मीरा कथा 13
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मीरा चरित ( 126 )
क्रमशः से आगे .............
🌿द्वारिका में मीरा को सागर तट पर बैठे रहना ,उससे अपने ह्रदय की बातें करना बहुत भाता था। वह घंटों तक समुद्र की लहरों को अपलक निहारा करती। कभी उसे लगता कि समुद्र के बीचोंबीच द्वारिका ऊपर उठ रही है। उसकी परिखा -द्वार से श्याम कर्ण अश्व पर सवार होकर मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर पधार रहें है ।हीरक जटित ऊँचा मुकुट , जिसमें लगा रत्नमय मयूर पंख अश्व की चाल से झूम जाता है। गले में विविध रत्नहारों के साथ वैजयन्ती पुष्प माल , कमर में बँधा नंदक खड्ग , कमरबन्द की झोली से झाँकता पाञ्चजन्य शंख , घुँघराली काली अलकावलि से आँखमिचौनी खेलते मकराकृत कुण्डल ,बाहों में जड़ाऊ भुजबन्द और करों में रत्न कंकण , केसरिया अंगरखा और वैसी ही धोती , वैसा ही ज़रीदार गुथे हुये मुक्ता का रेशमी दुपट्टा ,जो वायुवेग से पीछे की ओर फहरा रहा है। जैसे ही सागर की तरंगों पर दौड़ता हुआ अश्व आगे आया ,द्वारिकाधीश ने मुस्कराते हुये दाँया हाथ ऊपर उठाया - वैसे ही मीरा उतावली हो सम्मुख दौड़ पड़ी -" स्वामी ! ..... मेरे प्राणनाथ !!! पधार गये आप......??? कहकर वह दौड़ती हुई ही अपने यहाँ गाये जाने वाले लोकगीत गाने लगी........"
🌿केसरिया बालमा हालो नी ,
पधारो म्हाँरो देस.........🌿
🌿अरे..... मैं केसर के घोल से प्रियतम के पथ का मार्जन करूँ ,याँ मोतियन के चौक पुरा कर उनके स्वागत में रंगोली बनाऊँ ? अरी सखी !! पहले मैं गजमुक्ता के थाल भर कर अपने प्राणधन की नज़र तो उतार लूँ !!! आज बरसों के पश्चात मेरे स्वामी घर पधारे हैं। "
प्राणप्रियतम से मिलने की उत्सुकता में त्वराधिक्य के कारण मीरा जल में जा गिरती ,इसके पूर्व ही घोड़े की लगाम खिंच गई ,घोड़े के आगे के दोनों पैर ऊपर उठ गये। विद्युत की गति से वे अश्व से कूदे ,और दो सशक्त भुजाओं ने मीरा को आगे बढ़कर थाम लिया ।मीरा उनका हाथ पकड़े हुए ही घर आई। आते ही मीरा ने पुकारा..... " ललिता ! देख ,देख प्रभु पधारे हैं ! शीघ्रता पूर्वक भोग की तैयारी कर !! वह हर्ष से बावली होकर गाने लगी...........
🌿साजन म्हाँरे घर आया हो ।
जुगाँ जुगाँ मग जोवती विरहिणी पिव पाया हो॥
रतन कराँ निछावराँ ले आरती साजाँ हो।
मीरा रे सुख सागराँ म्हाँरे सीस बिराजाँ हो॥
🌿मिलन की उछाह में वह दिन रात भूल जाती , भूल जाती कि वह साधक वेश में निर्धन जीवन बिता रही है। मीरा सेवक- सेविकाओं को राजसी प्रबन्ध की आज्ञा देतीं। वह कई कई दिनों तक इस आनन्द में निमग्न रहती। अपने प्राण-सखा के साथ वह हँस हँसकर झूले पर बैठी बातें करती न थकती। ऐसे में कोई वृद्ध संत आ जाते तो वह एकदम झूले से उठकर घूँघट डाल तिरछी खड़ी हो जाती ।
" घूँघट किससे किया माँ ? मैं तो आपका बालक हूँ। " वह कहते।
तो मीरा श्यामसुन्दर की ओर ओट करके मुस्कुरा कर लाज भरे नयनों से झूले की तरफ़ संकेत कर देती। इन दिनों घर में एक महोत्सव सा छाया रहता। मीरा के उस भावावेश के आनन्द में सब आनन्दित रहते।
🌿शंकर और किशन सेठों की दूकान पर काम करने जाते। उन्हें जो वेतन मिलता , उसी से साधु -सेवा और घर खर्च चलता। मीरा नित्य नियमपूर्वक द्वारिकाधीश के मन्दिर में प्रातः -सांय दर्शन भजन करने पधारती। सांयकाल नृत्य -गान अवश्य होता। भजनों की चौपड़ी ललिता चमेली के पास ही रहती। एक दो बार तो वह भावावेश में समुद्र में जा गिरी , सेविकाओं की सावधानी काम आई। उन्होंने समुद्र तट से दूर घर लेकर रहना प्रारम्भ किया। किन्तु मीरा के प्राण तो जैसे समुद्र में ही बसते थे। सूर्योदय ,सूर्यास्त, पूर्णिमा का ज़वार और शुक्ल पक्ष की रात्रियों में सागर दर्शन उन्हें बहुत प्रिय था। कभीकभी तो रात में भजन -कीर्तन का आयोजन भी समुद्र तट पर ही होता।
क्रमशः ................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 127 )
क्रमशः से आगे ..........
🌿एक रात मीरा सागर तट पर बैठी थी। उसके पीछे ही कुछ दूर मंगला और किशन भी शीतल मंद बयार ( पवन ) के झोंकों के कारण नींद लेने लगे ।तभी मीरा ने चौंककर देखा , कि सामने खड़ी एक रूपसी नारी झुककर आदर पूर्वक उसका कर स्पर्श करते हुए धीमे स्वर में बोली ," तनिक मेरे साथ पधारने की कृपा करें !"
