द्वारिका धीश 8
*श्री द्वारिकाधीश*
*भाग- 77*
श्रीसंकर्षण जब व्रज से लौटकर द्वारिका आये, उन्होंने गोपों का वह उत्साह, वह उमंग, वह वात्सल्य बाबा और मैया का और गोपियों का अनन्त अकूल प्रेम, उनका उलाहना सब सुनाया। सब सुनाते रहे महीनों तक एकान्त में छोटे भाई को समीप बैठाकर और दोनों भाई रोते रहे।
श्रीसंकर्षण बृज में चैत्र, वैशाख के दो महीने रहकर आये थे और बृज के उपहार, बृज की उन स्नेह-मूर्तियों ने सब सुहृदों के लिये उपहार दिये थे। पूछ-पूछकर दिये थे कि किसके कितनी पत्नियाँ हैं। किसके कितने पुत्र हैं। किसका कितना परिवार बढ़ा है। किसकी कौन सी कन्या कहाँ विवाहित है।
माता रोहिणी- उन्हें श्री बृजेश्वरी ने वस्त्राभरण भेजे थे। बृज की उनकी वे बालिकाय उन्होंने चरण-वन्दन कहा था। माता तो इस द्वारिका के राजसदन में देवदुर्लभ गृह में भी प्रत्येक उत्सव पर खिन्नमना उदासीन हो जाती हैं। बृज उनका बृज बृजवासी और बृजेश्वरी आज कैसी होंगी? यह चिन्तन माता का जीवन हो गया है। उन्होंने पुत्र को पास बैठाया और सुनती रहीं बृज का वर्णन सुनती रहीं। पूछ-पूछकर सुनती रहीं।
श्रीबलराम के लिये कई महीने यह चर्चा विह्वल कर देने वाली बनी रही। कभी उनके कक्ष में उनके छोटे भाई आ बैठते और कभी माता रोहिणी आ बैठतीं अथवा उन्हें अपने यहाँ बुलवा लेतीं। समीप दो में-से कोई बैठा हो, व्रज की चर्चा चल पड़े तो स्नान, भोजन, निद्रा कहाँ स्मरण पड़ती है। कोई दूसरा उस समय वहाँ प्रवेश न प्राप्त कर सके, यह व्यवस्था पहिले कर ली जाती है।
दो महीनों में द्वारिका में भी कुछ हुआ, हुई तो कई महत्त्वपूर्ण घटनायें जैसे पौण्ड्रक जैसा सबल शत्रु मारा गया। कृत्यानल से दग्ध होती पुरी बच गयी; किन्तु इनकी चर्चा- इनकी चर्चा तो श्रीबलराम से दूसरों ने की। श्रीकृष्ण मिले और सब भूल गया दोनों भाइयों को। फिर तो बृज, बृजवासी और उनमें दोनों तन्मय।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
*क्रमश:*
*जय श्री कृष्णा*
*श्री द्वारिकाधीश*
*भाग- 78*
महारानियों में रेवती जी में भी यह उत्कण्ठा तभी से प्रबल हो गयी कि बृज में ऐसा क्या है? इतने विह्वल ये दोनों भाई बृज का नाम लेते ही क्यों हो जाते हैं? माता रोहिणी से ही पूछा जा सकता है किन्तु वे तो अत्यन्त उदासीना रहती हैं। वे एकान्त में बैठी रहना चाहती हैं। पुत्रवधुओं की पद-वन्दना का भी उत्तर संक्षिप्त आशीर्वाद में ही देती हैं। आजकल तो वे चाहे जब बड़े पुत्र के समीप बैठ जाती हैं और कक्ष-द्वार पर कोई द्वार-रक्षिका बैठा दी जाती है। उनसे कुछ भी पूछना बहुत कठिन है।
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साम्ब शैशव से श्रीसंकर्षण के अतिशय प्रिय रहे। वे अपने पिता के इन अग्रज के साथ ही लगे रहते थे। श्रीबलराम जी ने भी साम्ब को बचपन से अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण प्रारम्भ कर दिया था और कौमारावस्था में ही उन्हें सब दिव्यायुध प्रदान कर दिये। इस प्रकार साम्ब की धनुर्वेद शिक्षा बचपन में ही पूर्ण हो गयी।
प्रद्युम्न ने एक दिन एकान्त में श्रीबलराम जी से प्रार्थना की- 'मुझे पता नहीं क्यों अग्नि से भय लगता है। रात्रि में स्वप्न में भी अग्नि देखकर मैं चौंककर डर जाता हूँ और लगता है कि मेरा शरीर नहीं है। मेरा शरीर भस्म की ढेरी से बना है।'
'तुम्हारा भय अकारण नहीं है।'
