मीरा कथा 12

💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻

मीरा चरित ( 116)
 
क्रमशः से आगे ..........

चम्पा और मीरा श्री राधाकुण्ड तट के पीछे किसी वृक्ष की ओट में बैठी बात कर रही है। श्री श्यामसुन्दर की आज्ञा अनुसार अब मीरा को वृन्दावन धाम से श्री द्वारिका प्रस्थान करना होगा। मीरा ने यूँ तो सहर्ष ठाकुर के आदेश का स्वीकार किया पर कहीं भीतर से श्री वृन्दावन छोड़ने की उदासी काट रही है।

🌿" बाईसा हुकम ! ठाकुर जी को भोग लग गया। आप भी प्रसाद ले लेतीं " चमेली ने आकर जैसे ही कहा , तो उसकी दृष्टि चम्पा पर पड़ी। चम्पा का आलौकिक रूप और वस्त्र आभूषण देखकर वह एकाएक हतप्रभ सी हो ठिठक गई। और फिर अपनी स्वामिनी के बराबर आसन पर उसे किसी सखी की समान बैठे देख चमेली को थोड़ा बुरा भी लगा-" अरी चम्पा ! कहां चली गई थी बिना बताये ? तुझे ढूँढ ढूँढकर तो उनके पाँव ही थक गये। किसी बड़े राजा के यहाँ चाकरी करने लगी है क्या ? बाईसा हुकम जैसी स्वामिनी तू सात जन्म में भी नहीं पा सकेगी। समझी ? " हाँ !हाँ ,समझी। "-चम्पा हँसती हुई बोली ," आज तेरे हाथ का बना प्रसाद पाने की मन में आई , इसलिए आ गई "-कहते हुये उठकर उसने चमेली को ह्रदय से लगा लिया।

🌿 चम्पा का स्पर्श होते ही चमेली को उसके आलौकिक स्वरूप का ज्ञान हुआ। वह आश्चर्यचकित सी हो उसकी ओर देखती रह गई- और फिर कुछ समझ पाने पर उसके चरणों में गिर आँसू बहाने लगी। यही अवस्था केसर की भी हुईं ।उनको देखा-देखी किशन और शंकर ने भी चरणों पर मस्तक रखा। इतने समय तक साथ रहकर भी न पहचान पाने के लिए और कभी खरी-खोटी कह पड़ने के लिए चमेली ने क्षमा याचना की। "उठो भाई !" उसने हाथ से मस्तक स्पर्श किया और उन सबको जीवन सफल होने का आश्वासन दिया ।फिर चम्पा हँसती हुईं बोली ," चमेली ! बहुत भूख लगी है। आज गिरधर का प्रसाद नहीं मिलेगा क्या ?" मीरा झट आगे आकर बोली ," सदा आप सब ने मेरी सेवा की है। आज मैं सबको परोसती हूँ ... आज यह सेवा मुझे करने दो। " " नहीं , हम दोनों आज क्यों न साथ ही प्रसाद पायें, फिर ऐसा सुयोग कब मिले ? "- चम्पा ने अपनत्व से भावुक होते हुये कहा -" आ , मेरी थाली में तू भी पा ले ।" भोजन के बीच केसर ने देखा कि सबकी नज़र बचाकर उसकी स्वामिनी ने चम्पा के हाथ से उसका जूठा ग्रास छीनकर अपने मुख में डाल लिया ।

🌿" अब मैं चलूँ ?"चम्पा चलने को प्रस्तुत हुई। सेवक- सेविकाओं ने पुनः प्रणाम किया। मीरा कुछ दूर तक पहुँचाने चली। मीरा का मन फिर भर आया -" जब तक वृन्दावन का रस नहीं चखा था , जब तक सब इतना भावमय नहीं था .....तब इतना कुछ नहीं होता था ......अभी तो लगता है जैसे कोई प्राणों को ही खींचकर बाहर निकाल रहा हो। यहाँ लग रहा था कि आप सब मेरे साथ हो..... श्यामसुन्दर मेरे साथ हैं ....... वृन्दावन में मुझे कहीं एकान्त नहीं अनुभव होता था ......मैं जैसे .....जैसे अपने घर में ......अब ......"-कहते कहते मीरा के शब्द जैसे आँसुओं में अटक गये। " तू क्यों व्याकुल होती है पगली ! तू जब चाहे , तब श्यामसुन्दर नेत्रों के सम्मुख उपस्थित हो जायेंगे। अब वह और तू दो रहे हैं क्या ?"-चम्पा उसे सान्तवना देती कहने लगी। " नहीं बहिन ! मीरा तो कबकी उनमें लय हो गई। इस देह में - इसके रोम रोम में बस और बस वही है ..... फिर भी प्रत्यक्ष बिछुड़ना प्राणघाती लगता है ।" " अब चलती हूँ , तू अपनी संभाल करना ।तू यहीं ठहर !" - चम्पा ने मीरा को स्नहाभिसिक्त आलिंगन दिया और आगे चलकर पेड़ों के झुरमुट में लोप हो गई ।

🌿चम्पा का परिचय पाकर चमेली और केसर चकित थीं। जीवन साथ साथ बिता दिया , फिर भी पहचान नहीं पाया कोई भी। और मीरा..... की आँखों में आज नींद नहीं थी..... वह चिन्मय वृन्दावन का जिया प्रत्येक क्षण फिर से जी लेना चाहती थी .......उसकी स्मृति पटल पर एक एक करके यहाँ की सब लीला दर्शन उबर कर आने लगे.......उसे वह दिन भी स्मरण में आया ....जिस दिन वे सब वृन्दावन पहुँचे .....और फिर यहीं सेवाकुन्ज सिद्ध स्थली के पास वह आकर यहाँ से कहीं ओर न जाने के विचार से रच बस गई..... और वह उसका अति रूचिकर पद.......

🌿आली म्हाँने लागे वृन्दावन नीको......

🌿 मीरा अपने ही भाव और स्वर की लहरियों में उतरने लगी......

क्रमशः .............

॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻
[0💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻

मीरा चरित ( 117 )

क्रमशः से आगे ...........

🌿चम्पा और मंगला दो ही अविवाहित दासियाँ थी जो मीरा के विवाह के उपरान्त उसके साथ चित्तौड़ गई थी। चम्पा के जाने के पश्चात् चमेली को मंगला की बहुत याद आने लगी। मेड़ता से वृन्दावन आते समय मीरा , मंगला को श्यामकुँवर सा बाई की देख-रेख के लिए छोड़ आई थी। यूँ तो श्यामकुँवर के पास दास दासियों की कमी न थी , पर फिर भी भगवत्सम्बन्धी भजन वार्ता सुनाने हेतु आदेश देकर मंगला को अपने पास  ही रख लिया था।

🌿 पच्चीस वर्ष व्रज में निवास करके मीरा ने विक्रम संवत 1621 में द्वारिका के लिये प्रस्थान करने का निश्चय किया ।उस समय उनकी आयु पचपन वर्ष के ऊपर थी ।अपने प्राणपति श्री द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए वे प्राणप्रियतम के आदेशानुसार तीर्थयात्रियों के दल के साथ प्रस्थान करने को प्रस्तुत हुई। उस समय उनके केशों में सफेदी झाँक चुकी थी ।ठीक प्रस्थान की पूर्व संध्या में मंगला आ गयी ।मंगला को देख चमेली और केसर की प्रसन्नता की सीमा न रही ।

          मीरा भी इतने वर्षों के पश्चात् यूँ एकाएक मंगला को मिल अति  प्रसन्न हुई ।कुशल समाचार पूछने पर मंगला ने बताया-'श्यामकुंवर बाईसा को पुत्र लाभ हुआ ।जोधपुर के राव मालदेव की अनीति और अनाचार के कारण मेड़ता का पराभव हुआ और राव वीरमदेव जी को दर-दर की ठोकरे खानी पड़ी ।असीम उथल-पुथल घमासान पारस्परिक युद्ध और राजोचित चातुर्य के बाद मेड़ता पर राव वीरमदेव जी का पुनः अधिकार हो गया ।मेड़ता प्राप्त करने के दो माह बाद ही वि०सं० १६०० में राव वीरमदेव जी का देहावसान हो गया। राव वीरमदेव जी के बाद राव जयमल मेड़ता की गद्दी पर आसीन हुये।

