मीरा जीवन कथा 9
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मीरा चरित ( 85 )
क्रमशः से आगे ...........
मीरा अभी भी भावावेश में ही है । किशोरीजू ने होली के उत्सव में श्यामसुन्दर पर विजय पाई। मीरा की सेवा और समर्पण से प्रसन्न हो जब प्रियाजी ने मीरा को अपना प्रसाद दिया तो वह आनन्द के वेग को न संभाल पाने से अचेत हो गई।
कितनी देर अचेत रही , ज्ञात नहीं ।जब संभली तो देखा कि विशाखा जीजी श्रीकृष्ण का उत्तरीय ,मेरी रंग भरी चुनरी और किशोरीजू के प्रसादी वस्त्र, सब मुझे देती हुई बोली -" तनिक चेत कर बहन ! सांझ हो रही है। "
" नन्दीग्राम जाओगी बहिन ?" श्री किशोरीजू ने पूछा।
क्या उत्तर दूँ ? मन भर आया था ।मैं रोते हुये प्रियाजी के चरणों से लिपट गई -" इन चरणों से दूर जाने की किसे इच्छा होगी स्वामिनी जू ?"
प्रियाजी ने मुझे अपनी बाँहों में भरते हुये कहा , " तुम मुझसे दूर नहीं हो बहिन। पर तुम्हारे वहाँ होने से हमें बड़ी सुविधा है , वहाँ के समाचार मिलते रहते है। "
" श्रीजू ! क्या कहूँ ? मैं किसी योग्य नहीं। बस आपकी चरणरज की सेवा में बनाए रखने की कृपा हो ! जैसी -तैसी बस मैं आपकी हूँ........ -" मैं फिर उनके चरणों में लुढ़क गई।
" मैं घर जाय रहयो हूँ , तू भी साथ चलेगी क्या ? रास्ते में तू अपने घर चली जाना ,तेरी माँ चिन्ता करती होयेगी "-श्यामसुन्दर ने हाथ पकड़ कर उठाते हुये कहा तो मुझे चेत हुआ । किशोरीजू की आज्ञा से सखियों ने मुझे उनके प्रसादी वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत किया। ह्रदय से लगाकर राधारानी ने मुझे श्याम जू के साथ विदा किया ।
" तेरा श्रृगांर किसने किया री ? " श्यामसुन्दर ने राह में मुझसे चलते चलते पूछा।
" मालूम नहीं ! मेरी आँखों में तो प्रियाजी के चरण समाये है। "
" मैं नहीं दिखता री तुझे ?"
" समझ में नहीं पड़ता श्याम जू ! कभी तुम , कभी किशोरीजू ।वही तुम ,तुम वही ,कभी आप दोनों एक हो , कभी अलग ।"
" तू तो बड़ी सिद्ध हो गई है री-जो इती बड़ी बड़ी बातें बोल रही। पर तेरो तिलक कछु ठीक नाहिं लागे मोहे ....... ठीक कर दूँ क्या ?"
बस मीरा उसी समय मूर्ति की तरह जड़ हो गई ।वह चित्तौड़ में अपने महल में, शरीर में वापिस तो लौट आई थी पर मन कहीं छूट गया था। कभी पागल सी हँसती , कभी रोती......। मीरा की यह दशा देख श्यामकुंवर बाईसा उदयकुंवर बाईसा से लिपट कर रोने लगीं-" मेरी बड़ी माँ को यह क्या हो गया?"
" कुछ नहीं बेटा ! इनको जब जब भगवान् के दर्शन होते है, ये ऐसी ही हो जाती है।तुम धीरज रखो ! अभी भाभी म्हाँरा ठीक हो जायेंगी "उदयकुँवर ने बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
श्यामकुँवर ने मीरा को ऐसी दशा में कभी देखा नहीं था -पुलकित देह ,सतत आसूओं की धारा से अधखुले नेत्र , मुख पर अनिर्वचनीय आनन्द ।वह दौड़ कर गिरधर गोपाल से बिलखते हुये प्रार्थना करने लगी-" ऐ रे म्हाँरा वीरा ! म्होटा माँ ही मेरी सब कुछ है। इन्हें मुझसे मत .....छीनो .....मत छीनो। "
चम्पा, चमेली आदि दासियाँ ने श्यामकुँवर को स्नेह से समझाया और सब मीरा के समीप बैठ संकीर्तन करने लगी-
" मोहन मुकुन्द मुरारे कृष्ण वासुदेव हरे "
दो घड़ी के पश्चात मीरा के पलक-पटल धीरेधीरे उघड़े किन्तु आनन्द के वेग से पुनः मुंद जाते ।कीर्तन के स्वरों के साथ साथ मीरा सामान्य हुई तो श्यामकुँवर ने भी प्रसन्न हो माँ की गोद में सिर रख दिया। मीरा ने भी बेटी को दुलारा ।
दासियाँ उठकर रंग के कुण्डे पिचकारियाँ साफ करने में लग गई ।मीरा ने अपनी ओढ़नी से कुछ निकाल कर स्नेह से श्यामकुँवर के हाथ में थमा दिया। उसने मुट्ठियाँ खोलकर देखा तो वन केतकी के दो पुष्प और एक पेड़ा ।उसने साभिप्राय माँ की तरफ़ देखा। " प्रभु ने दिये है ।प्रसाद खा लो और फूलों को संभाल कर रखना " मीरा ने उत्तर दिया।
सबके जाने के बाद मीरा ने जब अपनी साड़ी पर रंग देखा तो उसे वापस उसी दिव्य लीला का स्मरण हो आया -कितना हास- परिहास ,कितना हँसी विनोद और सब सखियों की भीड़ ......। पर वह अपने वर्तमान में अपने को यूँ अकेला पा उदास हो गई और उसके मन की पीड़ा स्वर बन झंकृत हो उठे..........
🌿किनु संग खेलूँ होली........
पिया तज गये हैं अकेली......🌿
क्रमशः ....................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं
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🌿मीरा चरित ( 86 )
क्रमशः से आगे ..............
मीरा और श्यामकुँवर दोनों गिरधर की सेवा में लगी थी -कि एक कुमकुम नाम की दासी बड़ी सी बाँस की छाब लेकर आई और बोली ," महाराणा जी ने आपके लिए शालिगराम जी और फूलों की माला भिजवाई है हुकम !"
" शालिगराम कौन लाया ? कोई पशुपतिनाथ याँ मुक्तिनाथ के दर्शन करके आया है क्या ?" मीरा ने अपने सदा के मीठे स्वर में पूछा।
" मुझे नहीं मालूम अन्नदाता ! मुझे जो हुकम हुआ , उसे पालन के लिए मैं हाज़िर हो गई ।वैसे भी बहुत समय से मेरे मन में आप हुज़ूर के दर्शन की लालसा थी ।आज महामाया ने पूरी की। मुझ गरीब पर मेहर रखावें सरकार ,हम तो बड़े लोगों का हुकम बजाने वाले छोटे लोग हैं सरकार !" कुमकुम ने भरे कण्ठ से कहा।
" ऐसा कोई विचार मत करो। हम सब ही चाकर है उस म्होटे धणी ( भगवान ) के। जिसकी चाकरी में है , उसमें कोई चूक न पड़ने दें , बस। हम सब का ठाकुर सबणे जाणे और सब देखे है ,उससे कुछ छिपा नहीं रहता " मीरा ने स्नेह से समझाते हुये कहा ,-" गोमती ! इन्हें प्रसाद दे तो ।"
फिर श्यामकुँवर की ओर देखती हुई मीरा बोली ," बेटी ! इस छाब की डोरियों को खोलो तो , तुम्हारे गिरधर के साथ इनकी भी पूजा कर लूँ। कोई लालजीसा के लिए पशुपतिनाथ याँ मुक्तिनाथ से शालिगराम भेंट में लाया होगा तो उन्होंने मेरी काम की चीज़ समझ कर यहाँ भेज दिए हैं ।"
जैसे ही श्यामकुँवर ने डोरी खोलने को हाथ बढ़ाया तो चम्पा बोल पड़ी -" ठहरिये बाईसा ! इसे हाथ मत लगाईये। जिस तरह से यह दासी इसे ला रही थी- यह छाब भारी प्रतीत होती थी और शालिगराम तथा फूलों का भार ही कितना होता है ?"
