द्वारिका धीश 10

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 106

'स्वयं कंकाल-प्रायः ब्राह्मणी। सब कार्य उसी को करना था। दूर भिक्षा लेने जा नहीं सकती थी और एक घर में सप्ताह में एक दिन से अधिक भिक्षा लेने न जाया जाय, वह पति की आज्ञा थी। वृक्षों में सब समय फल नहीं रहते। सबसे कठिन समय पावस का प्रारम्भ-पत्र शाक भी तब वर्जित हैं और ग्रीष्म में वे मिलते ही नहीं।

पत्नी को भले उपवास करना पड़े, उसके अत्यन्त दुर्बल स्वामी के मुख में एक ग्रास बिना लवण का शाक देने की भी वह व्यवस्था न कर सके, इससे बड़ा दुःख क्या हो सकता था उसके लिए और सब वह रो पड़ती थी। तब आग्रह करने लगती थी।

'आप स्वयं कहते हैं कि वे श्रीद्वारिकाधीश आपके मित्र हैं और परमोदार हैं। वे स्मरण करने वाले को अपने आपको भी दे देते हैं। वे साक्षात रमाकान्त हैं। तब आप एक बार द्वारिका हो आइये। आपको अर्थ और भोग बहुत अभीष्ट नहीं है, किन्तु आप गृहस्थ हैं, कुछ तो आपको चाहिए। आपको वहाँ कुछ कहना नहीं है। वे सर्वज्ञ, सकलसेश्वर क्या नहीं देखेंगे कि आप सकुटुम्ब कितनी दरिद्र अवस्था में हैं। आपको वे बहुत-सा धन देंगे। आप उनके पास द्वारिका जाइये।'

पत्नी बार-बार कहती है- यही एक ही रट है उसकी कि द्वारिका जाइये। जो साध्वी सेवा की मूर्ति है, जिसने कोई सुख-सुविधा नहीं पायी और न माँगा अपने लिए कुछ, उसके अनुरोध को, उसके रुदन को कोई कब तक अनसुना-अनदेखा करता रहेगा?

'वे बहुत-सा धन देंगे।' यही बात सुदामा को विरक्त कर देती है। धन का क्या करना है उन्हें। अर्थ तो अनर्थों का मूल है। ब्राह्मण अर्थ की इच्छा क्यों करें। श्रीकृष्ण से कुछ चाहना-उनसे चाहना क्या। सुदामा को तो लगता है कि उन्हें दिया जाना चाहिए। उन्हें प्रीति दी जानी चाहिए। उनसे लेने जाने की बात ही उनके चित्त में नहीं आती। गुरुकुल में भी तो सुदामा सदा इसी प्रयत्न में रहे थे कि कोई सुस्वादु फल, कोई सुरंग पुष्प अपने इस सखा को दे सकें। यह दूसरी बात है कि श्रीकृष्ण ने दिया ही दिया। उन्हें देने का अवसर ही नहीं आया और अब भी उनसे लेने जाया जाय?

बहुत अरुचिकर बात थी किन्तु पत्नी के बार-बार के आग्रह ने चित्त को सुझाया- 'इस मिससे उन त्रिभुवन सुन्दर के दर्शन हो जायँगे। उन उत्तम श्लोक का दर्शन जीवन का परम लाभ है।

'वे सर्वलोकेश्वर हैं किन्तु मेरे सखा हैं। मैं उनके पास रिक्त हस्त कैसे जाऊँगा।'
सुदामा ने एक दिन पत्नी के आग्रह पर द्वारिका-यात्रा का निश्चय करके कहा- 'सती कुछ उपहार ले जाने की व्यवस्था करो।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 107

ब्राह्मणी को मानो अभीष्ट वरदान मिला। वह प्रभात में ही चली गयी पड़ोस के घरों में और उनके यहाँ से कई घरों से माँगकर चार मुट्ठी चिउड़े एकत्र कर लायी। एक पुराने कपड़े से बाँधकर उन्हें पति को उसने दे दिया।

