द्वारिका धीश 7
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 66
शम्बर ब्रह्मा के वरदान से अमरप्राय हो गया था। घोर तप करके उसने सृष्टि कर्ता को संतुष्ट किया और उनसे वरदान माँगा- 'मेरी कभी मृत्यु न हो' ब्रह्मा जी ने स्पष्ट अस्वीकार कर दिया- 'ऐसा सम्भव नहीं है। अमरत्व का वरदान दिया नहीं जा सकता'
'मैं सुरासुर सबके लिये अवध्य हो जाऊँ'
शम्बर ने दूसरा वरदान माँगा- 'केवल नारायण से उत्पन्न रमा का पुत्र मुझे मार सके। जब कभी वह उत्पन्न हो, मुझे आप सूचित कर दें'
'एवमस्तु ' ब्रह्मा जी वरदान देकर ब्रह्मलोक चले गये। शम्बर ने पृथ्वी से बहुत दूर समुद्र के मध्य मे अपनी राजधानी बनायी। वह निश्चिन्त था क्योंकि उसे पता था कि लक्ष्मी अजातपुत्रा है।
अचानक एक दिन हंस-वाहन सृष्टिकर्ता ने सन्देश भेज दिया- 'द्वारिका में नारायण ने अवतार लिया है। महालक्ष्मी रुक्मिणी देवी के गर्भ से नारायण का पुत्र जन्म ले चुका'
शम्बर महामायावी था। सैकड़ों प्रकार की माया उसे आती थीं। रात्रि में आकाश में अन्तर्हित रहते हुए द्वारिका जाना और शिशु को उठा लेना उसके लिये कुछ कठिन नहीं था। उसने अतल समुद्र में शिशु को ऊपर से गिरा दिया और निश्चिंत होकर अपने नगर चला गया।
सात दिन का नन्हा शिशु ऊपर से उत्ताल तरंगों में गर्जना करते सागर में फेंक दिया गया और वह भी ऐसे स्थान पर जहाँ समुद्र जल में तिमि और तिमिंगल जैसे महामत्स्य भरे पड़े है फिर उस शिशु का चिह्न भी बचेगा?
"पथिच्युतं तिष्ठति दिष्टरक्षितं गृहे स्थितं तद्विहितं विनश्यति"
जिसकी मृत्यु नहीं है उसे कौन मार सकता है। शिशु रात्रि में आकाश से जल में गिरा। नीचे जल में विचरण करते समय एक महामत्स्य ने मुख खोलकर उसे ऊपर से ही मुख में ले लिया और निगल गया लेकिन बड़े सवेरे ही समुद्री मछलियाँ पकड़ने वालों ने उसी स्थान पर अपना महाजाल डाला। वह महामत्स्य उनके जाल में आ गया। इतना भारी मत्स्य प्रथम उद्योग में ही मिल गया था। मछुओं ने जाल समेटा और नौकायें शम्बर के द्वीप के किनारे जा लगायीं। दानवेन्द्र शम्बर इतना बड़ा मत्स्य देखकर बहुत सन्तुष्ट हुआ। उसने मछुओं को भरपूर पुरस्कार दिया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाघीश
भाग- 67
महामत्स्य शम्बर के रसोई-गृह में भेजा गया। वह इतना भारी था कि सेवकों ने उसे भारी कुल्हाड़े से टुकड़े करने प्रारम्भ किये। मत्स्य के उदर से अत्यन्त सुन्दर श्याम-वर्ण जीवित शिशु निकल आया। वे सेवक शम्बर के भोजनालय की अध्यक्षा मायावती के समीप उस बच्चे को ले गये- 'यह अभी समुद्र से पकड़कर लाये गये महामत्स्य के उदर से निकला है।'
'इसे मेरे समीप छोड़ जाओ’ अत्यन्त सुन्दर शिशु देखकर मायावती ने उसे उठा लिया- 'महाराज दानवेन्द्र को मत्स्य बहुत प्रिय है। उस मत्स्य के खण्ड ठीक-ठीक स्वच्छ करो। भली प्रकार वे भूने जायें’
'बहुत भारी मत्स्य है’ सेवकों ने कहा- 'दानवेन्द्र आज भरपेट खा सकेंगे उसे’
मायावती ने सेवकों के चले जाने पर शिशु की ओर ध्यान दिया। वह देखते ही पहिचान गयी थी। अपने स्वामी को पहिचान में उससे भूल कैसे हो सकती थी। लेकिन यह शिशुरूप?
