द्वारिकाधीश 11

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 110

श्रीकृष्णचन्द्र तो अपने सखा में निमग्न थे। उन्हें भी दूसरा कुछ स्मरण नहीं था उस समय। महारानी रुक्मिणी सेवा में लगी थीं। यह सेवा का सुअवसर पुनः कहाँ मिलना था। ऐसी सेवा भी क्या सेविकाओं पर छोड़ी जाती है।

सुदामा ने भोजन किया, विश्राम किया और तब श्रीकृष्णचन्द्र उनके समीप आकर सटकर बैठ गये। कभी उनके चरण दबाने लगते, कभी कर ले लेते करों में और पूछने लगे- 'मित्र! कभी गुरुगृह का स्मरण करते हो? कितना स्नेह था हम पर गुरुदेव का। कितना पवित्र, कितना धन्य जीवन है वह। गुरुसेवा महामंगलमयी है।'

'तुम स्वयं श्रुति के प्रतिपाद्य! गुरुगृह में तुम्हारा निवास तो हम सबको सौभाग्य देने के लिए था।' सुदामा गद्गद कण्ठ बोले।

'तुम सहज विरक्त थे। समावर्तन के पश्चात तुमने विवाह किया या नहीं?' श्रीकृष्ण को सखा के मुख से अपनी प्रशंसा तो सुननी नहीं थीं। उन्होंने प्रसंगान्तर कर दिया- 'तुम्हारे जैसे शास्त्रज्ञ, संयमी के उपयुक्त पत्नी मिल गयी तुम्हें?'

सुदामा ने सिर झुका लिया। यह पर्याप्त था समझने के लिए कि वे गृहस्थ हो गये हैं। श्रीकृष्णचन्द्र जानते थे कि सुदामा कैसे निस्पृह हैं। वे सोच रहे थे- 'ये अपरिग्रही, निष्काम, किन्तु इनकी पतिव्रता ने इन्हें भेजा तो उस साध्वी का संकल्प पूरा होना चाहिए’ यह प्रसंग तो जान-बूझकर प्रयोजनानुसार उठाया गया था।

'भाभी ने मुझे कुछ उपहार दिया होगा। क्या लाये हो तुम मेरे लिए?' श्रीद्वारिकाधीश ने बहुत उत्सुकता से पूछा। सुदामा संकोच से सिकुड़कर बैठ गये। द्वारिका का यह वैभव, ये त्रिभुवन के स्वामी श्रीकृष्ण। इनके सम्मुख रखने भी योग्य हैं वे चिउड़े कि सुदामा उन्हें दिखा सकें।

'तुम संकोच मत करो। जानता हूँ कि सदा से संकोची हो। प्रेम से अर्पित दूर्वादल भी मुझे प्रिय लगता है। मैं उसे भी प्रसन्नता से खा लेता हूँ।'
श्रीकृष्ण ने कहा- 'प्रीति न हो तो पदार्थ की श्रेष्ठता मुझे प्रसन्न नहीं कर पाती।'

सच बात है। स्वयं रमानाथ को कोई भी क्या देगा; किन्तु वे भाव के भूखे, उन्हें पदार्थ नहीं, प्रीति चाहिए। लेकिन सुदामा कैसे साहस जुटावें इन परम सुकुमार सखा को वे चिउड़े, वैसा कदन्न अर्पित करने का।

'यह तुम कक्ष में क्या दबाये हो?' श्रीकृष्ण ने देख लिया कि सुदामा सिकुड़े जा रहे हैं तो हाथ बढ़ाकर उनके कक्ष में दबी पोटली खींच ली। अब तक पूरे समय सुदामा उसे सप्रयत्न छिपाये थे, किन्तु उनके पास उत्तरीय भी तो नहीं था कि पोटली छिपी रहती। वह जीर्ण वस्त्र खींचते ही फट गया और चिउड़े भूमि पर बिखर पड़े। वे चिउड़े-अनेक घरों से माँगे, कई रंगों के , मोटे-पतले, छोटे-बड़े, श्वेत-लाल, सुदामा की पत्नी ने मानो अपनी दरिद्रता की कथा उनके रूप में लिख भेजी थी। उसके पास एक से दो मुट्ठी चिउड़े भी उपहार देने को नहीं हैं, यह कथा थी उन चिउड़ों में।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 111

पाद-पीठ से भी नीचे, भूमि में जहाँ सेविकाओं के पैर पड़ते हैं बिखरे वे चिउड़े श्रीकृष्ण दोनों हाथों से इस प्रकार समेटने लगे जैसे जन्म-जन्म का क्षुधातुर अन्नकण समेटता हो। पूरे चिउड़े समेटने का धैर्य किसमें था। एक ही मुट्ठी भरी और- 'ये चिउड़े मुझ विश्वरूप को परितृप्त करें।' कहकर मुख में डाल लिया।

'कितने मधुर कितने स्वादिष्ट...तुम यह अमृत छिपाये बैठे थे?' बहुत शीघ्रता से मुख चला रहे थे और हाथ चिउड़े समेटने में लगे थे। दूसरी मुट्ठी भरी और उठाया तो रुक्मिणी जी ने हाथ पकड़ लिया।

'क्यों?' श्रीकृष्ण ने पट्ट-महिषी की ओर देखा।

'पुरुष को, जीव को इस लोक और परलोक में भी जितनी सम्पत्ति, जितना ऐश्वर्य मिल सकता है उतना तो आप इन्हें दे चुके हैं एक मुट्ठी चिउड़ा चबाकर।'
देवी रुक्मिणी ने ये शब्द अपने मुख से नहीं कहा, किन्तु उनके आराध्य मन की भाषा भी तो जानते हैं- 'आपके संतुष्ट हो जाने पर दुर्लभ क्या रह जाता है जिसे आप यह दूसरी मुट्ठी देने वाले हैं?'