             मीरा पीहर का समाचार जान मिश्रित से भावों में गिर गई। फिर उसने पूछा ," अब तो सब कुशल हैं न, मंगला , मेड़ते में ।तू क्यों भाग आयी पगली ! सुख से वही रहती ।"

मंगला ने अरज़ किया,-"मेरी कुशलता और सुख तो इन चरणों में हैं हुकम ! जहाँ ये चरण हैं वही मैं । वहाँ तो आपके आदेश के बंधन में बंधकर रह जाना पड़ा ।और रही बात अब मेड़ता की तो ,सो सरकार !  राजा जोधाणनाथ की तृष्णा-कोप मिटे तो कुशलता समीप आये। जोधाणनाथ के कारण राव जयमल को मेड़ता छोड़ना पड़ा ।कुछ दिन इधर-उधर गुजारने के बाद वे चित्तौङ चले आये। महाराणा उदयसिंह जी ने बड़ा आदर-सत्कार कर उन्हें चित्तौड का दुर्गाध्यक्ष घोषित किया।

        जब अन्नराज मेड़ते छोड़ अन्यत्र पधारने लगे तो मैंने वहां से वृन्दावन आने का निश्चय कर लिया ।बाईसा के हुक्म से आज्ञा प्राप्त करके मैं यात्रियों के साथ वृन्दावन के लिये चल पड़ी। वृन्दावन जाने का मेरा मन देख श्यामकुँवर ने फरमाया -' "जाओ जीजी ! जाओ ।अपने सुख के पीछे मैं तुम्हारा सुख क्यों मिट्टी करूँ । म्हाँरी म्होटा माँ को अरज़ करना कि मैं कितनी ही दूर क्यों न रहूँ ,मन सदा आपके चरणों की ही परिक्रमा लगाता रहता हैं। अपनी इस छोरू श्याम को भूल न जाये, बस इतनी कृपा बनी रहे ।कभी-कभार याद करके अपनी गोद की लाडली श्यामा को सनाथ बनाये रखे ! इतना कहते-कहते वे बेतहाशा रोने लगी ।"
      
          यह सुन मीरा की आँखों में आंसू भर आये और लाडली श्यामा के बचपन की अनेक स्मृतियाँ उसके मानस-पटल पर नृत्य करने लगी ।

         मंगला के मुख से लाडली श्यामा का समाचार सुनकर मीरा ने गंभीर श्वास छोड़ते हुए कहा- 'बेटा ! तेरे गोपाल जी तेरी सार-संभाल करेंगे ।वे ही तो एक अपने हैं। म्होटा मा काँ मोह छोड़ !"

  

🌿प्रातः सूर्योदय से पूर्व ही मीरा  श्यामा-श्याम की आज्ञा ले यात्रियों-संतो के साथ द्वारिका के लिए चल पड़ी। इन पच्चीस वर्षो में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी ।दूर-दूर के संत-यात्री
उनके सत्संग-लाभ और दर्शन के लिए हाज़िर होते ।ज्ञान-भक्ति की गहन-से-गहन गाँठ वे सहज शब्दों में ही सुलझा देती ।चमेली और मंगला ने यात्रा में उनके लिये सवारी का प्रबंध करना चाहा, पर मीरा ने मना कर दिया ।उन्होंने कहा - "वृन्दावन और गिरिराज की परिक्रमा करने से अब चलने का अभ्यास हो गया हैं।

🌿यात्रियों ,संतों की टोली के साथ जैसे जैसे  मीरा अपने गन्तव्य की तरफ़ बढ़ती जा रही थी , उसका उत्साह भी बढ़ रहा था । जैसे द्वारिका का पथ कम होता जाता.......  द्वारिकाधीश के दर्शन का उत्साह उसकी त्वरा को बढ़ा रहा था। वृन्दावन की सब स्मृतियाँ ह्रदय के एक कोने में सुरक्षित थीं .....पर यहाँ मीरा को अनुभव होने लगा .....मानों वे गिरधर के घर जा रही हो........ उसके ह्रदयगत भाव पद का स्वरूप धर संगीत की लहरियों में वातावरण को सुगन्धित करने लगे....
🌿मैं तो गिरधर के घर जाऊँ.......
      गिरधर मोरे साँचे प्रीतम ,
        उन सँग प्रीत निभाऊँ  ॥
    

🌿जिनके पिया परदेस बसाये ,
     राह तकत नैना थक जाये ,
     मोरे पिया मोरे मन में बसत हैं,
      नित नित दरसन पाऊँ ......

🌿मात पिता और कुटुम्ब कबीला,
     झूठे जग की झूठी लीला ,
      साँचा नाता गिरधर जी का ,
      उन संग ब्याह रचाऊँ .........

🌿दूर से मुरली की धुन आये ,
     मधुर मिलन के गीत सुनाये ,
     गिरधर जी का आया बुलावा ,
      पँख बिना उड़ जाऊँ........
     मैं तो गिरधर के घर जाऊँ 🌿

 चतुर्मास उन्होंने पथ में ही व्यतीत किया और मीरा सपरिकर द्वारिका पहुँची।

क्रमशः .................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮

मीरा चरित ( 118 )

क्रमशः से आगे .........

🌿मीरा अपने जीवन के अगले पड़ाव पर पहुँची...... द्वारिका । द्वारिका और द्वारिकाधीश के दर्शन कर मीरा प्रसन्न मग्न हो गयी। प्रभु के दर्शन कर , उनकी छवि को निहार उसका ह्रदय गा उठा .......

🌿म्हारों मन हर लीन्हों रणछोड़ ।
मोर मुगट सर छत्र बिराजे कुंडल री छबि ओर॥

चरण पखारे रतनाकर री धरा गोमत जोर ।
धुजा पताका तट-तट राजे झालर री झकझोर॥

भगत जणा रा काज सँवार्या म्हाँरा प्रभु रणछोर।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर कर गह्ययो नन्दकिशोर॥

🌿मीरा की कीर्ति उनसे पहले ही द्वारिका पहुँच गयी थी ।उनके आगमन का समाचार सुनकर संत-भक्त सत्संग के लोभ से आने लगे, जैसे पुष्प गंध पाकर भ्रमरों का झुंड चला आता हो ।उनकी अनुभव-पक्व-वाणी ,स्निग्ध मुखाकृति ,तेजोदिप्त नेत्र ,त्यागमय जीवन और राग-रागनियों से युक्त भावपूर्ण अद्भुत-आलौकिक कंठ स्वर आने वाले भक्तों के सारे संशयो का नाश कर देते थे । मीरा की देह में अब हल्की सी स्थूलता आ गयी थी ,किन्तु जब वे रणछोड़राय के सामने भाव-विभोर नृत्य करती तो लगता कि किसी अन्य लोक की देवांगना ही धरा पर उतर आई हैं।

🌿गोमती की धारा और उसका सागर से मिलन उस सागर का अंतहीन विस्तार और गहराई उन्हें अपने स्वामी से मिलने का सन्देश देती ,वे सब उनके ऐश्वर्य के प्रतीक- से लगते ।वे प्रातः सागर गर्भ से उदभूत अंशुमाली ( सूर्य )को एकटक देखती रहती ।इसी प्रकार सांयकाल जब वे प्रचण्ड रश्मि अपना तेज समेटकर अनुराग-रंजित हो देवी प्रतीची के भवन द्वार पर होते, उनके प्राण एक अनोखी पीड़ा से छटपटा उठते।कभी मीरा को लगता कि द्वारिकाधीश किनारे के उस पार मुस्कराते हुए खड़े है और गोमती की उत्तालित तरंगे ठाकुर के श्री चरण धोवन के लिए आपस में होड़ लगा रही हो।
      