" तू तो पगली है चम्पा ! उधर से हवा भी आये तो तू वहम से भर जाती है । तुम खोलो बेटा !" मीरा ने श्यामकुँवर से कहा।
श्यामकुँवर खोलने लगी तो कुमकुम प्रसाद को ओढ़नी में बाँध आगे बढ़ आई ," सरकार ! बहुत मज़बूती से बँधी है। आपके हाथ छिल जायेंगे , लाईये मैं खोले देती हूँ। "
उसने डोरियों को खोल जैसे ही छाब का ढक्कन उठाया , फूत्कार करते हुये दो बड़े बड़े काले भुजंग चौड़े फण उठाकर खड़े हो गये। दासियों और श्यामकुँवर के मुख से चीख निकल पड़ी। कुमकुम की आँखें आश्चर्य से फट सी गई, और वह घबराकर अचेत हो गई। मीरा तो मुस्कराते हुये ऐसे देख रही थी मानों बालकों का खेल हो। देखते ही देखते एक साँप छाब में से निकलकर मीरा की गोद में होकर उसके गले में माला की भांति लटक गया।
" बड़ा हुकम !" श्यामकुँवर व्याकुल स्वर में चीख सी पड़ी।
" डरो मत बेटा ! मेरे साँवरे की लीला देखो ।"
पलक झपके , तब तक तो छाब में बैठा नाग एक बड़े शालिगराम के रूप में और मीरा के गले में लटका नाग रत्नहार के रूप में बदल गया।
" गोमती ! कुमकुम बाई को थोड़ा पंखा झल तो ! थोड़ा चरणामृत भी दे। बेचारी डर के मारे अचेत हो गई है " मीरा ने शांत स्वर में कहा।
चमेली क्षुब्ध स्वयं में बोली -" मरने भी दीजिए अभागी को जो आपके लिए सिर पर मौत उठाकर लायी। हमारा वहम तो झूठा नहीं निकला , किन्तु सरकार के भोलेपन के सामने वहम का क्या बस चले ?"
" ऐसी बात मत कह चमेली ! यह बेचारी कुछ जानती होती तो स्वयं आगे बढ़ कर छाब की डोरियाँ क्यूँ खोलती ? और यदि जानती भी होती तो अपना क्या बिगड़ गया ? ले ! ये चरणामृत दें तो इसके मुख में !"
अथाह स्नेहपूर्वक दोनों हाथों से छाब में फूलों के ऊपर रखे हुये शालिगराम जी को मीरा ने उठाया और एकबार सिर से लगाकर सिंहासन पर पधराते हुये वे बोली ," मेरे प्रभु ! कितनी करूणा है आपकी इस दासी पर !"
दासियों ने और श्यामकुँवर ने जयघोष किया -" शालिगराम भगवान की जय ! गिरधरलाल की जय !!!"
क्रमशः ..............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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🌿मीरा चरित ( 87)
क्रमशः से आगे ..................
राणा विक्रमादित्य ने मीरा को बाँस की छाब में दो काले भुजंग भिजवाये और कहलवाया कि शालिगराम जी और फूल है। छाब का ढक्कन खोलते ही नाग निकले, लेकिन देखते ही देखते एक ने शालिगराम का स्वरूप ले लिया और एक ने रत्नों के हार का ।
जब दासी कुमकुम को चेत आया तो वह मीरा के चरणों में सिर रखकर रो पड़ी -" मैं कुछ नहीं जानती अन्नदाता ! मुझे तो महाराणा के सेवक ने यह छाब पकड़ाई और कहा कि शालिगराम जी और फूल है मैं आपके यहाँ पहुँचा दूँ। यदि मैं इस साज़िश के बारे में जानती होऊँ तो भगवान इसी समय मेरे प्राण हर लें" फिर एकाएक चौंक कर बोली ,-" वे कहाँ गये दोनों कालींगढ़ ? "
" ये रहे। " मीरा ने एक हाथ से शालिगराम जी को और दूसरे से गले में पड़े हार को छूते हुये बताया -" तुम डरो मत ! मेरे साँवरे समर्थ है। "
श्यामकुँवर बहुत क्रोधित हुई यह सब देखकर और बोली ," अभी जाकर काकोसा से पूछती हूँ कि यह सब क्या है ? अभी तक तो सुनते ही थे पर आज तो आँखों के समक्ष सब देख लिया। "
पर मीरा ने बेटी को शांत कर समझाया ," कुछ नहीं पूछना है और हमारे पास प्रमाण भी कहाँ है कि उन्होंने साँप भेजे ।फिर साँप है कहाँ ? ब्लकि गोमती , जा !जोशी जी को बुला ला ,बोलना शालिगराम प्रभु पधारे है। प्राणप्रतिष्ठा करनी है। और चम्पा ! प्रभु के आगमन पर उत्सव भोग की तैयारी करो , और सब महलों में प्रसाद भी बंटेगा। "
श्यामकुँवर तो यह सब देख सकते में आ गई - एक शरणागत का ,एक भक्त का किसी भी स्थिति को देखने का ,उस स्थिति को संभालने का ही नहीं ब्लकि उसे प्रभु की लीला मान उसे उत्सव का स्वरूप दे देना -कितना भावभीना दृष्टिकोण है !"
" और मेरे लिए क्या आज्ञा है हुकम ? "कुमकुम रो पड़ी-" जो यह प्रसाद मेरे पल्ले में न बँधा होता तो वे नाग मुझे अवश्य डस गये होते। अब वहाँ जाकर क्या अर्ज़ करूँ ?"