इतने वर्षों के पश्चात आपके सखा पधारे और उनका अमृतोपहार उनका प्रसाद मुझे तथा मेरी बहिनों को क्या आप एक-एक दाना भी देना नहीं चाहते, मुख से महारानी ने उलाहना दिया- 'हम सबको तो अब कठिनाई से एक-एक दाना मिल पायेगा और आप उसे भी अकेले ही खा लेने को उद्यत हैं।'

'ओह, ये इतने स्वादिष्ट हैं कि मुझे तुम लोगों का स्मरण ही नहीं रहा।' श्रीकृष्ण झूठ नहीं बोल रहे थे। उनको जो स्वाद प्रिय है- प्रेम का स्वाद-वह जितना इन चिउड़ों में है, अन्यत्र कहाँ आवेगा। उन्होंने भरी मुट्ठी देवी रुक्मिणी को दे दी। द्वारिका की उन महापट्ट-महिषी ने अपने अंचल में एक-एक दाना सावधानी से समेट लिया और सिर से लगाया उन्हें।

सुदामा द्वारिका में केवल एक रात्रि रहे। उनके सखा का अनुरोध, प्रत्येक महारानी का वे एक दिन अतिथ्य ग्रहण करें किन्तु जब सुदामा ने श्रीकृष्ण की पत्नियों की संख्या सुनी, हाथ जोड़े। उन्हें प्रातःकाल ही प्रस्थान कर देना उचित लगा। यदि वे और रुकते हैं, उनकी ब्राह्मणी प्रतीक्षा करते-करते मर जायेगी। यहाँ वे किस महारानी के स्वागत की उपेक्षा करेंगे? क्या ठिकाना है द्वारिका के दूसरे लोग भी श्रीद्वारिकाधीश के सखा का आतिथ्य करने का आग्रह करने लगें। यह क्रम प्रारम्भ हो जाये तो इस जीवन में तो समाप्त होने वाला नहीं है।

श्रीकृष्णचन्द्र ने भी बहुत आग्रह नहीं किया। सुदामा जैसे आये थे वैसे ही, अपनी फटी धोती को पहिनकर विदा हुए। महारानी ने उनके पदों पर मस्तक रखा। श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका से बाहर तक पैदल आये। उन्हें पहुँचाते और अंकमाल देते समय उनके विशाल लोचन झरने लगे थे किन्तु सुदामा को एक मुट्ठी अन्न, एक वस्त्र तक नहीं मिला था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 112

कितने उदार! कितने ब्रह्मण्य! कितने मित्र-वत्सल हैं ये।' सुदामा को श्रीकृष्ण का स्मरण प्रेम-विभोर किये था। कहाँ ये द्वारिकाधीश, कहाँ इनका वैभव-सुरेन्द्र भी इनके पाद-पीठ से नीचे ही मुकुट झुकाते हैं और मुझ कंगाल से भुजा भरकर मिले। मेरे चरण धोये स्वयं। अपनी शैय्या पर मुझे सुलाया और स्वयं महारानी मुझे वायु करती श्रान्त होती रहीं।

सुदामा के पद चल रहे थे; किन्तु उन्हें पता नहीं था कि वे कैसे किधर जा रहे हैं। उनके नेत्रों से अश्रुधारा चल रही थी- 'मेरे लाये वे चिउड़े, मुख में भी डालने योग्य नहीं थे वे। उन्हें हाथ में लेते भी इनके पद्म-पाणि पीड़ित होते होंगे; किन्तु कितने प्रेम से खाये इन्होंने। इनकी पट्ट-महिषी ने कितने आग्रह से उन्हें लिया।'

'कितने स्वजन-वत्सल, कितने सावधान हैं श्रीकृष्ण।' सुदामा को जब स्मरण आया कि उन्हें कुछ नहीं दिया गया तो वे और अधिक भाव-विभोर हुए- 'मेरी ब्राह्मणी तो मूर्ख है। वह नहीं समझती कि अर्थ पतन का हेतु होता है, किन्तु ये मेरे सच्चे मित्र-इन्होंने समझ लिया कि यदि निर्धन को धन दे दिया गया तो वह भोग में लग जायेगा। मदोन्मत्त होकर अनर्थ करेगा। संयम, भजन छोड़ बैठेगा। स्वयं सखा को अनर्थ की ओर कैसे धक्का देते वे। अन्यथा वे तो राशि-राशि स्वर्णरत्न, गायें ब्राह्मणों को दान कर ही रहे थे। मुझे अपना-सर्वथा अपना माना उन्होंने। मैं कोई दूसरा था कि मुझे दान देते वे।'

सुदामा को पता ही नहीं लगा कि वे कैसे चलते गये और कितना मार्ग उन्होंने पार किया। उन्हें यह भी ध्यान नहीं आया कि उनको क्षुधा-पिपासा क्यों नहीं लग रही है और उनका शरीर इतना मार्ग चलकर श्रान्त क्यों नहीं हो रहा है। द्वारिका में और मार्ग में उनके मन-प्राण पर केवल श्रीकृष्ण छाये रहे और अब तो वे घनश्याम सुदामा के पूरे जीवन पर छा चुके। सुदामा का वह देह जो कंकालप्राय: था, द्वारिका का आतिथ्य ग्रहण करके रात्रि में ही सुन्दर, सुपुष्ट, तरुण हो गया है, यह भी सुदामा को कैसे पता लगता।

'मैं क्या फिर द्वारिका लौट आया?' सुदामा चौंके जब उनके सम्मुख द्वारिका के समान ही गगनचुम्बी दिव्य भवनों से पूर्ण महानगर दीख पड़ा। वे स्तव्ध खड़े रह गये।

'द्वारिका तो नहीं है।' बहुत ध्यान देने पर कुछ विलक्षणता लगी- 'किन्तु द्वारिका के मध्य बने श्रीकृष्णचन्द्र की रानियों के भवनों के ठीक-ठीक समान भवन। किसने उन द्वारिकाधीश के भवनों की अनुकृति की? यह नगर कौन-सा? कहाँ मैं आ गया मार्ग भटककर?'

