मीरा जीवन कथा 11


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मीरा चरित ( 105)

क्रमशः से आगे............

🌿ललिता जी के संग मीरा अपना माधवी का स्वरूप दर्शन कर रही है ।उसका विवाह बचपन में ही नन्दगाँव के सुन्दर से हो गया था। गौने के समय माँ ने पतिव्रत धर्म समझाते हुए माधवी को ब्रजराजकिशोर की मोहिनी से दूर रहने को कहा।

🌿अंतमें वह दिन भी उदित हुआ। जब कि रथ लेकर उसक पति सुंदर उसे लिवाने आया। जैसा नाम था , वैसा ही सुंदर था सुंदर। समय पर माँ ने एक बार और अपनी शिक्षा की याद दिलायी ।सबने आंखों मे आंसू भरकर उसे विदा किया।

🌿रास्ते में पति ने एकाध बार अपने सखा कन्हैया की चर्चा भी की पर माधवी ने कोई उत्साह नहीं दिखाया तो वह चुप हो गया। सुंदर रथ हाँक रहा था और वह रथ में बैठी थी ।अगर कोई गाँव पथ में पड़ता तो रथ के पर्दे गिरा दिये जाते। सुंदर बीच-बीच में अपनी मैयाकी ,अपने गाँव की व घर की बातें करता जाता और वह चुपचाप बैठी सुनती रहती। एकाएक सुंदरने कहा "देखो !ये हमारे व्रजकी गायें चर रहीं हैं ! कन्हैया यहीं कहीं होगा  !देखेगा तो अभी दौडा आयेगा ! "

             सुनकर माधवीने मुख ही नहीं अपने हाथ-पैर अच्छी तरह ढांक लिये। तभी कोई पुकार उठा - "सुंदर ! बहू ले आया क्या ?"

          
                "हॉ भैया। !"

             "भैया ! मोंकू भाभीको मोहडो तो दिखाय दे। "

               "अरे भैया ! पहले मों ते तो तू मिल के हिय को ताप बुझाय दे। सुंदर रथ से कूद पड़ा और दूसरे ही क्षण किसीसे आलिंगनबद्ध हो उठा - "भैया कन्नू रे ! ऐसो लगे जुगन बाद मिल्यो तोसौं। तेरी चर्चा हू जहाँ न होय, वहां विधाता कबहूँ वास न दें। "

  
          "अब दिखाये दे मोंकू बहू को मोहडो। "

           "कन्नू रे, मैं कहा दिखाऊं? भैया। तूही देख ले। तोसों कहा परदो है?"

🌿माधवी को लगा कि एक बालक रथ पर चढ़ गया है - "ऐ भाभी ! अपना मोहड़ो तो दिखाय दे। " कहते हुये उसने घूँघट उठाना चाहा।लेकिन माधवी ने कसकर अपना घूँघट पकड़े रखा ।मुख तो दूर रहा ,अपनी उँगली का पोर भी नहीं देखने दिया।

             " मैं कहा देखूँ ? अब तो तू ही मेरो मुख देखिबे को तरसेगी ।" कहते हुए नन्दसुवन रथ से उतर गया।  वह स्वर सुनकर माधवी थोड़ी चौंकी , क्योंकि वह स्वर न उसके पति का था और न ही उस बालक का ।वह गम्भीर स्वर मानों सत्यता की साक्षी देता -सा ....! अपनी जीत पर माधवी प्रसन्न थी।

🌿दो -तीन दिन बाद उसकी सास उसे नन्दरानी के यहाँ प्रणाम कराने के लिए। नई बहू का मुख देख नन्दरानी बहुत प्रसन्न हुईं , और अति चाव से भूषण -वसन देकर उसका  मुख मीठा कराया। अनेक प्रकार के दुलार करते देख उसकी सास ने कहा ," अब तो हमारे कन्हैया को विवाह कर ही दो रानी जू ! जब भी उसके किसी सखा का विवाह होता है , तो उसका भी विवाह का चाव बढ़ जाय है। "

        " क्या कहू बहिन ! मेरी......... । " तभी कन्हाई ने आकर कहा ," मैया ! हो मैया ! बड़ी ज़ोर की भूख लगी है। कछु खायबे को देय !" फिर  अकस्मात नई बहू को देखकर वह पूछ बैठा ," यह कौन की बहू है मैया ?"

           " आ , तोकू याको मोहड़ो दिखाऊँ ! कैसो चाँद जैसो मुख है याको ! तेरे सखा सुन्दर की बहू है। " मैया ने उन्हें पुकारा।

          " अच्छा तो यह सुन्दर की बहू है ? अभी नाय मैया ! अभी मोंकु सखाओं के साथ कहूँ जानो है।" वे मुड़कर जाने लगे।

               " अरे लाला !कछु खातो तो जा ! तोकू तो भूख लगी थी ।" मैया पुकारती रह गई , पर वे न रूके।

             " न जाने याको कहा सरम लगी ! नयी दुल्हन को मुख देखने को तो यह सदा आतुर रहता है। आज कान्हा को जी अच्छा नहीं है शायद !" माँ ने अनमनी  होकर कहा।

क्रमशः .................

॥श्री राधारमणाय समर्पण

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🌿मीरा चरित ( 106 )

क्रमशः से आगे........

🌿मीरा ललिता जू के साथ अपने माधवी रूप को देख रही है। माँ की शिक्षा के अनुसार माधवी ने न तो ठाकुर को स्वयं को देखने दिया और न ही उसने श्रीकृष्ण के दर्शन किए। ठाकुर ने भी  खीझ कर बोल दिया ," अब तो तू ही मेरे मुख देखिबे को तरसेगी ।"

🌿माधवी गोचारण का समय होते ही भीतरी कोठे में चली जाती। कानों में अंगुली दे देती ताकि वंशी का नाद उसे सुनाई न पड़े। फिर ऐसे ही वह सांझ को करती। जल भरने भी उस समय जाती जब घाट सूना होता। पर घर में तो सबको ,घर में ही क्यों ब्रज भर के सभी जनों को कृष्ण के गुणगान का व्यसन था। वह अपने गृहकार्य में लगी रहती और मन ही मन हँसती -कैसे है ये लोग ? सब के सब एक कृष्ण के पीछे बावरे हो रही है। वह बार बार अपनी मैया की शिक्षा याद करके अपने पतिव्रत धर्म की सावधानी से रक्षा करती।

🌿 माधवी की सास कहती- 'पहले तो नंदलाला रोज घर आता। कुछ-न-कुछ माँग कर खाता, सुंदर के साथ खेलता, मुझसे और सुंदर से बतियाता ,पर जबसे बहू आई हैं ,ऐसा लजाने लगा हैं कि बुलाने पर भी नहीं आता । बहू को भी ऐसी लाज लगती हैं कि कन्हैया के आने की भनक लगते ही दौड़कर भीतरी कोठे में पहुँच जाती हैं ।'अरे ,बावरी ! लाला से कहा लाज? वह तो अपनो  ही हैं।"

🌿इसी तरह कुछ समय व्यतीत हुआ ।इन्द्रयाग के स्थान पर गिरिराजजी की पूजा हुई । पूजा- परिक्रमा के समय भी माधवी ऐसी ही सावधान रही कि आँखों की पलकें झुकाये  ही रहती ।

          माधवी की ठाकुर के प्रति ऐसी बेरूखी और बेगानापन देख ,       इधर मीरा  की आँखों से झर-झर अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी -'आह ! कैसी प्राणघाती शिक्षा मैया की और कैसी मूढ़ता मेरी ?'

