🌿
क्रमशः ................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 101 )
क्रमशः से आगे ........
🌿एक दिन एक वयोवृद्ध , श्वेत वस्त्र पहने ,हाथ में कमण्डलु लिए तेजोदीप्त संत पधारे। द्वार से ही उन्होंने पुकार की -" जय जय श्री राधे !"
चमेली ने रसोई से उठ कर द्वार खोला तो संत की भव्य ,शांत प्रसन्न मुख मुद्रा दर्शन कर चकित रह गई। कण्ठ और भुजाओं में तुलसी जी की माला और नेत्रों से मानों कृपा की वर्षा हो रही हो। ऐसे तेजस्वी संत के तो उसने आज तक दर्शन नहीं किए। शीघ्रता से प्रणाम कर आसन बिछाया , किशन को बुला चरण धुलाये और प्रसाद पाने के लिए करबद्ध प्रार्थना की।
🌿आशीर्वाद देकर संत ने आसन ग्रहण करते हुये पूछा -" हमारी बेटी मीरा कहाँ है ? हम तो बड़ी दूर से बेटी मीरा का यश श्रवण करके आये हैं। "
तब तक किशन शर्बत बना लाया तो संत ने उसे सहर्ष स्वीकार किया ।और फिर मीरा के बारे में पूछा। किशन और चमेली सम्मान पूर्वक संत को भीतर मीरा के मन्दिर वाले कक्ष में ले गये और उन्हें वहीं आसन दिया।
🌿 मीरा कक्ष में श्वेत आसन पर नयन मूँदे बैठी है। दाहिनी ओर इकतारा रखा है। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुये है। हाथों की कलाईयों और गले में तुलसी की माला बँधी है। आयु तीस वर्ष पार कर गई है पर सौन्दर्य ने मानों आयु के चरणों में मेख जड़ दी हो ।वे अभी बाईस -पच्चीस वर्ष से अधिक नहीं लगती। शुभ्र ललाट पर गोपी चन्दन की गोल बिन्दी लगी है। काले भँवर सम केशों की मोटी वेणी पीठ से बाँये पाशर्व में होकर बाँये घुटने पर पड़ी है। वेणी नीचे से थोड़ी खुली हुईं है। मुँदी हुई पलकों से दो चार अश्रु बिन्दु झर पड़ते है , किन्तु मुख म्लान नहीं है ब्लकि अधरों पर एक अनिर्वचनीय मुस्कान है । वे बाह्यज्ञान शून्य है।
🌿संत ने देखा कि कक्ष में साधारण सी चटाई के ऊपर चौकोर गद्दियाँ पड़ी थी और उसके पीछे दीवार पर एक चित्र लगा है , जिसमें श्यामसुन्दर यमुना के तट पर एक चरण पर दूसरा चरण चढ़ाये हाथ में वंशी लिए सामने देखते हुए शिला पर विराजमान है। महात्मा चित्र को देखकर मुस्कुराये। मीरा के समक्ष ही दीवार के साथ लगी चौकी पर सुन्दर मखमल के ऊपर गिरधर गोपाल का सिंहासन है। धूप दीप अभी प्रज्वलित था।
🌿चमेली को लगा कि यह संत अवश्य ही बाईसा हुकम को स्वस्थ कर सकते है। उसने संत के चरणों में प्रार्थना की -"महाराज !हमारी स्वामिनी को स्वस्थ कर दो। इनके बिना हमसब जीवित भी मृत के समान है ।कृपा करें महाराज!" कहते कहते चमेली का गला रूँध गया।
संत ने हँसकर उसके सिर पर हाथ रखा-" चिंता मत कर बेटी ! यह तो पंथ ही ऐसा है कि अपनी सुध नहीं रहती ,औरों की कहाँ चले ? ये अभी चैतन्य हुई जाती है। तुम महाभाग्यवान हो जो ऐसी स्वामिनी की सेवा मिली। अपने भक्त की सेवा भी भगवान स्वयं स्वीकार करते है। "
उन्होंने आगे बढ़कर मीरा के मस्तक पर हाथ रखकर नेत्र मूँद लिए। दो क्षण पश्चात मीरा की पलकें हिली और धीरेधीरे उसने नेत्र खोले। मीरा ने संत दर्शन कर स्वभाव वश प्रणाम किया। सामने खड़ी दासियों और सेवकों के तो जैसे प्रसन्नता से प्राण ही लौट आयें हो। मीरा के इंगित करने पर चमेली ने गिरधर गोपाल को भोग लगाकर संत को जिमाया। फिर संत के आग्रह से मीरा और बाकी सब ने भी प्रसाद पाया।
🌿प्रसाद के उपरान्त संत ने हँसते हुए कहा ," बेटी मीरा बड़ी दूर से तुम्हारा यश सुनकर आया हूँ। जो सुना , यहाँ आकर उससे बढ़कर ही पाया। मैं तो तुम्हारी भावधारा में बहने और तुम्हें बहाने आया हूँ। "
" पहले आप कुछ फरमायें !" मीरा ने विनम्रता से कहा।
" न बेटी ! तुम्हीं कुछ सुनाओ , इसी आशा में तो कितनी दूर से आया हूँ।
🌿मीरा ने इकतारे के तार को झंकृत किया और आलाप ले गाने लगी...... गाते गाते अभी भी उसकी आँखें बीच में मुँद जाती , राग शिथिल होती तो वह संभाल लेती......