समुद्र समीप है। उसका गर्जन सुन पड़ता है, किन्तु सेतु से नहीं आना पड़ा। द्वारिका नहीं तो यह स्थान कौन-सा? सुदामा नगर के महाद्वार पर चकित खड़े देखते रहे।

इतने में शंखध्वनि तथा वाद्यों के साथ नगर से स्त्री-पुरुषों का समूह निकला। 'श्रीकृष्ण सखा की जय। सुदामा जी की जय!' का महाघोष करता और उसने सुदामा को पुष्पमालाओं से लाद दिया। उनके ऊपर पुष्प, दूर्वा, लाजा, कुमकुम आदि की वर्षा होने लगी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 113

यह क्या माया है?' सुदामा चकित थे। कुछ डरे भी। एक लक्ष्मी के समान सुन्दरी बहुत-सी देवांगनाओं से घिरी चलती आई और उनकी आरती करने लगी। सुदामा भला क्यों महिलाओं की ओर देखते। उन्होंने सिर झुका रखा था। कठिनाई से पूछा- 'देवि, आप?'

'आप अपनी दासी को भी नहीं पहिचान रहे हैं?' वह देवी किंचित हास्यपूर्वक बोली।

'यह तो अपनी ब्राह्मणी का स्वर है।' सुदामा ने दृष्टि उठायी और देखते रह गये। पत्नी ही थी उनकी; किन्तु तरुणी, अत्यन्त सुन्दरी और नख-शिख रत्नाभरण भूषिता।

'आप भीतर पधारें।' पत्नी ने प्रार्थना की- 'आपके सखा बहुत विनोदी हैं, यह स्पष्ट दीखता है; किन्तु आप भूलते क्यों हैं कि वे साक्षात श्रीपति हैं और परमोदार हैं।'

सुदामा भवन में आये। स्वागत-सत्कार तो होना ही था। पत्नी ने पूछा एकान्त में- 'एक बात समझ में नहीं आती। सहसा रात्रि में ही यहाँ सब हो गया। जिनके संकल्प से अनन्त अनन्त ब्रह्माण्ड बन जाते हैं, उन निखिल ब्रह्माण्ड नायक के लिए यह अद्भुत बात नहीं है, किन्तु यहाँ भवनों की ही नहीं, सब पदार्थों की संख्या है, एक ही संख्या सब सोलह सहस्र एक सौ नौ।'

'ओह श्रीकृष्ण की महारानियाँ हैं सोलह सहस्र एक सौ आठ और एक वे स्वयं।' सुदामा को ठीक लगा था। उनके चिउड़े का प्रसाद लिया जाय और उन ब्राह्मण को दक्षिणा न दी जाय, यह कैसे संभव था। अत्यल्प दक्षिणा सबने एक-एक पदार्थ ही तो दिया था।

'कितने संकोची हैं वे परमोदार। सम्मुख कुछ नहीं कहा। सखा को संकोच हो, उसे उपकृत होना पड़े, यह कुछ नहीं और उनका दान-यह अपना दान।' सुदामा सदा-सदा के लिए श्रीकृष्ण प्राण हो चुके थे। उन्हें भला भोग क्या प्रलुब्ध करते हैं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 114

कल्पान्त में जैसा सूर्यग्रहण पड़ा करता है, वैसा सूर्यग्रहण सम्पूर्ण खग्रास- जिसमें दिन में रात्रि के समान अन्धकार हो जाता है और तारे दीखने लगते है- ऐसा सूर्यग्रहण पड़ने वाला था।

ऐसा सूर्यग्रहण जीवन में दो बार तो नहीं आने वाला है और सूर्यग्रहण में स्नान का तीर्थ है कुरुक्षेत्र का समन्तक पच्चक तीर्थ। भगवान परशुराम ने जहाँ निःक्षत्रिय पृथ्वी करने के पश्चात यज्ञ किया प्रायश्चित्त स्वरूप। भारत में सभी प्रदेशों के लोग, सभी वर्णों के लोग, नरेश और भिक्षुक सब पहिले से ही ग्रहण-स्नान के लिए कुरुक्षेत्र पहुँचने लगे। ऐसे पर्वों पर उपयुक्त स्थान पाने के लिए पहिले पहुँचना आवश्यक होता है।

नरेशों तथा सम्पन्न लोगों का एक सुविधा रहती है। उनके तीर्थ-पुरोहित[1] पहिले से ही यजमानों के ठहरने के लिए उपयुक्त व्यवस्था कर रखते हैं। कुरुक्षेत्र में यह व्यवस्था अब भी होती है। उस समय तो बहुत व्यापक हुई थी, क्योंकि सभी राजाओं की ससैन्य-सपरिवार आना था।

वैशाख मास की अमावस्या को यह ग्रहण था। तीर्थ पुरोहितों में जो अधिक प्रभावशाली थे, उन्होंने सघन वृक्षों के आस पास की भूमि अपने उत्तम यजमानों के लिए सुरक्षित कर रखी थी।

द्वारिका से महाराज उग्रसेन, वसुदेव जी, अक्रूर प्रभृति सभी यदुवृद्ध सपरिवार चले। श्रीकृष्ण बलराम अपनी महारानियों, पुत्रों, पौत्रों आदि के साथ रथों पर बैठे। महासेनापति अनाधृष्ट, सेनापति कृतवर्मा, सात्यकि और अनिरुद्ध के नेतृत्व में श्रीद्वारिकाधीश का यह पूरा समाज- यादव शूर सैनिकों के संरक्षण में चला।

बहुत पहिले पहुँचने की श्रीकृष्णचन्द्र को शीघ्रता नहीं थी। उनके तीर्थ पुरोहित ने द्वारिका के सम्पूर्ण समाज के लिए उत्तम स्थान की उपयुक्त व्यवस्था कर रखी थी। वे लोग ग्रहण-सूतक प्रारम्भ होने के दिन ही पहुँचे। ऐसे पहुँचे कि आवास की व्यवस्था की और ग्रहण-स्नान को निकल पड़े।

ग्रहण का प्रथम स्नान करके सब ग्रहण-कालीन जप, पाठ, दान में लग गये। वृक्षों के नीचे छाया में सबके परिवार पृथक-पृथक उतरे और सब पूरे उत्साह से दान-यज्ञादि करने में लगे थे। वह कोसों तक का क्षेत्र पाठ, पूजन, यज्ञ, ध्यान, दान में लगे लोगों से भरा था। असंख्य मानव-समुदाय-बहुत भारी भीड़ और संघ धर्मकृत्यों में लगे सात्त्विक। ऐसा दृश्य, ऐसा वातावरण केवल पृथ्वी पर और वह भी केवल भारतवर्ष में देखा जा सकता है। वह द्वापरान्त था- उस समय ऐसे अवसर पर तस्कर भी निष्पाप होकर पुण्य कर्म में ही लगते थे।