मीरा यन्त्रवत सी उठकर चल दी। जल के समीप पहुँच कर उसने अपनी दाहिनी हथेली बढ़ाई ,तो मीरा ने उसका आशय समझ उसका हाथ थाम लिया।उसका हाथ पकड़ वह जल पर भूमि की भांति चलने लगी ।कुछ ही दूर चलने पर मीरा ने देखा कि जल में से द्वारिका की स्वर्ण परिखा ऊपर उठ रही है।द्वार के आसपास का जल शांत था -मीरा ने अनुभव किया कि पाँवो के तले जल की कोमलता तो है पर न तो पाँव डूब रहे है और न ही वस्त्र गीले। समीप पहुँचते ही परिखा के स्फटिक द्वार के स्वर्ण कपाट संगीतमय ध्वनि करते खुल गये ।भीतर प्रवेश करते ही मीरा आश्चर्य से स्तब्ध सी रह गई। भूमि स्वर्णमयी थी और चारों ओर रत्नों से मण्डित भवन सुशोभित थे ।
🌿" मेरा नाम शोभा है। मैं पट्टमहिषी देवी वैदर्भी की सेवा में हूँ ।" उस रूपसी ने आदरयुक्त वाणी में कहा।
" मुझे मीरा कहते है , यह तो आप जानती होंगीं ।" मीरा ने कहा ।
" हाँ हुकम ! आप मुझे यूँ आदर न दें , मैं तो मात्र एक दासी हूँ ।स्वामी आपको स्मरण करके प्रायः आँखों में आँसू भर लेते है - इसलिए मैं स्वामिनी की आज्ञा से आपके श्री चरणों में उपस्थित हुईं। "
" अपने स्वामी से जुड़ा प्रत्येक जन मेरे लिए पूज्य एवं प्रिय है। बड़ी कृपा की देवी ने मुझ तुच्छ दासी पर। " मीरा ने भावुक हो स्निग्ध स्वर में कहा।
🌿वे दोनों हीरों से निर्मित जगमगाते द्वार में प्रविष्ट हो दाहिनी ओर मुड़ गई। आगे विस्तृत चौक था। चारों ओर रत्न जटित भवन , बीचोंबीच विभिन्न पुष्पों और फलों से लदे उपवन। उस उपवन के मध्य पुष्करणी में कुमुदिनियों खिल रही थी। आम्र की डालियों पर सुन्दर झूले और वृक्षों पर बैठे मयूर ,पपीहा और दूसरे कई पक्षी। इतना वैभव, इतना सब दिव्य कि .... शब्द छोटे पड़ रहे थे ।चारों ओर रूपवान दासियों की चहल पहल थी , सब उसे सम्मान देते चल रही थी। मीरा ने तो मेवाड़ और चित्तौड़ का वैभव देखा था ..... पर यहाँ की तो साधारण दासी भी उन महारानियों से अधिक ऐश्वर्य और सौन्दर्य की स्वामिनी थी।
🌿अनेक कक्ष -दालान पारकर दोनों एक सजे हुये कक्ष में पहुँची जहाँ एक ऊँचे रत्नजटित स्वर्ण सिंहासन पर सौन्दर्य ,ऐश्वर्य और सौकुमार्य की साम्राज्ञी विराजमान थी। शोभा ने पादपीठ पर सिर रख प्रणाम किया। मीरा जैसे ही प्रणाम के लिए झुकी , महादेवी वैदर्भी ने आगे झुककर मीरा को ह्रदय से लगा लिया -" आ गई तुम ।" उन्होंने मीरा को अपने समीप बिठाना चाहा , पर मीरा पादपीठ पर ही देवी के चरणों को गोद में लेकर बैठ गई।
" सभी बहिनें तुमसे मिलना चाह रही है। स्वामी यदा-कदा तुम्हारी स्मृति में नयन भर लातें हैं ।कठिन कठोर मर्यादाएँ बड़ी दुखदायी होती है बहिन ! अतः मुझे ही सबकी रूचि जानकर मध्यम मार्ग शोधना पड़ा। " देवी ने मीरा का चिबुक स्पर्श कर दुलार पूर्वक कहा ," पहचानती हो मुझे ? मैं तुम्हारी सबसे बड़ी बहन रूक्मिणी हूँ ! आओ इधर सुखपूर्वक बैंठे !" ऐसा कहकर हँसते हुये मीरा का हाथ थाम कक्ष में बिछे रेशमी गद्दे पर मसनद के सहारे वे विराजित हो गई ।
🌿दासियाँ मधुर पेय लेकर उपस्थित हुई । देवी रूक्मिणी की आज्ञा से एक पात्र मीरा ने भी उठा लिया और धीरेधीरे पीने लगी। किसी भी प्रकार वह समझ नहीं पाई कि वह पेय किस फल का रस था। खाली पात्र लौटाते हुये उसने आश्चर्य से देखा कि उसके हाथों की झुर्रियाँ समाप्त हो गई हैं और वह स्वयं भी षोडश वर्षीया किशोरी के समान सुन्दर और सुकुमार हो गई है।
क्रमशः ................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 128)
क्रमशः से आगे ............
🌿मीरा दिव्य द्वारिका में महारानी रूक्मिणी जी के साथ बैठी है। वहाँ आलौकिक पेय रस के सेवन पश्चात मीरा षोडश वर्षीया किशोरी सी सुकुमारी हो गई । उसी समय सम्मुख द्वार से राजमहिषियों ने प्रवेश किया ।देवी रूक्मिणी और मीरा उनके स्वागत में उठ खड़ी हुईं। देवी ने दो पद आगे बढ़कर सबका स्वागत करते हुये कहा ," पधारो बहिनों ! अपनी इस छोटी बहिन से मिलिये। "
आनेवाली महारानियों ने महादेवी के चरण स्पर्श किए और उन्हें आलिगंन दिया। मीरा ने भी भूमि पर सिर रखकर सबका एकसाथ अभिवादन किया। सबके आसन ग्रहण करने के पश्चात देवी ने उनका परिचय कराते हुए बताया ," यह मेरी छोटी बहिन सत्यभामा ,यह.......। "
🌿 " अब बस सरकार ! बाकी सबसे परिचय कराने का अधिकार मुझे मिले ! यों भी आप हमारी ज्येष्ठा हो ! " हँसते हुये मधुर स्वर में सत्यभामा ने कहा-" यह है देवी जाम्बवती ,मेरी बड़ी बहिन ! " हरित परिधान धारण किए संकोचशीला जाम्बवती ने मुस्कुरा कर चिबुक स्पर्श किया ।"यह देवी भद्रा , यह मित्रविन्दा , यह सत्या , यह लक्ष्मणा और यह रविनन्दिनी कालिन्दी। " मुस्कराते , परिहास करते सब महारानियाँ क्रमवत अतिशय स्नेह से मीरा को मिली , किसी ने आलिंगन किया ,किसी ने कहा ," बहिन ! तुम्हें मिलने की बड़े दिनों से लालसा थी। " सबके हँसने से यूँ लगा जैसे बहुत सी चाँदी की नन्हीं घंटियाँ एक साथ टनटनाई हो !!!!!!!