'देवी। इतने ध्यान से क्या देख रही हो?' सहसा देवर्षि नारद गगन से उतरे और पूछा उन्होंने। उन अव्याहत गति के लिये कोई स्थान अगम्य तो है नहीं।
'यह शिशु मिला है अभी’ मायावती ने देवर्षि के चरणों में शीघ्रतापूर्वक उठकर मस्तक रखा।
'पुष्पधन्वा नित्य नारायणांश है और वही नीलसुन्दर वर्ण है इनका’ -देवर्षि ने परिचय दे दिया। प्रद्युम्न की जन्म-कथा और शम्बर द्वारा उनका हरण सुनाया- 'आज ही रात्रि में दानव इन्हें द्वारिका से उठाकर समुद्र में फेंक आया है। तुम इन्हीं की प्रतीक्षा कर रही थीं युगों से और आने पर अपने स्वामी को भी नहीं पहिचानती हो?
भगवान शंकर ने मदन-दहन के अनन्तर रति को वरदान दे दिया था। सृष्टिकर्ता पितामह ने पति-वियुक्ता दुखिया रति पर दया करके उसे बतला दिया था कि शम्बर के यहाँ उसे अपने पति का दर्शन होगा। रति ने नाम बदल लिया, वह मायावती बन गयी और असुर के यहाँ आश्रय लिया उसने।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 68
शम्बर जिह्वा लोलुप था। सब में सब गुण नहीं होते तो सब दोष भी नहीं होते। शम्बर के लिये नारी का सौन्दर्य महत्त्वहीन था। उसके लिये सबसे अधिक महत्त्व था स्वादिष्ट भोजन का। मायावती ने अपने को व्यंजन बनाने में निपुण बतलाया उसके यहाँ आकर। दानव ने उसका बनाया भोजन किया और उसे लगा कि उसने दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर ली। मायावती को उसी दिन अपने भोजनालय की अध्यक्षा बना दिया उसने।
जिसे भोजन सबसे प्रिय है, उसके लिये उत्तम रसोइया सबसे अधिक सम्मान्य होगा। मायावती के निरीक्षण में बने भोजन के सम्मुख दानव शम्बर को सब नीरस लगता था। फलतः वह कहीं भोजन के समय बाहर नहीं टिकता था। उसके लिये प्रवास करना बहुत अप्रिय कार्य हो गया।
मायावती के लिये नाना प्रकार के मांसों का रन्धन करवाना,विशेषतः मत्स्य का बहुत अप्रिय कार्य था।
वह देवी थी- देवी रति किन्तु विपत्ति सब सहन करने को बाध्य करती है। उसे अपने अनंग पति के शरीरधारी होने की यहाँ प्रतीक्षा करनी थी।
देवर्षि कहीं टिकते तो हैं नहीं किन्तु मायावती का सन्देह वे दूर कर गये। अब वह शिशु मायावती का सर्वस्व था। उसके लालन-पालन में वह तन्मय हो गयी।
‘मायावती ने एक शिशु पा लिया है कहीं से’-शम्बर से उसके मन्त्री ने कहा था।
'उसे कुछ कहना मत’-शम्बर ने तत्काल रोक दिया- 'मैंने सुन लिया है किन्तु शिशु मिला है उसे तब से वह भोजन-रन्धन पर विशेष ध्यान देने लगी है। मुझे सदा भय रहता था कि यह एकाकिनी है। कभी भी कहीं चली जा सकती है। इतनी रन्धन-कुशल दूसरी मिलने वाली नहीं है। अब वह शिशु के वात्सल्य में बँध गयी। उसे शिशु के लिये जो भी आवश्यक हो, देने का प्रबन्ध कर दो।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 69
अब मायावती से कुछ कहने-पूछने का साहस कौन करता। शम्बर के महामन्त्री तक अब उसके शिशु को प्रसन्न रखना चाहते थे क्योंकि वे जानते थे कि उनके दानवेन्द्र मायावती के द्वारा बनवाये भोजनों के वश में हैं।
शिशु बढ़ने लगा। वह अच्युत का अमित प्रभाव पुत्र-शैशव से ही असुर बालकों से उसकी कोई प्रीति नहीं थी। वह किसी से मिलना- किसी के अंक में जाना नहीं चाहता था। केवल मायावती के ही आसपास वह रहता था।