🌿चाकर राखो जी .........
स्याम ! म्हाँने चाकर राखो जी।
क्रमशः .................
🌾॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 102 )
क्रमशः से आगे .............
🌿मीरा को गाते देख चमेली ने ढोलक संभाली और केसर ने मञ्जीरे। जहाँ बीच में मीरा का भाव प्रबल हो स्वर शिथिल होता तो संत बीच बीच में सुन्दर आलाप ले उसका साथ देते.......
🌿स्याम म्हाँने चाकर राखो जी ॥
चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।
बिन्दराबन की कुंज गली में गोबिन्द लीला गास्यूँ॥
चाकरी में दरसण पास्यूँ सुमिरण पास्यूँ खरची।
भाव भगति जागीरी पास्यूँ तीनों बाताँ सरसी॥
मोर मुगुट पीताम्बर सोहे गल बैजन्ती माला ।
बिन्दराबन में धेनु चरावे मोहन मुरली वाला ॥
हरी हरी नव कुंज लगास्यूँ बीच बीच राखूँ बारी।
साँवरिया रो दरसण पास्यूँ पहर कुसुम्बी सारी॥
जोगी आया जोग करण कूँ तप करणे सन्यासी ।
हरी भजन को साधु आया बिन्दराबन रा बासी॥
आधी रात प्रभु दरसण दीन्हा जमना जी रे तीरा।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर हिवड़ो घणो अधीरा॥
🌿भजन विश्रमित हुआ तो संत विभोर हो झूमने लगे ,नेत्र बँद कर वे दोनों हाथ उठाकर मीरा की गाई पंक्तियों को दोहराने लगे .........
चाकरी में दरसण पास्यूँ सुमिरण पास्यूँ खरची।
भाव भगति जागीरी पास्यूँ तीनूँ बाताँ सरसी॥
तुमने तो बेटी इतनी विनम्रता से अपना दास्य धर्म भी बतला दिया और कितनी चतुराई से अपनी रूचि के अनुसार ठाकुर से अपनी पगार भी माँग ली......वाह......किसी भी भक्त के लिए कितनी शिक्षाप्रद बात कह डाली -हे श्यामसुन्दर ! मैं श्री वृन्दावन वास करती हुई ,आपके उपवन का ध्यान रखती हुई आपकी सरस ,मधुर लीला का गुणगान करूँगी और आप मेरे आपके लिए गये इस कार्य की पगार के रूप में " अपने दर्शन , अपने स्मरण की हाथ में खरची और अपने भाव भक्ति की जागीर बस मुझे दे देना ।"
" वाह ! धन्य -धन्य मीरा ! आज मैं धन्य हो गया। वृन्दावन की प्रेममयी धरा और तुम सी प्रेममूर्ति के दर्शन पाकर मैं सचमुच धन्य हो गया ।"
🌿" ऐसा क्यों फरमाते हैं महाराज ! प्रेम भक्ति मैं क्या जानूँ ? मुझे तो अपने गिरधरलाल बस अच्छे लगते है ।उनकी बात करने वाले अच्छे लगते है ,उनकी चर्चा अच्छी लगती है....बस ठाकुर से सम्बन्धित सभी कुछ अच्छा लगता है। बस क्या अच्छा लगना ही प्रेम होता है ? " मीरा ने भोलेपन और सरलता से कहा -" प्रेमी तो आप है भगवन ! न जाने कहाँ से इस अनधिकारिणी को दर्शन देकर कृतार्थ करने पधारे है। "
🌿" बेटी ! जिसके अतिरिक्त तुम्हें कुछ और दिखाई न दे , जिसमें तुम्हारी सारी दिनचर्या , सारे क्रिया कलाप सिमट जाये , उसी का नाम , उसी की सेवा , उसी का चिन्तन ही हर पल भाये - यही तो प्रेम भक्ति है " संत ने स्नेह से समझाते हुये कहा।
🌿संत की सादगी और अपनत्व ने, उनके आलाप- कण्ठ की गहराई और राग - स्वर की शुद्धता ने मीरा को चकित कर दिया था। मीरा ने सम्मान सहित कहा ," अब तो महाराज हमें भी आप कुछ श्रवण कराईये। "
" क्यूँ थक गई हो बेटा। ?" संत बोले।
" नहीं महाराज ! हरि गुणगान से तो थकान उतरती है , चढ़ती नहीं । फिर संतों के दर्शन और सत्संग में तो मेरे प्राण बसते है। यदि पात्र समझे तो कृप्या अपना परिचय दीजिये न बाबा !"