ग्रहण का मध्य स्नान और अन्त में ग्रहण-मोक्ष होने पर अन्तिम स्नान करके सब द्विजातियों ने यज्ञोपवीत परिवर्तन किया। अब वास्तविक यज्ञ-दान तथा ब्राह्मणों को भोजन कराने का अवसर आया क्योंकि ग्रहण-काल में तो केवल अन्त्यज ही दान लिया करते हैं।

ऋषि - मुनि - तपस्वीगण आये थे। प्रायः सभी प्रसिद्ध महर्षि पधारे थे। श्रीकृष्णचन्द्र का आमन्त्रण पाकर भला कौन नहीं आता उनके शिविर में। जो वीतराग, अपरिग्रही थे, वे भी श्रीकृष्ण का दान अपनी शुद्धि में सहायक मानते थे, दूसरे जो प्रतिग्रह ले सकते थे, वे तो आने ही।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 115

दान में प्रख्यात मगधराज जरासन्ध, महादानी कर्ण किन्तु जहाँ श्रीकृष्णचन्द्र की महारानियाँ दान कर रही हों, दूसरों की चर्चा कौन करे और दूसरे के पास कौन जाय प्रतिग्रह लेने। दान में अकल्पित द्रव्यराशि और वह इतनी पावन की प्रतिग्रहकर्ता भी पवित्र हो जाय- यह लाभ किसी को कहाँ मिलना था। यादव शिविर में सबका सबके स्नान-दानादि समस्त पुण्यों का एक ही प्रार्थ्य- 'हमारी प्रीति बनी रहे श्रीकृष्ण में।' इतना पावन संकल्प, इतना भगवतकाम धर्म तो स्वयं धर्म को भी कृतार्थ कर देता है।

सबको ही श्रीद्वारिकाधीश के दर्शन करने थे। श्रीकृष्णचन्द्र की रानियों के पिता, भाई आये थे और उनमें से प्रत्येक चाहता था कि श्रीकृष्ण की सभी रानियाँ- सभी पुत्र-पौत्र अपनी वधुओं के साथ उनका सत्कार स्वीकार करें। उनकी सभी तो पुत्रियाँ थीं। इस स्वागत करने वालों में तो दुर्योधन, रुक्मी ही नहीं, शिशुपाल और दन्तवक्र तक किसी से पीछे नहीं रहना चाहते थे। उनकी माताएँ आदि अपने भाई के पुत्र-पौत्रों तथा उनकी वधुओं का स्वागत करने को उत्सुक थीं तो यह उनका स्वत्व नहीं है, कोई कैसे कहेगा। सबको इस समय द्वारिका से अपना सम्बन्ध ही स्मरण आ रहा था। चकित तो कर दिया मगधराज ने जब उन्होंने महाराज उग्रसेन से सीधे प्रार्थना की- 'आपकी पुत्र-वधुओं का पिता होने के कारण आपके पूरे समाज का कम से कम एक समय सत्कार का सुअवसर मुझे मिलना चाहिए।' द्वेष का कल्मष कोई तीर्थ में क्यों पाले। इस पुण्यक्षेत्र के पुरुषोत्तम के दर्शन, मिलन सत्कार का सौभाग्य कोई क्यों छोड़ दें और श्रीकृष्णचन्द्र के लिए सृष्टि में कोई भी पराया कहाँ है। वे किसी के भी प्रेमाग्रह को अस्वीकार करना कहाँ जानते है और यहाँ तो सब अपना स्वत्व- अपने सम्बन्ध का स्वत्व लेकर आग्रह करते आ रहे थे। बहुत नरेशों की कन्याएँ थीं द्वारिका के अन्तःपुरों में। श्रीकृष्णचन्द्र को, उनके पुत्र-पौत्रों को जिनकी पुत्रियाँ विवाही गयी थीं, वे सत्कार करने, उपहार देने का यह अवसर क्यों छोड़ दें। यादवगण भी अपने सम्बन्धियों से मिलने और उनका सत्कार करने में लगे थे लेकिन श्रीकृष्णचन्द्र को अग्रज के साथ अवकाश नहीं था। उनसे मिलने ऋषि-मुनि तथा नरेशों का, लोक सम्मानित पुरुषों का समुदाय निरन्तर आ रहा था। पितामाह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विदुर जी, देवी गान्धारी के साथ धृतराष्ट्र, पत्नियों तथा माता के साथ पांडव तो अपने ही थे। वे ऐसे थे कि द्वारिका का शिविर उनका अपना था। द्रौपदी जी ने तो श्रीकृष्णचन्द्र के अन्तःपुर में ही निवास बना लिया। वे सुभद्रा के साथ श्रीकृष्ण-महिषियों से परिचय करने में, उनके विवाह की, पुत्र-पौत्रों की कथा सुनने में व्यस्त हो गयीं।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 116

श्रीकृष्ण- सर्वत्र श्रीकृष्ण की चर्चा। जो तरुछाया से भी दूर दिगम्बर रहने वाले अवधूत हैं, तपस्वी हैं, ऋषि या मुनि हैं वे तो श्रीकृष्ण के सदा के स्वजन- स्तुतिकर्ता हैं ही। ब्राह्मणों का उन ब्रह्मण्यदेव के अतिरिक्त दूसरा कौन स्तोतव्य मिलता। स्तुति-प्रशंसा तो उन श्रीद्वारिकाधीश की शत्रु नरेशों के शिविर में- उनके अन्तःपुर तक में चल रही थी।

श्रीकृष्ण का सौन्दर्य त्रिभुवन में दुर्लभ है तो उनका शील, उनका विनय, उनकी उदारता का भी दूसरा कोई उदाहरण कहीं नहीं। शत्रु भी स्वीकार करते हैं- 'श्रीकृष्ण अवसर ही नहीं देते कि उनके उपहार, औदार्यकर कोई उत्तर दिया जा सके। वे सत्कार भी ऐसे ढंग से करते हैं जैसे वे स्वयं उपकृत हो रहे हों।'