" और ये हमारी बहिनें सोलह सहस्त्र एक सौ !"
मीरा ने सबको एकसाथ हाथ जोड़कर और मस्तक नवा कर प्रणाम किया। तभी लक्ष्मणा जी हँसती हुई बोली ," सरकार ! हमारी बहिन इस तरह आभूषण और श्रृगांर के बिना रहे ......लगता है हमें ही वैराग्य का उपदेश करने कोई वैष्णवी आई हो ! " सबने लक्ष्मणा की बात का अनुमोदन किया।
🌿 "इसे पृथक महल में भेजकर श्रृगांर धारण कराने की व्यवस्था की है मैंने !" देवी रूक्मिणी बोली।
" तुम बोलती क्यों नहीं बहिन ! तनिक अपने मुख से बोलो तो मन प्रसन्न हो ! तुम्हारा नाम क्या है ?" देवी मित्रविन्दा ने स्नेहासिक्त स्वर से पूछा।
" जी क्या निवेदन करूँ ? यह मीरा आपकी अनुगता दासी है। मुझे भी सेवा प्रदान कर कृतार्थ करें " मीरा ने सकुचाते हुये कहा ।
" तो हमारे दुलार से , स्नेह से , तुम्हें कृतार्थता का बोध नहीं हुआ बहिन ?" सत्यभामा जी हँसी।
मीरा ने अचकचाकर पलकें उठाई ," सरकार ! आप सबके कृपा अनुग्रह से दासी धन्य -कृतार्थ हुईं है। "
🌿तभी सैरन्ध्री मीरा को श्रृगांर हेतु लेने आ गई। मणि प्रदीप्त कक्ष में मीरा को सुगन्धित जल से स्नान करा, अगुरू धूप से केश सुखाये। अमूल्य दिव्य वस्त्र अलंकार धारण करा कर सुन्दर रीति से केश प्रसाधन किया। उसका सौन्दर्य द्वारिकाधीश की महिषियों से तनिक भी न्यून नहीं लग रहा था। सोलह श्रृगांर से सुसज्जित कर दासियों ने उन्हें देवी जाम्बवती के पास बिठा दिया।
🌿" अहा ! देखो कितनी सुन्दर लग रही है हमारी बहिन !" सत्या ने मीरा का चिबुक उठाकर ऊपर दिखाया। मीरा तो संकोच की प्रतिमा सी पलकें झुकाई बैठी रही जैसे अभी अभी विवाह मण्डप से उठकर आई हो। थोड़ी ही देर में संगीत और नृत्य का समाज जुट गया। सब महारानियाँ बारी से नृत्य करने लगी। सत्यभामा ने मीरा को अपने साथ ले लिया। कितने समय तक यह नृत्योत्सव चलता रहा ।
इसके पश्चात दासियाँ पुनः पेय लेकर प्रस्तुत हुई ।और उसके बाद भोजन की तैयारी ।इतने राग-रंग में मीरा को प्रसन्नता तो हुईं पर मन ही मन वह प्राणप्रियतम के दर्शन के लिए आकुल थी। भोजन के समय भी प्रभु को वहाँ न पा उससे रहा नहीं गया। मीरा ने सकुचाते हुये जाम्बवती से पूछ ही लिया ,"प्रभु के भोजन से पूर्व ही हम भोजन कर लें ?"
क्रमशः ...........
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 129)
क्रमशः से आगे ..........
🌿मीरा नवकिशोरी दुल्हन से रूप में दिव्य द्वारिका में है। उसे देवी रूक्मिणी ,सत्यभामा सब राज महिषियों से बहुत स्नेह और दुलार मिला ।पर इतने अपनत्व और राग-रंग में उसके आकुल नेत्र अपने प्राणनाथ को ढूँढते रहे। जब सब भोजन के लिए बैठे तो , मीरा स्वयं को रोक नहीं पाई और जाम्बवती से पूछ ही बैठी ," प्रभु के भोजन करने से पूर्व ही हम भोजन कर ले क्या ?"
" स्वामी का भोजन आज माता रोहिणी के महल में है। अपने समस्त सखाओं एवं परिकर के साथ वे आज माता रोहिणी को सुख दे रहे होंगें। "
🌿हास-परिहास में सबने मिल कर भोजन लिया। और उसके पश्चात् देवी रूक्मिणी को प्रणाम कर सभी महारानियाँ विदा हुईं। " काञ्चना ! अपनी स्वामिनी को इनके अपने महल में लेजाओ !" देवी रूक्मिणी ने एक नव -वया दासी से कहा।
" जैसी आज्ञा महादेवी !"