'माया’-शिशु ने बोलना प्रारम्भ किया। तभी से मायावती ने उसे अपना नाम रटा दिया। वह इसी नाम से उसे पुकारने लगा।
दूसरे बालकों के साथ न उसे खेलना अच्छा लगता, न मिलना। उसे शम्बर के नगर में केवल एक स्थान कुछ रुचा- भगवान शिव का मन्दिर। वह वहाँ चला जाता और बालकपन से ही पूजा करता उन त्रिपुरारि की।
बालक जैसे-जैसे बड़ा होता गया, एकान्तप्रिय होता गया। उसे नगर में सबसे ही जन्मजात अरुचि थी। शम्बर को देखते ही भाग खड़ा होता था। शम्बर ने रात्रि में हरण किया था शिशु का और समुद्र में फेंक दिया था। वह कैसे पहिचानता कि यह वही बालक है। रात्रि में फेंका दिन के प्रथम प्रहर में ही उसी के भवन में पहुँचकर पलने लगा था।
अद्भुत प्रतिभा थी बालक की। मायावती स्वयं उसकी शिक्षिका-प्रशिक्षिका सब बन गयी थी। वह देवी थी। श्रुति-शास्त्र सब सिखला सकती थी और सब पढ़ाया उसने। उसे जो कुछ आता था, वह विद्यायें अपने स्वामी को दे दीं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 70
संगीत, नृत्य, गायनादि ललित कलाओं की अधिदेवता रति। उससे उत्तम ये कलायें कौन जानेगा किन्तु धनुर्वेद का सम्पूर्ण प्रशिक्षण दिया उसने। उसे जो नहीं आता था, वह भी ध्यानस्थ होकर वह जान सकती थी और जानना उसके लिये अत्यन्त आवश्यक हो गया था। उसके पति बालक थे और उन्हें वह सम्पूर्ण विद्यायें सिखला देना चाहती थी।
चौदह वर्ष के होते-होते प्रद्युम्न समस्त श्रुति-शास्त्र एवं कलाओं में पारंगत हो चुके थे। उनको सब वेदांग एवं उपवेद सांगोपांग स-रहस्य अवगत हो गये और उनको प्रयुक्त करना आ गया।
मायावती ने उन्हें अब असुर, दानव, गन्धर्व, किन्नरादि की विशेष विद्यायें और उनकी मायाओं का प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया। किसी एक व्यक्ति में इतनी विद्या- इतने विभिन्न वर्ग की विशेषता सृष्टि में मिलना कठिन है जो मायावती न मायावती ने सिखलायीं। उसे आश्चर्य नहीं था। उसके पति साक्षात श्रीहरि के आत्मज थे। एक बार जो कहकर या क्रिया से बतला देती थी उसका अनकहा- अशिक्षित भाग भी प्रद्युम्न स्वयं समझ लेते थे।
अन्त में मायावती ने सोलह वर्ष की वय होने पर प्रद्युम्न को सर्वमाया विनाशिनी महामाया का प्रशिक्षण दिया और मन में प्रणाम कर लिया- 'इस दासी के पास जो योग्यता थी, आपके चरणों में इसे अर्पित कर दी’
बहुत प्रतीक्षा की थी उसने। उस दिन रात्रि के प्रथम प्रहर के बीत जाने पर दानवेन्द्र को भोजन कराके उसने अपना भली प्रकार श्रृंगार किया और प्रद्युम्न के शयन-कक्ष में पहुँची।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
द्वारिकाधीश
भाग- 71
यह क्या? क्या चेष्टा है आज यह तुम्हारी?' प्रद्युम्न ने काम शास्त्र की भी शिक्षा पायी थी। वे मायावती की आज की भंगी देखते ही चौंककर उठ बैठे- 'आज तो तुम कामिनी जैसे व्यवहार करने लगी हो। यह अधर्म तुम्हारे भीतर कहाँ से आया? मैं तो तुम्हारा.........।'
मायावती ने झट से प्रद्युम्न के मुख पर हाथ रख दिया- 'आप साक्षात नारायण के पुत्र हैं और आपकी जननी द्वारिका में पता नहीं आपके लिये कितनी व्याकुल हो रही होंगी’
'तो तुम कौन हो?' प्रद्युम्न ने गम्भीर होकर पूछा- 'मैं यहाँ दानवेंद्र शम्बर के यहाँ क्यों हूँ?'