पोरबन्द यह अब संक्षिप्त नाम है सुदामापुरी का और तब तो यह छोटा-सा ग्राम मात्र था। सुदामापुरी तो वह तब बना जब सुदामा द्वारिका पहुँचे। वहाँ कुछ झोंपड़ों का-वेदज्ञ विप्रों के झोंपड़ों का तपोवन था। पैदल मार्ग से द्वारिका वहाँ से बहुत दूर नहीं थी। वैसे सुदामा जैसे दुर्बल, नियम-निष्ठ के लिए दूर ही थी। उनके अपने आह्निक कृत्यों को अत्यन्त संक्षिप्त करके यह यात्रा किसी प्रकार पूर्ण करनी पड़ी।

समुद्र के मध्य द्वारिका का-वह स्वर्ग को भी तिरस्कृत करने वाला महानगर, वे मणि-भवनों की पंक्तियाँ। सुदामा जैसे ही सेतु-द्वार से बह्योपवन में पहुँचे, चकित रह गये। वे समझ नहीं पाते थे कि इन अतिशय सम्पन्न, सुन्दर देवोपम लोगों के नगर में तीन कक्षा-परिखा में और तीन महाद्वार पार करके वे कैसे अपने मित्र तक पहुँच पायेंगे।

सुदामा ने कोई नगर भी नहीं देखा था। श्रीकृष्ण उन्हें गुरुकुल के तपोवन में मिले थे। समावर्तन के अनन्तर भी वे ग्राम के श्रद्धालुओं का आतिथ्य स्वीकार करते, नगरों से दूर-दूर ही रहते अपने पिता के आश्रम आ गये थे। सेतु के द्वार-रक्षकों ने उन्हें नमस्कार किया था और पूछने पर कहा था 'नगर की तीन कक्षाएँ तथा तीन गुल्म पार करके आप नगर के मध्य भाग में श्रीद्वारिकाधीश के भवनों में पहुँचेंगे।'

द्वारिका देखकर तो सुर भी चकित-विस्मित रह जाते थे, सुदामा तो नगर मात्र से अपरिचित थे किन्तु द्वारिका के लोग बहुत श्रद्धालु, बहुत विनयी थे। जो भी मिलता था, सुदामा को वह देवता ही लगता था किन्तु हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर प्रणाम करता था। द्वारिका में ब्राह्मण, साधु भगवद्भक्तों को सर्वत्र जाने का निर्बन्ध अधिकार था। सुदामा न पूछते तो उनसे कोई नहीं पूछता कि वे कहाँ जायेंगे। लोग विनय-पूर्वक वाहन त्यागकर उन्हें प्रणाम करते थे और मार्ग छोड़कर सविनय एक ओर खड़े हो जाते थे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 108

इन दिव्य वस्त्राभरण सज्जित लोगों में अत्यन्त मलिन फटी-चिथड़े प्रायः धोती मात्र कटि में लपेटे, बढ़े श्मश्रु केश, क्षीण काय सुदामा-बड़ा संकोच हो रहा था उन्हें किसी से भी कुछ पूछते। वे बढ़ते चले गये सीधे मार्ग से। तीन परिखाएँ और तीन चतुरष्क महाद्वार पार हो गये तो नगर के मध्य में एक दूसरा ही महानगर मिला उन्हें। वह पूरा स्वच्छ स्फटिक की उत्तुंग परिखा से घिरा हुआ। उसके गगनचुम्बी महाद्वार पर पहुँचकर सुदामा ठिठक गये।

'श्रीकृष्ण का भवन कौन-सा है?' बहुत संकोचपूर्वक उन्होंने द्वारपाल से पूछा।
'भीतर सब उन श्रीद्वारिकाधीश के ही भवन हैं।' द्वारपाल ने अंजलि बाँधकर प्रणाम करके कहा- 'आप किसी विशेष महारानी के भवन में पधारना चाहें तो मैं मार्गदर्शन करूँ।'

'मुझे अपने बालसखा श्रीकृष्ण से मिलना है।' सुदामा ने कहा।

'आप किसी भी सदन में उनसे मिल सकते हैं।' द्वारपाल एक ओर हट गया।
सुदामा द्वारपाल से भी नहीं कह सके कि वह उन्हें श्रीकृष्ण तक पहुँचा दे।
उन्होंने देखा कि दूसरे ब्राह्मण, ऋषि-मुनि स्वच्छन्द उन भवनों में आ-जा रहे हैं। वे सम्मुख मध्य में बने स्वर्ण-वर्ण महासौध में सीधे चले गये। सुदामा नहीं जानते थे कि वे अनजाने में ही महारानी रुक्मिणी के भवन में प्रवेश कर रहे हैं। उनकी पत्नी ने उन्हें साक्षात श्रीपति के समीप भेजा था तो उन्हें उन रमा के सदन ही तो पहुँचना चाहिए था।