" केवल यही कहना कि छाब को मैं कुंवराणी के पास रख आई हूँ और अर्ज़ कर दिया है कि शालिगराम और फूलों के हार है। इच्छा हो तो उत्सव के पश्चात आकर तुम प्रसाद ले जाना। "मीरा ने कहा।
" न जाने किस जन्म के पाप का उदय हुआ कि ऐसे कार्य में निमित्त बनी। यदि आपको कुछ हो जाता अन्नदाता ! तो मुझे नरक में भी ठिकाना न मिलता। हुज़ूर आप तो पीहर पधार रही है....... मुझे भी कोई सेवा प्रदान कर देती !" दासी ने आँसू पौंछते हुये कहा।
" मेरी क्या सेवा ? सेवा तो ठाकुर जी की है। उनका जो नाम अच्छा लगे , उठते -बैठते काम करते हुये लेती रहो। जीभ को न तो खाली रहने दो और न फालतू बातों में उलझायो। यह कोई कठिन काम नहीं है , पर आदत नहीं होने से प्रारम्भ में कठिन लगेगा ।आदत बनने पर तो लोग घोड़े -ऊँट पर भी नींद ले लेते है। बस इतना ध्यान रखना कि नियम छूटे नहीं। "मीरा ने कहा।
" मुझे .......भी एक ......ठाकुर जी .......बख्शावें। म्हूँ लायक तो कोय न , पण हुज़र री दया दृष्टि सूँ तर जाऊँली। " कुमकुम ने संकोच से आँचल फैला कर कहा।
मीरा उसके भाव से प्रसन्न हो बोली ," बहुत भाग्यशाली हो जो ठाकुर जी की सेवा की इच्छा जगी। प्रसाद लेने आवोगी तो जोशीजी भगवान और नाम दोनों दे देंगे। इनके नाम में सारी मुसीबतों के फंद काटने की शक्ति है। यदि तुम नाम भगवान को पकड़े रहोगी तो आगे -से -आगे राह स्वयं सूझती जायेगी और वह स्वयं भी आकर तुम्हारे ह्रदय में ,नयनों में बस जायेंगे। "
" आज तो मेरा भाग्य खुल गया।" कहते हुये उसने अपने आँसुओं से मीरा के चरण पखार दिए ।
शालिगराम जी के पधारने का उत्सव हुआ। जब जोशी जी ने शालिगराम भगवान का पंचामृत अभिषेक हुआ तो श्यामकुँवर और दासियों ने जयघोष कर मीरा का उत्साह वर्द्धन किया। मीरा भगवान के स्वयं घर पधारने से प्रसन्न चित्त मुद्रा में पर अतिशय भावुक हो विनम्रता से शीश निवाया। और ह्रदय के समस्त भावों से प्रियतम का स्वागत करने में तन्मय हो गईं.........
🌿म्हाँरे घर आयो प्रियतम प्यारा ...........
क्रमशः ............
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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🌿मीरा चरित ( 88 )
क्रमशः से आगे ...........
मीरा जी के महल में प्रभु शालिगराम जी के आगमन का उत्सव विधिवत सम्पन्न हुआ। पहले ठाकुर जी का शंखनाद के साथ अभिषेक ,भजन संकीर्तन , ब्रह्म भोज और फिर प्रसाद ।सबके महलों में प्रसाद बँटा ।
उदयकुँवर बाईसा को प्रसाद पाकर बहुत आश्चर्य हुआ तो वह स्वयं मीरा के यहाँ उत्सव का कारण पूछने चली आई। श्यामकुँवर और मीरा प्रसाद पाने बैठने ही लगे थे। तो मीरा ने दासी को कह उदयकुँवर बाईसा की भी थाली साथ ही लगवा ली।
" आज कैसा उत्सव है भाभी म्हाँरा ?" उदयकुँवर ने जिज्ञासा वश पूछा।
" आज शालिगराम प्रभु पधारे है बाईसा !" मीरा ने प्रसन्नता से कहा।
श्यामकुँवर ने प्रसाद पाते पाते सारा वृतान्त बुआ को कह सुनाया। उदयकुँवर सांप के पिटारे की बात सुनकर बहुत क्रोधित हुई -" मैं तों समझी थी कि महाराणा को अब अकल आ गई है। वे भाभीसा को अब पहचान गये है- किन्तु कुछ भी नहीं बदला है। मैं जाकर पूछती हूँ कि यह क्या किया आपने , क्या मेड़तियों को शत्रु बना कर मानेंगे ?"
" नहीं बाईसा! कुछ नही किसी से भी पूछना है। भाई जयमल के पुत्र मुकुन्द दास भी अभी यहीं है। मेड़ता में ज़रा सा भी भनक पड़ गई तो दोनों तरफ़ की तलवारें भिड़ जायेगीं। मेरा तो कुछ बिगड़ेगा नहीं ,पर हमारी बेटी का पीहर खो जायेगा " मीरा ने श्यामकुँवर के सिर पर हाथ रखते हुये कहा-" और रही बात मेरी , वो तो वैसे भी परसों मैं जा ही रही हूँ। "
उदयकुँवर विह्वल स्वर में भौजाई से लिपटते हुये बोली ," आप समंदर हो भाभी म्हाँरा !"
तभी कुमकुम ठाकुर जी को लेने आ गई ।मीरा उसे और श्यामकुँवर को ले मन्दिर पधारी तो जोशीजी को उसकी इच्छा बताई। " तुमको कौन से ठाकुर जी अच्छे लगते है - रामजी , कृष्ण जी , एकलिंगनाथ , माता जी याँ कोई ओर ?" मीरा ने पूछा।
" मुझे अच्छे बुरे लगने की अकल कहाँ है सरकार ! "कुमकुम विनम्रता से बोली।
" भगवान से एक रिश्ता जोड़ना पड़ता है ,। इसलिए पूछ रही हूँ। तुम्हें बालक चाहिये कि बींद मालिक चाहिए कि चाकर , यह बताओ। "
" म्हारे तो नान्हा लाला चावे हुकम !"
मीरा ने बालमुकुन्द जी को उठाकर जोशीजी के हाथ में दिया। जोशीजी उसे कुमकुम के हाथ में देते हुये बोले -" तुमसे जैसी बन पाये , वैसी पूजा करना और छोटे बालक की तरह ही सार-संभाल करना। आज से ये तेरे लाला है। अपने बालक की तरह ही लाड़ -गुस्सा भी करना। इन्हें खिला कर ही खाना-पीना , इन पर पूरा भरोसा करना ।"
उसके कान में लाला का गोपाल नाम देते हुए कहा -" इस नाम को कभी नहीं भूलना मत , ज़ुबान को नाम से विश्राम मत देना, समझी ?"
कुमकुम ने आँसुओं से भरी आँखों से जोशीजी की ओर देखकर सिर हिलाया। पल्लू से चाँदी का एक रूपया खोलकर जोशीजी के पाँवों के पास रख प्रणाम किया। वहाँ बैठे सबको प्रणाम कर अन्त में उसने मीरा के दोनों चरण पकड़ रोते हुये कहा ," मैं पापिन आपके लिए मौत की सामग्री लेकर आई थी और आपने मेरे लिए वैकुण्ठ के दरवाज़े खोले ।बस इस दासी पर सदा कृपा करना , भूल मत जाना। "
मीरा ने सिर पर हाथ फेर आश्वासन दिया। जोशीजी के आग्रह से मीरा ने मन्दिर में गिरधर के समक्ष, जाने से पहले एक पद गाया.......
🌿मैं गोविन्द के गुण गाणा ।
राजा रूठै नगरी राखै ,
हरि रूठयाँ कह जाणा ॥
🌿राणा भेज्या ज़हर पियाला ,
इमरित करि पी जाणा ॥
🌿डबिया में भेज्या दुई भुजंगम ,
सालिगराम कर जाणा ॥
🌿मीरा तो अब प्रेम दिवानी ,
साँवरिया वर पाणा ॥
मैं गोविन्द के गुण गाणा ॥
क्रमशः ...............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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🌿मीरा चरित ( 89 )
क्रमशः से आगे ..........