श्रीकृष्ण के गुणगान से पवित्र हो रहा था जनमानस। जो भी द्वारिका के शिविर में गया- ऐसा कौन भाग्यहीन होगा जो उन जनार्दन के दर्शनार्थ न जाय- वह उस शिविर से बिना सत्कार-उपहार पाये निकल आवे, ऐसा संभव नहीं था।
सम्पूर्ण मेले पर, आगत समस्त लोकमानस पर श्रीकृष्ण छाये थे। मन में उनका चिन्तन, वाणी से उनका स्तवन, पास में उनके उपहार और हृदय में उनके श्रीचरणों में पुनः प्रणिपात करने की उत्कण्ठा- प्रायः एक-सी दशा थी सब यात्रियों की।

‘कनूँ’ अग्रज ने समीप आकर सम्बोधन किया तो श्रीकृष्ण चौंक गये। जबसे ब्रज छूटा, भाई ने भी यह स्नेहपूर्ण सम्बोधन त्याग ही दिया था और वे भी तो अब अग्रज को 'आर्य' ही कहते थे।

'बाबा आये हैं।' श्रीबलराम छोटे भाई से सटकर बैठते हुए बोले- 'मैया हैं, सखा हैं और सब व्रजजन हैं। श्रीकीर्तिकुमारी भी हैं, यह संकोच के कारण नहीं कहा गया।

'कहाँ हैं दादा!' श्रीकृष्ण ऐसे उठे जैसे शिविर के भीतर आ गये हों वे सब लोग, और उनसे दौड़कर मिलना है।

'मैंने दारुक को कह दिया था। तुम्हारा रथ बाहर प्रस्तुत है।' बड़े भाई को पता है कि यह समाचार पाकर उनके अनुज की क्या अवस्था होगी। दोनों भाई एक ही रथ में बैठने चल पड़े।

श्रीव्रजराज आये कुरुक्षेत्र और आते ही उन्होंने पता लगाया कि द्वारिका से कोई आया है या नहीं। व्रज में तो सबके प्राण अटके हैं श्रीकृष्ण में। श्रीकृष्णचन्द्र मिलेंगे इस अवसर पर, ऐसी आशा न होती, ग्रहण-स्नान का पुण्य प्राप्त करने की वहाँ किसको पड़ी थी।

'सब आये हैं किन्तु अभी तो सब लगे होंगे स्नान-दान में।' तीर्थ-पुरोहित की बात ठीक थी; इतने बड़े मेले में स्नान के समय तो किसी को पाना कठिन था। व्रज के लोगों ने भी ग्रहण-स्नान किया, जप दान किया और भरपूर दान दिया। उन सब की एक ही कामना- 'उनके राम-श्याम सदा सकुशल, सानन्द रहें।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 117

लोग स्नान-यज्ञादि से निवृत हुए और व्रजपति के छकड़े चल पड़े। मेले की अपार भीड़- छकड़ों को स्वभावतः बहुत मन्द गति से चलना पड़ा। हृदय की उत्कण्ठा का साथ तो वे तब भी नहीं दे पाते जब पूरी गति से दौड़ते हैं।

'श्रीव्रजराज आये।' द्वारिका के शिविर में उत्साह की लहर फैल गयी। एक साथ सब उठ खड़े हुए। सब जैसे थे वैसे ही दौड़ पड़े दूर से आते छकड़े दीख गये थे और ये ऐरावत के बच्चों के समान व्रज के छकड़ों में जुते वृषभ- ये तो पूरे मेले के गजों से भी अधिक आकर्षक लगे थे लोगों को। जिधर से यह छकड़ों की पंक्ति निकली- राजा भी चकित रह गये थे व्रजपति का वैभव देखकर।

'श्रीव्रजराज आये।' श्रीकृष्णचन्द्र बड़े भाई के साथ रथ पर बैठने ही जा रहे थे कि उन्होंने कोलाहल सुना और दोनों भाई पैदल ही दौड़ पड़े।

'बाबा!' दोनों एक साथ दौड़े और छकड़े से उतरते उतरते बाबा के चरणों में लिपट गये। श्रीनन्दराय ने दोनों को उठाकर छाती से लिपटा लिया। दोनों के अश्रु से बाबा का वक्ष भीगता रहा और दोनों की अलकें बाबा के नेत्र-जल से आर्द्र हो गयीं।

देर तक कोई एक शब्द नहीं बोल सका। बाबा ने ही अपने को सम्हाला।
बोले- 'तुम्हारी मैया आयी है। सखा हैं तुम्हारे, और बरसाने का समाज भी है।'

'मैया!' दोनों भाइयों ने पूरी बात भी नहीं सुनी। दोनों मैया के छड़के की ओर दौड़ गये।

अब श्रीनन्दराय जी से मिलने महाराज उग्रसेन बढ़े। व्रजपति भेंट दें- प्रणति करें- इससे पूर्व महाराज ने अंक में भर लिया- 'आपका उग्रसेन जन्म-जन्म तक ऋणी रहेगा। आप इसे लज्जित मत करें।'

श्रीवसुदेव जी दोनों भुजाएँ फैलाकर मिले व्रजेश्वर से और वह मिलन- श्रीराम और भरत के मिलन का ही स्मरण किया जा सकता है। उद्धव ने आगे आकर चरण-वन्दना की। बाबा ने उन्हें अंक से लगा लिया।

उद्धव अन्ततः मन्त्री हैं श्रीद्वारिकेश के। उन्होंने तत्काल व्यवस्था की- छकड़े द्वारिका के शिविर के समीप ही खड़े किये गये। व्रज का शिविर व्यवस्थित करने में उद्धव लग गये और समस्त व्रज के लोगों की समुचित व्यवस्था- वे सबसे परिचित थे। सबके सत्कार का भार स्वयं उन्होंने अपने ऊपर ले लिया।

मैया ने राम-श्याम को अंक में बैठा लिया एक साथ, और भूल ही गयी कि ये बहुत वर्ष के बाद मिले हैं। उसके वक्ष का अमृत झरने लगा था और वह उसी समय दोनों को नवनीत स्व-कर से खिलाने लगी थी। वह नन्दग्राम के अपने सदन में नहीं है, यह उसे सर्वथा स्मरण नहीं।