'यह कौन है?' इतना दुर्बल, अस्थि कंकाल पर केवल लिपटा चर्ममात्र, एक-एक स्नायु गिने जा सकें ऐसा दुर्बल, इतने मलिन फटे वस्त्र! द्वारिका में द्वारिका के इस सदन में भी तपस्वी मुनि बहुत आते हैं; किन्तु यह कृशता एवं कंगाली की साक्षात मूर्ति। दासियाँ चौंकी। उनकी चौंक से ही महारानी रुक्मिणी के साथ पर्यंक पर विराजमान श्रीद्वारिकाधीश की दृष्टि भी महाद्वार की ओर गयी।

'सुदामा मेरे सखा सुदामा’  श्रीकृष्णचन्द्र शैय्या से उछलकर दौड़े अस्त-व्यस्त। पादुका वहीं गिर पड़ी। पादुका पड़ी रही। वे नग्न पद दौड़े और दौड़कर सुदामा को भुजाओं में भरकर वक्ष से लगा लिया। देर तक वक्ष से लगाये खड़े रहे।

सुदामा धन्य हो गये। उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा। उनके नयनाश्रु श्रीकृष्ण के स्कन्ध आर्द्र कर रहे थे और श्रीकृष्णचन्द्र के कमल-लोचन भी झर रहे थे। उनका भी पूरा श्रीविग्रह रोमांचित था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 109

धन्य हैं ये महाभाग।' सेवक-सेविकाएँ सब स्तब्ध। 'इतना कंगाल, इतना कृश और इतना असीम स्नेह इन पर द्वारिकाधीश का! इतने उल्लास से तो ये अग्रज से अथवा अर्जुन के आने पर उनसे भी नहीं मिला करते।'

'सुदामा' अपने स्वामी के मुख से रुक्मिणी जी ने यह नाम सुना है। अपने गुरुकुल की चर्चा में अनेक बार इस सखा का नाम लिया है उन्होंने। महारानी ने स्वयं शीघ्रतापूर्वक अर्ध्य देने, चरण-प्रक्षालन तथा अर्चन की सामग्री प्रस्तुत की।

श्रीकृष्णचन्द्र इतने प्रेम विह्वल थे कि एक शब्द तक उनके मुख से निकल नहीं रहा था। सखा को हाथ पकड़कर ले आये और अपने रत्नासन पर बैठाकर स्वयं स्वर्णपात्र में उनके चरण धोने बैठ गये।

'हाय! क्या दशा है तुम्हारी! ये तुम्हारे श्रीचरण?' सुदामा की विवाइयों से भरे, पथ के कण्टकों से विद्ध पैर अपने किसलय करों में श्रीकृष्ण ने लिये और उनके कमललोचनों से धारा चलने लगी। जिनके चरण सौन्दर्य सौकुमार्य की अधिदेवता श्री भी अपने करों से स्पर्श करने में संकोच करती हैं, वे ब्राह्मण के चरण कर में लिये अपने अश्रु से धो रहे थे- 'तुम इतना क्लेश पाते रहे और यहाँ नहीं आये?'

देवी रुक्मिणी ने स्वयं जलधारा डाली। वह पादोदक श्रीकृष्ण ने अपने मस्तक पर चढ़ाया और अपने सम्पूर्ण सदनों को उसके सिंचन से पवित्र करने का आदेश दे दिया। सुदामा का पूजन किया श्रीद्वारिकाधीश ने- ऐसी श्रद्धा, संयम, एकाग्रता से पूजन किया जैसे अपने इष्टदेव का पूजन कर रहे हों और तब आग्रहपूर्वक स्वयं परसकर उन्होंने उन्हें भोजन कराया। देवी रुक्मिणी स्वयं बाल-व्यंजन लिये बराबर वायु करती रहीं सुदामा पर।

सुदामा को यह श्रीकृष्ण का स्नेह, यह आलौकिक सौहार्द मिला। वे अपने शरीर की भी सुधि भूल गये। श्रीकृष्ण जो कहते गये उसे वे मन्त्रचालित की भाँति करते गये किन्तु वे क्या कर रहे हैं, उन्हें ही नहीं पता था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

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