संवत १५९१ वैशाख मास ( 1534 ) में सदा के लिए चित्तौड़ छोड़कर मीरा मेड़ते की ओर चली ।एक दिन भोजराज के दुपट्टे से गाँठ जोड़कर इसी वैशाख मास में गाजे -बाजे के साथ वे इस महल की देहली पर पालकी से उतरी थी। आज सबसे मिलकर इस देहली से विदाई ले रही है। ये वे महल-चौबारे थे , जहाँ उसने कई उत्सव किए थे , जहां उसके गिरधरलाल ने अनेक चमत्कार दिखाये थे , जहाँ उसके प्रिय सखा कलियुग में द्वापर के भीष्म से भी अधिक भीषण प्रतिज्ञा का पालन करने वाले महाभीष्म भोजराज ने देह छोड़ी थी और जहाँ विक्रमादित्य ने उसके विरुद्ध कई षडयन्त्र रचायें थे ।
एकबार भरपूर नज़र से उसने सबको देखा ,उस कक्ष में जहाँ भोजराज विराजते थे ....वे वहाँ जाकर खड़ी हो गई। पंचरंगी लहरिये का साफा , गले में जड़ाऊ कण्ठा-पदक पहने ,कटार -तलवार बाँधे , हँसते - मुस्कराते भोजराज मानों उसके सम्मुख खड़े हो गये थे। मीरा की आँखें भर आई -" सीख बख्शाओं, महाराजकुमार ! विदा , विदा मेरे सखा ! मेरे सुदृढ़ कवच ! मुझसे जो भूलें , जो अपराध हुये हों , उनके लिए मैं क्षमा याचना करती हूँ। " कहते हुये मीरा ने मस्तक धरती पर रख भोजराज को प्रणाम किया-" मैं अभागिनी आपको कोई सुख नहीं पहुँचा सकी, कोई सेवा नहीं कर सकी। अपने गुणों और धीर - गम्भीर स्वभाव से आपने जो मेरी सहायता की और सदा ढाल बनकर रहे , जो भीष्म प्रतिज्ञा आपने की और अंत तक उसे निभाया , उसके बदले मैं अकिंचन आपको क्या नज़र करूँ ? किन्तु हे मेरे सखा ! मेरे स्वामी सर्व समर्थ है। वे देंगे आपको अपनी इस दासी की सहायता का प्रतिफल। आपका मंगल हो...आप जहाँ भी है ....मेरा आपको प्रणाम "उसने आसुँओं से भरी आँखों से पुनः धरती पर प्रणाम किया।
बहुत देर से चम्पा स्वामिनी को यूँ भावुक हो रोते हुये देख रही थी-" बाईसा हुकम ! नीचे पालकी आ गई है , सबसे मिलने पधारें । "
आँसू पौंछकर मीरा उस कक्ष से बाहर आ गई ।आवश्यक सामान और गिरधर की पोशाकें आभूषण सब गाड़ियों पर लदकर जा चुका था। मीरा के जो सेवक और दासियाँ जो चित्तौड़ में ही पीछे रह रहे थे , उनके लिए द्रव्य और जीविका का प्रबन्ध कर दिया था। सभी मन ही मन जानते थे कि अब मीरा वापस चित्तौड़ की ओर मुख न करेगी -सो उसके प्रियजनों के प्राण व्याकुल थे।
मीरा अपनी सासों और गुरूजनों की चरणवन्दना करने पधारी। सब उसे भारी मन से मिले। धनाबाई सास तो उसे ह्रदय से लगा बिलख पड़ी तो मीरा ने उन्हें आश्वस्त किया। हाड़ी जी ( विक्रमादित्य की माता ) को मीरा ने प्रणाम कर अपने अन्जाने में अपराधों के लिए क्षमा माँगी। हाँडीजी बोली ," पहले मैं समझती थी कि तुम जानबूझ कर हम सबकी अवज्ञा करती हो बीनणी ! किन्तु बाद में मैं समझ गई कि भक्ति के आवेश में तुम्हें किसी का ध्यान नहीं रहता। तुमसे पल्ला फैला एक भिक्षा माँगती हूँ.......दोगी ? हमारे किए अपराधों को मन में .............."
मीरा ने स्नेह से सास का पल्ला हटाकर उनके दोनों हाथ पकड़कर माथे से लगाते हुये बोली ," ये हाथ किसी के सामने फैलाने के लिए नहीं बने है ये हाथ आश्रितों पर छत्रछाया करने और मुझ जैसी अबोध को आशीर्वाद देने के लिए बने है। यह चित्तौड़ की जननी के हाथ है , आपके ऐसा करने से आपके राजमाता के पद का अपमान होता है ।"
" नहीं !मुझे कहने दो बीणनी !" कहते कहते हाड़ी जी की आँखों से आँसू बहने लगे ।
" नहीं हुकम ! कुछ मत फरमाइये आप। मेरे मन में कभी किसी के लिए रोष नहीं आया। मनुष्य अपने कर्मों का ही फल भोगता है। दूसरा कोई भी उसे दुख यां सुख नहीं दे सकता , यह मेरा दृढ़ विश्वास है । आप निश्चिंत रहे। भगवान कभी किसी का बुरा नहीं करते ।उसके विधान में सबका हित , सबका मंगल ही छिपा होता है " मीरा ने स्नेह से सास को ह्रदय से लगाया तथा प्रणाम कर चलने की आज्ञा माँगी।
मीरा का लक्ष्य उसे अपनी तरफ़ पुकार रहा था। वह धीरेधीरे पिछलें रिश्तों को सम्मान देकर आगे बढ़ने लगी......... उसके ह्रदय में कहीं दूर से एक ही संगीत ध्वनि सुनाई दे रही थी ...............
🌿चालाँ वाही देस...........
क्रमशः .............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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🌿मीरा चरित ( 90 )
क्रमशः से आगे.............
मीरा राजमाता जी के महल से निकल दास दासियों को यथायोग्य अभिवादन करती पालकी में आ बैठी ।सब मुक्त कण्ठ से मीरा की प्रशंसा कर रहे थे। तभी ननद उदयकुँवर बाईसा उसके चरणों से आकर लिपट गई तो मीरा ने उसे ह्रदय से लगा आश्वस्त किया ।
" भाभी म्हाँरा ! मैं आपकी हूँ , आप मुझे भूल मत जाइयेगा। मेरे ठाकुर जी तो आप ही हो। मैं किसी और को नहीं जानती " रोते रोते उदा ने कहा।
" धैर्य रखिये। आप म्हाँरा और म्हूँ आपरी हूँ बाईसा। थाप मारने से पानी अलग नहीं हो जाता। पर मनुष्य की शक्ति कितनी ? -आप उस सर्व समर्थ ठाकुर जी पर विश्वास कीजिए , उनके चरणों में मन लगाईये , उसके नाम का आश्रय लीजिए" मीरा ने समझाया। उदयकुँवर मुँह ढाँप कर जैसे ही एक तरफ़ हुई तभी कुमकुम आकर मीरा के चरणों में पड़ गई ।उसकी आँखों से झरता जल मीरा के पाँव पखारने लगा।
" उठो , तुम पर तो बहुत कृपा की है प्रभु ने ।अपनी दृष्टि संसार और इसके सुखों की ओर नहीं , प्रभु की ओर रखना। मन के सभी परदे उनके सामने खोल देना। ह्रदय में उनसे छिपा कुछ रह न जाए , यह ध्यान रखना। "