'मैं सदा की आपके चरणों की दासी- आपकी अधिकृत पत्नी रति हूँ। युगों से आपके दर्शनों की प्यास लिये दानव की रसोइया बनने की विवश’
रो पड़ी मायावती- 'यह दानवेन्द्र शम्बर आपका जन्मजात शत्रु है। आप तो मकरध्वज मदन है। इसने जन्मते ही आपको द्वारिका से हरण करके समुद्र में फेंक दिया’
पूरी रात्रि प्रद्युम्न पूछते और सुनते रहे। मायावती ने उनके भगवान शंकर के द्वारा भस्म होने के बाद से अब तक की अपनी विपत्ति गाथा सुना दी रोते-रोते और द्वारिका में श्रीहरि के यहाँ प्रद्युम्न के जन्म, हरण, मत्स्य के उदर से उनके मिलने से लेकर अब तक की कथा भी सुना दी।
‘देवर्षि ने दया की मुझ अनाथ अबला पर और आकर मुझे आपका परिचय दिया। मैं जितनी सेवा कर सकती थी, मैंने की है। अब आप समर्थ हो चुके हैं। नारी का आश्रय पति होता है। मैं विपत्ति की मारी बहुत भटकी हूँ किन्तु मेरा हृदय बहुत फट जाता है आपकी पूजनीया माता के दारुण दुःख का स्मरण करके। उनके पहिले पुत्र का इस शम्बर ने हरण कर लिया।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 72
‘मैं सबेरे ही शम्बर को देखता हूँ’ प्रद्युम्न के नेत्र अरुण हुए।
'वह महामायावी है किंतु आपको भी सब मायाओं का ज्ञान है’ मायावती ने सावधान किया- 'उसके माया-युद्ध से केवल सावधान रहें’
प्रातःकाल हुआ और धनुष चढ़ाये प्रद्युम्न भवन से निकले। उन्होंने बाण मारकर शम्बर के मुख्य द्वार पर लगा सिंहध्वज काट दिया। दानव दौड़े- 'यह क्या किया तुमने?'
'मैं तुम्हारा और दुरात्मा शम्बर का काल हूँ।' प्रद्युम्न दहाड़े- 'आज इस दुष्ट को मैं मार दूंगा।'
देर तक सोने वाले दानवेन्द्र को डरते-डरते समाचार दिया गया। निद्रा से जगाये जाने के कारण वह क्रुद्ध हो गया। 'उस दासी के पौष्य पुत्र को मार डालो।'
आज्ञा मिलते ही दानव अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े किन्तु शीघ्र शम्बर को पता लग गया कि उसका विरोध करने वाला कितना दुर्घर्ष है। उसके अनुचर मारे गये या आहत होकर भागते रोते आये। अब सेना भेजनी पड़ी। घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया।
युद्ध में शम्बर के सभी सौ पुत्र मारे गये। उसके चारों मंत्री दुर्घर, केतुमाली शत्रुहन्ता और प्रमन खेत रहे। देवताओं को भी पराजित करने वाले उसके शूर मर गये तो वह स्वयं निकला।
शम्बर के रथ में सर्परज्जु से बंधे सौ मृग जुते थे। व्याघ्र-चर्म से ढका था उसका रथ किन्तु निकलते ही रथ की ध्वजा टूट गिरी। शम्बर के मस्तक पर काक आकर स्थिर बैठ गया और कठिनाई से उड़ाया जा सका।
वह कालाष्टमी तिथि थी। अमरप्राय दानवेन्द्र शम्बर जब युद्ध में आया, उसकी सेना समाप्त हो चुकी थी। उसके पुत्रों-सम्बन्धियों के क्षत-विक्षत शव बिखरे थे। एकाकी प्रद्युम्न भूमि पर खड़े प्रलयंकर के समान धनुष चढ़ाये थे।
उन्होंने ललकारा- 'तू बालहत्या का प्रयास करके जीवित रहना चाहता है? कापुरुष। आज तेरा सिर कुत्तों को दे दूँगा।'