श्रीसंकर्षण ने गम्भीर होकर कहा- 'प्रलयंकर ने क्रोध में आकर अपनी तृतीय नेत्र की ज्चाला में जिसे भस्म कर दिया, उसे उस महाज्वाला का स्मरण जन्मान्तर में भी अज्ञात रूप में आता है और इससे अग्नि उसे भयप्रद लगता है। आशुतोष की कृपा ने भस्म की ढेरी उठाकर मदन को अनंग बना दिया था। दीर्घकाल तक अनंग रहने के कारण तथा भस्मोद्भव होने के कारण तुम्हें अब भी वैसा ही लगता है।'
मुझे कोई ऐसा स्तोत्र उपदेश कर दें जिसके पाठ से मैं अभय हो जाऊँ।' प्रद्युम्न ने प्रार्थना की।
श्रीबलराम ने प्रद्युम्न को स्तोत्र का उपदेश करके अभय किया।
श्रीबलराम जी द्वारिका में यादव कुमारों के प्रशिक्षक, प्रेरणादायक, किसी समस्या के समाधानकर्ता और उनमें परस्पर विवाद होने पर निर्णायक हो गये। सब बालक उनको ही घेरे रहते थे। सबको लगता था कि वही उनका सबसे अधिक स्नेह-भाजन है।
बालकों की समस्याएँ बनी रहती हैं और वे समस्याएँ चाहे तितली पकड़ने या उड़ा देने की हों या कोई पत्ता अथवा पुष्प तोड़ देने की-शिशु के लिए उस समस्या का गुरुत्व किसी दिग्विजय से कम महत्त्व नहीं होता। श्रीसंकर्षण के समीप ही शिशु दौड़ जाते थे कोई भी समस्या होने पर और वे स्नेह-पूर्वक उसे सुलझा देते थे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
*क्रमश:*
*🥀जय श्री कृष्ण🥀*
*श्री द्वारिकाधीश*
*भाग- 79*
बच्चों में से परस्पर विवाद स्वाभाविक रहता है। श्रीकृष्णचन्द्र अथवा कोई महारानी ऐसे विवाद को सुलझाने की स्थिति में नहीं थे। दो रानियों के पुत्रों में विवाद हो जाय तो जिसके पुत्र को दोषी कहकर डाँटा जायगा, उसकी माता के मन में दुःख होगा। बच्चों का विवाद क्षणस्थायी होता है किन्तु उसमें पड़कर बड़ों के अन्तःकरण में विग्रह का बीज पड़ जाता है। अतः श्रीकृष्णचन्द्र ने तथा उनकी सब महारानियों ने सदा के लिए नियम बना लिया था, कोई बालक रोता या क्रोध में भरा आवे तो उसकी बात सुने बिना ही कह देना- 'अपने ताऊ जी के पास जाओ।'
बालक शीघ्र समझ जाता है कि कौन उसकी बात-स्नेहपूर्वक सुनता है और कौन उसकी उपेक्षा करता है। श्रीसंकर्षण के समीप ही जाना चाहिए, यह बात बालक शीघ्र ही समझ लेते थे और यह भी कि उनके द्वारा ताड़ित होने अथवा डाँटे जाने पर कहीं अन्यत्र नहीं जाया जा सकता। अतः वे उनका सम्मान करते थे, उनसे डरते भी थे और उन्हीं से स्नेह भी करते थे।
केवल बालकों तक बात नहीं थी। द्वारिका में बड़ों में भी कोई विवाद हो जाता तो वह श्रीसंकर्षण के समीप ही पहुँचता था। वे ही उसे प्रेम-पूर्वक सुनते और दोनों पक्षों को समझाकर शान्त करते थे। बच्चों से लेकर वृद्धों तक यदुवंशियों में परस्पर प्रेम बनाये रखने का दायित्व श्रीबलराम ने स्वयं ले लिया था और इसे वे सदा सफलता पूर्वक निभाते रहे।
महर्षि गर्गाचार्य ने नामकरण के समय कहा था- 'यादवों में अपार्थक्य बनाये रखने के कारण इन्हें संकर्षण कहा जायगा’ यह भविष्यवाणी सर्वथा सत्य हुई। यदुवंशी श्रीसंकर्षण के प्रति श्रद्धा रखते थे। उनका सम्मान करते थे और उनसे डरते भी थे। उनकी सलाह या आदेश का उल्लंघन करने का साहस किसी में नहीं था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
*क्रमश*
*जय जय श्री राधे कृष्ण*
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 80
बच्चे हों या बड़े, विवाद के समय दोनों पक्ष उग्र होते हैं। दोनों अपने को ही उचित समझते हैं और दोनों पक्ष को पीड़ित, दण्डित, अपमानित देखना चाहते हैं। ऐसे समय में वे केवल उसकी बात सुन सकते हैं- मान सकते हैं, जिसके स्नहेपर, निष्पक्षता पर ही नहीं- अपने प्रति वात्सल्य पर उन्हें विश्वास हो और जिससे वे कुछ डरते भी हों। जिससे भय हो कि इनके रुष्ट होने पर अनिष्ट हो सकता है।
