द्वारिकाधीश 5

श्री द्वारिकाधीश
भाग -46

जन्मसिद्धा कामरूपिणी कैकय नरेश नन्दिनी के साथ विवाह करने का प्रस्ताव कौन करे? सब समझते थे कि वे स्वयं जिसका वरण करें केवल वही उनका स्वामी हो सकता है। जो इच्छानुसार रूप धारण कर सकती हैं, उनको उनकी इच्छा के विपरीत कोई कैसे ला सकता है। कहीं से कोई भी रूप धारण करके निकल जाने से कोई उन्हें कैसे रोक सकेगा?

'मेरी पुत्री भगवान वासुदेव की अर्धांगिनी बनेगी' माता का स्वप्न तो तब से चल रहा है जब प्रसूतिगृह में उनको पता लगा कि उन्होंने कन्या को जन्म दिया है। वे तो इससे भी पूर्व कामना करती रहीं थीं- 'मेरे कोई कन्या होती। वसुदेव के घर साक्षात नारायण ने अवतार ग्रहण किया है। मैं उनको कन्यादान करके उनके चरण-प्रक्षालन कर लेती' पुत्री का जन्म सुनकर उन्हें लगा था कि उन दयाधाम नारायण ने उनकी प्रार्थना सुन ली है।

पिता नहीं रहे, यह अभाव कभी भद्रा को भाइयों ने अखरने नहीं दिया। बड़े भाई सन्तर्दन तो बहिन के लिये पिता से भी अधिक स्नेहशील हो गये थे।सन्तर्दन और उनके छोटे भाइयों की भी बचपन से अपने उन श्रीपुरुषोत्तम में दृढ़ श्रद्धा थी और जब उन वासुदेव ने कंस को मार दिया, बार-बार राजाओं के अग्रणी जरासन्ध को पराजय देना प्रारम्भ कर दिया,तब उनके प्रति भक्ति  और दृढ़ हो गयी।

जन्मसिद्धा बहिन किसी सामान्य नरेश को चाहे वह कितना भी पराक्रमी क्यों न हो, नहीं दी जा सकती थी। माता और भाइयों की दृष्टि में तो भद्रा किसी देवी से कम नहीं थी। वह देवदेवेश्वर जनार्दन के अतिरिक्त दूसरे किसी को कैसे दी जा सकती थी।

भद्रा तो कौमारावस्था के प्रारम्भ से संकोचमयी हो गयी थीं। उन्होंने अपनी सिद्धि का उपयोग त्याग ही दिया था। द्वारिका में उनसे एक दिन सत्यभामा जी ने पूछा था- 'बहिन तुम कभी लड़का बनी हो?'

'छिः' भद्रा ने मुँह बिगाड़ लिया- 'बहिन आपके आराध्य के श्रीचरण मैं लड़की न होती तो मिलते मुझे? मैं तो जन्म से लड़की ही रहना चाहती हूँ और चाहती हूँ कि ये जनार्दन ही मेरा कर ग्रहण करते रहें'

भद्रा में रूक्षता, पौरुष का नाम नहीं था। वे अतिशय लज्जाशीला, संकोचमयी, छुईमुई जैसी सुकुमारी थीं। द्वारिका में भी स्वामी के अनुरोध से केवल अन्तपुर के एकादि में देव, गन्धर्व, नाग, यक्ष तथा विविध प्रदेशों की कन्याओं का रूप वे अपने स्वामी के विनोद के लिये बना लेती थीं- केवल कुमारियों का रूप। शैशव में भी भले वे बिल्ली या शशक कन्या बनी हों- नर कभी नहीं बनीं। नरत्व का संकल्प ही उनके हृदय में नहीं जगता था और कोई विवाहिता नारी का रूप बनाना तो मानसिक अधर्म था। यह बात तो सोचने की भी नहीं थी उनके लिये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -47

माता ने पुत्री से पूछ देखा था। उनकी कन्या इतनी लज्जाशीला थी कि विवाह की चर्चा से ही भागकर कहीं छिप जाती थी। माता ही नहीं पूछ पाती थीं तो भाई कैसे छोटी बहिन से पूछते।

'वह प्रसन्न होती है छिपकर सुनती है' माता ने पुत्र से कहा- 'भगवान वासुदेव में उसकी प्रीति है। ऐसी कौन-सी भाग्यहीना कन्या होगी कि श्रीकृष्ण के चरण पाने का सौभाग्य अस्वीकार करे'