🌿मीरा की आँखों के सामने द्वापर की द्वारिका मूर्त हो जाती और......और उस द्वारिका में सहस्त्रो भवनों को समेटे हुए वह स्वर्ण परिखा,,उसका वह रत्नजडित द्वार ,उस द्वार के दर्शन मात्र से वे अधीर हो जाती ।उनकी देह काँपने लगती और द्वार में प्रवेश से पूर्व ही अचेत हो भूमि पर गिर पड़ती ।कभी उस द्वार पर टकटकी लगाए देखती रहती -''यह, यह तो अपना ही .....अपने स्वामी और उनकी प्रियतमा पत्नियों के महलों  का द्वार हैं..........
कितने लोग आ जा रहे थे उस द्वार से..... कितनों को मैं पहचानती हूँ...... ये, ये सात्यकी हैं और ये क्रतवर्मा नारायणी  सेना के उदभट वीर सेनापति ..........ये साम्ब जा रहे हैं और ये..... उद्धव, प्रधुम्न, अहा ! प्रधुम्न ने कैसी मुख छवि पायी है बिलकुल अपने पिता की तरह , सहसा देखकर लगता हैं कि वही हैं.... और वे आ रहे हैं भुवनपति द्वारिकाधीश, मेरे.....मेरे.....प्राणपति......मेरे.....सर्वस्व....मेरे घूँघट की लाज......मेरे जीवन की अवधि......मेरे.....आगे कुछ कहने को नहीं मिलता । वह मदगज चाल ,वह मोहन मुस्कान , दृगों की वह -वह अनियारी चितवन...अहा... उन्होंने मेरी ओर देखा , देखा पहचान आयी दृष्टि में ये.........ये मुस्कराये.... .....मेरी ओर देखकर ..................। "

🌿 मीरा गोमती तट पर यह सब दर्शन करते करते  मूर्छित हो जाती और दासियाँ उपचार  करने में जुट जाती  । दूर खड़े लोग उनकी दशा देख " धन्य -धन्य " कर उठते ।उनकी चरण-रज सिर पर चढ़ाकर स्वयं को कृतार्थ मानते ।उनके अधीर प्राण देह की बाधा को पार करने के लिये व्याकुल हो उठते --' दासियाँ, संखियाँ समझाती पर उनकी व्याकुलता बढ़ती  ही जाती ।वे गाते हुए अपने भावो का श्रृंगार करती .............

🌿राय श्रीरणछोड़ दीज्यो द्वारिका रो वास।
शंख चक्र गदा पद्म दरसे मिटे जैम की त्रास॥

सकल तीर्थ गोमती के रहत नित-निवास।
संख झालर झांझर बाजे सदा सुख की वास ॥

तज्यो देसरु वेस हू तजि तज्यो राणा वास।
दास मीरा सरण आई थाने अब सब लाज ॥

🌿 वह प्रभु से निहोरा करती हुई   कहती- ' तुम्हारा विरद मुझे प्रिय लगा ।इसलिए सब मेरे वैरी हो गये। अब यदि तुम सुधि ना लो, ना निभायो ,तो मुझे कहीं कोई सहारा नहीं हैं। मीरा ने अपने वे सुन्दर घने केश जिनमें कहीं कहीं सफ़ेदी झाँक उठी थी ,मुँडवा लिए ।भगवा वेश धर हाथ में इकतारा ले वे करूणा और भक्त वत्सलता के पद गाती।           

         मीरा के भावों में अधिकतर विरह रस ही होता -एक ऐसी विरहणी की दशा जो ठाकुर के दर्शन सुख के लिए कब से वन -वन डोल रही है। एक ऐसी विरहणी -जो कब से द्वारिकाधीश की एक झलक के लिए..... एक संदेश के लिए तरस रही है ...... गोमती के किनारे झरती आँखों से  वह घंटों उसकी लहरों से अपने प्रियतम का संदेश पूछते हुए कहती.........

🌿कोई............कहियो री हरि आवन की,
      आवन की मनभावन की ........

क्रमशः ...........

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

💮♻💮♻💮♻💮♻💮 💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻

मीरा चरित ( 119)

क्रमशः से आगे.........

🌿द्वारिका में मीरा को सपरिकर रहते कुछ समय बीत गया ।द्वारिकाधीश दर्शन , गोमती के किनारे घंटों तक खड़े दूसरी छोर तक निहारना , प्रतीक्षा करते रहना मीरा का जैसे नियम सा हो गया था। याँ फिर कई संत , महात्मा उसका यश श्रवण कर दर्शन के लिए आते तो कुछ समय सत्संग में उसका मन रम जाता।

🌿 एक बार एक दुखी व्यक्ति,,जिसका एकमात्र युवा पुत्र मृत्यु को प्राप्त हुआ ,,वः सभी तीर्थो में घूमता- फिरता द्वारिका पहुँचा और मीराबाई का नाम सुन दर्शन करने आया ।अपनी विपद गाथा मीरा को सुना उसने साधु होने की इच्छा को प्रगट किया ।मीरा ने समझाया -" क्या केवल घर छोड़ना और कपडे रंगाना ही तुम्हारी समस्या का हल हैं? "

           व्यक्ति बोला-' मैं दुःख से तप गया हूँ ।पुनः दुःख का सामना नहीं करना चाहता।"

मीरा ने व्यक्ति को सांत्वना देते हुए कहा -'' दुःख-सुख भौतिक वस्तु नहीं हैं, कि कोई उठाकर तुम्हे दे दे ।अथवा कोई सेना नहीं कि तुम भागकर उससे बच सको। तुम्हारा अर्थ हैं कि पुत्र की मृत्यु से तुम्हे जो दुःख की अनुभूति हुई ,वह तुम्हे फिर ना झेलनी पड़े। यही ना ?"

            " जी सरकार ।"

🌿मीरा ने आगे सहज़ता से समझाते हुए कहा ," कि इसका  अर्थ तो केवल यह है कि इस  दुख की अनुभूति से तुम्हे पीड़ा हैं। पुत्र इसलिए प्रिय है कि उसके जीवित रहने से सुख और मरने से दुःख का अनुभव होता हैं। और यह इसलिए क्योंकि तुम्हारा उसमे मोह हैं। " यह मेरा हैं ,बड़ा होकर मेरा सहारा बनेगा , बहु आयेगी, सेवा करेगी , पौत्र होगा,,वंश बढेगा ,मरने पर मरणोत्तर कार्य करेगा ,यही ना ?"

व्यक्ति ने स्वीकृति में सिर झुका दिया ।

             " सोचकर देखो ! ये सब भावनाएँ केवल अपने लिए ही तो थी। अपने सुख की इच्छा, और इस इच्छा में बाधा पड़ते ही तुम्हें दुःख ने आ घेरा। परन्तु सोचकर देखो -यदि पुत्र जीवित होता और तुम्हारी इच्छा के विपरीत व्यवहार करता , तो क्या तब भी तुम साधु होने की इच्छा करते क्या ?"

" आपका फरमाना ठीक हैं।"

              🌿" तो इस दुख से  मात्र निवृत होने की तुम्हारी इच्छा को भगवान से जुड़ने की , उन्हें पाने की लालसा का ,भक्ति का नाम देना तो उचित नहीं होगा। यह तो परिस्थिति से आँखें मूँद कर विमुख होना पलायन है , भक्ति की तो इसमें सुगन्ध भी कहीं नहीं। "

           "पर सोचो तो  तुम तो फिर भी ठीक हो  जो दुख से निवृत होने के कारण और कुछ मोह से वैराग्य होने पर इस माया से निकल आने की बात तो सोचते हो । अधिकाँश लोग तो इस मोह के गर्त से निकलना  ही नहीं चाहते। रात-दिन कलह, व्यथा , चिंता झेलकर भी वह मोह को नहीं छोड़ पाते ।क्योंकि मोह ही दुःख का मूल हैं। पाप का  पिता मोह, माता तृष्णा और क्रोध, लोभ, मद-मत्सर, आशा आदि कुटुम्बी हैं। इनका एक भी सदस्य मन में घुसा.......नहीं कि धीरे-धीरे पुरे कुटुंब को ले आता हैं। फिर पाप की पत्नी अशांति तथा बेटी मृत्यु भी आकर क्रमशः हमें ग्रस लेती हैं। और इनसे बचने का उपाय केवल और केवल  भजन हैं ,साधू होना नहीं ।अभी तुम्हारे षट विकार दूर नहीं हुए हैं कि खाने-सोने की चिंता न रहे ।यदि साधू हुए ,तो सबसे पहली तो चिंता तुम्हे यह लगेगी कि कहाँ रहे, क्या खाये,  और कहाँ सोये । यदि वैराग्य  ही नहीं हैं तो कठिनाई नहीं सह पाओगे और संसार से विरक्ति ना होकर साधू वेश से ही विरक्ति हो जायेगी ।"