शम्बर ने बाण वर्षा प्रारम्भ की और शीघ्र दिव्यास्त्र का प्रयोग करने लगा। यह भी व्यर्थ उद्योग था। अन्त में जब उसका रथ ध्वस्त हो गया, मृग मारे गये, कवच कट गया तो वह अन्तर्धान हो गया। मायायुद्ध करना प्रारम्भ किया उसने।
गगन से जलते वृक्ष, शिलायें, सर्प, हाथी, सिंह गिरने और दहाड़ते दौड़ने लगे। चारों ओर ज्वाला उठने लगी। समुद्र की उत्ताल तरंगें उठीं और लगा कि द्वीप को निगल लेंगी। भूत-प्रेत-पिशाचों के झुण्ड प्रकट हुए तथा भयंकर शब्द करते दौड़ने लगे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग-73
प्रद्युम्न प्रत्येक माया-दृश्य नष्ट करते जा रहे थे। सम्मोहित करने का दानव ने प्रयास किया तो वह माया संज्ञास्त्र से नष्ट हो गयी। सिंहों के झुण्ड प्रकट हुए तो शरभास्त्र ने उन्हें अदृश्य कर दिया। सर्प प्रकट हुए किन्तु प्रद्युम्न के सौपर्णास्त्र की भेंट हो गये। अन्त में शम्बर ने भगवती पार्वती से प्राप्त अमोघ स्वर्ण मुद्गर उठाया।
मायावती ने पहिले ही इससे सावधान कर दिया था। प्रद्युम्न ने धनुष एक ओर फेंका और हाथ जोड़कर स्तवन करने लगे- 'ह्रीं क्लीं जगदम्बिकायै त्रिपुरसुन्दर्यै नमः’
भगवती षोडश-भुजा सिंहवाहिनी प्रकट हो गयीं। सुप्रसन्न बोलीं- 'वत्स! वरं ब्रूहि’
'अम्ब!' प्रद्युम्न ने कहा- 'यह मुद्गर मेरा स्पर्श करके कमलमाल बन जाय’
‘तथास्तु’ देवी ने कहा और अन्तर्धान हो गयीं। शम्बर ने उसी क्षण मुद्गर फेंका किन्तु वह पद्मपुष्पों की माला बनकर प्रद्युम्न का कण्ठाभरण हो गया। शम्बर ने देखा और भागा किन्तु दौड़कर प्रद्युम्न ने उसे पकड़ लिया। उसके लाल लाल खड़े केश और श्मश्रु से युक्त भयानक मुख वाले सिर को तलवार से काटकर समुद्र में फेंक दिया उन्होंने।
उस द्वीप में स्त्रियाँ और शिशु रह गये थे दानवों के। प्रद्युम्न ने मायावती से कहा- 'देवि! मैं शीघ्र मातृचरणों के दर्शन करना चाहता हूँ’
मायावती का उस द्वीप से क्या मोह। अष्टमी की रात्रि व्यतीत हुई और नवमी के प्रभात में आकाश मार्ग से पति को लेकर मायावती द्वारिका में देवी रुक्मिणी के प्रांगण में उतरीं।
आज प्रातःकाल से महारानी रुक्मिणी का चित्त बहुत प्रफुल्लित था। उन्होंने सब महारानियों को बुला लिया था और कह रही थीं- आज रात्रि के अन्त में मैंने स्वप्न देखा कि कमलनयन श्रीद्वारिकेश ने मुझे पल्लव सहित आम्रफल दिया और मुक्तामाल गले में डाली। एक श्वेतवस्त्रा षोडशी स्त्री कमल लिये मेरे घर आयी और उसने मुझे स्नान कराके कमल पुष्पों की माला पहिनायी। अब भी मेरा वाम नेत्र, वाम भुजा फड़क रही है’
यह लो ये कमललोचन कोई और महारानी लिये इस बार आकाश से उतर रहे हैं’ रानियाँ उठकर कक्ष में भागीं। वे अन्तःपुर में अस्त-व्यस्त बैठी थीं। इस स्थिति में वे सम्मुख नहीं पड़ना चाहती थीं।
(साभार द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 74
'कक्ष में पहुँचकर उन्होंने अपने वस्त्र, केशादि ठीक किये और प्रांगण में देखा कि यह तो कोई और है। इनके कण्ठ में न कौस्तुभ है न वक्ष पर श्रीवत्स। ये तो बालक लगते हैं और ऐसे चकित देखते हैं जैसे अपरिचित स्थान में आ गये हों।