राजमाता श्रुतकीर्ति को और राजकुमार सन्तर्दन को एक क्षण के लिये भी कोई विकल्प कभी नहीं था। कोई सन्देह भी नहीं था कि वसुदेव जी कैकय-नरेश की कन्या का नारियल अपने घनश्याम कुमार के लिये स्वीकार करेंगे या नहीं। यह तो उन्हें अपना स्वत्व लगता था। भद्रा विवाह योग्य हुई और उन्होंने ब्राह्मण नारियल देकर द्वारिका भेज दिया।

श्रीकृष्ण का यह विवाह सम्पूर्ण ब्राह्म-विवाह था। कहीं कोई विघ्न कोई बाधा नहीं आनी थी। द्वारिका से भरपूर धूमधाम से सज्जित होकर बारात निकली। यह पहिली बारात थी जिसमें वसुदेव जी और यदुवृद्ध सम्मिलित होने का सुयोग पा सके। द्वारिका से विवाह के लिये जाने वाली यह पहली बारात थी।

महाराज उग्रसेन महासेनापति अनाधृष्ट और कुछ प्रमुख शूरों को नगर में छोड़ना पड़ा। नगर अरक्षित- सूना नहीं छोड़ा जा सकता था। विवशता थी, अन्यथा श्रीकृष्ण के विवाह में जाने की उत्सुकता किसके हृदय में नहीं थी।

बारात को दूर जाना था। चतुरंगिणी सेना साथ थी। मार्ग में ही स्वागत प्रारम्भ हो गया। सम्पूर्ण विधि से, बड़े उत्साह से सन्तर्दन ने बहिन का विवाह किया। कैकय के राज्य की सर्वश्रेष्ठ मणियाँ, अश्व, गज आदि उपहार में दिये। एकमात्र बहिन का विवाह था- इतनी उमंग, इतना उल्लास जीवन में फिर कहाँ मिलना था। कठिनाई से पर्याप्त समय रुककर तब नववधू को लेकर बारात विदा हो सकी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -48

मद्र देश नरेश वृहत्सेन सुप्रसिद्ध भगवद्भक्त थे। ऐसे भगवद्भक्त कि उनके साथ भगवच्चर्चा का प्रलोभन देवर्षि नारद को बार-बार उनके यहाँ खींच लाता था। अन्यथा देवर्षि कहाँ किसी के यहाँ बार-बार आने वाले हैं।

देवर्षि आते और उनको तो व्यसन ही एक है- अपने आराध्य श्रीनारायण के गुणगान, उनकी ललित लीलाओं का, उनकी महिमा का वर्णन और अब देवर्षि कहते थे- 'वे जगत्कारण कारण प्रभु अब द्वारिका में विराजमान हैं'

मद्र नरेश निमग्न हो जाते भगवद-गुणानुवाद श्रवण में। देवर्षि को कहाँ स्वागत सत्कार अपेक्षित है। उन्हें तो श्रद्धालु श्रोता चाहिये। वे इधर-उधर घूमघाम कर प्रायःमद्र आ जाते थे और जब आते थे, जमकर श्रीकृष्ण चर्चा- इस चर्चा से महाराज वृहत्सेन का समस्त परिवार परिपूत होता रहता था।

राजकुमारी लक्ष्मणा मद्र नरेश की एकमात्र पुत्री और इतनी सुन्दर, इतनी सुलक्षणा कि इन्द्र, अग्नि प्रभूति लोकपालों तक ने महाराज से उसके लिये याचना की किन्तु महाराज को सभी प्रार्थी लोकपालों को निराश करना पड़ा क्योंकि अपनी इकलौती पुत्री के मन के विपरीत उसका विवाह किसी से कैसे कर देते वे।

राजकुमारी लक्ष्मणा ने देवर्षि के मुख से बार-बार श्रीकृष्णचन्द्र का गुणगान सुना। जिनके अतिरिक्त त्रिभुवन में दूसरा वर भगवती पद्मा को नहीं दीखा, वही मुकुन्द बस गये राजकुमारी के भी मानस में।

'वत्से देवाधिप इन्द्र, भगवान हव्यवाहन, जलाधीश वरुण याचना करते हैं तुम्हारी'
पिता ने पुत्री से पूछा था- 'अब तुम स्वयं विचार करने योग्य हो गयी हो'

'पिताजी, जब समुद्र-मन्थन के समय देवी पद्मा प्रकट हुई, तब भी सब लोकपाल उनके पाणि-प्राप्ति को लालायित हुए थे' राजकुमारी ने संकेत में अपनी बात कह दी- 'भगवती रमा ने जो दोष दूसरों में उस समय देखे थे, वे उनमें में से दूर हो गये अब? उन अब्धिजाने जिन्हें निर्दाेष निखिल गुणगणार्णव माना था, वे अब निष्करुण हो गये?'