सबको मिलना है। राम-श्याम एक साथ सबसे मिल सकते थे। गोपों में वृद्धों को, वृद्धाओं को, सखाओं को और गोपियों को भी लगा कि दोनों भाई उनसे सबसे पहिले मिले। नन्दग्राम और बरसाने के बड़ों का वात्सल्य, वयस्कों का सख्य-वर्णन कहाँ सम्भव है। दाऊजी सलज्ज प्रणति मिली गोपियों की और वे सस्नेह आशीर्वाद देकर अपने यूथ में चले गये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 118

सब इस एक साथ मिलन में समर्थ तो नहीं थे। द्वारिका के सब समुत्सुक थे व्रज के लोगों से मिलने के लिए और व्रज के भी सब श्रीकृष्णचन्द्र के स्वजनों पुत्र पौत्र परिवार से मिलने को कहाँ कम समुत्सुक थे। उद्धव ने अनुरोध करके व्रज के लोगों को आवास में पहुँचाया। व्रज और द्वारिका का शिविर,दो कहाँ रह गया। श्रीद्वारिकाधीश दूसरे सब नरेशों के लिए दुर्लभ उनके चरणों में प्रणति का सुअवसर पाना भी लोकपालों के लिए सौभाग्य किन्तु व्रज के तो जन-जन के वे अपने। व्रज के प्रत्येक की व्यवस्था में प्रीति-सम्पादन में व्यस्त। व्रज के शिविर में सभी को लगता है कि श्रीकृष्ण उनके श्याम सबको भूलकर उसी के साथ-उसी का सत्कार करने और उसी का स्नेह स्वीकार करने में लग गये हैं। माता रोहिणी मिलीं श्री व्रजेश्वरी से और देर तक दोनों लिपटी, रुदन करती रहीं। माता रोहिणी ने कहा- 'व्रजरानी आपका स्नेह, आपका सौहार्द कोई त्रिभुवन का ऐश्वर्य पाकर भी भूल सकता है। ये राम-श्याम तो आपके ही हैं। नेत्रों के पलक जैसे नेत्रों की रक्षा करते हैं, इतनी तत्परता से, इतने वात्सल्य से आपने इनका पोषण-पालन किया और इनके हृदय में भी आप ही हो, यह मुझसे अधिक कोई कैसे जानेगा’
‘बहिन तुम यह परायों के समान प्रशंसा करने लगी हो’ मैया यशोदा रो पड़ी और माता रोहिणी का रुदन भी कहाँ रुक पाता है।

‘तुम सबने तो मुझे अकृतज्ञ ही माना होगा’ श्रीकृष्ण गोपियों के साथ एकान्त में घिरकर बैठे और बोले- 'शत्रुओं का सामना करने में लगने को विवश हुआ और अब तक भी इस व्यस्तता से कहाँ अवकाश मिला।'

जैसे आँधी में तृण, मेघों के टुकड़े रुई, घूलि कण मिलते और बिछुड़ते रहते हैं, ऐसे ही कर्मवश शरीरधारी सर्वेश्वर के विधान से मिलते और बिछुड़ते हैं। यह बात भी कही गयी किन्तु प्रभावहीन थी। व्रज की ये प्रेममूर्तियाँ, इनसे अपने को छिपाने का कोई प्रयास सफल नहीं हो सकता था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश जी
भाग-119

अतः श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा- 'मुझ में भक्ति प्राणी को अमृतत्त्व देने वाली होती है और तुम सब तो मुझसे अभिन्न हो- मेरा हृदय हो। मैं तुमसे दूर हूँ, यह कल्पना अज्ञजनों के ही अन्तर में उठेगी। तुम मेरे रोम-रोम में बसी हो और मैं तुममें हूँ। सब प्राणि-पदार्थों के रूप में, उनके बाहर और भीतर भी मैं ही हूँ और सम्पूर्ण जगत मुझमें है- यह जो तुम्हारी दृष्टि है, यह प्रेम का भ्रम नहीं है, यह आवेश नहीं है, यही सत्य है। यही तथ्य है।'

'तुम प्रसन्न रहो। जहाँ रहो, आनन्द से रहो!' गोपियों का एक ही स्वर- 'तुम्हारे ये श्रीचरण हमारे हृदय में बने रहें। इनमें हमारी प्रीति कभी कम न हो, इतना ही हम चाहती हैं।'

श्रीकृष्ण गोपियों से कभी दूर हुए हैं? उन प्रेम की पावन प्रतिमाओं के हृदय में उनके श्रीचरण प्रेम-पाश से नित्य आवद्ध। इस नित्य-शाश्वत मिलन में वियोग केवल रसोद्दीपक बनकर ही तो आता है। बाधा या व्याघात कहाँ है इस प्रेमसागर में।

सखाओं को लगता ही नहीं कि उनके दाऊ-कन्हाई उनसे कभी पृथक भी हुए हैं। वे सदा के साथी- द्वारिका के समाज में, ऋषियों और राजाओं के मध्य उन्हें संकोच होता है किन्तु उनके ये दोनों सखा तो उनके मध्य ही रहते हैं।

माता रोहिणी मैया को और गोप-वृद्धाओं को द्वारिका के शिविर के अन्तःपुर में ले गयीं। देवकी जी, तथा वसुदेव जी की अन्य पत्नियों से वे मिलीं। उन्हें श्रीबलराम - श्रीकृष्ण रानियों ने- पुत्रवधुओं ने प्रणाम किया और सबको वे आशीर्वाद के साथ वस्त्र-आभूषण दें आयीं। द्वारिका की महारानियों के लिए भी अद्भुत अमूल्य लगें ऐसे उपहार और व्रज का स्नेहोपहार तो सदा ही अमूल्य है।

श्रीद्वारिकाधीश सदा व्रज की, व्रजवासियों की, गोपियों की प्रशंसा करते रहे हैं। गोपियों के सौन्दर्य की, प्रेम की, शील की तो स्तुति करते नहीं थकते। कैसी होंगी गोपियाँ? कैसी होंगी उनकी अधीश्वरी श्रीराधा? महारानियों के मन में यह उत्कण्ठा सदा रही है। महारानी रुक्मिणी जी को लेकर सब गयीं व्रज के शिविर में।