🌿ललिता माधवी को गिरिराज के चरण-प्रान्त में ले गयी । माधवी ने देखा-इन्द्र के कॊप से घनघोर वर्षा और उपल-वृष्टि आरम्भ हुई । मानव,,पशु सब अति बेहाल ! ऐसा प्रतीत होता मानो प्रलय उपस्थित हो गया हो ।किसी को किसी भी ओर से त्राण( रास्ता ) नहीं दिखाई देता था । गाय, बछड़े, बैल डकरा रहे थे। करुण-स्वर में सभी जन पुकार रहे हैं- " कन्हैया रे  ! लाला रे   ! कनुआ रे ! भैया रे  ! श्यामसुंदर ! हे कृष्ण ! बचाओ, बचाओ ।"ऐसा प्रतीत होता था , मानो इन्द्र का कोप आज ब्रज का नाश कर देगा ।

🌿आँधी-पानी के भयानक स्वर में उन ब्रजवासियों के स्वर डूब-डूब जाते ।तभी वहां घन-गंभीर स्वर सुनायी दिया, प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक जन को सुनायी दिया -''गिरिराज तरहटी में चलो,वही हमारी रक्षा करेंगे।"

🌿 माधवी भी भाग रही हैं ।प्राण के संकट के समय लाज-घूँघट का स्मरण किसे रहता हैं। सबके साथ वेह भी गिरिराज-शिला के नीचे पहुँच गयी ।जब थोडा ढाढ़स बँधा तो देखा कि सबके सिर पर गिरिराज-गोवर्धन छत्र की भाँति तना हुआ हैं। पानी की एक बूँद भी जो कहीं  टपकती हो । पर ये गिरिराज किसके आश्रय ठहरे हैं ? घूमती हुई दृष्टि एक छोटी-सी कनिष्ठिका पर जा रुकी। ऐसी सुंदर अंगुली और हाथ.....आश्चर्याभिभुत दृष्टि,,भुज के सहारे नीचे उतरने लगी.....और.....वह मुख....वह छवि.......एक नज़र में जो देखा जा सका,,सो ही बस,,नेत्रों के पथ से उस रूप-समुद्र ने उमड़कर ह्रदय को लबालब भर दिया ।मन ,बुद्धि न जाने किस ओर भाग छूटे ? सात दिन कब बीते, इसका  ज्ञान किसी और को हो तो हो, माधवी को नहीं था।

🌿एक दिन पुन: वही स्वर गूँजा -"वर्षा थम गयी हैं ,सब बाहर निकलकर अपने-अपने घर जाओ" ।मैया यशोदा कह रही हैं -'लाला रे ! तेरा हाथ दुखतो होयगो बेटा ! "अब तो धर दे याऐ नीचे ।"

🌿 इतना सुन माधवी का ह्रदय हाहाकार कर उठा ।श्यामसुंदर सबकी ओर देखकर मुस्कुरा रहे थे, और जाते हुए लॊगो को हंसकर कुछ-न-कुछ आश्वासन दे रहे थे ।किन्तु माधवी की ओर एक बार भी भूलकर ना देखा ।

क्रमश:..............

।।श्री राधरमणाय समर्पणं।।

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मीरा चरित ( 107 )

क्रमशः से आगे .............

🌿मीरा और ललिता  ने श्री गिरिराज जी की तरहटी में हुई लीला का दर्शन किया। मीरा ने देखा ........ गिरिराज धरण श्यामसुन्दर ने मुस्कराते हुए जब वर्षा उपरान्त सबको आश्वस्त  करते हुए घर जाने को कहा तो माधवी की ओर भूल कर भी न देखा।

🌿माधवी स्वयं को यूँ उपेक्षिता पा तड़प सी उठी-" अरी मैया ! यह कैसी उल्टी शिक्षा दी तैंने ? यह शिक्षा , यह लाज ही मेरी बैरन हो गई  !" वह व्याकुल हो पुकार उठी -" क्षमा करो  ठाकुर ! मुझ अबोध से भूल हुई। कृपा करो ! मैं ऐसा क्या करूँ.....जिससे आप प्रसन्न होवो .....अब यह माधुरी छवि मेरी आँखों से दूर न हो .....कृपा करो।" वह जहाँ थी वहीं अचेत सी गिर पड़ी।

🌿  अब की बार सरस-मीठी वाणी कानों में सुधा-सिंचन करने लगी--"भूल मान गयी है ,अत: दर्शन तो नित्य होंगे, पर हमारी अन्तरंग लीला में सम्मिलित न हो सकोगी । परिमार्जन (पश्चाताप)  के लिए कलिकाल में जन्म लेकर भक्ति-पथ का अनुसरण करने पर शुद्ध होकर ही मुझे प्राप्त कर पाओगी ।" माधवी अचेत हो गयी ।

🌿 उस दिन के पश्चात माधवी का व्यवहार एकाएक परिवर्तित हो गया  । अब नित्य प्रातः साँय मुरली-रव कानों में पड़ते ही अटारी पर चढ़ जाती, पुष्प वर्षा करती ।सखियों के संग जा-जा कर लीला-स्थलियों के दर्शन करती और उनकी बाते ध्यान से सुनती -आज कन्हैया ने किसका घड़ा फोड़ा, किसके घर माखन की कमोरी फोड़ी, किसकी चोटी खाट से बाँधी, किसके बछड़े को खोलकर दूध पिला दिया। इन विविध लीलाओं को सुन-सुन करके अकेले में अश्रु बहाती । सोचती मैं भी तो सबके साथ ही रहती हूँ परंतु मेरी   मटकी को हाथ तक भी नहीं लगाया,,कभी मुझे चिढ़ाया भी नहीं,,और तो और कभी मेरी ओर ठीक से देखा तक नहीं ।

🌿 उसकी सास बार-बार पूछती-'कोई मांदगी लगी हैं क्या बहू ?'
कही दुखता हैं बेटी ?,तू ठीक से कुछ खाती-पीती भी नहीं ।पीहर की,मैया की याद आ रही हो तो कछु दिन वहाँ हो आ लाली !'

  
         माधवी ने तुरंत उत्तर दिया-'ना मैया ! मोकू पीहर नाय जानों ।मैं तो स्वस्थ हूँ मैया ! आप कछु चिंता मत करबो करौ !' मीठा बोल सास को तो समझा लेती पर उसका ह्रदय ही जानता कि जिसकी मधुर छवि उसके मन प्राण में अटकी है , उसकी उपेक्षा , उसकी विमुखता को सहन करने में वह किस कष्ट में   जी रही है। भीतर ही भीतर जैसे वह घुलती सी जा रही थी।
    
          

🌿 ऐसे में उसके प्राणाराध्य की चर्चा ही उसके प्राणों का आधार थी।  ।गृह कार्यों से निवृत हो वह पद-सेवा के मिस अपने पति सुंदर के चरणों को गोद में लेकर बैठ जाती और,धीरे से कोई चर्चा चला देती -'आज आपके सखा और आप.......? बस, उसके लिए इतना संकेत ही पर्याप्त था ।व्रज में तो सभी कृष्ण-चर्चा,,कृष्ण-गुणगान के व्यसनी हैं। चर्चा आरम्भ हुई तो दोनों इतने निमग्न की रात्रि कब बीती, दोनों ही जान नहीं पाते । भोर होने पर  ताम्रचूड की बाँग ही उन्हें सचेत करती ।

🌿 दिन बीत रहे थे इसी प्रकार ,और एक दिन वज्रपात हुआ           - वृन्दावन में तो जैसे सबके पावँ तले धरती ही खिसक गई हो -पता लगा कि मथुरा से अक्रूर श्रीकृष्ण को लिवाने आया है -श्रीराधा रानी तो ठाकुर के लिये माला गूँथ कर यमुना किनारे प्रतीक्षा रत थी -श्रीकृष्ण के मथुरा गमन जाने का सुन उनकी अन्तरंग सखियों की स्थिति तो कहाँ तक वर्णन करें ?  श्रीराधा रानी को कौन कैसे बताये ? ललिता जी स्वयं को सम्भाल प्रियाजी को नन्दभवन के बाहर राजपथ तक रथ के पास ले आई ।वहाँ तो समस्त ब्रज ही मानों आँसुओं में डूब रहा था। माधवी भी स्वयं की मर्यादा भूल राजपथ पहुँची- आँसुओं की झड़ी थमती न थी -" हाय ! जब श्यामसुन्दर यहाँ थे ,तो मैं बैरन लाज के जंजाल में फँसी रही ......जब सुध आई तो मेरे हिस्से में उपेक्षा ही आई ..... और अब मैं कैसे जीवन धारण करूँगी ? "

🌿-क्रूर अक्रूर,  ब्रजेन्द्रनन्दन ,,  ब्रज के प्राणाधार को लेकर मथुरा ले चला गया।

              और इधर मीरा मुर्छित हो ललिता के चरणों में जा गिरी ।
  

क्रमशः ................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 108)

क्रमशः से आगे ...........