बच्चों से लेकर वृद्धों तक सब की श्रद्धा ऐसी द्वारिका में केवल श्रीबलराम जी ने पायी थी। सबको वे अपने परम सुहृद लगते थे। सबके संकटों- अभावों के साथी। वैसे द्वारिका में संकट तथा अभाव थे ही नहीं किन्तु मनुष्य का मन इनकी कल्पना करता ही रहता है और ऐसे समय उसके सहायक श्रीसंकर्षण ही थे। वही थे कि उनके रुष्ट होने पर सब डरते थे। उनके रोष का कोई प्रतिकार किसी के पास नहीं था।
बालकों की समस्याएँ बहुत होती हैं। उनमें विवाद भी बहुत होते हैं। उनको सभी विषयों में शिक्षा-प्रशिक्षण देना चाहिए। अज्ञानी जीव बालक ही तो हैं। जीवों के जो परमाचार्य हैं, उनके स्वभाव में ही इन अबोध शिशुओं को सम्हालना- इनको उचित मार्ग दर्शन कराना है। वे अनन्त-स्नेह-सिन्धु, अपार-कृपापारावार-शिशु तो भूलें करेंगे ही। बच्चे भूल न करें तो क्या वृद्ध करेंगे किन्तु वे कहाँ रुष्ट होना जानते हैं। शिशुओं का स्वत्व उनका स्नेह, और वे अबोध बालकों को शिक्षा देने के व्यसनी हैं। द्वारिका में उनका यह सहज रूप सम्पूर्ण प्रकट हुआ।
वे परमाचार्य-द्वारिका में वही स्तोत्र, मंच, अनुष्ठानादि के उपदेष्टा थे। जिसे कोई प्रयोजन होता था, उनके श्रीचरणों में पहुँचता था। पहुँचती तो थीं अन्तःपुर की प्रार्थनाएँ भी उन तक पुत्रों या दासियों के माध्यम से और उन तक पहुँचती प्रार्थना भी कभी विफल हो सकती है? सबका समाधान, सबका उपाय उनके पास है। अन्ततः वे जीवों के परमाचार्य हैं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 81
महारानी रुक्मिणी के वर्ष-व्यापी व्रत का उद्यापन-महोत्सव था। श्रीकृष्णचन्द्र तथा उनकी अन्य महारानियाँ भी साथ गयीं रैवतक पर्वत पर। यदुकुल के कुमार भी गये। वहाँ, यज्ञ, देव-पूजन, ब्राह्मण-भोजन आदि सम्पन्न हुआ। ब्राह्मणों को दान दिया और स्वजनों को उपहार अर्पित किये।
देवर्षि नारद के लिए द्वारिका - श्रीद्वारिकाधीश का सान्निध्य ब्रह्मलोक से अधिक प्रिय हो गया था। वे घूम-फिरकर आते ही रहते थे। महोत्सव के समय भी आ गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने तथा दूसरे सबने उनको प्रणिपात किया। आसन देकर पूजन किया। देवर्षि ने अपनी जटा में लगा पारिजात-पुष्प निकाला और श्रीकृष्णचन्द्र को दे दिया। श्रीकृष्ण ने वह पुष्प वाम पार्श्व में बैठी महारानी रुक्मिणी को सप्रेम दे दिया- 'यह आज व्रतोद्योपन के दिन तुम्हें देवर्षि का प्रसाद।' देवी रुक्मिणी ने लेकर उसे सादर अपने केश में लगा लिया।
'देवि भुवनवन्दनीये! पतिव्रते! यह पुष्प तुम्हारे ही योग्य है।' देवर्षि नारद बोल उठे- 'यह कल्पवृक्ष का दिव्य प्रसून मानव के एक वर्ष तक ताजा रहता है। मुरझाता नहीं है। इसका आकार तथा रंग उपभोक्ता की इच्छानुसार परिवर्तित होता रहता है। इससे मनोवांछित सुरभि निकलती रहेगी। यह अभीष्ट शीतलता अथवा उष्णता देता रहेगा। इससे अभीष्ट संगीत ध्वनि निकलती रहती है और रात्रि में जितना चाहो, उतना प्रकाश भी।'
'यह दिव्य पुष्प ऐश्वर्य तथा पुत्र देने वाला है। इसे धारण करने वाले की बुद्धि अशुभ चिन्तन में नहीं लगती।' देवर्षि ने पुष्प का प्रभाव बतलाया- 'तुम वर्ष भर जितने और जैसे पुष्प चाहोगी, यह देता रहेगा। इसे धारण करने वाले को रोग नहीं होते। क्षुधा-पिपासा का कष्ट नहीं होता। जरा नहीं आती।'