मैया यशोदा के उपहारों ने पहिले ही चकित कर दिया था और व्रज की ये सौन्दर्य मूर्तियाँ- श्रीराधा शील की विनय की मूर्ति। वे अत्यन्त विनय से, सम्मान देने उठ गयी थीं। उनका सहजशील- महारानियों को रुक्मिणी जी तथा सत्यभामा जी को भी लगा कि वे यहाँ किसी गोपी की दासी के समकक्ष भी तो नहीं लगतीं। साम्राज्ञी- महासाम्राज्ञी श्रीराधा- उनके सम्मुख तो लगता है कि अपनी कहीं सत्ता ही नहीं और वे इतना सम्मान देती हैं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 120

‘ये द्वारिकाधीश व्रज को छोड़कर द्वारिका में हैं, आश्चर्य तो यही है’ महारानियाँ सत्कृत होकर व्रज के शिविर में लौटीं तो उन सबका हृदय इस ऊहापोह में था। उनके स्वामी व्रज की प्रशंसा में विभोर होते हैं, यह तो अब सबको स्वाभाविक लगता था।

व्रज और द्वारिका के शिविर नाम मात्रा को दो रह गये थे। दोनों ओर सीमातीत प्रीति थी। दोनों ओर एक दूसरे को अधिकाधिक सत्कार देने की उत्कण्ठा थी। नित्य नया स्वागत, नित्य नवीन उल्लास, नित्य नवीन मिलन, सुख- आनन्द का पारावार उमड़ पड़ा था प्रत्येक के लिए।

महारानी रुक्मिणी जी बहुत आग्रह करके श्रीराधा को अपने साथ अपने शिविर में ले आयीं। अच्छा हुआ कि ललिता जी साथ आ गयीं, अन्यथा इन कीर्तिकुमारी को सम्हालना सरल नहीं है, इसे महारानी शीघ्र समझ गयीं। ये तो तनिक-सा निमित मिलते ही शरीर-संसार सब भूलकर मूर्च्छित हो जाती हैं। इनके सुदीर्घलोचन बरसते ही रहते हैं। मनुष्य के शरीर में इतना भी स्वेद आ सकता है, ऐसा भी रोमांच, कम्प होता है, कल्पना से परे की बात थी श्रीकृष्ण पट्टमहिषी के लिए।

'सखि! ये श्रीद्वारिकाधीश तुम्हारे प्रेम का स्मरण करते ही विह्वल हो जाते हैं। वह प्रेम कैसा है, यह तो मैंने आज देखा। तुम्हें देखे बिना इनकी बात और इनकी स्थिति, इनकी विह्वता समझ में आ नहीं सकती थी।' श्रीरुक्मिणी जी ने समीप बैठकर करों में कर लेकर बड़े सम्मान से पूछा- 'यह प्रेम कैसे पाया जाता है, मुझ पर भी अनुग्रह करो।'

आपके स्वामी प्रेम के अनन्त पयोधि हैं महारानी।' श्रीरुक्मिणी जी बहुत बिनती कर चुकीं कि ये श्रीवृषभानुनन्दिनी उन्हें महारानी न कहकर बहिन कहें, किन्तु ये संकोचमयी मानती ही नहीं हैं। इनके मुख से दूसरा सम्बोधन ही नहीं निकलता। ये 'आप' छोड़कर तुम तो रूठने पर भी नहीं बोल पाती हैं।

'आप उनकी पट्टमहिषी हैं, आपको मैं क्या बतलाऊँगी’  श्रीराधा ने कहा- 'वे अकारण कृपालु, अन्यथा मुझ ग्राम्या गोपकन्या में क्या है। प्रेम की तो गंध भी मुझमें नहीं। वे स्वभाव से परमोदार, जिसे अपना लेते हैं.......।' इतना भी किसी प्रकार कह गयीं वे यही बहुत था। श्रीललिता ने मूर्च्छित होती अपनी सखी को सम्हाला।

'यह लोकोत्तर सौन्दर्य और यह शील, प्रेम की यह पराकाष्ठा और यह अभिमान गन्धशून्यता।महारानी रुक्मिणी विभोर कुछ कहने लगीं थी, किन्तु ललिता जी ने उनके चरण पकड़ लिये कि वे कुछ बोलें नहीं। उनकी सखी अपनी प्रशंसा सुनने में अत्यन्त असमर्थ है। इस समय उनकी स्तुति में कुछ कहा गया तो उनकी व्याकुलता उपचार से बाहर हो जायेगी।

महारानी रुक्मिणी ने फिर कुछ नहीं पूछा। पूछने को कुछ था भी नहीं। श्रीकृष्ण प्रेम परवश हैं, यह वे भली प्रकार जानती हैं और विशुद्ध प्रेम की ही कोई प्रतिमा बने तो कैसी होगी, इसके दर्शन आज उन्हें प्रत्यक्ष हो गये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 121

सच्चे मन से पूरे प्रेम और स्नेह से महारानी स्वयं श्रीराधा के सत्कार में लगी रहीं। सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि उनकी अल्प सेवा भी स्वीकार करने में श्रीराधा बहुत अधिक संकुचित हो रही थीं अतः अपनी प्रबल उत्काष्ठा को दबाकर उन्हें विदा करना पड़ा उनके शिविर में। अन्यथा महारानी तो चाहती थीं कि कम-से-कम जब तक यहाँ रहना है, वे इसी शिविर में रहें और उनकी समस्त परिचर्या स्वयं महारानी को करने का सौभाग्य प्राप्त हो। उन्हें सन्देह नहीं था कि श्रीराधा की सेवा कर पावें तो उनकी अपने स्वामी का बहुत अधिक प्रेम स्वतः प्राप्त हो जायेगा।

श्रीराधा विदा हो गयीं तो रात्रि में महारानी अपने आराध्य की सेवा में अत्यधिक उल्लास लिये पहुँचीं। वे श्रीराधा के सौन्दर्य, शील, संकोच की चर्चा करेंगी और श्रीद्वारिकाधीश आज तन्मय होकर सुनेंगे। प्रसन्न होंगे और......