'वे करुणावरुणालय कभी निष्करुण नहीं होते पुत्री' महाराज वृहत्सेन का स्वर प्रेम विह्वल हुआ- 'तू धन्य है कि तेरा चित्त उनके श्रीचरणों में लगा। वे तो अब धरा पर द्वारिका में ही विराजमान हैं।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग-49

निश्चित तिथि पर स्वयंवर सभा में सब आगत अपने आसनों पर विराजमान हुए।वन्दी ने घोषणा की- 'सम्मुख रखे धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर भूमि में स्थित कटाह के जल में यन्त्रस्थ काष्ठमत्स्य के प्रतिबिम्ब को देखकर एक ही बाण से जो उसे काटकर गिरा देने में समर्थ होंगे, मद्राधिप कुमारी उन्हीं के कण्ठ में वरमाला डालेंगी’

महाराज वृहत्सेन ने सब कठिनाइयाँ एकत्र कर दी थीं। धनुष असाधारण, विशाल और कठोर था। यन्त्रस्थमत्स्य ऊपर दीखता ही नहीं था। यन्त्र बहुत वेग से घूमता था। जल में भी कठिनाई से पता लगता था कि यन्त्र के पीछे मत्स्य कहाँ है। मत्स्य का वेधमात्र नहीं करना था, उसे काटकर गिरा देना था और यह करने के लिये भी केवल एक शर रखा था।

आगत नरेश और राजकुमार चाहते थे कि राजकुमारी रंग-स्थल में प्रथम आ जावें किन्तु मद्र नरेश ने यह भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कह दिया-'राजकन्या केवल लक्ष्यवेध-सफल पुरुष को जयमाला पहिनाने आवेंगी रंगस्थल में’

बड़ी संख्यायें ऐसे लोगों की निकलीं जो धनुष उठा ही नहीं सके। उनकी अपेक्षा कम लोग ऐसे थे जिन्होंने धनुष उठा लिया किन्तु उसे झुकाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने में असफल रहे। धनुष उनसे झुका ही नहीं। ऐसे लोगों की अपेक्षा छोटा दल था जिन्होंने धनुष झुकाया, प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयत्न किया, किन्तु धनुष के दबाव से स्वयं दूर जा गिरे। ऐसे लोगों के गिरने पर हास्य गूँजता रहा।

स्वाभाविक है कि ऐसे प्रतिस्पर्धा के स्थलों पर जो वीर हैं वे दुर्बलों को प्रथम अवसर देते है। अपेक्षाकृत दुर्बल समुदाय जब निराश हो गया, प्रख्यात शूर क्रमशः उठने लगे। जरासन्ध, दन्तवक्र, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन और अन्त में महाधनुर्धर कर्ण उठे। इन सबने धनुष उठा लिया और झुकाकर प्रत्यंचा भी चढ़ा दी किन्तु कर्ण तक को बहुत देर तक देखने पर भी पता नहीं लगा कि तीव्रगति से घूमते यन्त्र के पीछे मत्स्य कहाँ है।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 50

कर्ण निराश बैठ गये तो अर्जुन उठे। धनुष को ज्या सज्ज करके उन्होंने जल में देखा। मत्स्य कहाँ है, यह वे ठीक समझ गये। अत्यन्त स्थिरता, एकाग्रता से वे जल में देखने रहे थे और तब बाण छोड़ दिया था उन्होंने। उनका बाण यन्त्र में होकर मत्स्य को स्पर्श करता काष्ठ में धँस गया। घूमता यन्त्र स्थिर हो गया। निर्णायकों ने जाकर देखा। बाण निकालकर यथा स्थान पर रख दिया। धनुष की प्रत्यंचा उतारकर पार्थ भी अपने आसन पर मस्तक झुकाये बैठ गये जाकर।

'और कोई?' वन्दी ने पुकारा। जब गाण्डीव धन्वा ही सफल नहीं हुए तो अब दूसरा कौन उठता। सम्पूर्ण राजसभा निस्तब्ध रह गये तभी श्रीकृष्णचन्द्र उठे।

'गोविन्द तुम लक्ष्यवेध कर दो तो मेरी पराजय भी मुझे विजय से अधिक उल्लास देगी’ अर्जुन ने उठकर अपने सखा से कहा। हँसकर अभिनन्दन-ग्रहण किया श्रीद्वारिकानाथ ने।