मीरा की पालकी भोजराज के बनवाये हुये मन्दिर की ओर चली प्रभु के दर्शन कर जब वह प्रांगण में खड़ी हुईं तो उसे प्राण प्रतिष्ठा का वो दिन स्मरण हो आया जब वह भोजराज के साथ पूजा के लिए बैठी थी-" कैसा अनोखा व्यक्तित्व था भोजराज का ! लोगों के अपवाद , मुखर जिह्वायें उनके पलकें उठाकर देखते ही तालू से चिपक जाती थी ।तन और मन की सारी उमंग, सारे उत्साह को मेरी प्रसन्नता पर न्यौछावर करने वाले हे महावीर नरसिंह ! प्रभु आपके मानव जीवन का चरम फल बख्शेंगें। " उसे ज्ञात ही नहीं हुआ कि कब उसकी आँखों से नीर बहने लगा। आँसू पौंछ वे नीचे झुकी और प्रागंण की रज उठा मीरा ने सीस चढ़ाई -" कितने संतों , भक्तों की चरण रज है यह ।"
जोशीजी ने मीरा को चरणामृत दिया तो उसने ठाकुर जी की पूजा सेवा का प्रबन्ध ठीक से रखने की प्रार्थना की। बाहर आते उसे नन्हें देवर उदयसिंह मिल गये तो उसे दुलार कर उसके सिर पर हाथ रखा। मन्दिर से मिले प्रसाद की कणिका मुख में रख थोड़ा उदयसिंह के मुख में डाला। बाकी प्रसाद उसकी धाय पन्ना राजपूत को दे कर कहा ," बड़े से बड़ा मूल्य चुका कर भी इस वट बीज की रक्षा करना। कल यह विशाल घना वृक्ष बनकर मेवाड़ को छाया देगा। "
ब्राह्मणों को दान, गरीबों को अन्न वस्त्र दे मीरा पालकी में सवार हुई -मानों चित्तौड़ का जीवंत सौभाग्य विदा हो रहा हो। कुछ स्त्रियाँ विदाई के गीत गाती साथ चली पर मीरा ने सबको समझा बुझा कर लौटाया । महराणा और उमराव नगर के बाहर तक पहुंचाने पधारे। सवारी ठहरने पर महराणा विक्रमादित्य पालकी के समीप पहुंचे। हाथ जोड़कर वह झुके और बोले;" खम्माधणी ! "
मीरा ने हँसकर हाथ जोड़े;"सदा के लिए विदा दीजिये अपने इस खोटी भौजाई को। अब ये आपको कष्ट देने पुन: हाज़िर नहीं होगी। मुझसे जाने अन्जाने में जो अपराध बने हो, उनके लिए क्षमा बख्शावें ! "
महाराणा घबराकर बोल उठे,"ये क्या फरमाती है भाभी म्हाँरा ! कुल कान की खातिर, जो कुछ कभी कभार अर्ज कर देता था, उसके लिए मुझे ही क्षमा मांगनी चाहिए ।"
" भगवान आपको सुमति बख्शे !" मीरा ने हाथ जोड़े -" मेरे मन में कभी आपका कोई कार्य अथवा बात अपराध जैसी लगी ही नहीं ।फिर माफी कैसी लालजीसा ! यह राज जैसे अन्नदाता हुकम चलाते थे, वैसे ही आप भी चलायें ,यही सब की कामना है।
मुकुन्द दास और श्यामकुँवर ने भी सबसे विदा ली। मीरा की कुछ दासियाँ सपरिवार साथ थी हीं। जो साथ नहीं चल सकते थे, जिनकी जड़े अब चित्तौड़ में जम चुकी थी ,उन्हें मीरा ने स्नेह से समझा कर वापिस भेजा। किन्तु संतों और यात्रियों की टोली तो साथ ही चली।
मीरा चित्तौड़ से अपना मन सदा के लिये उधेड़ कर अपने लक्ष्य की ओर पग बढ़ा चुकी थी। उसके जीवन का एक और अध्याय रचने जा रहा था। उसके मन में अपूर्व प्रसन्नता थी .....उसे दूर से वही संगीत लहरी सुनाई दे रही थी...............
🌿चाला वाही देस...........
क्रमशः ...........
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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🌿मीरा चरित ( 91 )
क्रमशः से आगे.............
तीस वर्ष की आयु में मीरा ने चित्तौड़ का परित्याग करके पुनः मेड़ता में निवास किया। उसके हितैषी स्वजनों , चाकरों और दासियों को मानों बिन माँगे वरदान मिला। हर्ष और निश्चिन्तता से उनके आशंकित - आतंकित मन खिल उठे। मेड़ते का श्यामकुन्ज पुनः आबाद हुआ। कथा -वार्ता , उत्सव और सत्संग की सीर खुल गई।
मेड़ता का श्याम कुन्ज उत्सव और सत्संग की उल्लास भरी उमंग से एकबार पुनः खिलखिला उठा। किन्तु मीरा के गिरधर गोपाल की योजना कुछ और ही थी । उसके प्राणधन श्यामसुन्दर को अपनी प्रेयसी का अपने धाम से दूर रहना नहीं सुहाता था। मीरा ने चित्तौड़ छोड़ दिया ,केवल इतने मात्र से वे संतुष्ट नहीं थे। वे इकलखोर देवता जो ठहरे। उन्हें चाहने वाला दूसरों की आस करे, यह वे तनिक भी सह नहीं पाते। लेना -देना सब का सब पूरा चाहिए उन्हें। जिसे उन्होंने अपना लिया , उसका और कोई अपना रहे ही क्यों ? बस ठाकुर जी की इच्छा से राजनैतिक परिस्थितियाँ करवट बदलने लगी।
मीरा के चित्तौड़ त्याग के बाद बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। राजपूत वीरों ने घमासान युद्ध किया पर सफलता नहीं मिल पाई। इस युद्ध में बत्तीस हज़ार राजपूत वीरगति को प्राप्त हुये और तेरह हज़ार स्त्रियाँ राजमाता हाड़ीजी के साथ जौहर की ज्वाला में कूदकर स्वाहा हो गई। इन्हीं बीच पासवान पुत्र वनवीर की राज्य -लिप्सा बढ़ चली और उसने एक रात महाराणा विक्रमादित्य को तलवार से मार डाला ।राज्य को अकंटक बनाने की लोलुपता में वह वनवीर तो महाराणा के छोटे भाई उदयसिंह को भी मार डालना चाहता था , परन्तु पन्ना धाय ने अपने पुत्र की बलि देकर उदयसिंह के प्राणों की रक्षा की।
उधर मेड़ता की स्थिति भी अच्छी नहीं थी ,उसपर भी भीषण विपत्ति टूट पड़ी। मीरा को मेड़ता आये हुये अभी दो वर्ष ही हुये थे कि जोधपुर के मालदेव ने मेड़ता पर चढ़ाई कर दी। सामन्तों के समझाया ," परस्पर में व्यर्थ का संघर्ष उचित नहीं। जब उनका आवेश शांत हो जायेगा , तब हम सब लोग उन्हें समझा कर आपको मेड़ता वापिस दिलवा देंगे। " सरल ह्रदय वीरमदेव जी उन सामन्तों पर विश्वास करके मेड़ता छोड़ अजमेर आ गये -और वहाँ से नराणा तथा फिर पुष्कर। भाग्य की रेखाएँ वक्र थी जो उनको ज़गह ज़गह भटकना पड़ रहा था। मीराबाई भी परिवार के साथ ही थी।
सन् 1595 में पुष्कर में निवास करते समय मीरा के चिन्तन में मोड़ आया। प्रेरणा देनेवाले भी वही जीवन अराध्य गोपाल ही थे। मीरा सोचने लगी कि दर दर ठोकर खाने की अपेक्षा यही उचित है कि अपने प्राण प्रियतम के देश वृन्दावन में वास किया जाए। उसे मन ही मन बड़ी ग्लानि हो रही थी कि ऐसा निश्चय वे अब तक क्यों नहीं कर पाई। कुछ सैनिकों और अपनी दासियों के साथ वह तीर्थ यात्रियों की टोली के संग वृन्दावन की तरफ़ चल पड़ी ........