देवी रूक्मिणी की आज्ञा पाकर मीरा संकोचपूर्वक उठ खड़ी हुईं। मीरा ने महादेवी को प्रणाम किया तो उन्होंने ह्रदय से लगाकर उसे स्नेह से विदा किया। दासी पथ बताते चली। मीरा ने देखा कि इस महल का रास्ता रूक्मिणी के महल के अन्तर्गत ही था पर फिर भी कितने कक्ष और दालानों को उन्होंने राह में पार किया। स्थान स्थान पर मीरा का फूलों से स्वागत हुआ जो उसे पद-पद पर संकुचित कर रहा था -वह सोचती -" मुझ नाचीज़ के लिए इतना समारम्भ !!" पर मीरा को द्वारिकाधीश की महारानियों का परस्पर स्नेह और निरभिमानिता प्रशंसनीय लगी और दूसरी ओर दासियों की विनय युक्त सेवा तत्परता और सावधानी भी सराहनीय थी।
🌿एक रत्नजटित कौशेय वस्त्रों से आच्छादित हिंडोले पर मीरा को काञ्चना ने बिठा दिया। कोई दासी चंवर ,कोई पंखा करने लगी तो कोई पेय ले उपस्थित हुई। एक लगभग तीस वर्ष की दासी ने प्रणाम कर निवेदन किया ," सरकार ! दासी का नाम शांति है। मेरी अन्य बहिनें प्रणाम की आज्ञा चाहती है। " मीरा की इंगित करने पर सब समक्ष आ प्रणाम करती और शांति सबका नाम और काम बताती जाती।
मीरा को शांति का स्वर , जाना पहचाना सा लग रहा था। वह सोचने लगी कि" इसे कहाँ देखा है ?" और अचानक पुरातन स्मृति उभर आई और वह मन ही मन बोल उठी -" अरे , यह तो मेरी धाय माँ लग रही है । " शान्ति ...... तुम मेरी .....?"
मीरा ने वाक्य अधूरा छोड़कर ही शान्ति की तरफ़ देखा शान्ति स्वीकृति में सिर हिलाकर मुस्कुरा दी।
मीरा ने पूछा ," और काञ्चना ही मिथुला थी ?"
" हाँ सरकार !"
"तो क्या चमेली ,केसर , मंगला आदि सब..........?"
🌿जी सरकार ! जब नित्यधाम से प्रभु अथवा परिकर में से कोई भी जगत के धरातल पर आता है तो उसे अकेला नहीं भेजा जाता ।दयामय प्रभु सहायकों के रूप में कई निज जनों को साथ भेजते हैं ।प्रधानता भले एक की रहे , परन्तु अन्तर्जगत से पूरा परिकर अवतरित होता है। उनसे जुड़कर संसार के हज़ारों जन कल्याण - पथगामी होते है। काञ्चना को अपनी स्वामिनी महादेवी वैदर्भी का वियोग दुस्सह था , अतः उसे शीघ्र बुला लेने की योजना थी। आठों पट्टमहिषियों ने आपको अपनी एक एक दासी सेवा सहायता के लिए प्रदान की। "
" और तुम ?" मीरा ने आश्चर्य से मुस्कराते हुए पूछा।
" मैं महादेवी जाम्बवती जी की सेविका हूँ। सरकार ....... यह आपका ही महल है और यह सब आपकी आज्ञा अनुवर्तिनी दासियाँ ।आप इन्हें आज्ञा प्रदान करने में तनिक भी संकोच न करें ।"
🌿मीरा करूणासागर प्रभु की योजना , उनकी अपने भक्तों को पग पग पर संभालने की सोच से भावुक भी थी और आश्चर्य युक्त भी। फिर वह अपनी कृतज्ञता जताते हुई बोली ," शांति !! इस समस्त वैभव के साथ साथ तुम भी पट्टमहिषी का प्रसाद हो मेरे लिए। "
" धृष्टता क्षमा हो सरकार ! तो क्या ..... स्वामी भी .....? " शांति ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
🌿" हाँ शांति ! जीव को जो भी मिलता है , भले प्रभु ही हों , सब कुछ देवी के अनुग्रह से ही प्राप्त होता है। " मीरा ने एक ही वाक्य में द्वारिका की महिषियों की अनुगत्यमयी प्रीति पूर्वक भक्ति का सार बताते हुए कहा ।
क्रमशः ............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 130 )
क्रमशः से आगे .......
🌿मीरा दिव्य द्वारिका में नव किशोरी स्वरूप में एक हिंडोले पर आसीन है। बहुत सी दासियाँ उसकी सेवा में उपस्थित है।
उसी समय द्वार पर प्रहरी ने पुकार की -" अखिल ब्रह्माण्ड नायक , यदुनाथ द्वारिकाधीश पधार रहे हैं !!!!!! "
🌿एकाएक चारों ओर हलचल सी मच गई। दो दासियों ने मीरा से कक्ष में चलने की विनय की। वे जिस कक्ष में उन्हें ले गई , वहाँ सात्विकता की ही प्रधानता थी। कक्ष की पूर्ण साज-सज्जा श्वेत थी। केवल मीरा के वस्त्राभूषण ही भिन्न रंग के कारण चमक रहे थे।वहाँ शांत और सुखद प्रकाश था। पलंग पर टंगे श्वेत चंदोवें में मुक्ता की झालरें लटक रही थी। द्वार ,पलंग , भूमि और नाना उपकरण स्फटिक , हीरे और मोतियों से बने थे। श्वेत मल्लिका पुष्पों और बीचोंबीच गूँथे श्वेत कमल सम्पूर्ण कक्ष को सात्विक और सौरभमयी बना रहे थे ।दासियाँ प्रणाम कर बाहर चली गई तो मीरा स्तब्ध सी मन्त्रमुग्ध हो चारों ओर देखने लगी.............।
🌿तभी द्वार -रक्षिका ने सावधान किया। वह चौंककर खड़ी हो गई। मीरा की दृष्टि द्वार पर उस भुवन वन्दनीय चरणों के स्वागत के लिए गड़ सी गई । उसके प्राण अपने प्राणप्रियतम के दर्शन पर बलिहार होने को आतुर ........। धीर मन्द गति से आते वे चरण अरविन्द द्वार पर थोड़ा थमे। मीरा अपलक नीचे दृष्टि किए अपने प्राणनाथ के चरणों के दर्शन कर अपने जन्मों की साध पूर्ण कर रही थी ।पदत्राण ( पादुकायें ) सम्भवतः द्वार पर सेविकाओं ने उतार लिए होंगे।जैसे ही प्रभु थोड़ा और सम्मुख बढ़े , मीरा के ह्रदय के आवेग , संकोच और लज्जा के द्वन्द ने उसकी साँस की गति बढ़ा दी और अब तुलसी , कमल , चन्दन ,केशर और अगुरू के सौरभ से मिश्रित देह सुगन्ध ने उसे अवश सा कर दिया । वह प्राणधन के चरण स्पर्श की चेष्टा में वह गिरने ही लगी थी कि सदा की आश्रय सबल बाहुओं ने संभाल लिया। कितने दिन , कितने मास , और कितने ही वर्ष प्रियतम का सामीप्य सुख सौभाग्य मीरा का स्वत्व बना , वह नहीं जान पाई ।जहाँ देश, काल दोनों ही सापेक्ष है , वहाँ यह गिनती नगण्य हो जाती है ..............