'एक वर्ष पूरा होने पर तुम्हारे पास से चला जायगा और कल्पवृक्ष में जाकर उससे एक हो जायगा। भगवती उमा, देवमाता अदिती, इन्द्राणी, शची, सावित्री, लक्ष्मी इस पुष्प को नित्य धारण करती हैं। तुम जानती ही हो कि देवताओं का एक दिन मानव के एक वर्ष के बराबर होता है। अतः उनको यह पुष्प प्रतिदिन मँगाकर धारण करना पड़ता है। यह उनके पास भी उनके एक दिन ही रहता है।' देवर्षि ने अन्त में कह दिया- 'मुझे आज पता लगा कि श्रीकृष्णचन्द्र की सर्वाधिक अनुराग-भाजना तुम्हीं हो क्योंकि यह मन्दारपुष्प तुम्हीं को मिला।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 82
देवर्षि की अन्तिम बात ने दूसरा ही रूप धारण कर लिया। वहाँ दासियों में और महारानियों में भी रुक्मिणी जी की प्रशंसा होने लगी- 'वे ज्येष्ठा हैं, ज्येष्ठ पुत्र की माता हैं, उन महापट्टमहिषी का यह सम्मान उचित ही है। वे सबकी पूजनीया हैं।'
महारानी सत्यभामा जी की दासियाँ भी वहाँ थीं। उन्होंने जाकर यह बात उत्साहातिरेक में अपनी स्वामिनी से कहा। बात कही गयी थी उत्साह में आकर किन्तु मानिनी सत्भामा जी को सहन नहीं हुई। उन्होंने श्वेतवस्त्र पहिन लिये, आभूषण उतार दिये और सिर पर कोप-सूचक श्वेत पट्टिका बाँधकर कोप-भवन चली गयीं। श्वेत चन्दन लगा लिया, केशों की एक वेणी बना ली।
राजगृह में अन्तःपुर में भी दास-दासियाँ बहुत रहते हैं। कोई रानी क्रोध में अपने स्वामी से क्या कहेगी, कैसा व्यवहार करेगी और उसे कैसे मनाना पड़ेगा, यह सब सेविकाओं के सम्मुख होने योग्य नहीं है। अतः एक कोप-भवन ही रखने की प्रथा थी। जिसे स्वामी पर रोष आये, वहाँ चली जाय। वहाँ कोई दासी नहीं जायेगी। अतः वहाँ एकान्त में रोष के आवेश में कुछ अनुचित भी कहा जाय तो वह केवल दम्पति तक रह जायगा।
'स्वामिनी कोप-भवन चली गयीं।' सत्यभामा जी की दासियों ने श्रीकृष्णचन्द्र के समीप पहुँचकर उन्हें धीरे से सूचित कर दिया। श्रीकृष्णचन्द्र तुरन्त खड़े हुए। देवर्षि की सेवा में प्रद्युम्न को छोड़ दिया और कोप-भवन पहुँचे।
सत्यभामा लम्बी श्वास ले रही थीं। हाथ के कमल पुष्पों को कभी नखों से नोंचती थीं, कभी मुख से सटा लेती थीं। कभी अस्वाभाविक ढंग से हँस पड़ती थीं। शैय्या से उठतीं और फिर गिर पड़ती थीं उसी पर। उन्होंने वस्त्र से मुख ढक लिया था।
श्रीकृष्णचन्द्र धीरे से दबे पैर आये पीछे खड़े होकर व्यजन लेकर महारानी को वायु करने लगे। सत्यभामा जी चौंक पड़ीं।
(सभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 83
वे बोल उठीं- 'यह क्या है? कौन आया यहाँ? यह नीलकमल की सुरभि- यह तो उनके शरीर का दिव्यगन्ध है।'
वे उठकर इधर-उधर देखने लगीं। जैसे ही श्रीकृष्णचन्द्र पर दृष्टि गयी, रुदन करते बोली- 'आप व्यजन करते बड़ी शोभा पा रहे हैं?'
'यह श्वेत वस्त्र क्यों? रत्नाभरणों ने कोई अपराध किया है? मुझसे तुम्हारा कोई अप्रिय हो गया?' श्रीकृष्ण समीप बैठ गये। अपने पटुके से महारानी के अश्रु पोंछे उन्होंने।
'मैं समझती थी कि तुम मेरे हो किन्तु आज समझ गयी कि मुझ पर तुम्हारा साधारण ही स्नेह है। तुम केवल वाणी से मुझ पर स्नेह दिखलाते हो।' पति के पटुके से मुख ढककर रोते-रोते सत्यभामा जी ने कहा- 'अब यदि मैं तुम्हारे अनुग्रह की पात्र रह गयी होऊँ तो मुझे तप करने की आज्ञा दे दो क्योंकि नारी का तप-व्रत पति की आज्ञा के बिना निष्फल होता है। पता नहीं, किस दोष से मैं, जो तुम्हारी प्रिया थी, तुम्हें अप्रिय हो गयी। तप करके मैं तुम्हारी प्रीति का सम्पादन करूँगी।'
'किसने कहा कि तुम मुझे अप्रिय हो गयी हो?' श्रीकृष्णचन्द्र ने अश्रु पोंछकर कहा- 'यह भ्रम तुम्हें कैसे हो गया?'