" साधु का क्या परिचय पुत्री ! " वह सरलता से हँस दिए -" कभी सचमुच आवश्यकता पड़ी तो स्वयं जान जाओगी ।" महात्मा फिर हँसे ," तो फिर बेटी एक भजन और सुनाओ !आज मैं तुम्हें अच्छे से थकाये देता हूँ। "
" यह सहज सम्भव नहीं है बाबा !" मीरा ने हँसकर उत्तर दिया और कर पल्लव में करताल खड़खड़ा उठी।
क्रमशः ..................
🌾॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 103 )
क्रमशः से आगे ............
🌿 जब एक रूचि के दो लोग मिले तो समय का कहाँ भान रहता है ? और जहाँ ठाकुर को प्यार करने वाले मिल जायें तो वहीं सत्संग हो जाता है। मीरा संत के आग्रह पर पुनः कर -पल्लव में करताल ले आलाप ले नृत्य के लिए खड़ी हो गई।
🌿उसी समय श्री जीव गोस्वामी पाद आ गये।परस्पर नमन के पश्चात उन्होंने वृद्ध संत को प्रणाम किया और केसरबाई के द्वारा बिछाई गद्दी पर बैठ गये ।केसर ने मीरा के इंगित पर उनके चरणों में नुपूर बाँधे और वह मंजीरे लेकर चमेली के पास बैठ गई। श्री जीव गोस्वामी पाद सत्संग का जमा जमाया वातावरण पाकर अति आनन्दित हो उठे।
🌿मीरा ने गोपी स्वरूप से नृत्य करते हुए श्री श्यामसुन्दर की माधुरी का एक अतिशय भावपूर्ण पद गाया ..........
🌿आली रे म्हाँरे नैनन बान पड़ी।
🌿चित्त चढ़ी म्हाँरे माधुरी मूरत हिय बिच आन गड़ी।
कब की ठाढ़ी पंथ निहारूँ अपने भवन खड़ी ॥
🌿अटक्या प्राण साँवरी सूरत जीवन मूल जड़ी।
मीरा गिरधर हाथ बिकाणी लोग कहे बिगड़ी ॥
🌿आली री म्हाँरे नैनन बान पड़ी.......
अन्तिम पंक्ति की पुनरावृति करते हुए संत ने कितने ही विभिन्न विभिन्न भावों से सुन्दर आलाप लिए। उनके कण्ठ की सरसता से सब आत्म विभोर हो उठे ।मीरा को तो भावावेश हो आया। संत और गोस्वामी जी विभोर -विह्वल थे ।मीरा ने बिना रूके नाचते हुए दूसरा शरणागति का पद आरम्भ किया ..........
