द्वारिका धीश 6

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 56

श्रीसंकर्षण जब से मिथिला से लौट थे, सुयोधन पर उनका स्नेह बहुत बढ़ गया था। वह उनका सुयोग शिष्य था। गदायुद्ध तो उसने सीखा ही था, अपनी सेवा से प्रसन्न कर लिया था श्रीबलराम को।

'अब सुभद्रा का विवाह हो जाना चाहिये'
एक दिन उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा।
'आर्य उचित कहते हैं किन्तु' श्रीकृष्ण ने बहुत गम्भीर होकर कहा- 'सुभद्रा योगमायांश सम्भवा है। पुरुषोत्तम ही उसका पाणि-ग्रहण कर सकता है।'

पुरुषोत्तम तो केवल तुम हो और वह तुम्हारी बहिन है। तब क्या वह सदा कुमारी रहेगी?' श्रीबलराम तनिक आवेश से बोले-
'मध्यम पांडव अर्जुन साक्षात नर हैं और नर तो नारायण से अभिन्न ही हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अभिप्राय स्पष्ट कर दिया'

'क्या है पाण्डवों के पास?' श्रीसंकर्षण रोष भरे स्वर में बोले- 'मेरी बहिन इन्द्रप्रस्थ जैसे छोटे-से ग्राम में जायेगी? देखो कृष्ण, इस संबंध में मैं तुम्हारी नहीं सुनूँगा। सुभद्रा कौरव कुल की साम्राज्ञी बनेगी। सुयोधन ही उसके उपयुक्त पात्र है'

श्रीकृष्णचन्द्र ने भाई का प्रतिवाद नहीं किया। वे मौन रह गये। श्रीबलराम ने अपना अभिप्राय छिपाया नहीं। वे सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने के लिये कृत निश्चय हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध हो गयी। एक ही कठिनाई थी इसमें। सुभद्रा मुँह बना लेती थी दुर्योधन के नाम से ही भले बड़े भाई सदा सुयोधन ही कहते हों, क्योंकि वह उनका शिष्य था, किन्तु सुभद्रा मुँह बिगाड़कर 'दुर्योधन' कहती और चिढ़ उठती थी।

'वह अभी बालिका है अज्ञ है। कुछ समय में समझ जायेगी' श्रीबलराम को अपने से दो वर्ष छोटी यह बहिन बहुत अबोध बच्ची लगती थी। अत्यधिक वात्सल्य था उनका इस बहिन पर, वैसे सुभद्रा शैशव से श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण की रट लगाये रहती थी। मथुरा में दोनों भाइयों के आने के पश्चात से तो वह श्रीकृष्णचन्द्र के साथ ही लगी रहती।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 57

उसके लिये श्रीकृष्णचन्द्र की इच्छा ही सब कुछ। श्रीकृष्ण की बात वेदवाक्य। श्रीकृष्ण का संकेत सुभद्रा का जीवन। वह तो छोटे भाई को छोड़कर दूसरे किसी को न जानती न जानना चाहती।

अर्जुन आये पहिली बार द्वारिका और फिर श्रीकृष्णचन्द्र के साथ दक्षिण कौसल चले गये। वहाँ से जब ये घनश्याम भाई विवाह करके लौटे वे गाण्डीवधन्वा भी आये थे साथ ही। सुभद्रा ने तभी देखा था उन्हें। श्रीकृष्ण के सखा- भाई के समान ही श्यामवर्ण, सुन्दर कमललोचन, विशाल बाहु और भाई कितना मानते, कितना स्नेह करते हैं उन्हें। जो श्रीकृष्ण का इतना प्रिय, वह सुभद्रा को परमप्रिय लगा।

अर्जुन ने भी सुभद्रा को देखा। श्रीकृष्ण की भुवन-भूषणा, सौन्दर्यमयी, शीलमयी भगिनी- पार्थ का चित्त भी लग गया उसमें और तभी इसे श्रीकृष्ण ने लक्षित भी कर लिया था। लक्षित तो कर लिया था इसे देवी कालिन्दी और माता देवकी ने भी।