'मेरी दासियों ने बतलाया कि देवर्षि पहिली बार धरा पर सुरों को भी दुर्लभ कल्पवृक्ष का पुष्प लाये थे। वह पुष्प तुमने अपनी प्रियतमा को दे दिया। जो वस्तु महामणियों से भी अधिक मूल्यवान थी उससे देवी रुक्मिणी सत्कृत हुई।'
सत्यभामा जी रोते-रोते कहती गयीं- 'देवर्षि ने उनका स्तवन किया और तुम प्रसन्न सुनते रहे। तुम्हें मेरा स्मरण भी नहीं आया। अतः मुझे तप करने की आज्ञा दे दो'
'बस इतनी बात?' श्रीकृष्णचन्द्र हँस पड़े- 'यह ठीक है कि देवर्षि ने मुझे पारिजात पुष्प दिया था। देवी रुक्मिणी समीप थीं, अतः वह पुष्प मैंने उन्हें दे दिया क्योंकि वे उसे साभिलाष देख रही थीं। तुम भी चाहती हो वह पुष्प-पता नहीं था किन्तु मैं तुम्हारे आँगन में स्वर्ग से लाकर कल्पवृक्ष ही लगा दूँगा। तुम उसके पुष्प दूसरों को उपहार देती रहना इच्छानुसार।’
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 84
‘सच’ सत्यभामा जी प्रसन्न हो गयीं। इतना गौरव मिलेगा उन्हें कि वे पारिजात-पुष्प दूसरों को देती रह सकें। संकोच के कारण कोप-भवन से वे भाग खड़ी हुई। अपने प्रियतम से सम्मुख अब इस वेश में खड़े रहने में उन्हें बहुत लज्जा लगी। श्रीकृष्णचन्द्र हँसते हुए वहाँ से निकले।
श्रीकृष्णचन्द्र ने देवर्षि नारद को बुलवाया-सत्यभामा जी के सदन में, और सत्यभामा के सम्मुख ही पूछा- 'यह पारिजात तरु कैसा है?'
'क्षीरोदधि-मन्थन के समय रमा के प्रकट होने के पश्चात मन्दार तरु प्रकट हुआ सागर-गर्भ से। वह स्वर्ग के नन्दनकानन में स्थापित हुआ।'
देवर्षि ने कहा- 'उस मूल कल्पवृक्ष का पुष्प, देवी शची प्रायः किसी को लेने नहीं देती हैं।'
'मैं जिसका पुष्प ले आया था, वह अदिति की प्रार्थना पर महर्षि कश्यप ने मन्दार तरु से प्रकट किया था। इसे लोग जानते नहीं थे, अतः 'कोऽप्ययं दारु:' कहते थे। इसलिए इसका नाम कोविदार पड़ गया।'
देवर्षि ने बतालाया- 'यह सदा तीन शाखा युक्त रहता है। इसी तरु से बाँधकर अदिति ने कश्यप का दान मुझे किया था। मैंने निष्क्रय लेकर कश्यप को मुक्त किया। शची ने भी इन्द्र का दान मुझे किया था। ऐसा दान अखण्ड सौभाग्यदायी है।'
'मुझे यह उपवृक्ष नहीं चाहिए।' सत्यभामा ने कह दिया- 'दूसरे का स्वत्व मुझे नहीं लेना। तुमने क्षीरोदघि-मन्थन करके जिसे प्रकट किया, वह मूलवृक्ष मुझे चाहिए।'
मूलवृक्ष?' देवर्षि नारद चौंके- 'महेन्द्र उसे किसी प्रकार नहीं देंगे। क्षीरसागर-मन्थन से पारिजात प्रकट हुआ, तब भगवान शंकर ने मुझे इन्द्र के पास भेजा था। जिन देवाधिदेव ने क्षीरोदधि से निकले हलाहल को पान करके त्रिभुवन की रक्षा की थी, उन्हें भी इन्द्र ने पारिजात नहीं दिया।
'क्या?' सत्यभामा जी ने पूछा- 'इन्द्र ने इतना साहस कैसे किया?'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 85
वे मेरे साथ स्वयं कैलास गये। भगवान आशुतोष के चरण पकड़कर बोले- आप परिपूर्ण हैं। पारिजात शची के उद्यान में क्रीड़ा-वृक्ष बना रहे, यह अनुग्रह करें।'
'तथास्तु' औढरदानी भोले बाबा ने कह दिया। भगवती उमा को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने मन्दराच की दो सौ कोस की गुफा को पारिजात-तरुओं के वन से परिपूर्ण कर दिया।
देवर्षि ने कहा- 'उस वन में उमा-महेश्वर के अतिरिक्त उनके गणों का भी प्रवेश नहीं है। एक बार अन्धकासुर वहाँ पहुँच गया था किन्तु प्रलयंकर ने उसे मार डाला। वह वन स्वर्ग के कोविदार तरु से श्रेष्ठ वक्षों से पूर्ण है और भगवान आशुतोष आपकी सहज ही उसमें-से कोई वृक्ष दे सकते हैं।'