🌿ललिता जू के साथ मीरा ने स्वयं का अतीत दर्शन करते हुये देखा......... क्रूर अक्रूर ब्रजेन्द्रनन्दन को रथ पर चढ़ा मथुरा ले गया। और सारा ब्रज ठाकुर के विरह की मानों गर्त में डूब गया हो।

🌿इधर मीरा मूर्छित हो ललिता के चरणों में जा गिरी ।ललिताने गोद में लेकर दुलार से समझाया-"वह अमानिशा बीत गयी माधवी ! देख तो, जीवन प्रभात समीप है अब तो। '

               जल पिलाने पर सचेत होकर उसने पूछा -"यह चम्पा..........?
            "मेरे साथ आ ! बताती हूँ।" ललिता जी ने साथ चलने का संकेत करते हुए कहा ।

🌿मीरा देख रही थी कि यहाँ की भूमि कहीं स्वर्ण, कहीं स्फटिक, कहीं हरितमणी और कहीं पुष्पराग की है।  इसी प्रकार वृक्ष-वल्लरियां पुष्प ,पत्र और फल भी मणिमय, स्वर्ण और रजतमय ही है। विविध पुष्पों के सौरभ से प्रकृति महक रही है छहों ऋतुऍ सदा यहाँ प्रियालाल जी के भाव को समझ सदा सेवा सम्पादन को उपस्थित रहती हैं।

          यमुना के घाट स्वर्ण और स्फटिक के बने हुए हैं। सीढ़ीयाँ कहीं प्रवाल और कहीं पन्ने की। पत्र, पुष्प ,लता, वृक्ष ,सबके सब मणिमय प्रकाशमय होते हुए भी  अत्यंत कोमल हैं । जिस ओर भी दृष्टि जाय , सर्वत्र सुंदरता ,मधुरता,  कोमलता , दिव्यता ही छायी है ।कभीकभी उसे सम्पूर्ण प्रकृति में प्रियालाल जू की ही झाँकी दिखाई पड़ती । वहाँ कुछ भी जड़ नहीं था ,सब चैतन्य , दिव्य एवं चिन्मय था जो युगल दम्पति के सुख के निमित्त हेतु लीला में आवश्यकता अनुसार कोई भी रूप धारण कर लेता था ।सखियाँ  एवं श्री राधारानी की मधुरता ,उनके श्रीविग्रह की कोमलता अचिन्त्य थी -मानों वह सब चलित रत्नमय विग्रह हों। उनके कुण्डलों का प्रतिबिंब कपोंलों पर स्पष्ट दिखाई पड़ता।

🌿सभी वृक्ष फूलों के भार से नमित हो मानों ललिता जू से सेवा का आग्रह कर रहे हों -जैसे कह रहे हो कि हमारे प्राणेश्वर एवं प्राणेश्वरी को शीघ्र वन विहार करा हमें कृतार्थ करो न सखी ! पशु पक्षी सब श्री श्यामसुन्दर के विरह में शिथिल गात होकर उनके समीप आ जाते , तब ललिता जू उन्हें हाथ से दुलारती हुई कहती - माधव शीघ्र ही आयेंगे और अपनी प्राणप्रिया के संग आकर तुम्हें दर्शनान्द अवश्य प्रदान करेंगें ।पर मीरा के स्पर्श से वे थोड़ा बचने की चेष्टा करते।

             🌿" अरे बाँवरो ! यह तो अपनी ही हैं। अपनी ही सखी है। हाँ ,हाँ ! किशोरीजू ने आश्वासन दिया है कि एक दिन फिर यह अन्तरंग लीला में सम्मिलित होंगी।  देखो न , ऐसा न होता तो यह यहाँ कैसे होती भला ?" ललिता जी मीरा का हाथ थामकर मृग दम्पति , पक्षियों और शशकों पर फिराती। एक चिरैया मीरा के हाथ पर बैठकर स्नेह से सिर घुमा -घुमाकर संकेत कर आश्वस्त करने लगी।

🌿ललिता जू के संग ही कुछ पद चलकर उसने देखा कि झरने के पास शिला पर एक अर्ध मूर्छित किशोरी पड़ी है। उसके दीर्घ कृष्ण केश भू -लुंठित बिखरे पड़े है और सुन्दर नेत्रों से आँसुओं की धार बह रही है। उसी समय चम्पा वहाँ आई ।उसने उस किशोरी को बाँहों में भरकर उठाया। मीरा ने देखा - वह किशोरी तो माधवी है।

         🌿 " चम्पा ने उससे परिचय पूछा और यह जानकर कि वह सुन्दर की बहु है , प्रसन्न हुई। चम्पा ने स्नेह से कहा ," इस प्रकार धीरज खोने से कैसे चलेगा बहिन ! तुम अकेली ही तो नहीं हो। जो सबने खोया है , वही तुमने भी खोया है। यों धीरज खो दोगी तो कैसे बात बन पायेगी। जब श्यामसुन्दर मथुरा से आ जायेंगे तो क्या मुख लेकर उनके समक्ष जाओगी ?"

               " दूसरी बहिनों से मेरी क्या समता बहिन! वे सब भाग्यशालिनी है -उन्होंने कुछ पाकर खोया है। मुझ अभागिनी ने तो पाने से पूर्व ही खो दिया। आप सबका घट उन्हें खोकर भी परिपूर्ण है और मैं दुर्भागिनी तो सदैव रीती की रीती ( ठाकुर के स्नेह से वंचित ) ही रही। "कहते कहते माधवी फूट फूट कर रो पड़ी।

क्रमशः ...................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 109 )

क्रमशः से आगे .............

🌿ललिता जू के साथ मीरा ने दिव्य वृन्दावन के दर्शन किये और साथ ही देखा निज का अतीत......माधवी अपने भाग्य पर स्तब्ध और दुखी है और चम्पा उसे सान्तवना दे रही है।

         🌿चम्पा ने माधवी को ढांढस बँधाते हुए कहा ," हाय ! श्री कृष्ण के मथुरा जाने से आज तो ब्रज में सब अपने-अपने दुर्भाग्यको सब से बड़ा समझ रही हैं , मानो दुर्भाग्यकी होड़ लगी हो, किन्तु तुम अपनी बात कहो तो मैं कुछ समझूँ। इन आँसुओं की ज़ुबां नहीं होती। मुख से कुछ तो कहो।"

🌿माधवी के नेत्रों  की बरखा रुकने में ही नहीं आती थी। चम्पा के बहुत अनुरोध- प्रबोध के बाद वह कुछ कहने का प्रयत्न करती तो होंठ फड़फड़ा  कर रह जाते। चम्पा ने स्नेह से  माधवी के केशो को संभाल कर बाँधा। चुनरी छोर भिगोकर मुँह पोंछा। ह्रदय से लगाकर प्यार भरी झिड़की दी-"अहा, कैसा रूप दिया है विधाता ने? इसे इस प्रकार नष्ट करने का क्या अधिकार है तुझे री? यह तो अपने ब्रज वल्लभ की  सम्पति है, इसे........।"

             बात पूरी होनेसे पहले ही माधवी बुरी तरह रो पड़ी, मानो प्राण निकल ही जायँगे। उसकी यह हालत देखकर चम्पा भी अपने को रोक नहीं पायी। उसके धैर्यने मानों  हार मान ली थी।  आँखे बरबस बहने लगी। यह सोचकर कि इस प्रकार तो यह मर ही जायगी, उसने  अपने आपको सँभाला  और स्नेह एवं अधिकार से कहते हुए उसका मुख ऊपर किया-"क्या है? मुझसे नहीं कहेगी? क्यों कहेगी भला ! परायी जो हूँ।" कहते हुए चम्पा के नेत्र भर आये।

         "ऐसा मत कहो, मत कहो।" माधवीके कंठसे मरते पशु-सा आर्तनाद निकला।"

      
          "फिर कह ! पहले अपनी आँखोंको प्रवाह थाम, अन्यथा एक भी बात मैं समझ नहीं पाऊँगी।"

        🌿माधवी ने रूकते-अटकते शब्दों में भरे कंठसे सारी व्यथा ,अपनी दुर्भाग्य कथा कह डाली - "मेरा दुर्भाग्य सीमा-हीन है बहिन ! मैं प्रतिदिन निराशा के गहन गर्त में विलीन होती जा रही हूँ !  न जाने कलिकाल कितनी दूर हैं......न जाने .....कहां.....जाना.....होगा......कैसे.....किसके सहारे ......???? भवाटवी........की भयानक अँधेरी गलियों.......में अवलम्बहीन मैं........।"

            माधवी पुन: चम्पा की गोदमें सिर रख फूट -फूट करके रो पड़ी। चम्पा कुछ देर तक उसे गोदमें लिए बैठी , मन में सोचती रही ,"- सचमुच ऐसा प्रबल दुर्भाग्य तो ब्रज के पशु- पाहनका भी नहीं रहा कभी !! किन्तु इसे ऐसे भी कैसे छोड़ दूँ?"