'मातः प्रणतोऽस्मि’ प्रद्युम्न ने एक महारानी को देखकर प्रणाम किया।
'कौन है यह बालक?' देवी रुक्मिणी बोल उठीं- 'शारंग धन्वा का रूप-रंग, वही आकृति, वही विशाल लोचन, वही स्वर, वैसे ही देखने की भंगी, वही सहास्य वदन- यह कैसे मिला इसे? मेरा जो पुत्र खो गया- वह कहीं जीवित हो तो इतना ही बड़ा होगा। इसे देखकर मेरा हृदय स्नेह से उमड़ा जाता है।'
इसी समय देवर्षि नारद वसुदेव जी के सदन में आ गये थे। वहाँ, श्रीसंकषर्ण छोटे भाई के साथ माता-पिता की चरण-वन्दना करने पहुँचे थे। देवर्षि ने गगन से उतरते ही कहा- 'मैं मंगल-संवाद देने आया हूँ किन्तु आप सबको देवी रुक्मिणी के सदन में चलना है।'
देवर्षि को सबने प्रणाम किया। वसुदेव जी और माता देवकी को भी वे साथ ले आये। रुक्मिणी के आँगन में प्रद्युम्न अभी खड़े ही थे कि देवर्षि ने उनसे कहा- 'वत्स! ये तुम्हारे पितामह और पितामही हैं। ये तुम्हारे पिता हैं और ये पिता के अग्रज हैं। तुम दोनों इनकी चरण-वन्दना करो। इतने में तुम्हारी मातायें स्वयं तुम्हारा स्वागत करने आती हैं।'
‘देवी यह आपका गर्भजात अपनी सनातन पत्नी को साथ लेकर आया है’ देवर्षि ने महारानी रुक्मिणी से कहा- 'सुरासुर दुर्जय अमरप्राय अपने हरण करने वाले शत्रु दानवेन्द्र शम्बर को यह मार आया। इसके लिये अपनी पुत्रवधू का तुम उपकार मान सकती हो’
प्रद्युम्न ने श्रीदेवकी-वसुदेव, संकर्षण-श्रीकृष्ण तथा रुक्मिणी जी एवं अन्य माताओं की चरण-वन्दना की मायावती के साथ। देवकी जी तथा रुक्मिणी जी ने पुत्रवधू को उठाकर हृदय से लगाया। आशीर्वाद दिया सबने।
'प्रद्युम्न आये सपत्नी आये’ द्वारिका में समाचार शीघ्र फैल गया और प्रद्युम्न तो मानों मरकर लौटे थे। देवी रुक्मिणी के आनन्द का पार नहीं था। वसुदेव-देवकी पौत्र तथा पौत्र वधू पाकर हर्ष विह्वल थे। अन्तःपुर में नव-वधू का स्वागत प्रारम्भ हो गया था और प्रद्युम्न को परिचय दिया जा रहा था यादव प्रमुखों का।
(साभार श्री द्वारिकाधीशसे)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 75
प्रद्युम्न दूर समुद्रीय द्वीप से आये, यह सुनते ही श्रीसंकर्षण का चित्त दूर-दूर स्थित अपने सुहृदों के स्नेह से व्याकुल हो उठा था। मन का विचित्र स्वभाव है। वह कब किस नाम मात्र के सूत्र को पकड़कर कहाँ चला जायगा, कोई नियम नहीं है।
प्रद्युम्न सोलह वर्ष के होकर आये थे। पूरे सोलह वर्ष देवी रुक्मिणी की आराधना चली थी पुत्र के लौटने की कामना से और श्रीसंकर्षण उस रात्रि से ही हरण हुए कुमार की शोध के लिये सक्रिय रहे थे। श्रीकृष्ण तो निर्गुण, निष्क्रिय, पूर्णकाम, स्वयं में परिपूर्ण हो सकते हैं; किन्तु श्रीसंकर्षण- वे तो स्नेह, वात्सल्य, अपनों के संरक्षण की मूर्ति हैं। इसी से तो अबले, अनाश्रयप्राणी उनके श्रीचरणों की ही शरण लिया करते हैं। पूरे सोलह वर्ष गुप्तचरों का संचालन- उनके लाये संवादों का श्रवण-परीक्षण वे करते रहे थे। प्रद्युम्न आ गये तब उनका चित्त इस ओर से अवसर पा सका।