🌿मीरा ने इकतारा उठाया और सदा के मधुर स्वर में उसे और जीव मात्र को उपदेश देते हुये गाया कि ," हे मेरे मन ! तू उस अविनाशी हरि के चरण कमल का ध्यान धर ! जो तुझे आज धरती और आकाश के मध्य जो भी दिखाई दे रहा है .. वह सब विनष्ट हो जायेगा ! तीर्थ यात्रा ,कोई व्रत के पारण और न ही इस शरीर को कोई कष्ट देने से तुझे प्रभु की प्राप्ति हो सकती है ! यह संसार तो एक चौसर की बाज़ी के समान है जो शाम ढलते ही उठ जायेगी और उसी तरह यह देह भी मिट्टी में ही मिल जायेगी ! योगभक्ति का अर्थ समझे बिना ऐसे ही भगवे वस्त्र पहन कर  घर त्याग का कोई लाभ नहीं ! अगर प्रीति पूर्वक भक्ति की युक्ति ही नहीं समझी ,तो बारबार उल्टे इसी जन्म मरण के चक्कर में ही रह जाना पड़ेगा ......

🌿भज मन चरणकँवल अविनाशी।
    जेताई दीसे धरण गगन बिच,
     तेताई सब उठ जासी।
      कहा भयो तीरथ व्रत कीन्हें,
      कहा लिये करवत कासी ॥

🌿इण देही का गर्व न करणा ,
      माटी में मिल जासी।
      या संसार चौसर की बाजी,
      साँझ पड़याँ उठ जासी ॥

🌿कहा भयो है भगवा पहरयाँ,
      घर तज भये सन्यासी ।
     जोगी होय जुगत नहीं जाणी ,
     उलट जनम फिर आसी ॥

🌿अरज़ करूँ अबला कर जोड़े ,
      श्याम तुम्हारी दासी ।
      मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
      काटो जम की फाँसी ॥🌿

ये तो ,हे श्यामसुन्दर ! कोई ऐसा उपाय करो , कि मीरा की  इस भवफाँसी काट कर उद्धार करो !

क्रमशः ...............

🌾॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥🌾

💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮

मीरा चरित ( 120 )

क्रमशः से आगे ............

🌿 द्वारिका में ,मीरा एक ऐसे दुखी व्यक्ति  जो पुत्र की मृत्यु के पश्चात   हताश हो सन्यास लेना चाहता था ,उसका मार्ग दर्शन कर रही है । मीरा ने उसे समझाया कि इस तरह की  परिस्थितियों से आये क्षणिक वैराग्य को आप भक्ति का नाम नहीं दे सकते ।

🌿मीरा ने उसे सहज़ता से बताते हुये कहा ," अगर तुम भक्ति पथ पर शुभारम्भ करना ही चाहते हो तो शुष्क वैराग्य और सन्यास से नहीं ब्लकि भजन से करो। भजन का नियम लो , और इस नियम को किसी प्रकार टूटने न दो ।अपने शरीर रूपी घर का मालिक भगवान को बनाकर स्वयं उसके सेवक बन जाओ। कुछ भी करने से पूर्व भीतर बैठे स्वामी से उसकी आज्ञा लो ।जिस कार्य का अनुमोदन भगवान से मिले , वही करो ।इस प्रकार तुम्हारा वह कार्य ही नहीं , ब्लकि समस्त जीवन ही पूजा हो जायेगा ।नियम पूर्ण हो जाये तो भी रसना ( जीभ ) को विश्राम मत दो ।खाने , सोने और आवश्यक बातचीत को छोड़कर , ज़ुबान को बराबर प्रभु के नाम उच्चारण में व्यस्त रखो ।"

🌿" वर्ष भर में महीने दो महीने का समय निकाल कर सत्संग के लिए निकल पड़ो और अपनी रूचि के अनुकूल स्थानों में जाकर महज्जनों की वार्ता श्रवण करो। सुनने का धैर्य आयेगा तो उनकी बातें भी असर करेंगी। उनमें तुम्हें धीरे -धीरे रस आने लगेगा। जब रस आने लगेगा , तो जिसका तुम नाम लेते हो ,वह आकर तुम्हारे भीतर बैठ जायेगा ।ज्यों -ज्यों रस की बाढ़ आयेगी ,ह्रदय पिघल करके आँखों के पथ से निर्झरित होगा ,और वह नामी ह्रदय -सिंहासन से उतर कर आँखों के समक्ष नृत्य करने लगेगा। इसलिए ......

🌿राम नाम रस पीजे मनुवा ,
     राम नाम रस पीजे।
      तज कुसंग सत्संग बैठ नित,
       हरि चर्चा सुन लीजे ॥

🌿काम क्रोध मद लोभ मोह कूँ ,
     चित्त से दूर करी जे ।
     मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
     ताहि के रंग में भीजे ॥

        🌿 " आज्ञा हो तो एक बात निवेदन करना चाहता हूँ !" एक सत्संगी ने पूछा ।और मीरा से संकेत पा वह पुनः बोला ," जब घर में रहकर भजन करना उचित है अथवा हो सकता है तो फिर आप श्रीचरण ( मीरा ) रानी जैसे महत्वपूर्ण पद और अन्य समस्त सुविधाओं को त्याग कर ये भगवा वेश , यह मुण्डित मस्तक ..........?"

       "देखिए ,जिसके लिए कोई बन्धन नहीं है, जिसके लिए घर बाहर एक जैसे है , ऐसे हमारे लिए क्या नियम ?"

🌿म्हाँरा पिया म्हाँरे हिवड़े रहत है ,
     कठी न आती जाती।
     मीरा रे प्रभु गिरधर नागर ,
      मग जोवाँ दिन राती ॥

"सार की बात तो यह है कि बिना सच्चे वैराग्य के घर का त्याग न करें ।"

      " धन्य ,धन्य हो मातः !" सब लोग बोल उठे ।

🌿" क्षमा करें मातः! आप ने फरमाया कि भजन अर्थात जप करो ।भजन का अर्थ सम्भवतः जप है ।             पर जप में मन लगता नहीं माँ !" उसने दुखी स्वर में कहा ," हाथ तो माला की मणियाँ सरकाता है , जीभ भी नाम लेती रहती है , किन्तु मन मानों धरा -गगन के समस्त कार्यों का ठेका लेकर उड़ता फिरता है ।ऐसे में माँ , भजन से , जप से क्या लाभ होगा ? ब्लकि स्वयं पर  जी खिन्न हो जाता है। "

            🌿 मीरा ने उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुये कहा ," भजन का अर्थ है कैसे भी ,जैसे हो, मन -वचन -काया से भगवत्सम्बन्धी कार्य हो। हमें भजन का ध्यान ऐसे ही बना रहे , जैसे घर का कार्य करते हुये , माँ का ध्यान पालने में सोये हुये बालक की ओर रहता है याँ फिर सबकी सेवा करते हुये भी पत्नी के मन में पति का ध्यान रहता है। पत्नी कभी मुख से पति का नाम नहीं लेती , किन्तु वह नाम उसके प्राणों से ऐसा जुड़ा रहता है कि वह स्वयं चाहे तो भी उसे हटा नहीं पाती। मन सूक्ष्म देह है ।जो भी कर्म बारम्बार किए जाते है , उसका संस्कार दृढ़ होकर मन में अंकित होता जाता है। बिना मन और बुद्धि के कोई कार्य बार बार करने से  मन और बुद्धि उसमें धीरेधीरे प्रवृत्त हो जाते है ।जैसे खारा याँ कड़वा भोजन पहले अरूचिकर लगता है , पर नित्य उसका सेवन करने पर वैसी ही रूचि बन जाती है। "

            " जप किया ही इसलिए जाता है कि मन लगे ,मन एकाग्र हो ।पहले मन लगे और फिर जप हो , यह साधारण जन के लिये कठिन है ।  यह तो ऐसा ही है कि जैसे पहले तैरना सीख लें और फिर पानी में उतरें । जो मन्त्र आप जपेंगें , वही आपके लिए , जो भी आवश्यक है, वह सब कार्य करता जायेगा । मन न लगने पर जो खिन्नता आपको होती है , वही खिन्नता आपके भजन की भूमिका बनेगी। बस आप जप आरम्भ तो कीजिए। आरम्भ आपके हाथ में है , वही कीजिए और उसे ईमानदारी से निभाईये। आपका दृढ़ संकल्प , आपकी ,निष्ठा , सत्यता को देख भजन स्वयं अपने द्वार आपके लिए खोल देगा ।"

क्रमशः ...................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

♻💮♻💮♻💮♻💮♻ ♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮

मीरा चरित ( 121 )

क्रमशः से आगे .........