          

        🌿" सुन माधवी!" उसने कहा-" कलिकाल चाहे कितनी ही दूर हो, तुझे चाहे जहाँ जाना पड़े, जैसे भी रहना पड़े, मैं तेरे संग चलूंगी और संग रहूँगी।बस अब रोना बंद कर ! श्यामसुन्दर चाहकर भी कभी किसी के प्रति कठोर नहीं हो पाते। अवश्य ही इसमें तेरा हित निहित है।और माधव की  दया, करुणा , कोमलता, मधुरता, कृपा की घनीभूता स्वरूप है श्रीकिशोरीजू।चल, मेरे साथ चल। उनके चरणोंके दर्शन-चिंतन मात्र से  ही विपत्ति का भय नष्ट हो जाता है। उठ !" उसने हाथ पकड़ कर कर उठाया।

      

             🌿 " जीजी ! आपने मेरे लिए कलिकाल में, संसार के  .........।"
      
       "अरी चुप ! अब एक भी बात नहीं बोलेगी तू।बहिन ! मैं और तू एक ही माला के फूल हैं -कोई आगे तो कोई पीछे। हम सबका दुख समान है ।श्री किशोरीजू का सुख ही हमारा सुख है और उनका दुख ही हमारा दुख। हम सब उनकी हैं और उनके लिये ही हैं। "

          🌿  चम्पा उसे लेकर बरसाने के राज महल में श्री किशोरी जू के पास गयी। प्रणाम के अनन्तर चम्पाके मुख से सबकुछ सुनकर उन्हों ने माधवी के सिर पर हाथ रखा-"मत घबरा मेरी बहिन ! अपनों को  श्रीकृष्ण कभी निर आश्रित नहीं छोड़ते। प्रयोजन की प्रेरणानुसार अपनों को अपने से दूर करके वे उसके लिए स्वयं व्याकुल रहते है और क्षण-क्षण में उसकी सार-सँभाल करते है। तेरे साथ तो फिर चम्पा ने अपने को बाँध लिया है। ऐसा साथ सहज ही नहीं मिलता........."

            "श्रीजू ! मेरे लिए जीजी ने अपनेको कैसी विपत्ति में डाल लिया है।" माधवी ने बीच में ही भरे गलेसे कहा-"आप इन्हें निवारित करें ।"

          
            "ऐसा मत कह बावरी! यह साथ रहेगी तो कलिकाल के कंटक तुझे छूनेका साहस नहीं कर पायेंगे। प्राणेश्वर प्रतिक्षण तेरे तन -मन -नयन में बसे रहेंगें ।चम्पा तेरी दासी बनकर सेवा ही नहीं करेगी , अपितु इस जीवन यात्रा में तेरा पाथेय ( मार्ग दर्शक ) भी बनेगी। "
      
           यह सब सुनकर माधवी " हा स्वामिनी ! हा स्वामिनी " कहती मूर्छित हो गई ।

        
       🌿यह सब देख श्रवण कर मीरा अतीत और वर्तमान को मिलाते हुये ललिता जी के साथ आगे बढ़ आई तथा राधारानी को प्रणाम कर रूँधे कण्ठ से बोली ," हे मेरी स्वामिनी ! इतनी अनुपम ममता , अगाध करूणा ,अपार कृपा ....... इस तुच्छ दासी पर !!!" कहते कहते मीरा श्रीकिशोरी जू के चरणों में गिर गई ।नेत्र जल से उनके चरण पखारने लगी। श्रीकिशोरी जू का वात्सलय पूर्ण कर -पल्लव उसके मस्तक पर उसे सहला रहा था -" यह देख , मेरी अन्तरंग एवं प्रिय  सखी चम्पकलता ही तेरी चम्पा है। "

🌿मीरा चम्पा को देखते ही उसके चरणों में प्रणाम करने बढ़ी कि चम्पकलता ने हँसते हुए उसे कण्ठ से लगा लिया और रागानुगा भक्ति का सार आधार तत्त्व स्वाभाविक ही बताते हुये कहा -" यहाँ हम सब सखियाँ हैं बहिन ! स्वामिनी हमारी है किशोरीजू। अतः चरण वन्दना , सेवा -टहल सब इनकी और इनके प्रियतम श्यामसुन्दर की ।"

क्रमशः .................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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🌿मीरा चरित ( 110)

क्रमशः से आगे ................

🌿 पाँच वर्ष तक वृन्दावन में वास करते हुए मीरा व्रज में नित्य लीला का रस लेती रही। आरम्भ में कुछ समय तो ललिता उन्हें लेने आती।  पर कुछ समय पश्चात् वह वहाँ के आह्वान पर स्वयं ही उठकर चल देती। और निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जाती।वहाँ रहकर मीरा ने असंख्य लीलाओ में सम्मिलित हो लीला-रस का आस्वादन किया ।उनका स्वभाव सर्वथा बदल गया था ।

🌿 चमेली को मीरा के स्वभाव में बदलाव देख आश्चर्य होता -'पहले चित्तौड़ में बाईसा हुकम को भावावेश होता तो कभी-कभी आठ-आठ दिन तक वे अचेत रहती, किन्तु सचेत होने पर, वे अपनी दिनचर्या में लग जाती । चितौड़ में रहते समय भी सब दास-दासियों के पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने और भाव-अभाव की खबर रखती। उत्सवो में सबके यहाँ प्रसाद पहुँचाने, पुरस्कार देने, गरीबो की सहायता करने और ब्राह्मणों को दान देने का उत्साह रखती ।विवाह,मरण आदि के अवसरों पर कुछ देने का हुक्म करती। चित्तौड़ से मेड़ते आ जाने पर भी ऐसा ही व्यवहार रहा ।किन्तु यहाँ वृन्दावन में जिस दिन से चम्पा लुप्त हुई हैं, इन्हें तो संसार जैसे सर्वथा विस्मृत हो गया हैं। "

         " अब कभी नहीं पूछतीं कि किसी ने प्रसाद पाया या नहीं ,न ही तो इनको यह सोच है कि सब खाद्य सामग्री कहाँ से आती है , और न ही यह चिन्ता कि द्रव्य ( धन ) है कि समाप्त हो गया ?"-चमेली मन ही मन सोचती-" बाईसा हैं तो यहाँ पर यहाँ नहीं। पूरे दिन वाह्य ज्ञान-शून्य बैठी रहती हैं और मुस्कराती हैं ,या लेटी रह बस अश्रु बहाती हैं। हम मुख में कुछ दे दें,तो जैसे-तैसे चबाकर निगल लेती हैं। जल-पात्र मुख से लगाये तो पी लेती हैं। कीर्तन के स्वर या संतो की उपस्थिति ही इन्हें सचेत करती हैं। ऐसे यह देह कितने दिना चलेगी ? किससे पूछें ?'

🌿 एक दिन उनको तनिक सचेत देख चमेली ने पूछा -" यह चम्पा कहाँ मर गयी बाईसा हुकम ?"

      
            मीरा ने घबराकर उसके मुहँ पर हाथ रख दिया- "उनके लिये ऐसे शब्द ना बोल चमेली ! अपराध होगा।"

             चमेली चकित नेत्रों से स्वामिनी की ओर देखने लगी और मन-ही-मन सोचा -''चम्पा के लिये  "उन " शब्द ?वह आदरणीया कबसे हो गयी ? इनके लिए अपनी बहिन जैसी बराबरी वाली से कुछ कहने पर अपराध कैसे लगेगा और क्यों लगेगा ?"

         उसने सहमते हुए पूछा-"बाईसा, वह कहाँ चली गयी एकाएक, किसी से कुछ कह गयी क्या ?
        
       मीरा ने गदगद् स्वर में कहा-"जहाँ से वे पधारी थी, वहीं  वे चली गयी ।" चम्पा का स्मरण होते ही उनका देह रोमांचित हो उठा ।

🌿 मीरा के चम्पा के प्रति ऐसा  हाव-भाव देख चमेली को लगा कि अभी मूर्छित हो गिर पड़ेंगी ।और कही चम्पा के पधारने की बात करते-करते मुझे भी आदरयुक्त सम्बोधन न करने लगे,इस भय से वो उनके सामने से हट गयी।

🌿एक दिन उन्होंने अपने सेवक-सेविकाओं से वृन्दावन की महिमा का बखान करते हुए कहा-"यह वृन्दावन साधारण भूमि नहीं हैं, यहाँ ठाकुर जी की कृपा के बिना वास नहीं मिलता ।तुम किसी के प्रति मन-वचन और काया द्वारा अवज्ञा मत कर बैठना ।इन नेत्रों से जैसा दिखाई देता हैं, वैसा ही नहीं हैं। यह तो परम दिव्य-ज्योतिर्मय धाम हैं, इसके कण-कण में ,पेड़-पत्ते और प्रत्येक जन के रूप में स्वयं ठाकुर जी ही विराजमान हैं।"

🌿भोजन-पान उचित मात्रा में न लेने के कारण मीरा की देह दिन-दिन क्षीण होती जा रही थी ।किन्तु उनका तेज, भक्ति का प्रताप और ह्रदय की सरसता उत्तरोत्तर बढती ही जाती थी । वे बहुधा देहाभास से शून्य ही रहती ।संतो-सत्संगियो के आने पर उन्हे कीर्तन द्वारा सचेत किया जाता था ।बार-बार चमेली से पूछती-'ललिता आयी ?'