देवी कालिंदी ने अंत:पुर में कहा था- 'मेरी ही भाँति सुभद्रा जी को भी अपने भाई अत्यन्त प्रिय हैं और जैसे मैंने हठ कर लिया था, भाई के समान वर्ण, उनसे भी सुन्दर, प्रभावशाली से विवाह करूँगी, वैसे ये भी गौर-पुरुष की ओर देखना नहीं चाहतीं। क्या करें, यहाँ जो मेघश्याम हैं- वे तो सगे भाई हैं किन्तु उनके समान वर्णी उनके सखा आये तो बस उनकी सेवा में जुट गयी हैं। देखें, इनकी साधना कब सफल होती है'

बात सचमुच अद्भुत थी। भगवान संकर्षण का अतिशय वात्सल्य था, रेवतीजी, रुक्मिणी, सत्यभामा जी आदि सभी महारानियाँ मानो पलकों पर सुभद्रा को रखना चाहती थीं किन्तु सुभद्रा को तो गौरवर्ण से ही मानो रुचि नहीं थी।

वह श्रीकृष्ण के साथ उनके अन्तःपुर आने पर उन्हीं के साथ लगी रहती और महारानियों में भाई के समान इन्दीवर सुन्दर वर्ण वाली कालिन्दी जी से उसकी पटती थी। अपनी इस भाभी के भवन में ही वह टिकी रहती थी।

कालिन्दी जी भी सुभद्रा से अतिशय स्नेह करती थीं। उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र से और माता देवकी से भी कहा था- 'मध्यम पांडव के विदा होते ही सुभद्रा जी उदास हो गयीं- खोयी खोयी सी रहने लगीं। इनका हृदय ले गये वे। कहीं भी अन्यत्र इनका विवाह इन्हें बहुत व्यथा देगा।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग-58

माता देवकी ने वसुदेव जी से भी बात कर ली थी। सब सुभद्रा विवाह धनंजय से करना चाहते थे किन्तु श्रीबलराम तो भगिनी को साम्राज्ञी बनाने को उत्सुक थे। उनसे कुछ भी कहने का साहस पिता-माता ही नहीं कर पाते तो दूसरा कोई करे।

अनन्त अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति-विनाश जिनके संकल्प के अनुसार महामाया करती रहती हैं, वे सत्य संकल्प और उनका संकल्प भी क्या- वे सदा से स्वजनवत्सल हैं। अपनों का प्रिय ही उनका सदा प्रिय रहा है। अपना अभिन्न सखा जो चाहता है, जिसमें सुखी हो और अनुजा को भी अभीष्ट है, वही तो श्रीकृष्ण को प्रिय है। वही श्रीकृष्ण का संकल्प और जो श्रीकृष्ण का संकल्प, उसे सार्थक करने के लिये देवी योगमाया का संयोग जुटाते क्या देर लगती है।

पांडवों ने द्रुपदराज कुमारी को माता के आदेश से संयुक्त पत्नी बनाया तो भगवान व्यास ने उनमें परस्पर विवाद एवं मनोमालिन्य कभी उत्पन्न न हो, इसके लिये पथ-प्रशस्त कर दिया। उनकी सम्मति से पाँचों भाइयों ने नियम बनाया कि पांचाली एक-एक वर्ष के लिये प्रत्येक की पत्नी रहेगी। जब वे एक की पत्नी हों, उस काल में एकान्त कक्ष में दोनों के रहते कोई अन्य भाई उस कक्ष में चला जाय तो उसे बारह वर्ष निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ेगा।

नियम चाहे जितना सामान्य हो- वह पुरुष की कसौटी कर लेता है। उस कसौटी पर जो खरा उतरे, उसका महामंगल सुनिश्चित है। द्रौपदी युधिष्ठिर के पास बैठी थीं एकान्त कक्ष में और उसी कक्ष में अर्जुन का गाण्डीव धनुष रखा था। अचानक एक ब्राह्मण आर्त-पुकार करता आया। उसकी गायें दस्यु बलात लिये जा रहे थे। ब्राह्मण की गायों को बचाना प्रथम कर्तव्य था। अर्जुन सिर झुकाये गये उस कक्ष में और धनुष उठा लाये। ब्राह्मण के स्वत्व की रक्षा हो गयी। क्षत्रिय धर्म आर्त-आश्रित की रक्षा पूर्ण हुआ। अब अपने बनाये नियम की रक्षा करनी थी।