🌿आँख खुली तो स्वयं को मीरा ने सागर तट पर पाया। वही पिघले नीलम सा उत्ताल लहरें लेता हुआ सागर और मीरा के ह्रदय में सुलगता हुआ वही विरह का दाह !!!!!
" बाईसा हुकम ! उषाकाल हो गया। पधारे अब ! आज रात्रि तो सबकी ठंडी हवा में यहीं आँख लग गई , पता ही नहीं लगा। " मंगला घुटनों के बल सम्मुख बैठकर कह रही थी।
🌿" मैं तो द्वारिका में थी। यहाँ कैसे आ गई ? यह कौन सा देश है ?" मीरा ने व्याकुलता से इधर उधर देखते हुये कहा , जैसे पाँवो के तले से धरती ही खिसक गई हो !!
" यह द्वारिका ही है हुकम ! और मैं आपकी चरणदासी मंगला हूँ। अब पधारने की कृपा करें ! " मंगला ने बाहँ पकड़ कर उन्हें उठाया। ठण्डी रेत में बैठे बैठे पाँव अकड़ गये थे , उसने दबाकर उनकी जकड़न दूर की।
🌿 " मंगला मैं द्वारिकाधीश से , उनकी महारानियों से मिली। वहाँ का वैभव अतुलनीय है और पट्टमहिषी वैदर्भी का सौहार्द , स्नेह अपनत्व अकथनीय है। वह...... वह .... देश कैसा सुहावना है ........!" मीरा ने हल्के स्वर में कहना आरम्भ तो किया , पर अंत में वाक्य अधूरा छोड़कर वाणी ह्रदय में दिव्य द्वारिका, वहाँ के सुगंधित एवं संगीतमय वातावरण , स्नेहाभिसिक्त व्यवहार , वहाँ के अनुभव की सरसता में समा गयी ।
क्रमशः.............
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 131 )
क्रमशः से आगे ............
🌿 दिव्य द्वारिका के दर्शन के पश्चात मीरा के लिए स्वभाविक था कि उसी रस दर्शन की फिर से अनुभूति की लालसा रखना ,उसकी फिर से प्रतीक्षा करना ।जैसे वृन्दावन में प्रायः वह नित्य ही रात्रि में दिव्य वृन्दावन के दर्शन करती थी , यहाँ भी प्रत्येक सूर्य अस्त के समय सागर तट पर खड़े मीरा को फिर से दिव्य द्वारिका के उस सुगन्धित वातावरण में प्रवेश पाने की प्रतीक्षा होती - पर सब कुछ तो ऐसा नहीं होता जैसा हम चाहते है। जहाँ इधर श्री द्वारिका धाम में मीराबाई पल-प्रति-पल विरह में उस क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी ,जब वह अपने जीवन धन प्राणाराध्य श्री द्वारिकाधीश का पुनः सानिध्य प्राप्त कर पायेगी ..........तो उधर व्यवहारिक जगत में मेड़ता और चित्तौड़ पर संकट के घनघोर बादल मँडरा रहे थे ।
🌿मीराबाई के चित्तौड़ -परित्याग के बाद एक-न-एक संकट के बादल सामने आते ही रहे ।बादशाह अकबर ने योजनाबद्ध रीति से चित्तौड़ पर हमला बोल दिया । अकबर का सैन्य बल अधिक होने से 1568 में चित्तौड किले पर मुग़ल आधिपत्य स्थापित हो गया । मेड़ता के राव जयमल चित्तौड किले की रक्षा हेतु लड़ते हुए अद्भुत वीरगति को प्राप्त हुए । किले पर से भगवा ध्वज के उतरते ही राजपूती गौरव धूलि-धूसरित हो गया । सुख-शांति- समृद्धि को दुःख-दरिद्रता-दीनता ने डस लिया ।किसी साधू के कहने पर जन-मानस में यह विचार तेजी से बुदबुदाने लगा कि भक्तिमति मेड़तणी कुँवराणीसा मीराबाई को सताये जाने का ही दुष्परिणाम हैं। अब तो यदि महिमामय मीराबाई वापिस मेवाड़ पधारे तो ही रूठे हुये देव संतुष्ट हों !!!