        
        धीरे-धीरे मीरा चमेली को ही ललिता  मानने लगी ।चार-पाँच वर्ष में लोग भूल गये कि उसका नाम चमेली हुआ करता था ।मीरा उससे ऐसे स्थान और लोगो की चर्चा करती, जो उसकी समझ में किसी प्रकार नहीं आती। पर चमेली बहुधा इसी चिंता में रहती, कि यदि धन समाप्त हो गया तो, क्या खाया-पिया जायेगा,,और कैसे संतो और अतिथियों का सत्कार होगा ?उसे कहीं कूल -किनारा दिखाई नहीं देता था ...... ऐसे ही पाँच वर्ष बीत गये ।

क्रमशः ................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 111)

क्रमशः से आगे ................

🌿 "माधवी !!! " एक रात श्यामसुन्दर ने कहा -" अब तू यहाँ नित्य लीला में न आकर भक्ति किया कर।तुम्हारे दर्शन ,स्पर्श , भाषण से लोगों का कल्याण होगा। तुम्हारा प्रभाव देखकर लोग भक्ति -पथ पर अग्रसर होने का उत्साह पायेंगे। अभी यहीं वृन्दावन में रहो , कुछ समय के पश्चात किसी अन्य स्थान पर जाने के लिए प्रेरणा प्राप्त करोगी। "

         सिर झुका कर मीरा प्राणाराध्य की बात सुनती रही। प्राणों में एकाएक वियोग की असह्य पीड़ा से मीरा की पलकें ऊपर उठी। वह भाव और पीड़ा के सम्मिलित अथाह महासागर में भी बड़वानल सी सुलग उठीं। देखते ही देखते उसकी वह स्वर्ण वल्लरी सी देह सूख कर कृष्ण वर्णा हो गई और वह सूखे पत्ते सी धरती पर झर श्री श्यामसुन्दर के चरणों में गिर पड़ी ।  तुरन्त ही करूणासागर के मंगल चरणों के स्पर्श से उसे राहत मिली जैसे सुवासित , सुशीतल चन्दन का स्पर्श हुआ हो।

        🌿श्यामसुन्दर स्नेहाभिसिक्त स्वर से बोले ," बहुत ,बहुत कठोर हूँ न मैं मीरा !! तुझ सुमन सुकुमार के लिये कंटक -बिद्ध पथ पर चलने का विधान कर रहा हूँ। " कमल की पाँखुड़ी से खिले नेत्रों से आँसुओं की दो बूँदे स्वच्छ धुली ओस की बूँदो की भाँति....... चरणों पर पड़ी मीरा के मस्तक पर गिर पड़ी।

             मीरा प्राणनाथ को कष्ट में देख विचलित हो गई -" नहीं ,नहीं प्रभु ऐसा न कहे। जो भी मेरे मंगल के लिए आवश्यक होगा, आप वही विधान मेरे लिए निश्चित करेंगे - यह मुझे पूर्णतः विश्वास है। आप .... आप निसंकोच कहें ...... आपकी आज्ञा शिरोधार्य प्रभु ! वह तो .......इन चरणों से दूर होने की आशंका का ही अपराध है ,मेरा नहीं ! मैं तो आपकी आज्ञा पालन के लिए प्रस्तुत हूँ। "

            🌿" मीरा !! माधवी !!!" प्रभु ने मीरा को चरणों से ऊपर उठाया और भाव में विह्वल हो काँपते स्वर में बोले ," तू जब चाहेगी, मुझे अपने समीप पायेगी। पर अब तेरी वह अचेतन अवस्था नहीं रहेगी , बस इतना ही। सदा भावावेश में डूबे रहना भले ही तेरे लिए कितना ही रूचिकर हो , पर उससे दूसरों का क्या भला होना है ? मीरा , तेरे सचेत रहने से ही दूसरों के भावों को पोषण मिलेगा ।उनके प्रश्नों का तू समाधान कर पा उन्हें दिशा दे पायेगी ।तेरी सेवा उनका कल्याण करेगी , तेरा स्पर्श ..........। "

      
           "यह लोकैष्णा ( लोक कीर्ति  ) ...... ज़हर....... लगती...... है। "

            🌿" ऐसे भावावेश में डूबे रहने से केवल तुम्हें ही लाभ है... तुम्हारे आसपास के जीव तो तुम्हारे अनुभव से वंचित रह जायेंगे न ! और फिर तुझे कीर्ति आक्रान्त करे , इतना साहस उसमें नहीं है। " फिर मुस्कराते हुए ठाकुर बोले ," और फिर मेरे प्रिय भक्त की सुकीर्ति मुझे कितना सुख देती है ! और तुझे ज्ञात भी नहीं होगा और न ही उन्हें , जिनका कल्याण होगा। दोनों ही बेखबर रहेंगे ....तब तो ठीक है न ?"

         थोड़ा सोचते हुये श्यामसुन्दर फिर मधु सिंचित वाणी में कहने लगे ," एक और भी सुप्रयोजन है ....इस देश का शासक तुम्हारे दर्शन से पवित्र होगा। और..... जानती है मीरा , तेरे सेवक- सेविकाएँ नित्य रो -रोकर मुझसे अपनी स्वामिनी के आरोग्य के लिए प्रार्थना करते  हैं । " श्रीकृष्ण मुस्कुराये ।

             " उन पर कृपा कब होगी प्रभु ? उन्होंने तो मेरी सेवा के लिए अपनी देह -गेह का मोह भी छोड़ दिया है ...... बस वे मेरी ही चिन्ता में व्यस्त और व्याकुल रहते है। "

              🌿 " तेरा कथन मेरा कथन है , मेरे भक्त की सेवा मेरी सेवा है  .....क्योंकि तू ,तू है ही नहीं है। तुझमें निरन्तर मैं ही क्रियाशील हूँ , अतः तेरे सेवकों के कल्याण में संदेह बाकी ही कहाँ रहा ?"-ठाकुर ने मीरा के सिर पर हाथ रखते हुये कहा । " और हाँ यह ले !" -एक चन्दन की कलात्मक छोटी सी मंजूषा मीरा की ओर बढ़ाई -" यह चमेली को दे देना ,जिसके कारण से वह चिंतित है उसका समाधान इसमें है ।"

🌿तभी चम्पा ने आकर कहा ," आज के नृत्योत्सव में प्रथम नृत्य माधवी का हो , ऐसा श्री किशोरीजू का आग्रह है। "

          मीरा ने स्वामिनी जू की  आज्ञा पा प्रसन्नता से दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये।

क्रमशः ............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 112 )

क्रमशः से आगे ..............

🌿वृन्दावन में मीरा की भक्तिलता की सुगन्ध, चन्दन की तरह चारों  दिशाओ में व्याप्त हो रही थी ।"

🌿 '' जय श्री राधे '' की द्वार पर पुकार सुनते ही केसर उपस्थित हुई -''पधारे भगवन् !"  सत्संग कक्ष में बैठी मीरा आहट सुन उठ खड़ी हुई । देखती हैं कि साधारण नागरिक वेश में दो भव्य पुरुष अभिवादन कर रहे हैं। मीरा ने उत्तर में हाथ जोड़ कर सिर झुकाया और आसन पर विराजने के लिये अनुरोध किया ।उनमें से एक युवक ने विनम्रता पूर्वक कहा-" सुयश सुनकर श्रवण कृतार्थ हेतु सेवा में उपस्थित हुए हैं।"
            
             मीरा ने बोलने वाले की तरफ देखा तो दाहिने हाथ पर बंधी तर्जनी पर दृष्टि रुकी।उस पर मिज़राब ( सितार वादन के लिये मुद्रा ) धारण का चिन्ह अंकित था  मीरा मन ही मन सोचने लगी अवश्य कोई गुणी कलावंत हैं।उससे थोडा पीछे की ओर एक बीस-बाईस साल का युवक अत्यंत साधारण वेशभूषा में होने पर भी , उसकी दृष्टि और मुखमुद्रा से झलकता रौब़े-हुकूमत उसे विशिष्ट बनाए दे रही था ।वह सेवक की तरह बनकर आया था पर उसकी बैठक राजा की तरह थी।वह उत्सुकता-पूर्वक मीरा की ओर देख रहा था।