🌿मैं गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हाँरो साँचो प्रीतम देखत रूप लुभाऊँ॥
रैण पड़े तब ही उठि जाऊँ भोर भये उठी आऊँ।
रैण दिना वाँके संग खेलूँ ज्यूँ त्यूँ ताहि लुभाऊँ॥
जो पहिरावै सो ही पहिरूँ जो दे सोई खाऊँ।
म्हाँरी वाँकी प्रीत पुराणी उण बिन पल नू रहाऊँ॥
जहाँ बिठावैं तितही बैठूँ बैचे तो बिक जाऊँ ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बार-बार बलि जाऊँ॥
🌿पद-गायन के बीच में ही वृद्ध संत ने ललक करके चमेली के हाथ से ढोलक ले ली और श्री जीव गोस्वामी पाद ने केसर से मञ्जीरें देने का संकेत किया। दोनों ही उमंग के साथ बजाने लगे ।कभीकभी महात्माजी बीच में लम्बा आलाप लेते और सम पर लाकर छोड़ते ही सब झूम जाते ।मीरा भाव के अनुसार मंद , मध्यम और तीव्र गति में नृत्य कर रही थी। उसकी कनक वल्लरी सी कोमल देह और मृदुल मृणाल सी बाहु युगल सुन्दर भावभिव्यक्ति की सार्थकता दर्शा रही थी। मीरा के मुख की दिव्य कान्ति उसके किसी अन्य लोक में होने की साक्षी दे रही थी । नेत्रों की वर्षा कभी थमती और कभी तीव्र होती ।कभी मीरा के सुन्दर नयन समर्पण के भावाधिक्य में मुँद जाते और कभी दर्शन के आह्रलाद में विस्फुरित हो पलकों को झपकाना भूल जाते। दिनमणि ढल गये तो मीरा ने करताल रखकर संतों को प्रणाम किया ।
क्रमशः ..............
🌾॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 104 )
क्रमशः से आगे............
🌿 वृन्दावन में मीरा की प्रेम भक्ति एक नया मोड़ ले रही थी। दिन, याँ तो सत्संग में बीतता याँ रात्रि के दर्शन के आनन्द में ।मीरा रात्रि होते ही ललिता जू की प्रतीक्षा में सतर्क हो बैठती। वह उनका संकेत पाते ही उठकर चल देती।
🌿ललिता जू मीरा को नित्य नवीन लीलास्थली में नव-नव लीला दर्शन कराती। वे लीला-दर्शन के लिए जाती तो रात्रि में ही पर किन्तु लीला यदि दिन की है जैसे धेणु-चारण, कालिय दमन, माखन चोरी, दान लीला , पनघट लीला इन सबका दर्शन करते समय उन्हें दिन ही दिखाई देता । वे भूल जाती कि अभी अर्धरात्रि में वह शय्या से उठकर आयी हैं। वे केवल देखती ही नहीं , उन लीलाओं में सम्मिलित भी होती। ललिता उन्हें सदा अपने समीप रखती। लीलाओं में श्री किशोरीजू का सरल शान्त भोलापन देखकर वह न्यौछावर हो -हो जाती। श्यामसुन्दर की बात -बात में चतुराई ,उनका अपनत्व ,ठिठौली और उनका प्रेम मीरा के रग रग में बस गया। उसका रोम -रोम श्याममय हो गया। सबसे अन्त में देखा मीरा ने अपना माधवी रूप।
🌿ब्रज के ही एक छोटे से गाँव में माधवी रहती है। बचपन में ही उसके पिताजी उसका विवाह नंदीश्वर के सुन्दर से कर देते है। विवाह के कुछ समय के उपरान्त माधवी के पिताजी का देहान्त हो जाता है। माधवी माँ के संरक्षण में - उसकी रोक टोक में ही बड़ी होती है। माधवी बड़ी हो रही है तो बहुत सुन्दर दिखने लगी है ।उसकी सुन्दरता की उपमा गाँव वाले लक्ष्मी और गौरी माँ से देते ।
🌿नन्दगाँव से माधवी के ससुराल से गौना करवाने का समाचार आया। इधर माधवी की माँ ने सुना कि नंदरायजी के पुत्र श्री कृष्ण की ऐसी मोहिनी है कि जो एकबार देख लेता है , वह बौरा ही हो जाता है ।स्त्रियाँ अग-जग कहीं की नहीं रह जाती ।केवल उसके दर्शन से ही लोग पागल नहीं होते , जो कदाचित उसकी वाणी अथवा वंशी का स्वर भी कान में पड़ जाये , तब भी तन -मन का विघटन हो जाता है। डरकर मैया बेटी माधवी को शिक्षा देने लगी कि भूलकर भी वह कभी नंदरायजी के उस सलोने सुत को न स्वयं देखे न अपना मुख उसे दिखाये , अन्यथा उसके पातिव्रत्य की मर्यादा भंग हो जायेगी। माँ उसे पतिव्रत धर्म की महिमा एवं मर्यादा सुनाती और उसके भंग होने की हानि भी समझाती।
🌿भोली माधवी ने मैया की एक एक बात एक एक शिक्षा गाँठ बाँध ली। उसने मन-ही -मन प्रतिज्ञा की कि किसी प्रकार भी वह ब्रज के युवराज। को नहीं देखेगी और न ही स्वयं को देखने देगी।
क्रमशः ..........
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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