'बहुत दिन-बहुत वर्ष हो गये श्रीकृष्ण हमारे व्रज के सुहृदों का समाचार ही नहीं मिला’ प्रद्युम्न के आगमन का उत्सव समाप्त होते ही वे छोटे भाई से बोले।
'आर्य आप ब्रज हो आयें’ श्रीकृष्णचन्द्र का शरीर रोमांचित हो गया। नेत्रों में अश्रु आ गये- ‘हम दोनों द्वारिका से कहीं भी एक साथ नहीं जा सकते। पौण्ड्रक है, शाल्व है और इन सबके मित्र हैं। अपने इन आश्रितों का संरक्षण विवश किये है हमें।'
जब से ब्रज से आये, उसी दिन से लग गये संरक्षण में और इस संरक्षण से अवकाश नहीं है। सचमुच नहीं है। कंस के मरते ही जरासन्ध का आतंक उपस्थित हो गया था और उसी के कारण द्वारिका आना पड़ा। यहाँ भी कब कौन आ चढ़े, इसका भरोसा नहीं। अभी विरोधियों की- असुरों की भी पर्याप्त बड़ी संख्या बची है और उनमें अनेक अमित पराक्रम हैं। द्वारिका में राम या कृष्ण- दोनों एक भी न रहें तो द्वारिका का संरक्षण संदिग्ध हो उठेगा। तप करने कैलास जाते समय ही कितनी सावधानी रखनी पड़ी थी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
*श्री द्वारिकाधीश*
*भाग- 76*
बृज तो जीवन है। श्रीकृष्णचन्द्र बृज का स्मरण आने पर द्वारिका में विह्वल हो उठते हैं, बृज जाने पर इनको दूसरा कोई स्मरण अवेगा? बृज जाकर फिर लौटना? श्रीकृष्ण के लिये यह सोचना ही कठिन है। कुछ थोड़े दिनों के लिये तो बृज नहीं जाया जा सकता।
'कृष्ण आवेंगे' इस प्रतीक्षा में ही जो जीवित है, उन प्रेममूर्ति प्राणों का विश्वास है- 'कृष्ण हमारे हैं। वे केवल मथुरा के लोगों का संरक्षण करने रुके हैं। वे आवेंगे- हमारे मध्य आ जायेंगे।' उनके प्राणों को क्या यह समझाना है- 'कृष्ण हमारे केवल सुहृद हैं। कभी-कभी ही आ सकते हैं?'
श्रीकृष्ण सचमुच बृज के हैं। सचमुच वे यादव-संरक्षण के लिये ही रुके हैं। सचमुच वे बृज जायँगे तो बृज के ही होंगे और तब इन्हें सृष्टि में और भी कहीं कोई है- यह स्मरण नहीं आने का।
श्रीसंकषर्ण को बृज जाना है। श्रीकृष्णचन्द्र ने प्रत्येक सुहृद के लिये संदेश दिया,उपहार दिये। वसुदेव जी माता देवकी, उग्रसेन जी ने उपहार दिये और श्रीबलराम रथ में बैठकर बृज के लिये द्वारिका से चले। बृज दूर है द्वारिका से किन्तु बृज को चले और द्वारिका भूल गयी। बाबा, मैया, गोपकुमार, गोपियाँ, गायें लगने लगा कि बृज सम्मुख ही है। बृज यात्रा में मार्ग विश्राम कैसा।
तालध्वज रथ व्रज की सीमा में पहुँचा और वन में पहिले तो गोचारण को निकले गोप ही मिलने थे। वे गोप अब पहिले के सखा गोप-बालक तरुण गोप हो चुके हैं। वे दौड़े- 'रथ आया,कोई रथ आ रहा है।द्वारिका से कोई सन्देश? कोई सन्देश वाहक? श्रीकृष्ण आये?'
'राम आये। दाऊ आये’ लकुट फेंक दिये करों से। उष्णीष, पटुके, श्रृङ्ग, छीके, रज्जु जहाँ तहाँ गिरे और तरुण गोपों का समूह दौड़ा- 'दाऊ आये।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
*क्रमश*
*जय श्री कृष्ण*
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