🌿 चित्तौड़ के राजपुरोहित जी के साथ राठौड़ों के पुरोहित , मेवाड़ के प्रथम श्रेणी के दो उमराव , जयमल जी के दोनों पुत्र हरिदास और रामदास और कई राठौड राणावत राजपूत सरदार एकत्रित हो एक दिन मीरा के निवास स्थान का पता पूछते हुए द्वारिका जी पँहुचे ।
🌿 मेवाड़ के राजपुरोहित जी ने मीराबाई को चित्तौड पर आई विपदा का चित्रण करते हुए बताया ," आप के वहाँ से आने के पश्चात धीरेधीरे राज्य में अकाल पड़ गया ।प्रजा दीन हीन एवं राजकोष रिक्त है ।बड़े -बूढ़ों को कहना है कि राज्य की यह अनर्थ कुँवरानीसा मेड़तणीजी को सताने और उनके चित्तौड़ परित्याग के कारण बिन न्यौता आया है। इसलिए मैं आपसे हाथ जोड़ निवदेन कर रहा हूँ कि आप वापिस पधारें तो मेवाड़ की धरा पुनः शस्य-श्यामला हो उठे ।" राजपुरोहित जी ने सिर से साफा उतारकर भूमि पर रखा--''मेरी इस पाग की लाज आपके हाथ में हैं..... हमें सनाथ करें......हम आपके वहाँ से आ जाने से अनाथ हो गए हैं......। "
मेड़ते के राजपुरोहित उठकर कक्ष में गए।मीरा ने भूमि पर सिर रख उन्हें प्रणाम किया ।पुरोहित जी के साथ ही हरिसिंह जी और रामदास जी भी कक्ष में आये ।उन्होंने मीरा को प्रणाम किया । सबने आसन ग्रहण किया ।सबके मुख म्लान थे ।राजपुरोहित जी ने कहा -" बाईसा हुकम ! केवल आपका शवसुर कुल ही आपदाग्रस्त नहीं हैं,, पितृकुल भी तितर-बितर हो गाया हैं। एक बार किसी साधू ने कहा था ,की मेवाड़ में किसी साधू के अपमान हुआ हैं जिसके कारण यह विपत्ति बरस पड़ी हैं।" महाराज ने भी हाथ जोड़कर प्रणाम के साथ अर्ज़-विनय की हैं।" आप वापिस पधारें तो सबकी विपत्ति दूर हो। "
🌿'' पुरोहित जी महाराज !'' मीरा ने उदास दुखित स्वर में कहा -" मनुष्य केवल अपने ही कर्मो का फल पाता हैं। चित्तौड़ और मेड़ता की विपदगाथा सुनकर जी दुःखा ,किन्तु सच मानिये, यह मेरे कारण नहीं हुआ ।मुझे कभी लगा ही नहीं कि कोई दुःख आया और आया भी हो, तो मुझे आँख उठाकर देखने का समय नहीं था ,तब वह दुःख कैसे आया, किसके द्वारा आया ,यह सब मुझे कैसे मालुम होता ? यह वहम आप दोनों ही ओर के महानुभाव अपने मन से निकाल दे ....और मेरे लौटने की बात कैसे संभव हैं ? कभी आप लोगो ने अपने ससुराल में सुख-पूर्वक रहती हुई अपनी बहिन-बेटी को कहा -" कि अब तुम पीहर चलो तो सब सुखी हो जायँ ? "
.....अब इस दिव्य भूमि पर, धाम में आकर कहीं लौटना होता हैं भाई ?" कहते हुए मीरा की आँखों से अश्रुबिंदु झलक पड़े।
🌿'' हरिदास ! रामदास ! क्षत्राणी तलवार की भेंट चढ़ने के लिए ही पुत्र को जन्म देती हैं बेटा ....! तुम्हारे पिता ,काका, भाई युद्ध में मारे गए ,इसमें अनोखी बात क्या हुई ? वीरों को जागतिक सुख नहीं ,अपना धर्म और कर्तव्य प्रिय होता हैं.... ! तुम्हारे पिता ने मुझसे अनेक बार युद्ध में वीरगति प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त की थी, तुम्हें तो अपने पिता पर गौरव होना चाहिए। "
🌿 "सम्यक कर्तव्य-पालन का सुख ही सच्चा सुख हैं , अन्यथा देह तो प्रारब्ध के अधीन हैं ।इसे तो वह सब सहना ही हैं ,जो उसका प्रारब्ध उसे दे.........राजपूत की जीवन-निधि धन-धरा-परिवार नहीं हैं ,ईमान ही उसका कर्तव्य हैं । अबलाओं की भाँति रोना क्षत्रिय को शोभा नहीं देता । उठों और प्रजा की सेवा में जुट जाओ, जिसके लिए तुम्हारा जन्म हुआ हैं !!!"
मीरा ने साथ चलने की बात को टालते हुए कहा ," कुछ दिन मुझे विचार करने का समय प्रदान करें ।तब तक आप सभी सरदार द्वारिकाधीश के दर्शन एवं सत्संग का लाभ उठावें । "
🌿मीरा ने उन्हें कह तो दिया कि उसे सोचने का समय प्रदान करें पर उसके अन्तर्मन में एक तूफ़ान सा उठ खड़ा हुआ ।वह करूणावरूणालय भगवान को करूणा की दुहाई देने लगी...... "यहाँ तक आने के पश्चात मैं वापिस लौट जाऊँ ..... यूँ शरण में आये को लौटा देना तो आपका स्वभाव नहीं ठाकुर !!! फिर ऐसी परिस्थितियाँ क्यूँ उत्पन्न कर रहे हो , जो आपके स्वभाव में ही नहीं ....... मैं तो आपकी जन्म जन्म की दासी हूँ ......मुझे दिशा दिखाओ .....हे नाथ !."
🌿मीरा करूणा की गुहार लगाते ह्रदय का क्रन्दन स्वरों में उड़ेलने लगी..........
🌿करूणा सुनो ......श्याम मोरी,
मैं तो ....होये रही चेरी तोरी ....
क्रमशः ...............
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित ( 132)
क्रमशः से आगे .........
