द्वारिकाधीश 12
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 123
‘इमं स्वपर्तिं नारदाय ब्रह्मपुत्राय प्रददे।'
सत्यभामा जी ने हाथ में जल लेकर सम्पूर्ण संकल्प पढ़कर श्रीकृष्णचन्द्र का दान कर दिया। सहस्र धेनु तथा विपुल स्वर्ण राशि इस दान की सांगता के लिए प्रदान की देवर्षि को।
सुर गगन से पुष्पवर्षा कर रहे थे। जय-ध्वनि, वाद्य-ध्वनि तथा शंखनाद से दिशायें गूँज रहीं थीं। कोलाहल शान्त होने पर देवर्षि आसन से उठे और अपनी वीणा उठाकर शान्त स्वर में श्रीकृष्णचन्द्र से बोले- 'केशव! महारानी सत्यभामा ने आपको मुझे दे दिया है। आप मेरे हो गये। अतः मेरे पीछे आइये और मैं जो आज्ञा दूँ, उसका पालन करते रहिये।'
'यही मुख्य पक्ष है।' श्रीकृष्णचन्द्र सविनय उठ खड़े हुए और देवर्षि के पीछे चल पड़े।
'आप मुझ पर अनुग्रह करके इनका निष्क्रय सूचित कर दें।' सत्यभामा जी ने दोनों हाथ जोड़कर देवर्षि से प्रार्थना की।
'देवि! मैं विरक्त हूँ। आप देखती ही हैं कि आपने जो धेनुएँ और स्वर्णराशि दान की हैं मुझे, वह भी मैंने औरों को दे दी।' देवर्षि ने गम्भीर होकर कहा- 'सृष्टि में जितना धन, वैभव है उसे देने में समर्थ पारिजात तरु आपने मुझे दान किया है। मैं उसे आपको लौटाता हूँ। आप इसे मेरा प्रसाद मानकर ग्रहण करें किन्तु जन्म-जन्म की साधना से भी जो नहीं मिलते उन श्रीकृष्ण को पाकर उन्हें दिया कैसे जा सकता है।'
अब सत्यभामा जी व्याकुल हुई। पूरे समाज में खलबली मची। अब तक तो सबने इसे एक औपचारिक कर्म माना था। किन्तु अब बात ने बहुत अद्भुत रूप धारण कर लिया।
'आपने ही कहा था कि भगवती उमा ने अपने स्वामी को इसी प्रकार आपको दान किया था।' सत्यभामा जी ने देवर्षि से कहा।
मैंने झूठ नहीं कहा था महारानी। महर्षि कश्यप को भी इसी प्रकार देवमाता अदिति ने मुझे दान किया था।'
देवर्षि नारद उसी गम्भीरता से कह रहे थे- 'मैंने भगवान चन्द्रचूड़ को तथा प्रजापति कश्यप को निष्क्रय लेकर लौटा दिया था। बहुत अल्प निष्क्रय- बछड़े सहित एक कपिला गौ तथा कृष्ण मृगचर्म, थोड़ा तिल, थोड़ा स्वर्ण मात्र।'
'मैं बछड़े सहित एक लक्ष कपिला गायें, सहस्र कृष्ण मृगचर्म, अपार तिल एवं स्वर्ण राशि दूँगी।' सत्यभामा जी ने उत्साहपूर्वक कहा।
'मैं इस सबका क्या करूँगा? नारद कहीं झोपड़ी बनाकर भी नहीं रहता, यह बात महारानी को अविदित नहीं है। आपने सहस्र धेनु, स्वर्ण राशि अभी दी थी मुझे।' देवर्षि अधिक गम्भीर हो गये थे- 'आपने एक प्रत्यक्ष तथ्य पर ही ध्यान नहीं दिया है।
'क्या?'
'जिसे दान मिलता है, वह उस प्राप्त वस्तु को बेच ही दे, इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। उस पर स्वत्व हो जाता है। वह उसे निष्क्रय लेने देने या न देने को स्वतन्त्र होता है।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 124
देवर्षि ने बतलाया- 'देवमाता अदिति ने जब महर्षि कश्यप को कल्पवृक्ष से बाँधा, यह दिव्यतरु अपने पूर्ण विस्तार में बना रहा था। भगवती पर्वताधिराज तनया जब अपने स्वामी का दान करने लगीं, कल्पवृक्ष का आकार भगवान नीलकण्ठ की ऊँचाई से किंचित न्यून था और इस दान के समय उसका आकार कितना नगण्य हो गया, यह सबने देखा है।'
'आप जो भी आदेश करें।' सत्यभामा जी बहुत कातर हो उठी थीं। अब सभी महारानियों को लगने लगा था कि अनुमति देकर उन्होंने बहुत बड़ी भूल कर ली है। अब क्या होगा? यह प्रश्न सबके हृदय को मथित कर रहा था।
'पारिजात सम्पूर्ण त्रिवर्ग दे सकता है। वह नगण्य है श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख।' देवर्षि स्वयं अपवर्ग बाँटते फिरते हैं। उन्हें मोक्ष देने की बात कहने की धृष्टता करें, इतना साहस किसमें। लेकिन उन्होंने एक मार्ग निकाल दिया- 'मैं श्रीकृष्ण को किसी मूल्य पर देना नहीं चाहता, किन्तु आपकी व्याकुलता मुझे विवश करती है। तुला में इन सर्वेश्वरेश्वर को बैठा दें और इनके समतौल द्रव्य मुझे देकर आप इन्हें प्राप्त कर लें।'
सत्यभामा जी तो उत्साह में आ गयीं और तत्काल महातुला मँगाने का आदेश दिया उन्होंने, किन्तु महारानी रुक्मिणी हताश दोनों कर मस्तक पर रखकर बैठ गयीं- 'हो गया! सर्वेश्वरेश्वर के समतौल द्रव्य कहाँ से आयेगा?'
स्वर्णतुला आरोपित हुई और उसके एक पलड़े में देवर्षि नारद की आज्ञा से श्रीकृष्णचन्द्र जा बैठे। देवी सत्यभामा ने दूसरी ओर स्वर्ण, रत्न और वे पूरे नहीं पड़े तो रजत तक रखवाना प्रारम्भ किया।
'ये श्रीकृष्णचन्द्र भावमय हैं।'
देवर्षि ने कहा- आप दूसरे पलड़े में जो द्रव्य संकल्प से रखेंगी वह अपना सम्पूर्ण भार वहाँ प्रदर्शित करेगा।'
'मेरा सम्पूर्ण द्रव्य! द्वारिका का सम्पूर्ण राज्यकोष।' सत्यभामा जी संकल्प करती गयीं। स्वजन, सम्बन्धीजन भी आगे आ गये। पांडवों ने, महाराज भीष्मक ने, नग्नजित ने और रुक्मी तक ने अपना सम्पूर्ण कोष संकल्पित कर दिया। जिनकी कन्याएँ अथवा बहिनें श्रीकृष्णचन्द्र के अन्तःपुर में थीं, उनमें से जो भी उपस्थित थे सबके लिए समान संकट था। सबके लिए सत्यभामा अपनी पुत्री या स्वसा ही थी किन्तु सबका सहयोग भी व्यर्थ था। श्रीकृष्ण जिस पलड़े में जमे बैठे थे वह भूमि से हिला तक नहीं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
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