युधिष्ठिर ने समझाया- 'वे दिन में केवल बैठे थे महारानी द्रौपदी के साथ। बड़े भाई-भाभी के कक्ष में उन दोनों के रहते भी छोटा भाई जाये तो दोष नहीं है। ब्राह्मण की गायों की रक्षा राजा का कर्तव्य था। अर्जुन ने स्वयं बड़े भाई के धर्म की रक्षा की है'

'नियम बनते समय तो हमने कोई ऐसा अपवाद नहीं माना है। सब अपवाद मानना दुर्बलता है' अर्जुन नियम की कसौटी पर खरे उतरे। उन्होंने स्वेच्छापूर्वक बारह वर्ष का निर्वासन स्वीकार किया। इन्द्रप्रस्थ से निकल पड़े और देश भर में घूमते रहे। ग्यारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे जब वे यात्रा करते प्रभास क्षेत्र पहुँचे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग-58

माता देवकी ने वसुदेव जी से भी बात कर ली थी। सब सुभद्रा विवाह धनंजय से करना चाहते थे किन्तु श्रीबलराम तो भगिनी को साम्राज्ञी बनाने को उत्सुक थे। उनसे कुछ भी कहने का साहस पिता-माता ही नहीं कर पाते तो दूसरा कोई करे।

अनन्त अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति-विनाश जिनके संकल्प के अनुसार महामाया करती रहती हैं, वे सत्य संकल्प और उनका संकल्प भी क्या- वे सदा से स्वजनवत्सल हैं। अपनों का प्रिय ही उनका सदा प्रिय रहा है। अपना अभिन्न सखा जो चाहता है, जिसमें सुखी हो और अनुजा को भी अभीष्ट है, वही तो श्रीकृष्ण को प्रिय है। वही श्रीकृष्ण का संकल्प और जो श्रीकृष्ण का संकल्प, उसे सार्थक करने के लिये देवी योगमाया का संयोग जुटाते क्या देर लगती है।

पांडवों ने द्रुपदराज कुमारी को माता के आदेश से संयुक्त पत्नी बनाया तो भगवान व्यास ने उनमें परस्पर विवाद एवं मनोमालिन्य कभी उत्पन्न न हो, इसके लिये पथ-प्रशस्त कर दिया। उनकी सम्मति से पाँचों भाइयों ने नियम बनाया कि पांचाली एक-एक वर्ष के लिये प्रत्येक की पत्नी रहेगी। जब वे एक की पत्नी हों, उस काल में एकान्त कक्ष में दोनों के रहते कोई अन्य भाई उस कक्ष में चला जाय तो उसे बारह वर्ष निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ेगा।

नियम चाहे जितना सामान्य हो- वह पुरुष की कसौटी कर लेता है। उस कसौटी पर जो खरा उतरे, उसका महामंगल सुनिश्चित है। द्रौपदी युधिष्ठिर के पास बैठी थीं एकान्त कक्ष में और उसी कक्ष में अर्जुन का गाण्डीव धनुष रखा था। अचानक एक ब्राह्मण आर्त-पुकार करता आया। उसकी गायें दस्यु बलात लिये जा रहे थे। ब्राह्मण की गायों को बचाना प्रथम कर्तव्य था। अर्जुन सिर झुकाये गये उस कक्ष में और धनुष उठा लाये। ब्राह्मण के स्वत्व की रक्षा हो गयी। क्षत्रिय धर्म आर्त-आश्रित की रक्षा पूर्ण हुआ। अब अपने बनाये नियम की रक्षा करनी थी।

युधिष्ठिर ने समझाया- 'वे दिन में केवल बैठे थे महारानी द्रौपदी के साथ। बड़े भाई-भाभी के कक्ष में उन दोनों के रहते भी छोटा भाई जाये तो दोष नहीं है। ब्राह्मण की गायों की रक्षा राजा का कर्तव्य था। अर्जुन ने स्वयं बड़े भाई के धर्म की रक्षा की है'