'भगवान शंकर सर्वलोकेश्वर, सर्वसमर्थ हैं। इन्द्र पर उनका अनुग्रह उचित है और मुझ पर भी उनकी अतिशय कृपा है किन्तु मैं उपेन्द्र भी तो हूँ। स्वर्ग के पदार्थो पर मेरा भी तो कुछ स्वत्व है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'मैंने सत्यभामा को वचन दिया है कि इनके आँगन में क्षीराब्धि सम्भव पारिजात तरु लगा दूँगा। आप इन्द्र तक मेरा सन्देश पहुँचा दें। यदि आपके कहने से वे उसे नहीं देते तो मैं बलपूर्वक ले आने के लिए कृतनिश्चय हूँ।'
देवर्षि उसी समय स्वर्ग गये; श्रीकृष्ण का सन्देश सुनाया देवराज का - 'जैसे माता अदिति ने प्रजापति महर्षि कश्यप को और शची ने आपको कल्पवृक्ष के साथ देवर्षि को दान किया, वैसे ही आपकी भ्रातृ-वधू सत्यभामा मुझे पारिजात के साथ दान करने को उत्सुक हैं। सत्यभामा संकल्प पूरा होना चाहिए। मनुष्य भी पारिजात का दर्शन कर लें, ऐसा अवसर दीजिये।’
(साभार श्री द्वारिकीधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 86
'इन्द्र ने देवर्षि को द्वारिका अपना सन्देश ले जाने को कहा- 'भाई उपेन्द्र! जब भूभार दूर करके तुम स्वर्ग आओगे, तब मैं तुम्हारी पत्नी का मनोरथ पूर्ण कर दूँगा। अमरपुरी के रत्नों को मर्त्यलोक में न ले जाया जाय, यह मर्यादा भगवान ब्रह्मा ने बना दी है। देवलोक की इस मर्यादा का मैं उल्लघन नहीं कर सकता। एक स्त्री को सन्तुष्ट करने के लिए स्वर्ग के लोगों को खिन्न करके पारिजात पृथ्वी पर कैसे भेजा जा सकता है। सृष्टिकर्ता ने मनुष्यों के उपभोग के लिए जो वस्तुएँ बनायी हैं, तुम्हें पृथ्वी पर उन्हीं से संतोष करना चाहिए। यदि मनुष्य पारिजात का सेवन करेंगे तो देवता और मनुष्यों में अन्तर ही क्या रह जायगा। अतः तुम्हें दुराग्रह नहीं करना चाहिए।'
'श्रीकृष्णचन्द्र बलपूर्वक पारिजात ले जाने के लिए कृतनिश्चय हैं।' देवर्षि ने शक्र को चेतावनी दी।
'उन्होंने पहिले भी मेरे प्रतिकूल व्यवहार किया है।' इन्द्र रोष में आ गये- 'ब्रज में मेरी पूजा बन्द कर दी। गोवर्धन उठाकर मेरा अपमान किया। मेरा प्रिय खाण्डव वन अग्नि को दे दिया। मैं उन्हें छोटा भाई समझकर क्षमा करता आया अब तक किन्तु युद्ध ही उन्हें अभीष्ट है तो हो। मैं पारिजात नहीं दूँगा।'
'शक्र! शतक्रतु जीव ही होता है। तुम भूलते हो कि श्रीकृष्ण सर्वेश्वरेश्वर हैं।' देवर्षि ने डाँट दिया- 'ब्रह्मा और शिव भी जिनके अंश हैं, उन आदि पुरुष से युद्ध करोगे तुम? वे देवमाता अदिति के तप से सन्तुष्ट होकर उनके पुत्र बन गये, इसलिए तुम यह साहस करने लगे हो?'
'देवर्षि! श्रीकृष्ण के माहात्म्य को मैंने भी सुना है।' इन्द्र का स्वर ढीला पड़ गया- 'किन्तु मैं पारिजात नहीं दूँगा। जब अपनी इच्छा से ही वे मेरे छोटे भाई बने हैं तो उन्हें मेरा सम्मान करना चाहिए। छोटी सी वस्तु के लिए वे मुझसे रुष्ट नहीं होंगे।'
देवर्षि द्वारिका लौट आये। इन्द्र का सन्देश सुनकर श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'पारिजात द्वारिका आवेगा। मेरा संकल्प अन्यथा नहीं हो सकता।'
इन्द्र देवर्षि के जाते ही सशंक हो गये। उन्होंने देवगुरु बृहस्पति से मिलकर सब बातें निवेदन कीं। बृहस्पति ने धिक्कारा- 'तुमने मुझसे पूछे बिना यह दुर्नीति क्यों प्रारम्भ की?'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 87
अब आप ही मेरे आश्रय हैं।' शक्र ने गुरु के चरण पकड़ लिये।
देवगुरु बोले- 'मैं या और कोई भी श्रीकृष्ण के कोप से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता। उन सत्यसंकल्प के संकल्प को अन्यथा करना असम्भव है, फिर भी मैं महर्षि कश्यप के समीप जाता हूँ। वे ही उन अच्युत को शान्त कर सकते हैं।
'मेरा यह ज्येष्ठ पुत्र बहुत असंयमी हो गया है।' प्रजापति महर्षि कश्यप ने वृहस्पति के द्वारा नवीन सम्वाद पाकर खिन्न होकर कहा- 'मैं यहाँ उसी के अमंगल-निवारण के लिए तप करने आया हूँ और उसने यह नवीन दुस्साहस कर लिया।'
'इन्द्र का अमंगल?' देवगुरु चौंके। अपने यजमान की सुरक्षा का दायित्व है उन पर।