🌿द्वारिका में मीरा घंटों सागर के तट पर खड़ी रहती। सागर की उत्ताल तरंगे उसे विभोर कर देती , किन्तु प्रिय -विरह उन्हें चैन न लेने देता । मीरा को वृन्दावन की उन रात्रियों का स्मरण हो आता , जब वह ललिता जू के संग गोवर्धन गिरि के कुञ्जों , यमुना पुलिन और वृंदा वीथियों में श्री श्यामसुन्दर की लीला दर्शन करती हुईं घूमती थी। मीरा सोचती ," वृन्दावन पहुँच कर तो लगता था , बस गन्तव्य आ गया। अब कहीं नहीं जाना , कुछ देखना  सुनना बाकी नहीं रहा। किन्तु धणी का धणी कौन है ? अब ये द्वारिकाधीश कहाँ परदेस जा बसे कि प्राणों की पुकार सुनते ही नहीं , मेरे ह्रदय का क्रन्दन उन्हें क्यों सुनाई नहीं देता !! हाय यह मेरे प्राण इस पिण्ड ( शरीर ) में क्यों अटके हुए है ?? न तो प्रभु स्वयं दर्शन देते है और न ही कोई संदेश भिजवाते है !! क्यूँ न मैं कटारी ले कर स्वयं को समाप्त कर लूँ ?? बस एक बार आपके दर्शन की लालसा ने ही मेरे प्राण बाँध रखे है !!!"

🌿मीरा की व्याकुलता दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाती थी। और उसे शांत करने का एक ही उपाय था- सत्संग। संतों के दर्शन कर उनमें मानों नये प्राणों का संचार हो जाता था। वे स्वयं कहती......

🌿श्याम बिन दुख: पावाँ सजनी कौन म्हाँने धीर बँधावे।
.........................................
साध संगत में भूल न जावे मूरख जनम गमावे।
मीरा तो प्रभु थाँरी सरणाँ जीव परम पद पावे॥

🌿कभीकभी तो मीरा श्रीकृष्ण के विरह में यूँ अचेत हो जाती , मानों देह में प्राण ही न हो। दासियाँ रो उठती , किन्तु मंगला धीर धरकर कीर्तन करने को कहती।उनके संकीर्तन से वह सचेत तो हो जाती , पर उसकी पीड़ा देख वे पछताने लगती कि जब तक वह अचेत थी , पीड़ा भी शांत थी। शायद मूर्छा में प्रभु दर्शन का सुख पा रही हों !! सचेत होने पर वे कभी नील वर्ण सागर को अपना प्रियतम जानकर मिलने के लिए दौड़ पड़ती। और कभी गगन के नीले रंगों में घनश्याम को पकड़ने दोनों हाथ उठाकर उछल पड़ती। दिन तो जैसे तैसे साधु-संग ,भजन -कीर्तन में निकल जाता , किन्तु रात तो बैरिन ही होकर आती। मंगला बारम्बार समझाती ," बाईसा हुकम ! द्वारिकाधीश पधारते ही होंगे ! वे आपसे कैसे दूर रह सकते है ?आप थोड़ा धीरज धारण करें !"

          🌿 मीरा प्रभु के विरह में उस मीन की तरह तड़फती , जिसे जल से बाहर निकाल दिया हो-" मंगला ! अब मैं उनके बिना कैसे रहूँ ? मेरा पल पल युग के समान बीत रहा है ? क्या उन्हें मेरी इस पीड़ा का अहसास भी है ?? मिलकर बिछुड़ना तो उनका खेल है ,पर मैं क्या करूँ ?? मैं चाहती तो हूँ कि वह जैसे , जिस हाल मैं मुझे रखें , उनकी प्रसन्नता में प्रसन्न रहूँ , किन्तु ......यह देह....... देह ही तो बाधा है !! पापी प्राण इतना कष्ट पाते हैं , पर देह का मोह छोड़कर निकलते क्यों नहीं???"

🌿तुमरे कारण सब सुख छोड़या ,
      अब मोहि क्यूँ तरसावौ हौ।
       विरह व्यथा लागी उर अन्तर ,
        सो तुम आय बुझावौ हौ ॥

🌿अब छोड़त नहीं बणै प्रभुजी ,
      हँसकर तुरत बुलावौ जी।
      मीरा दासी जनम जनम की ,
      अंग से अंग लगावौ जी ॥

क्रमशः ..............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮
♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮

मीरा चरित ( 122 )

क्रमशः से आगे ..........

🌿मीरा का प्राण प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के लिए विरह प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा था। एक दिन वह अचेत पड़ी थी। मुखाकृति भी पहचान में नहीं आती थी। मुख से झाग और आँखों से पानी निकल रहा था ।मीरा की तप्तकांचन वर्ण देह झुलसी कुमुदिनी के समान हो गई थी , पर सम्पूर्ण देह ऐसी फूली -सी लगती थी -जैसे उसमें पानी सा भर गया हो। मुख से भी अस्पष्ट स्वर निकलता । मीरा की ऐसी दशा देख दासियाँ अतिशय व्याकुल थीं- वे सब प्रयत्न करके भी स्थिति को संभाल पाने में असहाय थी।

            🌿सब मिल कर रोते हुए कण्ठ से प्रार्थना कर रही थी ," हे द्वारिका नाथ ! आपके भरोसे पर हम द्वारिका आई .....पर आप तो हमारी सुध ही नहीं ले रहे। हम तो जनम से अभागण है --जो ऐसी स्वामिनी पाकर भी न तो तुम्हारी भक्ति कर पाई और न ही हमसे इनकी उचित सेवा ही बन पड़ रही है ।इतने पर भी , हे जगन्नाथ ! किसी जन्म में हमसे भूल से भी कोई पुण्य बन गया हो तो कृपा कर हमारी स्वामिनी को दर्शन दो .......दर्शन दो ! हम असहायों का इस परदेस में तुम्हारे सिवा अब कौन अपना है जिसे हम अपना दुख बताये ?"  यूँ प्रार्थना करते करते वे फूट फूट कर रो पड़ी।

🌿उसी समय द्वार पर स्वर सुनाई दिया ," अलख !!"

" हे भगवान ! अब इस राजनगरी में कौन निरगुनिया आ गया ?" कहते हुए चमेली ने स्वागत के लिए द्वार खोला। उसने देखा -" यह तो आलौकिक साधु है। भगवा वस्त्र धारण किये ,सोलह -सत्रह वर्ष का साँवला सिलौना किशोर। " चमेली ठगी सी कुछ क्षण उसका तेजस्वी मुख दर्शन करती रही ।फिर प्रणाम कर खोये से स्वर में बोली -"पधारे भगवन ! आसन ग्रहण करें। आज्ञा करें , क्या सेवा करूँ ?"