'नियम बनते समय तो हमने कोई ऐसा अपवाद नहीं माना है। सब अपवाद मानना दुर्बलता है' अर्जुन नियम की कसौटी पर खरे उतरे। उन्होंने स्वेच्छापूर्वक बारह वर्ष का निर्वासन स्वीकार किया। इन्द्रप्रस्थ से निकल पड़े और देश भर में घूमते रहे। ग्यारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे जब वे यात्रा करते प्रभास क्षेत्र पहुँचे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 59

'श्रीसंकर्षण अपनी बहिन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने पर तुले हैं। दूसरे किसी को वे बहिन देना नहीं चाहते।'

स्वभावतः धनंजय ने द्वारिका की तथा वहाँ के सुहृदों की कुशल जाननी चाही। वहाँ के विषय में पूछने पर यह भी पता लगा कि सुभद्रा दुर्योधन के नाम से चिढ़ती है। अतः अभी कुछ हो नहीं पा रहा है।

'सुभद्रा अर्जुन के हृदय में झंकार उठी थी। श्रीकृष्णचन्द्र की उस तन्वंगी अनुपम लावण्यमयी बहिन ने पहिले ही उनके हृदय में स्थान बना लिया था और अब तो बात का दूसरा महत्त्व बहुत बड़ा हो गया था। सुभद्रा श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय है, और वह भी श्रीकृष्ण को ही सब कुछ मानती है। श्रीकृष्ण कितने प्रेमपरवश हैं, यह अर्जुन से अधिक कौन जानेगा। सुभद्रा दुर्योधन के यहाँ जाती है तो श्रीकृष्ण गये।नहीं श्रीकृष्ण को छोड़कर पांडव कहाँ, किसके होंगे। दुर्योधन तो पांडवों का जन्मजात शत्रु है। उसके साथ सुभद्रा का विवाह? श्रीकृष्ण चले जायेंगे उस पक्ष में- नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिये। सुभद्रा को प्राप्त करना पड़ेगा।

'श्रीसंकर्षण का विरोध?' उन अनन्त का विरोध करने की बात तो कोई मूर्ख ही सोचेगा किन्तु सुभद्रा? सुभद्रा का अर्थ है तो अब श्रीकृष्ण है और श्रीकृष्ण का अर्थ है पांडवों का सर्वस्व। अर्जुन को कोई उपाय नहीं सूझता किन्तु उन्हें अपने सखा के सौहार्द पर, प्रीति पर, औदार्य पर पूरा विश्वास है। उन्हें विश्वास है कि श्रीकृष्ण उनकी सहायता से कभी विमुख नहीं हो सकते।श्रीकृष्ण ने ही सदा पांडवों के संकट में मार्ग दिया है। वे अब भी मार्ग देंगे। श्रीसंकर्षण को रुष्ट किये बिना, चौंकाये बिना श्रीकृष्णचन्द्र तक अपने हृदय की बात पहुँचा देनी है और उनके अनुग्रह की प्रतीक्षा करनी है। प्रतीक्षा ही की जा सकती है उनके अनुग्रह की।

अर्जुन ने त्रिदण्डी यति का वेश बनाया। इसमें एक सुविधा थी- त्रिदण्डी यज्ञोपवीत और शिखा का त्याग नहीं करते। धनंजय, शिखा-सूत्र त्याग कर धर्मच्युत होने की बात सोच नहीं सकते थे। वे अपना नित्यकर्म, संध्यादि करते रहेंगे। विधिपूर्वक त्रिदण्ड लिया नहीं है- यह तो नाटक के अभिनय जैसा है। इस वेश में वे द्वारिका गये और रैवतक गिरि पर रहने लगे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 60

अत्यन्त सुन्दर श्यामवर्ण तेजस्वी त्रिदण्डी यति पधारे हैं रैवतक पर द्वारिका के लोगों का क्रीड़ा-महोत्सव सब रैवतक पर ही होते थे। अतः द्वारिकावासियों में यह समाचार शीघ्र फैल गया। लोग दर्शनार्थ आने लगे। नगर मे यतिराज आमन्त्रित होने लगे।