🌿मीरा ने अतिशय विनम्रता से मुस्कराते हुए कहा-"सुयश तो भगवान का अथवा उनके अनन्य प्रेमी जनों का ही श्रवण योग्य होता हैं भाई ! साधारण जनों का यश तो उन्हें पतन की ओर धकेल देता हैं। यश बहुत भारी चीज़ हैं।इसे झेलने की शक्ति होनी चाहिए।'

          आगे बैठा व्यक्ति बोला, '' यह तो आपकी विनम्रता है, नहीं तो साधारण जन तो धन और यश की लिप्सा से ही उधर प्रवृत होते हैं।"

          🌿'' यह मैंने साधारण जन के लिए नहीं , शाह के लिए कहा हैं"- मीरा ने अपनी बात को समझाते हुये कहा -" राजकर्म सेवक का धर्म हैं। राजा होकर स्वयं को सेवक मानना, समान रूप से प्रजा का पोषण करना, अपनी कीर्ति सुनकर प्रमत्त न होना ब्लकि राज्य को ईश्वर की धरोहर मानना, गुणीजनों का सम्मान करना , प्रजा धन-धान्य से खुशहाल रहे,यही उसका सबसे बड़ा कर्तव्य है। अपने अवगुण बताने वाले हितैषियों पर क्रोध न करे ,सदा न्याय को महत्व दें तथा समय-समय पर प्रभु-प्रेमियों के मुख से  प्रभु का सुयश सुनते रहना ,और भोग, धन, पद के मद से निरपेक्ष रहना ।यही उसका सबसे बड़ा कर्तव्य हैं।"

🌿दोनों आगंतुक चकित से हाथ जोड़ सिर झुकाये सुन रहे थे.........
 फिर आगे बैठे व्यक्ति ने विनम्रता से कहा-"राजनीति का यह उपदेश हम अनाधिकारियों को भ्रांत कर देगा माता ! हरि  यशगान सुनने की अभिलाषा ही श्री चरणों में खीच लायी हैं।"

🌿मीरा ने मुस्कुराते हुए कहा-"प्रभु किसके द्वारा क्या कहलवाना चाहते हैं।यह हम कैसे जान सकते हैं ? सत्य तो यह है कि दाता केवल एक है , बाकी तो सब भिखारी है , चाहे तो राजा हो या कृषक ।"

        पुन: पद सुनने की प्रार्थना पर मीरा ने एकतारा उठाया ।चमेली ढोलक,, और केसर मंजीरे बजाने लगी ........

🌿मन रे......परसि हरि के चरण।
     सुभग ,सुसीतल ,कँवल, कोमल,
     त्रिविध ज्वाला हरण.........

  
 🌿 दोनों झूम-झूम गये। आँखे झरने लगी। संगीत में ऐसा आनन्द भी होता है -यह दोनों अतिथियों के लिए नया अनुभव था। मीरा ने आगे बैठे व्यक्ति से गाने का आग्रह किया ।वे चौंक कर बोले-' मैं सरकार ?'

            मीरा बोली ," वाणी की सार्थकता तो हरि गुण-गान में ही है-

🌿जग रिझाये क्या मिले थोथा धान पुआल।
हरि रिझाये हरि मिले खाली रहे न कुठाल ॥

      
मीरा ने सहज़ता से कहा ," देखिए ! कोई भी गुण अगर उस प्रभु से जुड़ जाये तो उसमें स्वभाविक मधुरता आ जाती है। जग को अपने गुण को रिझाने से क्या मिलेगा --धन -धान्य। और हरि को रिझाने से तो स्वयं हरि ही प्राप्त हो जायेंगे। "   

        
      🌿  मीरा के निवेदन पर उस व्यक्ति ने मीरा का ही एक पद गाया ।तार झंकृत करते हुए उसने आँखे बंद करके गाना आरम्भ किया ।रागों के कठिन उतार-चढाव तो मानों उनके सधे हुए कंठ का सरल खेल ही हो।

      " धन्य,धन्य !' मीरा के मुख से निकला ।"

          आगंतुक ने संकोच से सिर नीचे झुकाते हुये कहा ,"धन्य तो आप हैं। सरकार !' हम तो विषय के कीड़े हैं।''

🌿'मीरा ने अतिथि के गान से आनन्दित हो कर कहा-" सो कुछ नहीं, प्रभु ने आपको विशेष सम्पदा से निवाज़ा हैं। जिसको उस प्रभु ने जो दिया हैं , उसी से उसकी सेवा की जाये तो उस गुण की भी सार्थकता है। "

🌿 उस व्यक्ति ने पुन: निवेदन करते हुए कहा-" कृपा ,मेहरबानी होगी यदि एक पद........! इस गुस्ताखी के लिए माफ़ी बख्शे। कहते हुए आँखों से आँसू ढ़लक पड़े ।

            मीरा ने पुनःआलाप ले ठाकुर जी की शरणागत-वत्सलता का एक करूणापूर्ण पद आरम्भ किया.........

🌿सुणयाँ हरि अधम-उधारण ।
   अधम उधारण भव्-भय तारण॥

    गज डूबताँ, अरज सुन,,
    धाया मंगल कष्ट निवारण॥

    द्रुपद सुता सो चीर बढ़ायो,,
    दुशासन मद-मारण॥

    प्रहलाद री प्रतिज्ञा राखी,
    हिरण्याकुश उदार विदारण ॥

     ऋषि पत्नी किरपा पाई,,
     विप्र सुदामा विपद निवारण ॥

     मीरा री प्रभु अरजी म्हारो,,
     अब अबेर किण कारण ॥🌿

क्रमशः .............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 113 )

क्रमशः से आगे ..........

🌿 मीरा की संगीतमय भक्ति कीर्ति श्रवण कर , दो नवयुवक छद्म वेश में उसके दर्शन हेतु पधारे । मीरा का भक्तवत्सलता का पद सुन दोनों आत्म-विभोर हो उठे ।             

            भजन सम्पूर्ण होने पर अतिथि ने दर्शन की इच्छा व्यक्त करते हुए विनम्रता से पूछा, -'प्रभु श्री गिरिधर गोपाल के दर्शन हो जाते  यदि अनधिकारी न समझा जाए तो......!'

          मीरा ने कहा-'संगीताचार्य जी ! मानव तन की प्राप्ति ही उसका सबसे बड़ा अधिकार हैं। सबसे बड़ी पात्रता हैं। अन्य पात्रताएं हो याँ कि  न हो,  जीव जैसा है, जिस समय है, भगवत्प्राप्ति का अधिकारी हैं।अब वह ही न चाहे,  तो यह अलग बात है।"

          🌿एक और उत्सुकता भरा  प्रश्न किया- 'क्या चाहते ही मानव को प्रभु दर्शन हो सकते हैं ?'

           मीरा ने उत्तर दिया ," हाँ ! क्यों नहीं !! एक यह ही तो मनुष्य के बस में हैं। अन्य सभी कुछ तो प्रारब्ध के हाथ में है। जैसे मनुष्य.......... धन, नारी, पुत्र, यश चाहता  है, वैसे ही यदि हरिदर्शन चाहे तो !!! उसकी अन्य चाहें तो प्रारब्ध के हाथो कुचली जा सकती हैं ,किन्तु इस चाह को कुचलने वाला यदि वह ( मनुष्य) स्वयं न हो तो महाकाल भी ऐसी हिम्मत नहीं कर सकते........।"

         मीरा उठ खड़ी हुई-' पधारे ,दर्शन कर लें ........ ।" मंदिर कक्ष में जाकर उन्होंने प्रभु के दर्शन किये ।

            शाह ने अपने खीसे में से हीरे की बहुमूल्य कंठी निकाली और आगे बढ़ कर प्रभु को  अर्पण करने लगे। तभी मीरा बोल पड़ी-'नहीं शाह ! यह तो प्रजा का धन हैं।इसे उन्हीं  दरिद्रनारायण की सेवा में लगाइये।  जिस राज्य की प्रजा सुखी हो उस राज्य का नाश कभी नहीं होता ।आप उदारता और नीतिपूर्वक प्रजापालन करे। ठाकुर तो बस भाव के ही भूखे हैं - इन्हें तो बस भाव से ही संतुष्टि हो जाती है। "

🌿युवक ने डबडबायी आँखों से उनकी और देखा और हाथ की कंठी गिरधर के चरणों में रख दी।

          प्रसाद-चरणामृत ले लेने के पश्चात प्रणाम करके चलने को उद्यत होते हुए प्रौढ़ व्यक्ति ने पूछा-'आज्ञा हो तो एक अर्ज़ करूँ ?'