'उसने लज्जावश आपको सूचना नहीं दी। महर्षि देवशर्मा की पत्नी को प्राप्त करने की इच्छा की इन्द्र ने, और उन्होंने इसे शाप दे दिया।'
कश्यप ने कहा- 'इन्द्र का दर्प दलित होगा। यह अपने ऐश्वर्य-चिह्न से वंचित होगा। यह शाप है उनका और मैं इसके परिमार्जन के लिए भगवान महेश्वर की आराधना कर रहा था।'
'आपकी आराधना असफल तो नहीं हो सकती।' देवगुरु ने जानना चाहा कि क्या परिणाम हुआ।
'वे आशुतोष वृषभध्वज कल ही प्रकट होकर आश्वासन दे गये हैं।' कश्यप बोले- 'उन्होंने कहा है कि इन्द्र और उपेन्द्र शान्त होकर मित्र बन जायेंगे किन्तु इन्द्र की पराजय निश्चित है। ब्राह्मण के शाप को अन्यथा नहीं किया जा सकता। पारिजात श्रीकृष्ण ले जायेंगे।'
तनिक रुककर कश्यप ने अनुरोध पूर्वक कहा- 'आप शक्र का इस आपत्ति में साथ न छोड़ें। उसे सद्बुद्धि दें। मैं श्रीकृष्ण से युद्ध करने से उसे रोकूँगा।' महर्षि कश्यप वहीं ध्यानमग्न हो गये और देवगुरु अमरावती लौट आये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 88
देव-पर्वत मणि-मेरु को गरुड़ से उतारकर श्रीकृष्ण ने यथास्थान स्थापित कर दिया। देवराज इन्द्र ने सुरों के साथ स्वागत किया उनका स्वर्ग में।
'यह आपका छत्र!' वरुण देव को उनका छत्र देकर श्रीकृष्ण सपत्नीक सीधे महर्षि कश्यप के आश्रम चले गये। वहाँ महर्षि की चरण-वन्दना करके दोनों देवमाता के समीप पहुँचे।
'सत्यभामा बहू जब तक मानव लोक में रहोगी, सदा युवा बनी रहोगी।' देवमाता अदिति ने अपने चरणों में प्रणत श्रीकृष्ण को उठाकर अंक से लगाया और सत्यभामा को हृदय से लगाते हुए आशीर्वाद दिया।
'मातः! आपके ये कुण्डल वह दुर्विनीत असुर ले गया था।' श्रीद्वारिकाधीश ऐसे स्वर में बोल रहे थे, जैसे उनसे ही अपराध हो गया हो और क्षमा माँग रहे हों।
'ये कुण्डल! देवी अदिति ने हाथ बढ़ाये श्रीकृष्ण के करों से कुण्डल ले लेने को। वे उन्हें सम्भवतः सत्यभामा को दे देना चाहती थीं; किन्तु श्रीकृष्ण अबोध शिशु के समान मचलते बोले- 'इनकी शोभा-सार्थकता माता की कर्ण-पल्लियों में है और मैं अपने हाथ से इन्हें पहिनाऊँगा।'
देवमाता हँसकर शान्त हो गयीं। पौत्र ने[1] कानों से कुण्डल छीन लिये थे और पुत्र उपेन्द्र ने अपने हाथों वे कुण्डल कानों में पहिनाये।
देवसभा में समस्त सुर तुम्हारा स्वागत करने को उत्सुक है।'
इन्द्र ने आकर कहा- 'भौमासुर को मारकर तुमने सुरों को बहुत बड़ी विपत्ति से त्राण दिया है।'
'मैं भी सत्यभामा का अपने अन्तःपुर में सत्कार करना चाहती हूँ।' शची ने कहा।
अदिति देवी को तथा महर्षि कश्यप को प्रणाम करके, उनकी अनुमति लेकर श्रीकृष्णचन्द्र शक्र के साथ देवसभा में पहुँचे। वहाँ उनके स्वागत में गन्धर्वगण वाद्य लिये प्रस्तुत थे। किन्नर राग-रागनियों का स्मरण कर रहे थे और अप्सराएँ तो उतावली थीं श्रीकृष्ण के सम्मुख अपने नृत्य की कला का प्रदर्शन करने के लिए।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 89
अधिकांश नारियों की दुर्बलता है कि वे समान वर्ग की नारी से मिलने पर वैभव, अपने श्रेष्ठत्व का वर्णन-प्रदर्शन करने से अपने को रोक नहीं पातीं। शची सत्यभामा को बड़े उत्साह से अपने अन्तःपुर में ले गयी थीं स्वर्ग का श्रेष्ठतम वैभव दिखलाने। स्वर्ग के सर्वोत्तम महारत्नों से सजा अमरावती की अधीश्वरी का अन्तःपुर। अपनी समझ से शची बहुत बड़ा अनुग्रह कर रही थीं एक मानवी पर कि उसे इस सुरांगनाओं के लिए भी दुर्लभ-दर्शन अन्तःपुर का दर्शन करा रही थीं।
शची को आशा थी- सत्यभामा चकित रह जायेंगी। संकुचित होंगी उनके कक्ष में निम्नास्तरण पर भी पद रखने में और तब शची उनका हाथ पकड़कर उन्हें आसन पर बैठाकर उनका सत्कार करेंगी। वैसे कोई साम्राज्ञी किसी सामान्य नारी को सत्कार दे और वह उपकृता, संकुचिता हो, यह अवस्था सत्यभामा की थी शची की कल्पना में। वे अपनी अंहकारपूर्ण उदारता का आनन्द पाने को उत्सुक थीं।