             " देवी ! तुम्हारा मुख म्लान है। कोई विपत्ति हो तो कहो। " सन्यासी ने स्निग्ध स्वर में कहा।

" आप हमारी क्या सहायता करेंगे , आप तो स्वयं बालक हैं ! हमारी विपत्ति असीम है !! और द्वारिकाधीश के अतिरिक्त उसका समाधान किसी के पास नहीं!!! " चमेली ने उदास और झुँझलाते हुए स्वर में कहा। तभी मंगला बाहर आई और सन्यासी को एकटक सी देखने लगी।

            " क्या कोई नियम है कि सन्यासी को वृद्ध ही होना चाहिए अथवा यह कि ज्ञान बड़े -बूढ़ों की   ही बपौती है ?" सन्यासी ने हँसते हुये कहा।

मंगला आगे बढ़ बात संभालते हुये  बोली," नहीं प्रभु ! इसका ऐसा आशय नहीं था। वास्तव में हमारी स्वामिनी बहुत अस्वस्थ है और हम सब उनके जीवन से निराश है। बस मन व्यथित होने से किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही है। हमसे कुछ अपराध हुआ हो तो क्षमा कीजिए। और भीतर पधार  प्रसाद ग्रहण करें। "

              🌿" तुम्हारे दुख का कारण तुम्हारी स्वामिनी का रोग है ।           देखिए , जिस घर से मैं भिक्षा लूँ ,उस घर के लोग दुखी -व्यथित हो, यह मैं सह नहीं पाता।मैं केवल उन रूग्ना को देखना चाहता हूँ। यदि मेरी शक्ति की परिधि में हुआ तो अवश्य ही.......". यति ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

         ''पधारें प्रभु !" मंगला नें उन्हें भीतर आने का संकेत किया।

योगी नें भीतर प्रवेश किया।  मीरा को देख कर वह मुस्कुराया और सिर पर हाथ रख कुछ बड़बड़ाया।
आश्चर्य और प्रसन्नता से सबने देखा  कि -मीरा की फूली हुई देह धीरेधीरे सामान्य होने लगी ।दो तीन घड़ी पश्चात ही मीरा उठ कर बैठ गयीं। जोगी ने सिरसे हाथ हटाकर स्निग्ध सवर में पूछा -"क्या हो गया तुम्हें ?"
यह कह यति खिलखिला कर  हँस पड़ा।

           🌿मीरा किसी अपरिचित लेकिन अपनत्व से परिपूर्ण स्वर एवं स्पर्श को पा चौंक उस किशोर योगी को देखने लगी। यह......यह हँसी तो ब्रज में कई बार देखी सुनी है। मीरा के मुख से अनायास ही निकला ," श्याम .......सुन्दर !!!"

जोगी फिर हँसा ," नहीं ! मैं रमता जोगी। जैसा भेस , वैसी बात ! किन्तु देवी ! केवल मेरा वर्ण , मेरी सूरत आपके स्वामी से मिलती है , मैं वह हूँ नहीं। "

मीरा की आशा से चमक पड़ी आँखों में से फिर आँसू ढलक पड़े........

 क्रमशः ............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮
♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮

मीरा चरित (123 )

क्रमशः से आगे .............

🌿 द्वारिका में , मीरा का श्री कृष्ण दर्शन के लिए विरह दिन प्रतिदिन बढ़ने से उनकी दासियाँ  मीरा की  असमान्य शारीरिक स्थिति को ले अत्यंत चिन्तित थी। एक दिन एक साँवरे नवकिशोर योगी के स्पर्श से और मन्त्र उच्चारण से मीरा स्वस्थता लाभ करती है ।मीरा को जोगी की हँसी और छवि में ठाकुर जी की ही अनुभूति होती है।

🌿मीरा के पूछने पर  जोगी सज़ग होकर बोला ," देवी ! मेरी सूरत आपके स्वामी से मिलती है , पर मैं वह नहीं !  यह तो माया एवं आपका प्रेम  है देवी, जो आपको सर्वत्र प्रभु ही दिखाई देते है। पर ,एक बात है कि आप सचमुच ही बडभागी हैं । आपकी व्याकुलता ने प्रभु को व्यथित कर दिया हैं । वे आपसे मिलने को वैसे ही व्याकुल हैं,,,,जैसे आप व्याकुल हो रही हैं ।वे सर्वेश्वर, दयाधाम अपने जनों की पीड़ा सह नहीं पाते।'' कहते-कहते यति की आँखे भर आयी।

      
       "आप..........आप कौन हैं......... मेरे उपकारी ??'' मीरा ने चकित, दुखित, पर  प्रसन्न स्वर में पूछा ।

       '' मैं  उनका निजी सेवक .....!!....  प्रभु ने आपके लिए  सन्देश पठाया हैं। '

          '' क्या ? क्या कहा मेरे स्वामी ने ?............ क्या फरमाया हैं ? मेरे लिए कोई आदेश दिया है क्या प्रभु ने ? ''........कहते ही मीरा की आँखों से अश्रुधारा बह निकली । और कहा - '' क्या कहूँ  ! मुझ अभागिन से उनकी आज्ञा का पालन पूरी तरह से नहीं हो पा रहा।मैं उनका वियोग प्रसन्न मन से नहीं झेल पा रही। निश्चय तो यही किया था कि जब स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य की तो मुझे उसे प्रसन्न मुद्रा से निभाना भी  चाहिए , पर बताओ , विरह में कैसे कोई प्रसन्न रह सकता है ?? पर...... मेरी बात छोड़े ....... मुझे कहिये  ,,क्या सन्देश हैं प्रियतम का ? .....वे यदि न आना चाहे ,आने में कोई कष्ट हो ...........,बाधा हो तो कभी न आये ......मैं ऐसे ही जीवन के दिन पूरे  कर लूँगी....... और फिर जीवन होता ही कितना हैं ??"

🌿 मीरा ने यति से स्नानकर प्रसाद पाने की प्रार्थना की ।और पीछे खड़े हुए सेवक वर्ग की ओर देख कर बोली -'' ये सब भी न जाने मेरी चिन्ता में कब से  उपवास कर रहे हैं।"

          मीरा एकदम से उठने लगी तो दोनों ओर से केसर और मंगला ने थाम लिया ।चमेली शीघ्रतापूर्वक रसोई में चली गयी और किशन यति की सेवा में लगा । भोजन विश्राम के पश्चात मीरा ने यति के चरणों में प्रणाम किया -'' देव  ! आप जो भी हो ,,आपने मुझे सांत्वना प्रदान की हैं। आप मेरे पति का सन्देश लेकर पधारे हैं,, अतः आप मेरे पूज्य हैं। यधपि मेरे प्राण मेरे प्रियतम का सन्देश सुनने को आकुल हैं , फिर भी कोई सेवा स्वीकार करने की कृपा करे तो सेविका कृतार्थ होगी। ''

      ''सेवक की क्या सेवा देवी .......? स्वामी की प्रसन्नता ही उसका वेतन भी हैं और सेवा ही व्यसन ! आपकी यदि कोई इच्छा हो तो पूर्ण कर मैं स्वयं को बड़भागी अनुभव करूँगा ।''

🌿" अंधे को क्या चाहिये भगवन ! दो आँखे और चातक क्या चाहे - दो बूंद स्वाति जल !! मेरे आराध्य की चर्चा कर मुझे शीतलता प्रदान करे । क्या प्रभु कभी इस सेविका को याद करते हैं ?......क्या कभी दर्शन देकर कृतार्थ करने की चर्चा भी करते हैं?......आप तो उनके अन्तरंग सेवक जान पड़ते हैं, अतः आपको अवश्य ज्ञात होगा कि उनको कैसे प्रसन्नता प्राप्त होती हैं ? उन्हें क्या रुचता हैं ? कैसे जन उन्हें प्रिय हैं ?? उनका स्वरुप,, आभूषण वस्त्र..,उनकी पहनिया (पादुकायें ) ..... उनकी क्रियायें.......उनका हँसना- बोलना ......,भोजन क्या कहूँ उससे सम्बंधित प्रत्येक चर्चा मुझे मधुर पेय-सी लगती हैं - कि जिससे कभी पेट न भरे.....यह पिपासा कभी शांत नहीं होती। कृपा कर बस आप उनकी ही बात सुनाये । "

     🌿" देवी ! आपका नाम लेकर मेरे स्वामी एकांत में भी विह्वल हो जाते हैं। उनके वे कमलपत्र से दो नयन भर जाते हैं , कभी-कभी उनसे अश्रु मुक्ता  भी ढलक पड़तें  हैं। केवल लोक- कल्याण के लिए ही आपको परस्पर वियोग सहना पड़ रहा हैं।''
      
    
       " मैं तो कोई लॊक-कल्याण नहीं करती योगीराज ! मुझे तो आपनी ही व्यथा से अवकाश नहीं हैं। औरों का भला मैं क्या कर पाऊँगी ।"