" चाला वाही देस" की संगीत लहरियाँ उसके ह्रदय में हिलोर लेने लगी -आज उसका एक एक स्वप्न साकार रूप लेने को तैयार था। वह बार बार वृन्दावन नाHम का उच्चारण मन ही मन करते पुलकित हो उठती ..... उसकी भावनाओं को पंख से लग गये थे ......वह आज अपने प्रियतम गिरधरलाल के देस जा रही थी और उनके लिए आज उनकी बैरागन बनना ही उसका सौभाग्य था .......
🌿 व्हाला मैं बैरागन हूँगी.......
जिन भेषाँ मेरो साहिब रीझो सो ही भेष धरूँगी॥
कहो तो कसूमल साड़ी रँगावाँ,
कहो तो भगवा भेस ॥
कहो तो मोतियन माँग पुरावाँ ,
कहो छिटकावा केस ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
सुणज्यो बिड़द नरेस ॥🌿
क्रमशः ................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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🌿मीरा चरित ( 92 )
क्रमशः से आगे ...........
🌿मीरा की अपने प्रियतम के देश .........अपने देश पहुँचने की सोयी हुई लालसा मानों ह्रदय का बाँध तोड़कर गगन छूने लगी। ज्यों ज्यों वृन्दावन निकट आता जाता था ,मीरा के ह्रदय का आवेग अदम्य होता जाता। कठिन प्रयास से वे स्वयं को थाम रही थी।उसके बड़े बड़े नेत्र आसपास के वनों में अपने प्राणआराध्य की खोज़ में इधरउधर चंचलता से परिक्रमा सी करने लगते। मानों वहीं कहीं श्यामसुन्दर वंशीवादन करते हुये किसी वृक्ष के नीचे खड़े दिख जायेंगे।
🌿 मीरा बार बार पालकी , रथ रूकवाकर बिना पदत्राण ( खड़ाऊँ ) पहने पैदल चलने लगती। बड़ी कठिनाई से चम्पा , चमेली केसर आदि उन्हें समझा कर मनुहार कर के यह भय दिखा पाती कि अभ्यास न होने से वह धीरे चल रही है और अन्तःत साथ में चल रहे सब यात्रियों को असुविधा होती है। इसके बाद भी मीरा पैदल चलने से विरत नहीं हो रही थी। उनके पद छिल गये थे , उनमें छाले उभरकर फूट गये थे , किन्तु वह इन सब कष्टों से बेखबर थी। दासियों , सेवकों की आँखें भर आती। मीरा हँसकर उन सभी को अपनी सौगन्ध दे रथ पर याँ गाड़ी पर बैठा देती।
🌿मीरा भजन गाती ,करताल बजाती चल रही है, किन्तु दासियों को केवल वह रक्त छाप दिखाई देती है,और उसके प्रत्येक पद पर उनके ह्रदय कराह उठते। जब उनकी यह पीड़ा असहनीय हो गयी तो चम्पा रथसे कूद पड़ी और स्वामिनी के चरणों से लिपट गयी।
''मुझसे जो भी अपराध हुए हों बाईसा हुकम ! इतनी कठिन सज़ा मत दीजिये कि अभागिनी चम्पा सह न सके। हम पर दया करें स्वामिनी ...दया करें .........वह अचेत सी हो स्वामिनी के चरणों में लुढक गयी ।"
"क्या हुआ तुझे ?" कहती हुई मीरा नीचे बैठ गयीं। चम्पा को गोदमें भरकर उसके आंसू पोंछती बोली।
" अपने पदतल तो देखिए बाईसा हुकम !" चमेली ने जैसे ही मीरा के पाँव को छुआ मीरा की दर्द से हल्की सी कराह निकल गई।
''में तो ठीक हूँ पगली तुम क्यों घबरायीं? यदि कुछ हुआ भी तो सार्थक हुआ ये मांस पिंड , प्रभु के धाम की तरफ़ चलने से ।हानि क्या हुई भला?''
" हानि तो हमारी हुई है हुकम! हम अभागिनियों को , जो सदा सेवा की अभ्यासी हैं उनको तो सवारी पर चढ़ने की आज्ञा हुईं और हमारी सुमन सुकुमारी स्वामिनी पांवोंसे चलें ,हम उनके घावोंसे रक्त बहता देखें और सवारी का सुख लें,इससे बड़ा दण्ड तो यमराज की शासन पुस्तिका में भी नहीं होगा" चम्पा के इस कथन के साथ ही सभी बरबस हो ज़ोर से रो पड़ी।
🌿जो यात्री यह दृश्य देख रहे थे , वे भी अपने आँसू रोक नहीं सके। रात होने पर , पड़ाव के खेमें में , जब चमेली मीरा के घायल तलवों पर औषध लेप लगाने लगी , तब भी मीरा का एक ही आग्रह था ," जा ! अरे , यह सब छोड़ ! जा , ज़रा किसी यात्री से पूछकर तो आ कि वृन्दावन अब कितनी दूर रह गया है ?" वृन्दावन समीप जानकर एकदम से चलने को उद्यत हो उठती। जो यात्री पहले वृन्दावन गये थे ,उन्हें बुलवाकर दूरी पूछती , वहाँ के घाट ,वन और कुन्जों का विवरण पूछती , यमुना, गोवर्धन और मन्दिरों का हाल पूछती , वहाँ की महिमा कभी स्वयं बखान करती और कभी दूसरों के मुख से सुनती।
🌿सुबह , जब सब यात्रियों की टोली चली तो मीरा के पाँव मन की गति पा उड़ने से लगे। उसका पुलकित ह्रदय शब्दों में आनन्द उड़ेलने लगा ...............
🌿चलो मन गंगा -जमना तीर ॥
गंगा जमना ,निरमल पाणी सीतल होत सरीर।
बंसी बजावत गावत कान्हो संग लियाँ बलबीर॥
मोर मुकुट पीतांबर सोहै कुण्डल झलकत हीर।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कँवल पर सीर॥
🌿कहीं एक साथ नदी ,पर्वत और वन देखती तो मीरा को वृन्दावन की स्फुरणा हो आती। वह गाती -नृत्य करती और प्रणिपात ( प्रणाम ) करने लग जाती। दासियाँ पद -पद पर मीरा की संभाल करती। बहुत कठिनाई से समझा पाती -" बाईसा! अभी वृन्दावन थोड़ी दूर है.......!!!
क्रमशः ..............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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🌿मीरा चरित ( 93 )
क्रमशः से आगे ..........