महारानी रुक्मिणी कुछ कहना भी चाहती थीं, यही स्मरण नहीं रहा। स्वामी के चरण लिये करों में और व्याकुल हो गयीं। 'आपके श्रीचरणों में ये फफोले? किसकी पुकार पर सन्तप्त भूमि में नंगे पैर आप आज दौड़ पड़े थे?'

महारानी रुक्मिणी जानती हैं कि कोई आर्तप्राण पुकारे तो उनके स्वामी को अपनी सुधि नहीं रह जाती और न गरुड़ स्मरण आते। आज कैसे फफोले तो इन चरणों में कभी देखे नहीं उन्होंने। 'क्या हो गया आज आपको?'

'कुछ नहीं हुआ देवि! कहीं गया नहीं था।' श्रीकृष्णचन्द्र स्नेहपूर्वक कुछ हँसकर ही बोले- 'यह तो तुम्हारे ही तनिक प्रमाद से हो गया किन्तु कोई चिन्ता करने की बात नहीं है।'

'मेरे प्रमाद से?' महारानी ने अत्यन्त आश्चर्य से पूछा- 'मुझसे यह अपराध हुआ?'

'अपराध नहीं, केवल किंचित प्रमाद।' श्रीकृष्णचन्द्र ने प्रियतमा पत्नी का हाथ अपने हाथ में लिया- 'तुमने श्रीवृषभानुनन्दिनी को जो दूध पीने के लिए दिया वह ठीक शीतल नहीं हुआ था। तुम्हारे हाथ से दिया गया अतः उसे मेरा ही दिया समझकर वे पी गयीं।'

'मैं समझी नहीं स्वामी!' श्रीरुक्मिणी जी के नेत्र भर आये। उनके प्रमाद से उनके इन आराध्य चरणों में ये फफोले पड़े हैं?

'मेरे चरण उनके हृदय में सदा स्थिर निवास करते है’  श्रीकृष्णचन्द्र ने बात स्पष्ट की। वह उष्ण दुग्ध श्रीकीर्तिकुमारी के लिए असह्य था। उसका ताप इन चरणों पर भी तो पड़ता।

'ओह’  महारानी रुक्मिणी जी उन चरणों पर ही मस्तक रखकर फूटकर रो पड़ीं। आज वे इस समय समझ सकीं कि 'एक प्राण दो देह' का क्या अर्थ होता है। उनके आराध्य और उनकी वृषभानुनन्दिनी में कितना अभेद है। इन्हीं अभेद को वे उनकी प्रिया का शील संकोच वर्णन सुनाने की इच्छा कर रही थीं?
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 122

श्रीराधा तो व्रजांगनाओं की मुकुटमणि किन्तु महारानी रुक्मिणी को तो लगा कि व्रज के शिविर में जो भी आये हैं- स्त्री-पुरुष, युवा-वृद्ध सब विशुद्ध प्रेम-प्रतिमा है। त्रिभुवन में कहीं उनकी तुलना नहीं।'

व्रजजनों के चरण-स्मरण से पुरुष को श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति होती है देवि!' देवर्षि नारद की यह बात अब अन्तःकरण में गूँजती ही रहती है। व्रजजनों के प्रेम की स्पर्धा कहाँ, उनकी सेवा मिलना भी बड़ा सौभाग्य, किन्तु वह भी कहाँ मिलती है। उस शिविर में जाने पर सब सेवा ही करना चाहते हैं। सब संकोच की मूर्ति हैं।

मैया यशोदा के ही चरणों में महारानी कुछ काल बैठ पाती हैं, किन्तु वहाँ भी अपार स्नेह पाया जा सकता है, सेवा का अवसर वहाँ भी नहीं है। वे महामहिमामयी तो अपनी पुत्री के समान अंक में ही बैठाये रखना चाहती हैं।

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‘देवि! आपके दान के उपयुक्त समय है यह’ देवर्षि नारद ने सत्यभामा जी को स्मरण करवाया- 'किन्तु सचमुच क्या श्रीद्वारिकाधीश इतने आपके हैं कि आप उनका दान कर सकें?'

'मैं आज ही निर्णय कर लूँगी।' सत्यभामा जी ने देवर्षि का सत्कार करके विदा किया और रात्रि में अपने आराध्य से पूछा- 'तुम कहते तो हो कि मैं तुम्हारा ही हूँ किन्तु.......।'

'इसमें किन्तु परन्तु क्या?' श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर कहा।

'मैं तुम्हारा दान करूँ- स्वीकार कर लोगे?'

'करके देख ही क्यों नहीं लेती हो।' श्रीद्वारिकाधीश अब बात समझ गये- तुम कल्पवृक्ष ले भी तो आयी हो इसी अभिप्राय से।'
'उसे कल यहाँ मँगा दो।' देवी सत्यभामा ने अब अपनी योजना सुना दी।

गरुड़ प्रातःकाल ही मन्दारतरु द्वारिका से ले आये। देवर्षि नारद को सविधि आमन्त्रित किया महारानी सत्यभामा ने और सब श्रीकृष्ण पत्नियों से स्वयं उनके समीप जा-जाकर अनुमति ली। देवी कुन्ती, सुभद्रा, द्रौपदी, गान्धारी को स्वयं निमन्त्रित कर आयीं। धृतराष्ट्र, पांडव, विदुर, भीष्मादि को तो आमन्त्रण दिया ही, श्रुतश्रवा, भीष्मक, रुक्मी, शिशुपाल, दन्तवक्र, दुर्योधन, प्रभृति सभी सम्बन्धी आमन्त्रित किये गये।

देवर्षि नारद पधारे। महारानी ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया, उनको भोजन करवाया। अब उनके सम्मुख श्रीकृष्णचन्द्र से तथा सभी उनकी रानियों से अनुमति ली। सबने सहर्ष अनुमति दे दी। श्रीद्वारिकाधीश के कण्ठ में पुष्पमाला डाली और उन्हें कल्पवृक्ष से बाँध दिया। कल्पवृक्ष इतना छोटा हो गया कि कहना यह उचित है कि उस नन्हें से पारिजात के पौधे को श्रीकृष्ण के चरणों से बाँध दिया गया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

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