🌿 चित्तौड़ और मेड़ता के राजपुरोहितों के साथ मेवाड़ के उमराव, जयमल जी के दोनों पुत्र और कई राठौड़ राणावत राजपूत सरदार जब एकाएक मीरा को वापिस लिवाने के लिए द्वारिका पहुँच गये तो मीरा बैचैन हो उठी ।एकबार धाम में प्रवेश प्राप्त कर वापिस व्यवहारिक जगत में लौटने का सोचना भी सहज़ सम्भव नहीं है। मीरा मन ही मन में निश्चय करती हैं कि अब वापिस लौट कर नहीं जायेंगी । वह रो रो कर अपने आराध्य से प्रार्थना करने लगी -'' इतनी निष्ठुरता तुम में कहाँ से आ गयी हे दयाधाम ! क्यों मुझे अपने चरणों से दूर कर रहे हो ???....... बहुत भटकी हूँ ।अब तो इस देह में भटकने का दम भी नहीं रहा हैं। और न ही उन महलों के राजसी वैभव में बंद होकर व्यर्थ चर्चा में उलझने की हिम्मत हैं। अब मुझे अपने से दूर मत करो , मत करो ..............।''
🌿 रात्रि में अनायास ही किसी का स्पर्श पाकर वह जग पड़ी ।काञ्चना सम्मुख खड़ी थी । मीरा का मन उसे देख उत्साह से हुलस उठा ।उसने पूछना चाहा कि क्या महादेवी ने मुझे याद फरमाया हैं ,किन्तु आस-पास सोई हुई दासियों का विचार करके वह चुप रही ।वह काञ्चना का हाथ थामें हुए बाहर आयी ।घर के पीछे ही कुँआ और छोटी सी बगिया थी,वही आकर कांचना कुएँ की जगत पर बैठ गयी और मीरा को भी बैठने का संकेत किया ।
'' मुझे महादेवी रूक्मिणी ने भेजा हैं कि आपको मैं आपके पिछले जन्म का वृत्तान्त बता दूँ , जिससे आपकी घबराहट, दुःख कुछ कम हो जाये ।''
......मीरा ने मौन दृष्टि से उसकी ओर देखा ।
🌿"आप व्रजकुल की माधवी हैं।'' उसने मीरा की ओर देखा ।उसका अभिप्राय समझकर मीरा ने स्वीकृति में सिर हिला दिया ।काञ्चना आगे बतलाने लगी--'' सूर्यग्रहण के समय जब समस्त ब्रजवासी ,बाबा ,मैया के साथ देवी वृषभानुजा श्री राधारानी कुरुक्षेत्र पधारी , तब उनके साथ आप भी थी । कुछ समय कुरुक्षेत्र में रहकर सम्पूर्ण व्रज-शिविर को साथ लिये-लिये प्रभु द्वारिका पधारे ।जहाँ अभी गोपी तलाई का स्थान हैं, वहीं सभी जन ठहरे । देवी वृषभानुजा , उनकी सखियाँ , गोपालों और व्रज के जन-जन का अनन्य प्रेम और असीम सरलता देखकर द्वारिका के लोग और महारानियाँ मन-ही-मन न्यौछावर थी । वे एक-एक दिन अपने यहाँ सबको प्रीति भोज के लिये आमन्त्रित करना चाहती थी , परन्तु संख्या की बहुलता के कारण सम्भव नहीं लगता था , अतः यह निश्चित हुआ कि सर्वप्रथम एक-एक दिन आठों पटरानियाँ भोजन का आयोजन करे ,एक दिन महाराज उग्रसेन और कुछ दिन ऐसे ही प्रधान-प्रधान सामंतो के यहाँ ।अंत में सौ-सौ महारानियाँ मिलकर एक-एक दिन भोजन का आयोजन करे ।निश्चय के अनुसार ही बृजवासियों का भोजन और स्नेहाभिसिक्त स्वागत सत्कार हुआ ।
🌿 श्री किशोरी जू के शील, सदाचार ,सरलता और सौन्दर्य पर महारानी वैदर्भी जी ऐसे मुग्ध हुई, जैसे अपने ही प्राणों के साथ देह का लगाव होता हैं। वे बार-बार उन्हें आमंत्रित करती ,अपने ही सुकुमार हाथो से रंधन कार्य करती और अतिशय प्रेम एवं अपार आत्मीयता पूर्वक अपने हाथों से जिमाती । कभी-कभी दोनों एक ही थाली में भोजन करती और प्रभु की बातें चर्चा करते हुए ऐसी घुल-मिल जाती कि लगता जैसे दो सहोदरा बहिनें बहुत काल पश्चात मिली हो । भानुनन्दिनी अकेली नहीं पधारतीं थीं, उनके साथ दो-चार सखियाँ अवश्य ही होतीं । एक बार उनके साथ आप भी पधारी थीं । द्वारिकाधीश की पट्टमहादेवी साक्षात लक्ष्मीरुपा वैदर्भी के महल का असीम ऐशवर्य और अतुल वैभव देखकर एक-दो क्षण के लिए आपके मन में भी उस वैभावानंद की सुखानुभूति प्राप्त करने की और द्वारिकाधीश की महारानी बनने की स्फुरणा उभरी । थोड़ी ही देर में वह सब भूल कर आप श्री किशोरी जू के साथ वापिस व्रज-शिविर में लौट गयीं , किन्तु काल के अनंत विस्तीर्ण अंक में आपका वह संकल्प जड़ित हो गया ।अपनी उस अभिलाषा की पूर्ति की एक झाँकी आप कुछ दिन पूर्व पा चुकी हैं ।अब जो यत्किंचित आपकी अकांक्षा शेष बाकी रही है , वह प्रसाद भी पाकर आप शीघ्र ही किशोरी जू की नित्य सेवा में दिव्य वृन्दावन में पधार जायेंगी ।"
🌿मीरा ,पलकें झुकाए अपने पूर्व जन्म का वृतान्त और अपनी क्षणिक अभिलाषा का ब्यौरा श्रवण कर रही थी ।उसकी आँखों से धीरेधीरे स्त्रवित होती हुई अश्रुओं की धारा उसके वस्त्रों को भिगो रही थी ।पर थोड़ी हिम्मत जुटा कर मीरा ने रूँधे कण्ठ से पूछा ," क्या मुझे द्वारिका से मेवाड़ लौटना होगा ??