🌿यति ने मधुर स्वर में कहा -"  आप नहीं जानती पर आपकी इस देह से भक्ति  भाव-परमाणु विकीर्ण होते हैं। वे ही कल्याण करते हैं। जो आपके पास आते हैं,, आपका दर्शन करते हैं,, सेवा करते हैं,,संभाषण करते हैं,, उन सबका कल्याण निश्चित हैं।।आप जिस स्थान का स्पर्श करती हैं,,जहाँ थोड़ी देर के लिए भी निवास किया हो ,, वह स्थान इतना पवित्र हो जाता हैं, कि इसके स्पर्श मात्र से ही लोगो में भगवत्स्मृति जाग्रत हो जाएगी ।'

🌿मीरा ने उन प्रशंसा पूर्ण शब्दों पर ध्यान न देते हुए सहज जिज्ञासा से यति से पूछा ," कोई ऐसा दिन आयेगा कि प्रभु मुझे दर्शन देने पधारेंगे ??? "कहते ही मीरा का गला भर आया और..... और रूँधे हुये कण्ठ से बोली....." मैं अपने विवाह के  समय का उनका वह रूप भूल नहीं पाती । उसके बाद तो केवल एक बार ही दर्शन पा सकी ।सारी आयु रोते कलपते ही बीत गयी महाराज !" कहने के साथ ही नेत्रों से आँसुओ की झरी लग गयी

🌿"क्या कहूँ...... विधाता की गति जानी नहीं जाती । विधाता ने हिरण को इतने दीर्घ ,सुन्दर कजरारे नेत्र तो दिये लेकिन उनका उस वन में क्या प्रयोजन ? बगुले का श्वेत उज्जवल वर्ण होता है तो उसकी कण्ठ ध्वनि विचित्र सी होती है और कोयल चाहे काली होती है पर उसका कण्ठ कितना मधुर होता है ! इसी तरह नदी का जल मीठा और निर्मल रहता है तो समुद्र का जल विस्तृत पर खारा होता है!यह तो प्रारब्ध के खेल है कि किसके भाग्य में क्या आता है ? कहीं तो मूर्ख को भी इतना सम्मान और यश मिलता है और कहीं विद्वान को हाथ फैलाना पड़ता है !इसी तरह महाराज मेरी भक्ति , कीर्ति का मेरे लिए उसका क्या प्रयोजन ,जब मेरे प्रभु ने ही अभी मेरी भक्ति को स्वीकार नहीं किया !!!"

🌿  राम कहिए, गोबिंद कहिये मेरे.....
....राम कहिए, गोबिंद कहिये मेरे।

🌿संतो कर्म की गति न्यारी
..संतो
बड़े बड़े नयन दिए मृगनको,
बन बन फिरत उठारी।

🌿उज्जवल बरन दीनि बगलन को,
कोयल करती निठारी।
संतो करम की गति न्यारी...

🌿और नदी पण जल निर्मल कीनी
      समुंद्र कर दिनी खारी..
.संतो कर्म की गति न्यारी...

🌿मुर्ख को तुम राज दीयत हो,
    पंडित फिरत भिखारी..
संतो कर्म की गति न्यारी.....संतो।।

क्रमशः ..............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮 ♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮

मीरा चरित ( 124 )

क्रमशः से आगे ............

🌿 इक साँवला नव किशोर यति जिसने स्वयं को श्री द्वारिकाधीश का निज सेवक बताया , उसके आने से मीरा थोड़ा प्रसन्नचित्त दिखाई देने लगी। वह जोगी , मीरा के प्रति ठाकुर जी का विरह वर्णन करता जाता था और मीरा भी प्रभु की अन्तरंग वार्ता श्रवण कर हर्ष-विह्वल हो रही थी।

🌿 जोगी मीरा को द्वारिका धीश का संदेश देते कहने लगा ," क्या कहूँ देवी ! आपको देखकर ही स्वामी की आकुलता समझ में आती हैं ।आप  तो उनके ह्रदय में विराजती हैं। आप चिंता त्याग दें !! प्रभु आपको अपनाने शीघ्र ही पधारेंगे..और फिर उनसे कभी वियोग नहीं होगा ।मुझे उन्होंने आपके लिए यही संदेश देकर भेजा हैं।" योगिराज ने मीरा को सांत्वना देते हुये कहा  ।
  

            🌿 मीरा प्रभु का स्नेह से परिपूर्ण  सन्देश सुन हर्ष से विहवल हो उठी । कितने ही दिनों के पश्चात वह प्रसन्नता से पाँव में नुपुर बाँधकर, करताल ले नृत्य करने लगी। मीरा के प्रसन्न ह्रदय की फुहार ने उसके रचित पद की शब्दावली को भी आनन्द से भिगो दिया  ........

🌿सुरण्या री म्हें तो ' हरि आवेंगे आज ।
मेहलाँ चढ़चढ़ जोवाँ सजनी कब आवें महाराज।।

दादुर मोर पपीहा बोले कोयल मधुराँ साज ।
उमड्यो इन्द्र चहूँ दिश बरसे दामन छोड्या लाज।।

धरती रूप नव-नव धार्या इंद्र मिलण रे काज।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बेग मिलो महाराज ।।

🌿 यति और दासियाँ मीरा को यूँ प्रसन्न देख आनन्दित हुये ।  जब-जब यति जाने की इच्छा प्रकट करता तो मीरा चरण पकड़कर रोक लेती -" कुछ दिन और मेरे प्यासे कर्णो में प्रभु की वार्ता रस सुधा-सिंचन की कृपा करें !! "

                  ..........और मीरा के अश्रु भीगे आग्रह से बंधकर योगी भी ठहर जाते ।मीरा ने एक बार भी उनसे उनका नाम, गावं या काम नहीं पूछा, केवल बारम्बार प्रभु के रूप-गुणों की चर्चा सुनाने का अनुरोध करती ,जिसकी एक-एक सुधा-बूँद शुष्क भूमि-सा प्यासा उसका ह्रदय सोख जाता । वह बार-बार पूछती ," कभी प्रभु अपने मुखारविंद से मेरा नाम लेते हैं ?? कभी उनके रसपूर्ण प्रवाल अधरों पर मुझ विरहिणी का नाम भी आता हैं:??  वे मुझे किस नाम से याद करते हैं  योगिराज ?? सबकी तरह मीरा ही कहते हैं कि ........!"

    
           🌿'' देवी ! वे आपको मीरा कहकर ही स्मरण करते हैं। जैसे आप उनकी चर्चा करते नहीं अघाती ( थकती ) ,वैसे ही कभी-कभी तो हमें लगता हैं कि प्रभु को आपकी चर्चा करने का व्यसन हो गया हैं । वे जैसे ही अपने अन्तरंग जनों के बीच एकांत में होते हैं , आपकी बात आरम्भ कर देते हैं। देवी वैदर्भी ने तो कई बार आग्रह किया आपको बुला लेने के लिए अथवा प्रभु को स्वयं पधारने के लिये ।"

🌿सच कहते हैं भगवन ? प्रभु के पाटलवर्ण उन सुकोमल अधरों पर दासी का नाम आया  ?' कहकर, जैसे वे स्वयं प्रभु हो , धीरे से अपने नाम का उच्चारण करती - ' म़ी....... रा ।' मीरा फिर कहती --' भाग्यवान अक्षरों ! तुम धन्य हो !! तुमने मेरे प्राणधन के होठों का स्पर्श पाया हैं !! स्पर्श पाया हैं उनकी मुख वायु का !! कहो तो ,किस तपस्या से ,किस पुण्य बल से तुमने यह अचिन्त्य सौभाग्य पाया ? ओ भाग्यवान वर्णों ! वह राजहंस सम धवल ( श्वेत ) पांचजन्य ही जानता हैं उन अधरों का रस ...... इसलिए तो  मुखर पांचजन्य उस सुधा -मधुरिमा का जयघोष करता रहता हैं यदा-कदा । "........वह हंसकर कहती और नेत्र बंद कर मुग्धा-सी धीरे-धीरे अपना ही नाम उच्चारण करने लगती । मीरा की वह भावमग्न दशा देखकर योगी उसकी चरण-रज पर मस्तक रख देते ,उनकी ( यति ) आँखों से निकले आँसुओं से वह स्थान भीग जाता ।

🌿 वह दिन आ गया जब योगी ने जाने का निश्चय कर अपना झोली- डंडा उठाया ।मीरा उन्हें रोकते हुए व्याकुल हो उठी--'' आपके पधारने से मुझे बहुत शान्ति मिली योगीराज ! अब आप भी जाने को कहते हैं ,तब प्राणों को कैसे शीतलता दे पाऊँगी । आप ना जाये प्रभु !! न जाये !! "

          एक क्षण में ही मानो जैसे आकाश में विद्युत दमकी हो ......ऐसे ही योगी के स्थान पर द्वारिकाधीश हँसते खड़े दिखलाई दिये..... और दूसरे ही क्षण अलोप!!!!!