जैसे बालक क्रीड़ा धनुष उठावे, श्रीकृष्ण ने धनुष उठाया और प्रत्यंचा चढ़ा दी। बाण धनुष पर रखा और एक बार जल में प्रतिबिम्ब की ओर देखा। जहाँ बहुत देर तक देखकर भी धनुर्धर कर्ण लक्ष्य देखने में असफल रहे थे, जहाँ पर्याप्त समय ध्यानस्थ प्रायः रहकर धनंजय लक्ष्य पहिचान सके थे, वहीं जनार्दन ने केवल एक दृष्टि जल पर डाली और बाण छोड़ दिया। वह यन्त्र के पीछे छिपा काष्ठ मत्स्य कटकर दो टुकड़े होकर गिर पड़ा भूमि पर।

सहसा गगन में देव-दुन्दुभियाँ बजने लगीं। आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी। सुर हर्ष विह्वल हो उठे थे तो मद्र नरेश के स्वजनों-परिजनों के हर्ष का पारावार कहाँ?

जयध्वनि, शंखध्वनि, वाद्यध्वनि गूँज रही थी। पुष्पवर्षा हो रही थी और उसी समय राजकुमारी सखियों से घिरी कनकोज्ज्वल रत्नमाला करों में लिये मंद-मराल गति से चलती रंगस्थल में पधारीं। उन्होंने एक बार पूरे समाज पर, समस्त सभा पर दृष्टि डाली और श्रीकृष्णचन्द्र के कण्ठ में वरमाला डाल दी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 50

कर्ण निराश बैठ गये तो अर्जुन उठे। धनुष को ज्या सज्ज करके उन्होंने जल में देखा। मत्स्य कहाँ है, यह वे ठीक समझ गये। अत्यन्त स्थिरता, एकाग्रता से वे जल में देखने रहे थे और तब बाण छोड़ दिया था उन्होंने। उनका बाण यन्त्र में होकर मत्स्य को स्पर्श करता काष्ठ में धँस गया। घूमता यन्त्र स्थिर हो गया। निर्णायकों ने जाकर देखा। बाण निकालकर यथा स्थान पर रख दिया। धनुष की प्रत्यंचा उतारकर पार्थ भी अपने आसन पर मस्तक झुकाये बैठ गये जाकर।

'और कोई?' वन्दी ने पुकारा। जब गाण्डीव धन्वा ही सफल नहीं हुए तो अब दूसरा कौन उठता। सम्पूर्ण राजसभा निस्तब्ध रह गये तभी श्रीकृष्णचन्द्र उठे।

'गोविन्द तुम लक्ष्यवेध कर दो तो मेरी पराजय भी मुझे विजय से अधिक उल्लास देगी’ अर्जुन ने उठकर अपने सखा से कहा। हँसकर अभिनन्दन-ग्रहण किया श्रीद्वारिकानाथ ने।

जैसे बालक क्रीड़ा धनुष उठावे, श्रीकृष्ण ने धनुष उठाया और प्रत्यंचा चढ़ा दी। बाण धनुष पर रखा और एक बार जल में प्रतिबिम्ब की ओर देखा। जहाँ बहुत देर तक देखकर भी धनुर्धर कर्ण लक्ष्य देखने में असफल रहे थे, जहाँ पर्याप्त समय ध्यानस्थ प्रायः रहकर धनंजय लक्ष्य पहिचान सके थे, वहीं जनार्दन ने केवल एक दृष्टि जल पर डाली और बाण छोड़ दिया। वह यन्त्र के पीछे छिपा काष्ठ मत्स्य कटकर दो टुकड़े होकर गिर पड़ा भूमि पर।

सहसा गगन में देव-दुन्दुभियाँ बजने लगीं। आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी। सुर हर्ष विह्वल हो उठे थे तो मद्र नरेश के स्वजनों-परिजनों के हर्ष का पारावार कहाँ?

जयध्वनि, शंखध्वनि, वाद्यध्वनि गूँज रही थी। पुष्पवर्षा हो रही थी और उसी समय राजकुमारी सखियों से घिरी कनकोज्ज्वल रत्नमाला करों में लिये मंद-मराल गति से चलती रंगस्थल में पधारीं। उन्होंने एक बार पूरे समाज पर, समस्त सभा पर दृष्टि डाली और श्रीकृष्णचन्द्र के कण्ठ में वरमाला डाल दी।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 51

छीन लो राजकन्या’ -राजाओं, राजकुमारों का एक बड़ा समूह क्रोध से चिल्लाया। वे अपने धनुष चढ़ाने लगे।

'कौन हैं ये श्रृगाल’ -भीमसेन ने गदा उठायी और धनंजय ने गाण्डीव ज्या सज्ज करके चुनौती दी विरोध करने वालों को।