🌿ब्रज की सीमा पर पहुँच कर यात्रा रोक देनी पड़ी ।मीरा धरा पर लोट ही गई। अपना घर.......अपना देस देखते ही उसके संयम के बाँध टूट गये। विवेक तो जैसे प्रेम से प्रताड़ित होकर कहीं जा दुबका। आँखों से बहती गंगा -यमुना ब्रजभूमि का अभिषेक करने लगी। सारी देह धूलि धूसरित हो उठी।थोड़ी देर तक मीरा को दासियों ने कठिनाई से सम्भाला । सन्धया होते होते सबने वृन्दावन में प्रवेश किया। मीरा और उसके दास दासियाँ यात्री दल से यहाँ से पृथक हो गये और वृन्दावन में प्रथम रात्रि वास उन्होंने श्री श्यामसुन्दर की लीला स्थली ब्रह्म कुण्ड पर किया।
🌿ब्रह्म कुण्ड पर वह रात्रि पर्यन्त निरन्तर अस्पष्ट कण्ठ से अपने प्राणप्रियतम को पुकारती , निहोरा करने लगी। बहुत प्रयत्न करने पर भी वह प्रकृतिस्थ नहीं हुईं। किसी प्रकार भी उन्हें दो कौर अन्न और दो घूँट पानी नहीं पिलाया जा सका। अपनी प्रेम दीवानी स्वामिनी को घेरकर दासियाँ सारी रात संकीर्तन करती रही।
🌿चम्पा ने किसी को डाँटकर तो किसी को प्यार से भोजन करने को समझाया -"चाहे मन हो याँ न हो पर स्वयं को सेवा के लिये स्वस्थ रखने के लिए हमें इस देह को पुष्ट रखना है। अन्यथा हमारा सेवक धर्म कलंकित होगा। "
🌿प्रातः होते ही मीरा ने यमुना -स्नान की रट लगा ली। यमुना अभी दूर है , कहकर उन्हें पालकी पर चढ़ाया गया। चम्पा साथ बैठी। लेकिन मीरा के ह्रदय में इतनी त्वरा थी कि बैठे रहना उसे सुहा नहीं रहा था। वह ज़िद कर फिर उतर पड़ी-" कि निज घर में भी कोई पालकी में सवार होता है भला ? ब्रजरज का तो जितना हम स्पर्श पाये उतना ही हमारा सौभाग्य है। "
🌿वृन्दावन धाम !!! यह तो है ही प्रेम -परवश प्राणों का आधार , उनके ह्रदय सर्वस्व की लीलास्थली , रसिकों का निवास -स्थल। दूर दूर से प्यासे प्राण इस लीलाधाम को ताकते हुये चले आते है। बड़े बड़े राजाओं के मुकुट यहाँ धूल में लोटते नज़र आते है। महान दिग्विजयी विद्वान रजस्नान करके वृक्षों से लिपटकर आँसू बहाते हुये दिखते है। कहीं नेत्र मूँदे हुये आँसू बहाते , प्रकम्पित पुलकित देह, किसी घाट पर याँ किसी वृक्ष की छाया में, याँ किसी एकान्त कुटिया में प्रेमी जन लीला दर्शन सुख में निमग्न है ।जिस वृन्दावन की महिमा महात्मय के वर्णन में स्वयं ब्रजराजकिशोर अपने को असमर्थ पाते है , उसे मैं मूढ़ शुष्क ह्रदय कैसे कहूँ ?
🌿सेवाकुन्ज के पीछे की गली में एक घर लेकर दो सेवकों और तीन दासियों के साथ मीरा रहने लगी। यद्यपि वह प्रारम्भ से ही नहीं चाहती थी कि वृन्दावन यात्रा में कोई भी उसके साथ आये , पर जिन्होंने अपनी ज़िंदगी की डोर उसके चरणों में उलझा दी थी , उन्हें वह कैसे पीछे छोड़ आती ?
🌿वृन्दावन में मीरा का मन पहले से ही रमा हुआ था। फिर भक्ति में स्वछन्दता , किसी भी तरह की व्यवहारिकता से परे का वातावरण ,कोई बन्दिश नहीं मानों मीरा की प्रेम भक्ति को उड़ने के लिये विस्तृत आकाश मिल गया हो। उसे वृन्दावन में हुई ठाकुर जी की लीलाओं की स्मृति अनायास ही हो आती-कभी ठाकुर की गोपियों से छेड़छाड़ की लीला तो कभी माधुर्य भाव की लीला ।वह उन भावों को संगीत में स्वभाविक ही बाँध देती...........
🌿या ब्रज में कछु देख्यो री टोना ॥
ले मटकी सिर चली गुजरिया ।
आगे मिले बाबा नन्द जी के छोना॥
दधि को नाम बिसरि गयो प्यारी।
"ले लेहु री कोउ स्याम सलोना ॥
बिंद्राबन की कुंज गलिन में।
आँख लगाय गयो मनमोहना ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर।
सुन्दर स्याम सुघर रस लोना ॥🌿
क्रमशः ............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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🌿मीरा चरित ( 94)
क्रमशः से आगे .............
🌿 मीरा का आवास स्थान सेवाकुन्ज के समीप ही गली में ही था।सेवाकुन्ज तो स्वयं सिद्ध पीठ है मानो तो जैसे वृन्दावन का ह्रदय , प्रियालाल जी की नित्य रास स्थली। फिर पास में श्री यमुना महारानी जो प्रियालाल जी की नित्य रसकेलि की चिर साक्षी है। चारों तरफ़ मन्दिर ,सत्संग - मीरा का उत्साह तो पल पल में उफ़ान ले रहा था। वह किसी दूसरे ही जगत में थी। वृन्दावन वास के दिवा निशि भी इस जगत के कहाँ थे ? मीरा को कुछ खाने पीने की भी सुध कहाँ थी ? पर हाँ ....उसकी आत्मा अवश्य पुष्ट हो रही थी।
🌿 मीरा की ऐसी स्थिति में अन्दर बाहर का सारा कार्य दासियाँ ही संभाल रही थी। चमेली बाई अपने पति शंकर और केसर बाई अपने पति केशव को साथ लेकर वृन्दावन के लिए प्रस्थान करते समय मीरा के पीछे चल दी थी। चमेली के कोई सन्तान नहीं थी और केसर ने अपना एकमात्र पुत्र गोमती को सौंपा। जब केसरबाई स्वामिनी के पीछेपीछे चली तो केशव भी चला आया। मीरा ने जब केसर के पुत्र गोविन्द को माँ के लिए रोते देखा तो केसर से लौट जाने को बहुत आग्रह किया। पर केसर ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया -" माँ बाप ने सरकार के विवाह के समय मुझे इन चरणों में सौंपा था। सेवा में पटु न होने पर भी ऐसा क्या महान अपराध बन पड़ा हुकम कि इस दासी को आप अनाथ कर रही है ? बस एक अनुरोध है , वृन्दावन में आप जहाँ भी रहेंगी - मैं आपके दूर से ही दर्शन कर लिया करूँगी। बस , इतनी नियामत बख्शें आप इस किंकरी को !"
चमेली ने भी कहा ," वहाँ तो सब सीधे सीधे मिलेगा नहीं। चम्पा श्री चरणों की सेवा करेगी , तो मैं और केसर लकड़ी लाना , आटा पीसना , कपड़े धोना , बर्तन मांजना बुहारी लगाना आदि कार्य संभाल लेंगी। इतना जीवन आपकी सेवा में बीता है तो बाकी का क्यों अभिशाप बनें ?" मीरा दोनों की सेवाभावना से निरूत्तर हो गई ।
चम्पा ने विवाह किया ही नहीं था। वह मीरा की दासी ही नहीं , अंतरंग सखी भी थी , उसके भावों की वाहिका , अनुगामिनी ,अनुचरी ।कभीकभी जब अंतरंग भावों की चर्चा होती तो उसके भावों की उत्कृष्टता देखकर मीरा चकित हो उठती। चम्पा से मीरा को स्वयं चिन्तन में सहायता मिलती। वे पूछती ," चम्पा ! कहाँ से पा गई तू यह रत्नकोष ?"
वह हँसती -" सब कुछ इन्हीं चरणों से पाया है सरकार ! और किसी को तो जानती नहीं मैं !!"
🌿कथा , सत्संग , मन्दिरों के दर्शन , भजन , कीर्तन नृत्य आदि का उल्लास और उत्साह ऐसा था कि मानों परमानन्द सागर में डुबकी -पर -डुबकी लग रही हो। मीरा की भजन ख्याति वृन्दावन में फैलने लगी थी। जिसने भी सुना , वही दौड़ा दौड़ा आता। आकर कोई तो प्रणाम करता और कोई आशीर्वाद देता। ब्रज के संतों से विचार -विनिमय और भाव चर्चा करके मीरा तीव्रतापूर्वक साधन -सोपानों पर चढ़ने लगी। यद्यपि मीरा स्वयं सिद्धा संत थी , पर यहाँ इस पथ में भला इति कहाँ है ?