           मीरा ने कहा- " जी निःसंकोच !

        व्यक्ति ने सकुचाते हुए पूछा -''आपने अभी इनको शाह कहकर बुलाया और मुझे संगीताचार्य ......!"

  
      मीरा ने मुस्कुराते हुए पूछा-''   तो क्या ये इस देश के शासक और आप इनके दरबारी गायक नहीं ?''

        "धृष्टता क्षमा करे सरकार ! मैं तो यह जानना चाहता था ,कि यह रहस्य आपको कैसे ज्ञात हुआ  ? हम तो दोनों ही छद्मवेश में हैं और हमारे अतिरिक्त कोई तीसरा व्यक्ति इसकी जानकारी  भी नहीं रखता ।

         मीरा ने धीरे से हल्के स्वर में कहा -'' मेरे भीतर भी तो कोई बसता हैं।''

       बस इतने शब्द कानो में पड़ते ही दोनों शरविद्ध पशुओं की भातिं  मीरा के  चरणों में गिर पड़े ।

🌿नवींन दुर्ग का निर्माण करने के विचार से बादशाह अकबर अपने दरबार के उमरावों के साथ स्थान  का निरिक्षण करने हेतु आगरा आये। वहीं मीरा की प्रशस्ति सुनी। उनके रूप, वैराग्य, पद-गायन के बारे में सुना।  चित्तौड़ जैसे प्रसिद्ध राजवंश की रानी होकर भी सबकुछ छोड़कर वृन्दावन की वीथियों में मीरा एकतारा ले गाते हुए ईश्वर को ढूंढती हैं। मंदिरों में जब वह पाँव में घुंघरू बाँध कर गाते हुए नाचती हैं तो देखने और सुनने वाले सुध-बुध भूल जाते हैं।किसी किसी को उसके घुंघरूओं और एकतारे के साथ श्री कृष्ण की वंशी भी सुनाई देती है।  कोई कहते हैं कि गाते समय मीरा संसार भूल जाती हैं, कोई कहते हैं कवित्री हैं और गाते समय पद अपने आप बनते चले जाते हैं।,, निरंतर अश्रुधारा प्रवाहित होती हैं।,, वे इस लोक की तो  लगतीं ही नहीं ,आदि.......आदि।
        
        

🌿बाईस वर्ष का युवक बादशाह मीरा के दर्शनार्थ आतुर हो उठा। बादशाह अकबर ने अपने ह्रदय की बात अपने दरबारी गायक तानसेन से कही।
        

          तानसेन ने कहा-'अगर जनाब बादशाही तौर-तरीके से उनके दर्शन के लिए तशरीफ़ ले जायेंगे तो वे कभी सामने नहीं आएँगी। माना कि वो पर्दा छोड़ चुकी हैं, मगर वे  ख़ुदा की दीवानी  हैं।वह आपके रुतबे का ख्याल नहीं करेंगी। हो सकता हैं, जहाँपना वह आपको  मिलने से इन्कार कर दे।"
    

        "किन्तु मैं उनके दर्शनों के लिए बेताब हूँ तानसेन ! इतना ही नहीं ,मैं उनका गाया पद भी सुनना चाहता हूँ......"

           "यह तो और भी मुश्किल कार्य हैं जहाँपना!!!.....किन्तु यदि आप मेरे साथ सादे हिन्दू  वेश में पैदल चले, तो मुमकिन हैं कि हुज़ूर की ख्वाविश पूरी हो जाए।"

          अकबर ने एक क्षण सोच तानसेन से पूछा -' कोई खतरे का अंदेशा ?"

          "नहीं आलिजाह ! ख़ुदा  के दीवाने ओलिया और फकीरों की ओर उठने वाले पाँवो के सामने आने का खतरा तो खतरे भी नहीं उठाते ।
"हुज़ूर !..... यहाँ से घोड़ो पर चला जाय और फिर वृन्दावन में पैद्ल।"

           "मैं जैसे कहूँ...करूँ, हुजुर को नक़ल करनी होगी।"

           बादशाह हँसने लगे ,' मंज़ूर है मौसिकी आलिया ! जैसा तुम कहो ।हम भी तो देखना चाहते हैं कोई तुमसे बेहतर भी गा सकता हैं,... और राज्य, जर,  ज़मीन होते हुए भी उस बंदी ने फकीरी से क्या हासिल किया।"
        

🌿पूछते-पूछते वे पहुँच गये। और जो कुछ देखा, अकबर ने तो उसकी कल्पना भी नहीं की थी।

           अकबर तानसेन से लौटते समय कहने लगे, '' तानसेन ! सब कुछ छोड़ देने के बाद भी.....वे हम, तुम से ज्यादा खुश कैसे हैं ? उनके दर्शन कर दिल-दिमाग थम गये हैं। एक अजीब ठंडक,एक सुकून महसूस होता था वहां ।"

               आलीजाह ! ख़ुदा के दीवानों की दुनिया ही और होती हैं। उनका पद गाना और ख़ुदा के हुज़ूर  में उनकी वह बन्दगी........आह ! वह मिठास दुनिया का कोई गाने वाला नहीं पा सकता ।" फिर अकबर थोड़ा रूक कर बोले -" और आज तुमने जो वहाँ गाया तानसेन ! वह तुमने पहले हमारे हुज़ूर  में कभी क्यों नहीं गाया ....?"

        तानसेन ऊपर देखते हुए बोला ,".वह तो सब उस मालिक का कमाल था , हुज़ूर ! गुलाम तो किसी काबिल नहीं । और उन्होंने भी फरमाया कि अगर हम मालिक की बख्शी कला को उसकी बन्दगी में इस्तेमाल करें तो उसमें खुद-बे-खुद मिठास आ जाती है ।" "और याद हैं जहाँपनाह ! जब उसने हमें बिना हमारा परिचय लिए ही पहचान लिया ....... हुजुर ! ख़ास बात तो यह हैं कि उन्होंने अपना खुदा से ताल्लुक-रसूख( भगवान से सम्बन्ध ) ज़ाहिर किया ।"

            🌿' बेनजीर हैं तानसेन ! यह वतन और यहाँ के बाशिन्दे ।और जो हमें उन्होंने एक बादशाह के फ़र्ज़ भी बतलाये , हम उन पर अम्ल करें।  हम कोशिश करेंगे कि अब आगरा का किला फ़कत किसी ज़दो-ज़हत के लिए ही नहीं ,,इन फकीर ओलिया से गुफ्तगूँ  के लिए भी ज़रूरी हो गया हैं ।'"

घोड़ो पर सवार दोनों अपने रास्ते पर चल तो दिए किन्तु मीरा के गाये भजन रस उनके कानो में अभी तक घुल रहा था ........

🌿भावना रो भूखो म्हारों साँवरो,,
    भावना रो भूखो ।

🌿सबरी रा बेर सुदामा रा चावल ,
     भर भर मुठ्या ढूका ।।

🌿दुरजोधन रा मेवा त्याग्या,
     साग विदुर घर लुको ।।

🌿मीरा के प्रभु गिरिधर नागर
     औसर कबहूँ ना चुको ।।

क्रमशः ...............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 114 )

क्रमशः से आगे ............

🌿गिरिराज जी की परिक्रमा करते हुए श्री राधाकुण्ड में स्नान कर मीरा सघन तमाल तरू के तले बैठी थी ।केसर और चमेली अभी स्नान कर रही थी , किशन सूखे वस्त्रों की रखवाली कर रहा था और शंकर दाल- बाटी की संभाल में व्यस्त था ।

             " माधवी ! " मीरा चौंक कर पलटी तो देखा सम्मुख चम्पा खड़ी थी। मीरा चरण स्पर्श को झुकी तो चम्पा ने आगे बढ़ उसे गले से लगा लिया। वे दोनों पेड़ की आड़ में बैठ गई तो चम्पा ने स्नेह से कहा ," माधवी , एक संदेश है तेरे लिये.......... श्यामसुन्दर की इच्छा है कि अब तू द्वारिका चली जा ।"

🌿मीरा की आँखें भर आई.........शब्द जैसे कण्ठ में ही अटक गये।  कुछ क्षण के पश्चात स्वयं को संभाल कर वह बोली ," बहिन ! ......क्या कहूँ ? श्यामसुन्दर कृपा पारावार है ! उन्होंने मेरे लिए कुछ अच्छा ही सोचा होगा ।पर किशोरीजू .....  किशोरीजू ..........वह मुझे स्मरण करती है ........?"-श्रीराधारानी का नाम लेते लेते मीरा सिसकने लगी ।