'आप यहाँ इस रूप में?'
उद्धव, सात्यकि जैसे लोगों की दृष्टि को धोखा नहीं दिया जा सकता था। उन्होंने पहिचाना और एकान्त में पूछ लिया।

'श्रीद्वारिकाधीश की शरण आया हूँ' अर्जुन ने शान्त स्वर में अनुरोध किया- आप किसी से परिचय नहीं देंगे तो अनुग्रह होगा।

श्रीकृष्णचन्द्र न जानते हों, यह न बन सकती थी और न किसी ने यह सोचा ही। वे धनंजय से मिल गये। अर्जुन को उनसे क्या छिपाना था। उन्होंने कह दिया- 'पांडव केवल तुम्हारे ही चरणाश्रित हैं'

'अवसर की प्रतीक्षा करो' श्रीकृष्णचन्द्र हँसे- 'क्षत्रियों में कन्या-हरण धर्मसम्मत है। इसमें कन्यापक्ष का कोई अपमान नहीं है। मैंने जो कार्य बार-बार किया है, वही मेरे साथ किया जाये तो मैं उसे अनुचित क्यों मानूँ और उस पर रोष क्यों करूँ'

आपके परमपूज्य अग्रज? अर्जुन की आशंका तो यही थी वे मेरा वध भी कर दें तो भी मैं उनके सम्मुख शस्त्र उठाने की धृष्टता नहीं कर पाऊँगा।

'मैं माता-पिता को प्रस्तुत कर लूँ। महाराज उग्रसेन की सम्मति ले लूँ, तब तक प्रतीक्षा करो'
श्रीकृष्णचन्द्र ने आश्वासन दिया- 'अग्रज कितने भी रुष्ट हों, अपने इस अनुज के चरण पकड़ लेने पर उनका रोष टिक नहीं सकता।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 61

अर्जुन को प्रतीक्षा करनी थी। उन्हें पूरे एक वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी थी और श्रीकृष्णचन्द्र ने महाराज उग्रसेन से माता-पिता से भी स्पष्ट सब कह दिया था- 'बहिन का आकर्षण कहाँ है, यह अब अविदित नहीं है। अर्जुन का चित्त भी उनमें लगा है और वे यति वेश बनाये रैवतक पर उन्हीं के लिये टिके हैं। धर्मराज युधिष्ठिर के अनुज से विवाह होना अपने कुल के लिये गौरव की बात है। अन्यत्र कहीं भी देने से सुभद्रा दुःखी हो जायेगी'

'तुम्हारी बात सर्वथा उचित है किन्तु तुम्हारे अग्रज तो कुछ सुनने को ही प्रस्तुत नहीं हैं। महाराज की, पिता की भी यही समस्या है। अग्रज अभी तो नहीं सुनेंगे' श्रीकृष्णचन्द्र ने स्वीकार किया- 'किन्तु पीछे उन्हें मैं सन्तुष्ट कर सकता हूँ। क्षत्रिय कुल में कन्या-हरण कोई अपमान की बात तो नहीं है'
'तुम्हारा अभिमत ही उपयुक्त है। दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है' वसुदेव जी ने सम्मति दे दी।
श्रीकृष्णचन्द्र ने अपनी महारानियों को समझाया। उन्होंने रेवती जी से बात की तो रेवती जी ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा- 'सुना है, रैवतक गिरि पर कोई तुम्हारे मित्र यति महाराज पधारे हैं। उन्हें एक दिन आहार-ग्रहण को आमन्त्रित कर आओ।'

'भाभी यह कार्य अग्रज को करना चाहिये। वे बड़े हैं। आतिथ्य का आमन्त्रण उनके रहते अनुज कैसे देगा?' श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसते हुए नम्रतापूर्वक कहा।