मीरा व्याकुल हो उठी ........

🌿जोगी मत जा.....मत जा....
     मत जा .......जोगी ......
     पाँय परु मैं तेरे.........
      मत जा......... जोगी....

🌿 प्रेम भक्ति को पेंडों ही न्यारो,
      हमकूँ गैल बता जा ......
    
🌿अगर चन्दन की चिता बणाऊँ,
     अपने हाथ जला जा........

🌿जल बल होय भस्म की ढेरी,
     अपणे अंग लगा जा ......

🌿मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
     जोत में जोत मिला जा ......
       मत जा......मत जा......
       मत जा...... जोगी.......

क्रमशः ............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

♻💮♻💮♻💮♻💮♻♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮

मीरा चरित ( 125 )

क्रमशः से आगे ............

🌿 मीरा रात दिन व्याकुल होकर सोचती -" कितने ही दिन प्रभु के साथ रही, पर मैं अभागिन उन्हें पहचान नहीं पाई। उन्हें योगी समझकर दूर दूर ही रही। अच्छे से उनके चरणों में शीश भी नहीं निवाया। हे ठाकुर ! करूणा भी करने आये थे तो वह भी छल से.....! अगर स्वयं को प्रकट कर देते तो प्रभु आपकी करूणा में कुछ कमी हो जाती -" वह रोते रोते निहोरा देने लगी ।फिर मीरा के भाव ने करवट बदली और स्वयं की प्रीति में ही कमी पा कर बोली ," हा ! कहतें है कि सच्चा प्रेम तो अंधेरी रात में सौ पर्दों के पीछे भी अपने प्रेमास्पद को पहचान लेता है ।पर मुझ अभागिन में प्रेम होता तो उन्हें पहचानती न ? मुझमें प्रेम पाते तो वह योगी होने का नाटक क्यों करते ?अब मैं क्या करूँ , उन्हें कैसे पाऊँ ? क्या योगी भी एक स्थान पर अधिक देर तक कभी रूककर किसी के अपने हो पायें है ? "

🌿जोगिया से प्रीत कियाँ दुख होई ।
प्रीत कियाँ सुख न मोरी सजनी जोगी मीत न होई।
रातदिवस कल नहिं परत है तुम मिलियाँ बिन मोई॥
ऐसी सूरत याँ जग माँही फेरि न देखि सोई।
मीरा रे प्रभु कब रे मिलोगे मिलियाँ आनन्द होई ॥

🌿पूर्णिमा की उज्ज्वल रात्रि है। समुद्र के ज्वार को उमड़ते हुये देख मीरा उससे बातें करने लगी -" हे सागर ! तेरी दशा भी मुझ जैसी ही है।तू कितना भी उमड़े ,उत्ताल लहरें ले ,किन्तु चन्द्र तक की दूरी तय करना तेरे बस की बात नहीं - इसी तरह ,मेरे भी प्राणनाथ मुझसे दूर जा बसे हैं। मैं गुणहीन उन्हें कैसे रिझाऊँ ? पता नहीं , वह धाम कहाँ  है जहाँ मेरे प्रभु विराजते है ?"

          🌿मीरा गम्भीर रात्रि में एकटक सागर की तरफ़ देखती रहती-" हे महाभाग्यवान रत्नाकर ! तुम स्वामी को कितने प्रिय हो ? ससुराल होने पर भी वह स्थाई रूप से  तुम्हारे यहाँ ही रहना पसन्द करते हैं । इतना ही मानों पर्याप्त न हो , द्वारिका भी तुम्हारे ही बीच बसाई ।अपने प्रभु के प्रति तुम्हारा प्रेम असीमित है। सदा उनसे मिले होने पर भी तुम उनके मधुर नामों का गुणगान करते रहते हो। अहा ! मधुर नाम कीर्तन करते करते , उनके श्यामल स्वरूप का दर्शन करते करते तुम स्वयं उसी वर्ण के हो गये हो !!! तुम धन्य हो ,जो अपने प्रभु के रंग में रच बस गये हो , और मैं अभागिनी अपने प्रियतम के दर्शन से भी वंचित हूँ ।क्या तुम मेरा संदेश मेरे स्वामी तक पहुँचा दोगे ?"

              🌿" उनसे कहना कि एक दिन एक सुन्दर ,सुकुमार किशोर एक दिन ज़रीदार केसरिया वस्त्रों से सुशोभित अपने श्याम कर्ण अश्व पर सवार होकर मेरे पिता के द्वार पर आया था। मण्डप में बैठकर मेरे पिता ने उसके हाथ में मेरा कन्यादान किया। जब एकान्त कक्ष में मैंने उनके दर्शन किए तो..... वह रूप...... वह छवि उसका कैसे वर्णन करूँ ? हे सागर ! तुम्हारी तो फिर भी कोई सीमा ,कोई थाह होगी पर उनके रूप माधुर्य को किसी परिधि किसी उपमा में नहीं बाँधा जा सकता। क्या तुमने उनकी वे रतनारी अखियाँ देखी है ? क्या कभी उस अणियारी चितवन के तुमने दर्शन किये है ? क्या कहा ?? उसी चितवन से ही घायल हो कर रात्रि पर्यन्त हाहाकार करते हो ? सत्य कहते हो भैया !! उनकी मुस्कान से अधिक क्रूर कोई बधिक ( शिकारी ) नहीं सुना जाना ।इनकी चितवन की छुरी भी ऐसी जो उल्टी धार की -कि जो कण्ठ पर चलती ही रहे , छटपटाते युग बीत जायें ,पर न बलि -पशु मरे और न छुरी रूके ............ कहो तो यह कैसा व्यापार है ?"

🌿" हाँ ....तो मैं तुम्हें बता रही थी कि मैं तो अभी उस रूप माधुरी की मात्र झाँकी ही कर पाई थी कि मुझे अथाह वियोग में ढकेल , मेरे प्रियतम , मेरे हथलेवे का चिन्ह , मेरी माँग का सिन्दूर सब न जाने कहाँ अन्तर्हित हो गये। हे रत्नाकर ! तुम उनसे कहना , मैं तबसे उस चितचोर की राह देख रही हूँ ! मेरा वह किशोर ,सुन्दर शरीर आयु के प्रहार से जर्जर हो गया है ,मेरे घुटनों तक लम्बे  कृष्ण केश सफ़ेद हो गये है ,किन्तु आज भी मेरा मन उसी भोली किशोरी की भाँति अपने पति से मिलने की आशा संजोयें बैठा है ।तुम उनसे कहना ......कि यह विषम विरह तो कभी का इस देह को जला कर राख कर देता ,किन्तु दर्शन की आशा रूपी बरखा नेत्रों से झरकर उस विरह अग्नि को शीतल कर देती रही ।तुम उन द्वारिकाधीश मयूर मुकुटी से पूछना , तुमने कहीं उस निष्ठुर पुरूष को कहीं देखा है ? उसकी विरहणी की आँखें पथ जोहते जोहते धुँधलाने लगी है ..... देह जर्जर हो गई है .....आशा की डोर ने ही अब तो श्वासों को बाँध रखा है ..........पर.....अब यह वियोग और नहीं सहा जाता .....सागर से मन की बात करते वह गाने लगी.........

🌿दूखण....... लागे नैन.....
     दरस बिन .....दूखण लागे नैन.....

क्रमशः .............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

♻💮♻💮♻💮♻💮♻💮

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

शारदा पूजन विधि

गीता के सिद्ध मन्त्र

रामचरित मानस की चोपाई से कार्य सिद्ध