          " तेरी इस देह का दोष है माधवी !! " फिर बात को बदलते हुए चम्पा मुस्कराने का प्रयास करती  हुई बोली ," श्री किशोरीजू की स्मृति में तो तू सदा है। देख , हम सखियों में कौन छोटा बड़ा है ....और हम सब प्रियाजी की अपनी है........और.....और.....बस अब तेरा धरा धाम पर रहने का अधिक समय तक नहीं रह गया है ।"

           🌿 मीरा उल्लसित हो उठी -" सच , सदा के लिये मैं किशोरीजू की सेवा में, उनके चरणों में रह पाऊँगी !!!" पर चम्पा को एकाएक चुप और मुख मुद्रा बदलते देख मीरा अपनी आशंका को परे ठेलते हुये उसे मनाते हुये बोली ," कहो न बहिन ! कुछ छिपाओ न ! प्रियतम का मेरे लिए पूर्ण संदेश कहो ....प्रियतम से संदेश है तो मेरे लिए प्रियकर ही होगा !!! उनकी प्रत्येक बात , प्रत्येक विधान रसपूर्ण है। इस दासी को वे जैसे चाहें ,जहाँ चाहें , रखें ।मैं कहीं भी रहूँ , जिस अवस्था में रहूँ ,उन्हीं की रहूँगी ।इसमें सोचने की क्या बात है ? द्वारिका भी तो मेरे ही प्राण प्रियतम का धाम है ।"

            🌿 चम्पा मीरा को सांत्वना युक्त शब्दों में पर स्पष्ट कहने लगी ," तुमने माधवी के रूप में प्रथम बार श्यामसुन्दर के ऐश्वर्यमय स्वरूप के दर्शन पाये। तुम्हीं ने कहा था कि उनके चार हाथ हैं , दो से वंशी संभाले है , एक से गिरिराज उठाए हैं और एक हाथ अभय मुद्रा ( आशीर्वाद मुद्रा में ) उठा है। "उसने मीरा की ओर देखा तो उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया। फिर चम्पा पुनः कहने लगी -" तुमने सदा गिरधर गोपाल कहते हुये द्वारिकाधीश की उपासना -कामना की , तुम्हारे भावों के अनुसार द्वारिकाधीश से ही तुम्हारा विवाह हुआ .........। "

         " क्या कोई भूल हुई ? मैं अन्जान - अबोध बालक थी....... ।" मीरा ने कम्पित स्वर में कहा।

            " नहीं रे !" चम्पा बोली ," बस इतना ही कि वे............ भक्तवाञ्छाकल्पतरू है , भगवान भक्त के मन का भाव स्वीकार करते है। तुमने उनकी पत्नी के रूप से उपासना की ....... तो फिर पत्नी को तो पति के घर में ही रहना चाहिये न !!!!!"

            मीरा भूमि की ओर देखती हुई चुप सी बैठी रही ।

              🌿देख माधवी , संकोच न कर ! जो भी कहना है ,कह दे ।मैं जाकर , जो तू कहे , उनसे जा कह दूँगी। वे तो निजजनप्राण है। उनका तो मुझसे  तुम्हें कहलवाने का तात्पर्य यह था कि यदि यह व्यवस्था तुझे न रूचे , अथवा तुम जो चाहो , अथवा इसी में कोई परिवर्तन याँ कोई नवीन व्यवस्था चाहो ,तो वैसा ही कर दिया जाये। वे तेरी इच्छा जानना चाहते हैं"- चम्पा ने स्नेह से मीरा का हाथ अपने हाथ में ले सहलाते हुये कहा।

            चम्पा का अपनत्व से भरा स्नेहाभिसिक्त स्पर्श पा मीरा की आँखें बरस पड़ी। वह चम्पा से लिपट गई -" नहीं बहिन ! नहीं ,वे जो चाहें , जैसी चाहें , वैसी व्यवस्था करें ।उनकी उदारता ,करूणा अनन्त है !! अपने जनों का इतना मान , इतना मन कौन रखेगा ?? मुझे तो यह जानकर कष्ट हुआ कि उन्हें मुझसे पुछवाने की आवश्यकता क्यों जान पड़ी ? अवश्य ही अंतर में कोई आड़ -ओट बाकी है अभी ।यदि है भी तो बहिन , बस..... वह मिट जाये , ऐसी कृपा कर दो .....बस.....यही चाहिए मुझे । "

चम्पा प्रसन्न हो उठी -" यही तो चाहिए बहिन !! पर इतनी सी बात  लोग समझ नहीं पाते !!!

क्रमशः .............

॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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मीरा चरित ( 115 )

क्रमशः से आगे .........

चम्पा ने सकुचाते ,समझाते हुए मीरा को श्री श्यामसुन्दर का संदेश दिया। अब मीरा को वृन्दावन से द्वारिका प्रस्थान करना होगा क्योंकि उसकी भाव उपासना की रीति से पत्नी को पति के घर ही रहना चाहिए ।एक बार तो मीरा सतब्ध और भावुक हो गई पर ठाकुर की प्रत्येक आदेश में ही अपना मंगल एवं हित जान उसने उनकी आज्ञा को शिरोधार्य किया।

🌿 चिन्मय श्री वृन्दावन धाम के एक बार दर्शन के पश्चात उसे छोड़कर कहीं ओर पग बढ़ाना , मानों लक्ष्य स्थल पर पहुँच दूसरी दिशा की ओर चलना प्रतीत हो रहा था। पर शरणागतवत्सल और मंगल विधान भगवान की करूणा का स्मरण कर, अपने आँसुओं के उमड़ आये सैलाब को संभालते हुये मीरा कहने लगी ," और बात रहने दो चम्पा ! कुछ उनकी चर्चा करो बहिन ! श्री श्यामसुन्दर , श्री किशोरीजू कभी अपनी इस दासी को स्मरण करते है क्या ? तुम्हें देखकर प्रिय- मिलन सा सुख हुआ। उनकी वार्ता..... श्रवण को ........प्राण प्यासे हैं ......

" 🌿अपने आँचल से चम्पा ने मीरा के झर- झर बहते आँसू पौंछे -" धीरज़ धरो बहिन ! अब अधिक विलम्ब नहीं है ।और बताओ , कभी अपनों को कोई भुला पाता है भला ?नित्य सांझ को जब सब सखियाँ इकट्ठी होती है , जब नृत्य की प्रस्तुति होती है , तब किशोरीजू और श्यामसुन्दर के मध्य तेरी चर्चा चलती है । बहुधा तो मुझसे भी तेरे बारे में पूछते है। कई बार तो तेरा नाम लेते ही तेरे वियोग में उनकी आँखें भर आती है। वे तेरे दुख से दुखी होकर कहते है -" मीरा की सेवा , प्रशंसा करने वाला मुझे बहुत प्रिय है और उसका विरोध करने वाला मेरा भी वैरी है। " "मीरा ?" मीरा ने चौंककर सिर उठाया। " हाँ , कभीकभी वे तेरा यह नाम भी लेते है ।एकबार किशोरीजू ने पूछा तो उन्होंने कहा -" मुझे मीरा का यही नाम अधिक प्रिय है। माधवी बनकर उसने क्या पाया ? मीरा होकर तो उसने मुझे अपने प्रेम-पाश में बाँध लिया है।

" 🌿" तुमने कहा कि मेरा विरोध करने वालों से वह नाराज़ है ।उनसे कहना बहिन ! वे बेचारे अन्जान - अबोध उनकी दया के पात्र हैं । मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि उन पर भी कृपा करें। "मीरा ने हाथ जोड़कर चम्पा के पाँव पकड़ लिये। चम्पा हँसती हुईं बोली ," यह तो उनका स्वभाव है बहिन ! भक्त के सामने अपनी समदर्शिता भूल जाते हैं वे। " " किन्तु मेरी प्रार्थना भूल न जाना चम्पा ! जीव ही अपना अभाग्य न्यौत लाता है। देख , बहिन ! विरोध करने वाले कोई भी हो , उन्होंने मेरा हित ही किया है बहिन ! विरोध से तो दृढ़ता आती है। यदि दुख देने वाले न हो तो जीव के पाप -कर्म कैसे कटें ? नहीं -नहीं , चम्पा ! उन जैसा तो हित करनेवाला तो कोई नहीं ! भला कहो तो सही , सर्वेश की नाराज़गी लेकर भी किसी के पाप काट देना क्या सहज़ है ? बस...... चम्पा , मैं तो यही चाहती हूँ कि उन सबका भी भला हो।

" क्रमशः .................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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