रेवती जी के अनुरोध से श्रीबलराम आमन्त्रण देने गये। उन्हें देखते ही धनंजय ने अधिकांश शरीर और मुख वस्त्रावरण में छिपाया। उठकर खड़े हुए और मौन प्रणाम करके मुख झुका लिया। जिनके चरणों में महामुनीन्द्र भी प्रणिपात करते हैं, उनको कोई यति अभिवादन करें, इसमें कोई विशेष ध्यान देने की बात नहीं थी। श्रीबलराम ने भोजन के लिये आमन्त्रित किया और यति ने स्वीकृति में मस्तक हिला दिया।

अर्जुन द्वारिका के श्रीबलरामजी के अन्तःपुर में भोजन करने यति वेश में पधारे। योजना तो श्रीकृष्णचन्द्र की थी, सुभद्रा का स्पष्ट अभिमत जान लेना था और सखा को समझा देना था। सुभद्रा तथा श्रीकृष्णचन्द्र की महारानियाँ भी यति के दर्शन करने आ गयीं उसी सदन में।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 62

श्रीसंकर्षण ने श्रद्धा पूर्वक भोजन कराया। यति लगता था कि मौनव्रती थे। वे बोले नहीं। भोजन कराके, हाथ धुलवाकर श्रीबलराम को यति को विश्राम देना था और अन्तःपुर में आई महिलाओं को उनके दर्शन का अवसर देना था। अतः वे स्वयं भोजन करने बैठ गये।

'आप ताम्बूल-ग्रहण करेंगे?' सुभद्रा ने ही कक्ष में प्रवेश किया। रेवती जी ने उन्हें बलपूर्वक भेजा था। देखते ही वे विजय को पहिचान गयीं और हँसकर सलज्ज भाव से पूछा- 'यति ताम्बूल नहीं लेते, ऐसा सुना है'
'तुम जैसी सौन्दर्यमयी स्वकर से दें तो स्वीकार भी कर लेते हैं।'

अर्जुन हँस पड़े। सुभद्रा भाग गयीं लजा कर। योजना का यह भाग पूरा हो गया। महारानियाँ आश्वस्त हो गयीं।
कालिन्दी जी ने सुभद्रा को पकड़ा और बोलीं- 'इन यतियों से दूर ही रहना। ये तुम जैसी कुमारियों को उठा भागते हैं'
'आपको भी उठा भागने गये थे?' सुभद्रा ने कह दिया हँसकर।
'गये थे- इसीलिये तो जानती हूँ'

कालिन्दी ने बिना संकोच कहा- 'किन्तु यम की भगिनी को उठा भागना खेल नहीं था। इतना साहस केवल तुम्हारे भाई कर सकते थे और हैं ये उन्हीं के सखा और सखा समस्वभाव होते हैं'

अर्जुन को अन्तःपुर से विदा होने से पूर्व ज्ञात हो गया कि महाराज उग्रसेन तथा वसुदेव जी की अनुमति प्राप्त हो गयी है और उन्होंने गाण्डीवधन्वा को विजयी होने का आशीर्वाद भी  दे दिया है।

'सुभद्रा सुभद्रा' अर्जुन का चित्त तो सुभद्रा में लग गया था और सुभद्रा का हृदय उनके ध्यान में डूबा रहने लगा था। प्रतीक्षा चल रही थी।
देवयात्रा का अवसर आया। कार्तिक पूर्णिमा को द्वारिका की कुमारियाँ रैवतक गिरि पर देवार्चन करने जाया करती थीं। नागरिक भी कुछ जाते थे। सौभाग्यवती स्त्रियाँ कम ही जाती थीं। यह कुमारियों के देवार्चन का, आद्या भगवती त्रिपुर-जयंती का यह महापर्व। उन जगन्माता के आशीर्वाद की कांक्षिणी कौन कुमारी नहीं होगी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 63

रथारूढ़ा कुमारियों का समूह निकला द्वारिका से। शस्त्र सज्ज सैनिक सुरक्षा के लिये दोनों ओर रथों और अश्वों पर साथ चल रहे थे। वाद्य, मंगलगान की तुमुल ध्वनि में सब मग्न थे।कुमारियों के रथों पर केवल सारथि थे।