बात ऐसी कुछ नहीं हुई - हुई ठीक उलटी स्थित। सत्यभामा जी ऐसे गौरव से आयीं जैसे साम्राज्ञी अनुकम्पा करके किसी दासी के भवन में आ जायँ और दासी के आसन, अर्चा के पदार्थ अत्यन्त तुच्छ होने पर भी प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर ले।
सत्यभामा ने किसी रत्न, वस्त्र, पदार्थ पर दृष्टि ही नहीं डाली। वे आयीं और शची के सिंहासन पर सहज भाव से बैठ गयीं। उन्होंने शची को वामपार्श्व में बैठने को कह दिया स्नेह-सौहार्द पूर्वक।
शची मन में जल-भुनकर रह गयीं- 'इस मानवी में कितना अंहकार है।' वे क्या जानें कि द्वारिका में दासियों के कक्ष भी उनके अन्तःपुर से कहीं अधिक सम्पन्न हैं। द्वारिकेश की महारानी अनुग्रहपूर्वक ही यहाँ आ बैठी हैं।
शची को सत्कार का शिष्टाचार निभाना था; किन्तु अतिथि-अर्चन पर उन्होंने सेविका को लगा दिया और जब सेविका ने कल्पवृक्ष का पुष्प उठाया- सत्यभामा जी के केशालंकार के लिए, शची का अहंकार प्रकट हो गया। वे सेविका की भर्त्सना करती बोलीं- 'तुझे इतना भी पता नहीं है कि मर्त्य एवं सुरों के सत्कार-सुमन भिन्न-भिन्न होते हैं।'
सेविका ने कल्पवृक्ष के पुष्प पात्र में धर दिये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 90
सेविका ने कल्पवृक्ष के पुष्प पात्र में धर दिये। सत्यभामा जी अपरिचित नहीं थी इस पारिजात पुष्प से। उन्होंने अपने रोष को रोक लिया और शची से कह दिया- 'सखि! मैं तुम्हारे स्वागत से सन्तुष्ट हूँ। सुरों को मर्त्य की अर्चा नहीं करनी चाहिए।'
शीघ्र ही सत्यभामा जी ने विदा ली। श्रीकृष्णचन्द्र को सन्देश भेज दिया। देवसभा का समारोह समाप्त करना पड़ा क्योंकि श्रीद्वारिकाधीश की महारानी को अपनी राजधानी पहुँचने की शीघ्रता थी।
'सुर पूज्य हैं। मानवों से सत्कार पाने योग्य। उन्हें मर्त्य को स्वागत-सम्मान देना शोभा नहीं देता।' विदा होते समय महारानी सत्यभामा ने इन्द्र को हाथ जोड़ा तो श्रीकृष्णचन्द्र और शक्र समझ गये कि शची ने कुछ प्रमाद किया है किन्तु अवसर नहीं था बोलने का।
इन्द्र को अपनी योजना-स्वर्ग में ही सत्यभामा कल्पवृक्ष का दान कर दें, प्रस्तावित करने का भी समय नहीं मिला। सुरों की सम्यक अभ्यर्थना की भी उपेक्षा करके गरुड़ सत्यभामा जी के संकेत पर उड़ चले।
'हम यहाँ आ गये हैं तो नन्दन-कानन देखते चलें।' सत्यभामा जी ने कहा।
'यह यात्रा तो तुम्हारी इच्छानुसार ही चल रही है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर कह दिया। विनतानन्दन वन में उतर पड़े।
'यह है तुम्हारे समुद्र-मन्थन से प्रकट पारिजात तरु?' सत्यभामा जी को नन्दनकानन में दूसरा कुछ देखना नहीं था। वे सीधे कल्पवृक्ष के समीप पहुँची- 'इसे गरुड़ पर लेते चलो। तुमने इसे मेरे प्रांगण में लगाने का वचन दिया है।'
'इन्द्र ने इसे देना अस्वीकार कर दिया है।' हँसे श्रीकृष्णचन्द्र।
'इन्द्र का क्या स्वत्व है इस पर? वे स्वीकार-अस्वीकार करने वाले होते कौन हैं?' सत्यभामा जी ने तनिक रोष से कहा- 'तुम्हारी अपनी वस्तु पाने के लिए भी मुझे शची से प्रार्थना करनी पड़ेगी।'
'जैसी तुम्हारी इच्छा! पर तुम मुझसे रूठो मत!' श्रीकृष्णचन्द्र ने हाथ बढ़ाया तो वह दिव्य तरु स्वयं उठता चला आया। वह बहुत छोटा बन गया- एक नन्हें पौधे के समान। उसे सत्यभामा ने लेकर अपनी गोद में रख लिया और गरुड़ पर बैठ गयीं- 'इसे मैं किसी को नहीं दूँगी।'
श्रीकृष्णचन्द्र पत्नी के साथ पारिजात लेकर स्वर्ग से चल पड़े।
(श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
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