...........अब मैं इस देह को और नहीं रखना चाहती ।इस देह के रहने से , इसके सम्बन्धों से ही ये जंजाल उठ खड़े हो रहे हैं ।"
🌿'' नहीं अब विलम्ब नहीं ।कुल ......बस पांच-सात दिन और ।" कांचना मुस्कुराई –'' आप दिव्य द्वारिका के सच्चिदानन्द महल में पधार जायेंगी ।.... किन्तु देह नहीं छूटेगी ,केवल आपका स्वरूप ही परिवर्तित होगा .... ।यही समाचार देने मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ । अब आज्ञा हो ।'' ......कहते हुए काञ्चना उठ खड़ी हुई ।
🌿मीरा ने उठकर काञ्चना के दोनों हाथ थाम लिये-'' महादेवी रूक्मिणी बहिन के चरणों में मेरी ओर से प्रणाम निवेदन करना ।बड़ी कृपा की, जो तुम आ गयी काञ्चना ! तुम्हारे आगमन से ह्रदय को शीतलता मिली ,जैसे जले घाव पर शीतल लेप लगा हो .....अब ह्रदय में कोई दुविधा नहीं ....सब स्वच्छ और दूर तक नज़र आ रहा है ।"
" सभी महारानियों को और प्रभु को मेरा प्रणाम निवेदन करना ।"- मीरा ने शांत स्वर से कहा।
🌿प्रणाम करके काञ्चना चल दी। कुछ दूर तक उसकी देह का प्रकाश और झिलमिलाते हुये पीत वस्त्र दिखलायी देते रहे , फिर वह लोप हो गई। मीरा धीमे और छोटे पग भरती अपने कक्ष में वापिस लौट आई..... उसका मन चाहे शांत था - बहुत से प्रश्नों का समाधान हो गया था , पर फिर भी जीव की अपूर्ण और स्वभाविक अभिलाषाओं का चिन्तन कर और उनकी पूर्ति के लिए करूणापूर्ण प्रभु की चेष्टा का मनन कर वह आश्चर्यचकित भी थी।
क्रमशः ................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (133)
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अंतिम पंक्ति गाने से पूर्व मीरा ने इकतारा मंगला के हाथ में थमाया और गाती हुईं धीमें पदों से गर्भ गृह के भीतर वह ठाकुर जी के समक्ष जा खड़ी हुईं। वह एकटक द्वारिकाधीश को निहारती बार बार गा रही थी -" मिल बिछुरन मत कीजे ।" एकाएक मीरा ने देखा कि उसके समक्ष विग्रह नहीं ब्लकि स्वयं द्वारिकाधीश वर के वेश में खड़े मुस्कुरा रहे है। मीरा अपने प्राणप्रियतम के चरण स्पर्श के लिए जैसे ही झुकी , दुष्टों का नाश , भक्तों को दुलार , शरणागतों को अभय और ब्रह्माण्ड का पालन करने वाली सशक्त भुजाओं ने आर्त ,विह्वल और शरण माँगती हुई अपनी प्रिया को बन्धन में समेट लिया ।क्षण मात्र के लिए एक अभूतपूर्व प्रकाश प्रकट हुआ , मानों सूर्य -चन्द्र एक साथ अपने पूरे तेज़ के साथ उदित होकर अस्त हो गये हों ।इसी प्रकाश में प्रेमदीवानी मीरा समा गई ।उसी समय मंदिर के सारे घंटे -घड़ियाल और शंख स्वयं ज़ोर ज़ोर से एक साथ बज उठे। कई क्षण तक वहाँ पर खड़े लोगों की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ ।
🌿एकाएक चमेली " बाईसा हुकम " पुकारती मंदिर के गर्भ गृह की ओर दौड़ी। पुजारी जी ने सचेत होकर हाथ के संकेत से उसे रोका और स्वयं गर्भ गृह में गये ।उनकी दृष्टि चारों ओर मीरा को ढूँढ रही थी ।अचानक प्रभु के पाशर्व में लटकता भगवा -वस्त्र खंड दिखाई दिया। वह मीरा की ओढ़नी का छोर था। लपक कर उन्होंने उसे हाथ में लिया ।पर मीरा कहीं भी मन्दिर में दिखाई नहीं दी ।निराशा के भाव से भावित हुए पुजारी ने गर्भ गृह से बाहर आकर न करते हुए सिर हिला दिया। उनका संकेत समझ सब हतोत्साहित एवं निराश हो गये ।
🌿" यह कैसे सम्भव है ? अभी तो हमारे सामने उन्होंने गाते हुये गर्भ गृह में प्रवेश किया है ।भीतर नहीं हैं तो फिर कहाँ है ? हम मेवाड़ जाकर क्या उत्तर देंगें। "- वीर सामन्त बोल उठे ।
" मैं भी तो आपके साथ ही बाहर था ।मैं कैसे बताऊँ कि वह कहाँ गई ? स्थिति से तो यही स्पष्ट है कि मीरा बाई प्रभु में समा गई , उनके विग्रह में लीन हो गई। " पुजारी जी ने उत्तर दिया।
🌿पर चित्तौड़ और मेड़ता के वीरों ने पुजारी जी की आज्ञा ले स्वयं गर्भ गृह के भीतर प्रवेश किया। दोनों पुरोहितों ने मूर्ति के चारों ओर घूम कर मीरा को ढूँढने का प्रयास किया ।सामन्तों ने दीवारों को ठोंका , फर्श को भी बजाकर देखा कि कहीं नीचे से नर्म तो नहीं !! अंत में जब निराश होकर बाहर निकलने लगे तो पुजारी ने कहा ," आपको बा की ओढ़नी का पल्ला नहीं दिखता , अरे बा प्रभु में समा गई है। "
दोनों पुरोहितों ने पल्ले को अच्छी तरह से देखा और खींचा भी , पर वह तनिक भी खिसका नहीं , तब वह हताश हो बाहर आ गये ।
🌿इस समय तक ढोल - नगारे बजने आरम्भ हो गये थे ।पुजारी जी ने भुजा उठाकर जयघोष किया -" बोल , मीरा माँ की जय ! द्वारिकाधीश की जय !! भक्त और भगवान की जय !!! " लोगों ने जयघोष दोहराया ।
🌿तीनों दासियों का रूदन वेग मानों बाँध तोड़कर बह पड़ा हो। अपनी आँखें पौंछते हुये दोनों पुरोहित उन्हें सान्तवना दे रहे थे ।इस प्रकार मेड़ता और चित्तौड़ की मूर्तिमंत गरिमा अपने अराध्य में जा समायी।
🌿नृत्यत नुपूर बाँधि के गावत ले करतार,
देखत ही हरि में मिली तृण सम गनि संसार ॥
मीरा को निज लीन किय नागर नन्दकिशोर ,
जग प्रतीत हित नाथ मुख रह्यो चुनरी छोर ॥
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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