अनेक रथों पर कई कुमारियाँ साथ बैठी थीं किन्तु सुभद्रा अपने रथ पर अकेली थीं। उनका रत्नजटित स्वर्णरथ और उसमें जुड़े श्याम कर्ण अश्व- श्रीबलराम-कृष्ण की बहिन का रथ सर्वश्रेष्ठ, सबसे सज्जित तो होना ही था। पूरे समूह में वह रथ सबसे उत्कृष्ट था।
किसी ने नहीं देखा किधर से कवच बाँधे, धनुष चढ़ाये, पीठ पर दोनों अक्षय त्रोणक से गाण्डीवधन्वा अर्जुन आये। वे पैदल आये थे। यति वेश पता नहीं, कहाँ विसर्जित हो गया था। रथों के मध्य से वे तीव्र गति में आये और सुभद्रा के रथ के सारथि को उठाकर उन्होंने रथ से नीचे उछाल दिया। रथ-रश्मि हाथ में ली और अश्व एक ओर तीव्र गति से दौड़ पड़े।

'हरण- कन्या हरण' कोलाहल गूँजा। सैनिकों के अश्व, रथ, गज अपने मध्य से निकलकर आगे बढ़ते रथ के पीछे दौड़ पड़े। कुछ ने धनुष चढ़ा लिया और उनके बाणों की वर्षा प्रारंभ हो गयी।

धनंजय असावधान नहीं थे। उन्होंने घोड़ों की रश्मि दाँतों में दबायी और गाण्डीव तो पहिले से प्रत्यंचा चढ़ा था। सव्यसाची के शर आने वाले बाणों को मार्ग में ही टुकड़े करने लगे लेकिन उन्हें कठिनाई हो रही थी। रथ आगे ले जाना था और बाण पीछा करने वालों पर चलाने थे।

'आप केवल प्रतिपक्ष को देखें' सहसा सुभद्रा ने पति की कठिनाई समझी। रथ के अगले भाग पर वे आ बैठीं -'श्रीकृष्ण की स्वसा को रथ-चालन भली प्रकार आता है'

'आप सब रुको' द्वारिका की सेना के प्रधान योद्धा सात्यकि का रथ सेना के आगे आ गया- 'सुभद्रा जी स्वयं सारथ्य कर रहीं हैं। पार्थ के बाण केवल आप सबके शरों को काट रहे हैं। वे किसी पर आघात नहीं कर रहे हैं।'
(आभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 64

सैनिक रुक गये। अर्जुन के लिये प्रतिपक्ष कहाँ था। वे द्वारिका के सैनिकों पर आघात करते? वे तो केवल आत्मरक्षा कर रहे थे। सुभद्रा जी रथ पर सम्मुख बैठी सारथ्य कर रहीं थीं- यह भी सबने देख लिया था और गाण्डीवधन्वा से युद्ध में विजय पाने की आशा भी व्यर्थ थी। सैनिकों ने उन्हें पहले पहचाना नहीं था,अन्यथा उनका पीछा करने में इतना वेग कदाचित ही आया होता।

'हम केवल समाचार दे सकते हैं'- सात्यकि ने कहा।उनका हृदय अपने अस्त्र शिक्षा गुरु के साथ था और उन्हें पता था कि श्रीकृष्णचन्द्र की सम्मति के बिना अर्जुन ऐसा साहस कभी नहीं कर सकते थे।

समाचार पहुँचा और सुनते ही श्रीसंकर्षण ने क्रोध से अरुण-नेत्र किये, फड़कते अधर उठ खड़े हुए। उनके हाथ उठाते ही उनके दिव्यायुध हल-मुशल हाथों में आ गये- 'अर्जुन को बहुत गर्व हो गया है गाण्डीव पाकर।'

'आर्य' श्रीकृष्ण ने दोनों चरण पकड़ लिये बड़े भाई के- 'आपका वात्सल्य भाजन है विजय और उसे दण्ड ही देना है तो आप मुझे आदेश दें, किन्तु........।'

'किन्तु क्या? तुम्हारी अनुमति मिली है इसमें उसे?' श्रीबलराम ने श्रीकृष्ण की ओर देखा, कुछ उग्र स्वर में ही पूछा।

'किन्तु सुभद्रा को सती होने से आप भी रोक नहीं पावेंगे यदि अर्जुन को आपने मार दिया' श्रीकृष्णचन्द्र उठ खड़े हुए- 'मैं उसे यहीं खडे-खड़े मार देता हूँ। आप केवल आदेश दें। लेकिन सुभद्रा ने इस हरण में स्वयं सारथ्य किया है। वह आपकी बहिन है। एक बार एक पुरुष को स्वीकार कर लिया उसने तो उसके मारे जाने पर सह-मरण से उसे कोई रोक पावेगा?'