🌿मीरा का मन पूर्णतः वृन्दावन में रच बस गया था। उसे कभी स्मरण भी नहीं होता कि वह प्रारम्भ से यहाँ नहीं थी। उसे वृन्दावन भा गया था और वहाँ की सात्विकता और घर घर में सहज़ और स्वभाविक भक्ति देख उसका मन उल्लास से गा उठता..........
🌿आली म्हाँने लागे वृन्दावन नीको ।
घर घर तुलसी ठाकुर पूजा दरसण गोविन्दजी को ॥
निरमल नीर बहे जमुना को भोजन दूध दही को।
रतन सिंघासण आप विराज्या मुकट धर्यो तुलसी को॥
कुंजन कुंजन फिरूँ साँवरा सबद सुणत मुरली को।
मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर भजन बिना नर फीको॥
क्रमशः ................
🌾॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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🌿मीरा चरित ( 95 )
क्रमशः से आगे ............
🌿एक दिन किसी से पूज्य श्री जीव गोस्वामी पाद का नाम , उनकी गरिमा ,उनकी प्रतिष्ठा सुनकर मीरा उनके दर्शन के लिए पधारी। सेवक के द्वारा उनकी भजन कुटीर में सूचना भेजकर वे बाहर बैठकर प्रतीक्षा करने लगी। सेवक ने कुटिया से बाहर आकर कहा ," गोस्वामी पाद किसी स्त्री का दर्शन नहीं करते। "
🌿मीरा हँस कर खड़ी होते हुये बोली ," धन्य हैं श्री गोस्वामी पाद ! मेरा शत शत प्रणाम निवेदन करके उनसे अर्ज़ करें कि मुझ अज्ञ दासी से भूल हो गई जो दर्शन के लिए विनती की। मैंने अब तक यही सुना था कि वृन्दावन में पुरूष तो एकमात्र रसिकशेखर ब्रजेन्द्रनन्दन श्री कृष्ण ही हैं। अन्य तो जीव मात्र प्रकृति स्वरूप नारी है ।आज मेरी भूल को सुधार करके उन्होंने बड़ी कृपा की। ज्ञात हो गया कि वृन्दावन में कोई दूसरा पुरुष भी है !!!" अंतिम वाक्य कहते कहते मीरा ने पीठ फेरकर चलने का उपक्रम किया ।
🌿मीरा द्वारा सेवक को कही गई बात भजन कुटीर में बैठे श्री जीव गोस्वामी जी ने सुनी। " कृप्या क्षमा करें मातः !" ऐसा कहते हुए गोस्वामी पाद स्वयं कुटिया से बाहर आये और मीरा के चरणों में प्रणाम किया।
" आप उठे आचार्य ! " वे इकतारा एक ओर रखकर हाथ जोड़ते हुये झुकी -" मैंने तो कोई नई बात नहीं कही प्रभु ! यह तो सर्वविदित सत्य है कि वृन्दावन में पुरुष केवल एक ही है - ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ! और हम सब साधक तो गोपी स्वरूप हैं ! -बस ऐसा ही संतों के मुख से सुना है। "
" सत्य है , सत्य है ! पर सत्य और सर्वविदित होने पर भी जब तक हम किसी बात को व्यवहार में नहीं उतारते , जानकारी अधूरी रहती है माँ ! और अधूरा ज्ञान अज्ञान से बढ़कर दुखदायी होता है " उन्होंने दोनों हाथों से कुटिया की ओर संकेत करते हुये विनम्र स्वर में कहा -"पधार कर दास को कृतार्थ करें। "
" ऐसी बात न फरमायें श्री गोस्वामी पाद ! आप तो ब्राह्मण कुल-भूषण ही नहीं , श्री चैतन्य महाप्रभु के लाड़ले परिकर हैं ।मेरी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न देह आपकी चरण -रज स्पर्श की अधिकारी है" कहते हुये मीरा ने झुककर श्री जीव गोस्वामी पाद के चरणों के समीप श्रद्धा से मस्तक रखा। श्री पाद " ना-ना" ही कहते रह गये।
" अब कृपा करके पधारे। " श्री पाद ने अनुरोध किया।
" आगे आप , गुरूजनों के पीछे चलना ही उचित है " मीरा ने मुस्कराते हुये कहा।
" मैं तो बालक हूँ। पुत्र तो सदा माँ के आँचल से लगा पीछेपीछे ही चलता है " अतिशय विनम्रता से श्री पाद बोले।
🌿इस समय तक कई संत महानुभाव एकत्रित हो गये थे। वे दोनों का विनय -प्रेम -पूर्ण अनुरोध और आग्रह देखकर गदगद हो गये। एक वृद्ध संत के सुझाव पर कुटिया के बाहर चबूतरे पर सब बैठ गये। सबने मीरा से आरम्भ करने का आग्रह किया।
🌿मीरा ने श्री जीव गोस्वामी पाद के इष्ट श्री गौरांग महाप्रभु के सन्यास स्वरूप और अपने इष्ट श्रीकृष्ण के स्वरूप का समन्वय बैठाते हुये स्वभाविक ही एक ऐसे पद का गान कर दिया , जिसका श्रवण कर सब भक्तजनों के प्राण झंकृत हो उठे। इस गान में जहाँ चैतन्य महाप्रभु की जीवमात्र के उद्धार के लिये उनकी करूणा थी वहीं श्रीकृष्ण की वृन्दावन लीला का अति भावपूर्ण चित्रण था। आश्चर्य की बात तो यह थी कि मीरा ने पद गाया तो स्वभावतः ही , पर एक एक पंक्ति में दोनों लीलाओं का -गौरलीला और श्रीकृष्ण लीला का अद्भुत समिश्रण भी था और दोनों लीलाओं के प्रधान गुण- गौरलीला के विरह ,करूणा और श्रीकृष्ण लीला की रसिकता भी ।
🌿अब तो हरि नाम लौ लागी ।
सब जग को यह माखन चोरा नाम धर्यो बैरागी ॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली कित छोड़ी वह गोपी।
मूँड़ मुँड़ाई डोरी कटि बाँधे माथे मोहन टो पी॥
मात जसोमति माखन कारन बाँधै जाके पाँव।
स्यामकिसोर भये नव गौरा चैतन्य जाको नाँव॥
पीताम्बर को भाव दिखावै कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरा रसना कृष्ण बसै॥
🌿 सब बैठे हुये भक्त जनों में से कोई ऐसा न था जो श्री गौरांग महाप्रभु की जीवमात्र के उद्धार के लिए करूणा अनुभव कर आँसुओं से अभिषिक्त न हुआ हो। " धन्य हो ! साधु ! अद्भुत ! वाह ! " सब संत जनों ने प्रशंसा करते हुये अनुमोदन किया। मीरा ने विनम्रता से सबको प्रणाम किया और श्री जीव गोस्वामी पाद से श्री चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांत और प्रेम भक्ति के विषय में कुछ सुनाने का आग्रह किया। श्री पाद के साथ अन्य संतों ने भी चर्चा में भाग लिया। एक भक्ति पूर्ण गोष्ठी हो गई । श्री पाद मीरा के विचारों की विशदता , भक्ति की अनन्यता और प्रेम की प्रगाढ़ता से बहुत प्रभावित हुये। पुनः पधारने के आग्रह के साथ कुछ दूर तक मीरा को पहुँचा कर उन्हें विदाई दी ।
क्रमशः ............
🌾॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥🌾
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