'सुभद्रा ने सारथ्य किया है?' श्रीबलराम का क्रोध शान्त होने लगा।
'हम इसीलिये प्रतिकार नहीं कर सके' अब सात्यकि को बोलने का साहस हुआ- 'हमारे अवरोध से उनके भी आहत होने का भय हो गया था।'

'अब आपको विजय का अनुग्रह करना चाहिये' उद्धव ने प्रार्थना की। दूसरे सुहृद भी उनका समर्थन करने लगे थे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 65

'अच्छा, अर्जुन को बुला लो' संकर्षण प्रसन्न हुए- 'मैं बहिन का सविधि विवाह करूँगा। अब पार्थ के लिये भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है'

सात्यकि तीव्रगामी अश्व पर अविलम्ब बैठ गये। उन्होंने शंखध्वनि के संकेत से ही अर्जुन को मंगल-संदेश दिया तथा रुकने का भी।

अर्जुन सुभद्रा के साथ लौट आये। उनका सत्कार किया श्रीबलराम ने। उत्तम मुहूर्त में सविधि विवाह हुआ और उपहार में तो श्रीकृष्ण-बलराम ने सब सीमायें तोड़ दीं। धनंजय बड़े उल्लास से सुभद्रा के साथ विदा किये गये।
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श्रीकृष्ण के प्रथम-पुत्र का जन्मोत्सव अभी चल रहा था। षष्ठी सम्पन्न हुई थी। शिशु सूतिकागृह से बाहर आया था। अभी उसका जात-सूतक चल रहा था। सातवें दिन की अर्धरात्रि को देवी रुक्मिणी को तनिक देर के लिये निद्रा आयी और तन्द्रा में ही टटोला तो शिशु उनके अंक में शैय्या पर नहीं था। चौंककर वे जागी और क्रन्दन कर उठीं। सम्पूर्ण राज-भवन में और थोड़ी देर में तो पूरी द्वारिका में भाग-दौड़, पुकारने-चिल्लाने की ध्वनि फैल गयी। सर्वत्र खोज होने लगी। महादेवी रुक्मिणी के नवजात शिशु का हरण हो गया था। कोई मायावी रात्रि में उसे उठा ले गया था।

महाराज उग्रसेन ने चारों ओर चर भेजे। यादव महारथियों ने वन, पर्वत-गृहायें, सब दुर्गम स्थान देख डाले। सब यादव-विरोधियों के यहाँ और जहाँ भी उनके द्वारा शिशु को छिपाये जाने की सम्भावना थी, सब स्थलों का पता लगा लिया। शिशु का कहीं कोई समाचार-उसके अन्वेषण का कोई सूत्र नहीं मिला।

इस सब भाग-दौड़, चिन्ता-व्याकुलता में श्रीकृष्ण शान्त बने रहे। उन्होंने महारानी रुक्मिणी से कहा- 'तुम शोक त्याग दो। तुम्हारा शिशु भगवान उमाकान्त के प्रसाद से प्राप्त है। उसका अनिष्ट कोई कर नहीं सकता। उसकी रक्षा तो प्रलयंकर का आशीर्वाद कर रहा है। उसके लौटने में विलम्ब हो सकता है किन्तु वह मंगल सहित लौटेगा- यह निश्चित है'

देवी रुक्मिणी को अपने आराध्य के वचनों पर पूरा विश्वास था। भगवान सदाशिव में आस्था थी किन्तु माता का हृदय,दूसरा कोई उपाय न देखकर वे देवी अम्बिका की आराधना करने लगीं अपने पुत्र की कल्याण-कामना से।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

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