दारुक रथ बढ़ा लाये थे इतनी देर में। श्रीकृष्ण ने राजकन्या को उठाकर रथ में बैठा दिया और वे चतुर्भुज शारंगधन्वा बोले- 'भाई भीमसेन! अर्जुन! दो क्षण रुको। मैं अकेला ही पर्याप्त हूँ प्रतिपक्ष के लिये।'

दारुक ने रथ हाँक दिया। श्रीकृष्णचन्द्र जब शारंग चढ़ाये बैठे हैं रथ पर- उनको सहायता की अपेक्षा और आवश्यकता कहाँ है। भीमसेन और अर्जुन ने साथ जाने का आग्रह नहीं किया।

केवल अर्जुन ने कहा- 'इन भाग्यहीनों के साथ रहने के कारण हमें भी द्वारिकाधीश के विवाह में सम्मिलित होने के सौभाग्य से वंचित होना पड़ा।'

बड़ी निराशा की प्रतिक्रिया थी- बड़ा रोष था उन लोगों को जो धनुष उठा भी नहीं सके थे, उठाकर भी झुका नहीं सके थे या झुकाने के प्रयत्न में स्वयं दूर जा गिरे और उपहासास्पद बने थे। वे अब अपने रथों पर बैठे सैनिक लिये पथावरोध करने मार्ग में जा पहुँचे थे। उन्होंने मुख्य मार्ग को छोटे उपमार्ग से जाकर रोकने का प्रयत्न किया।

ऐसे मूर्खतापूर्ण प्रयत्न का जो परिणाम होना था, वही हुआ। बहुतों के मस्तक, कर या पैर कट गये। बहुत मारे गये और जो बचकर भागे- वे भी अत्यधिक आहत हो गये थे। शारंग से होती शर-वर्षा सुरासुर सबके लिये असह्य है, वे वेचारे तो सामान्य मानव ही थे।

महाराज वृहत्सेन ने रथों, गजों, अश्वों, सेवकों, सेविकाओं का समूह तथा रत्नालंकार, वस्त्रादि अपार उपहार द्वारिका भेज दिये। सविधि विवाह तो द्वारिका में ही सम्पन्न होना था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग -52

श्रीकृष्ण स्वभाव से परिहास-प्रिय हैं। परिहास तो ये बड़े-बूढ़ों तक से कर लेते हैं, स्वजनों की चर्चा क्या और इनका परिहास- श्रुति, शास्त्र, संत सब कहते हैं कि श्रीहरि गर्वहारी हैं।अपनों में तो गर्व का लेश भी सहन नहीं इनको। किसी स्वजन में गर्व आया और इन्हें परिहास सूझता है।

कौन जाने यह सृष्टि इनका परिहास ही है या नहीं। इनकी महामाया- वे इनकी प्रकृति हैं, शक्ति हैं और ये परिहास-प्रिय- इनकी परिहास-प्रियता का ही दूसरा नाम माया है।

सभी श्रीकृष्ण-महिषियों को सदा यही लगता था कि ये श्रीद्वारिकाधीश उसी को सबसे अधिक मानते हैं। वह तो आपको भी लगेगा- इनके होकर देखिये। अनादिकाल से जो भी जीव इनका हुआ- उसे सदा यही लगा कि ये उसी के हैं। उसी को सर्वाधिक चाहते-मानते हैं। उसी के समीप सदा रहते हैं। अतः रानियों को यह लगता था तो कोई नवीन बात नहीं थी।

श्रीरुक्मिणी पट्टमहिषी थीं। सर्वज्येष्ठा और साक्षात रमा। उनको लगता था कि स्वामी की वे सर्वाधिक प्रेयसी हैं, यह स्वाभाविक था और वे ही कहाँ कम प्रेम करती थीं। वे सेवा में किंचित भी प्रमाद करें, यह संभव नहीं था। अब उनसे भी परिहास करने की सूझ गयी इन लीलामय को।

श्रीद्वारिकानाथ भोजन करके विश्राम करने लेट गये थे। देवी रुक्मिणी ने उनका प्रसाद ग्रहण किया और सेवा करने उपस्थित हो गयीं। सखी के हाथ से रत्नदण्ड लघु व्यंजन उन्होंने स्वयं ले लिया और वायु करने लगीं। मन्द मन्द चरण-संचालन, नूपुरों का क्वणन, कंकण एवं चूड़ियों की मधुर झंकृति- वायु करने के साथ वे किंचित पद-चालन से संगीत का वातावरण बना रही थीं, जिससे स्वामी कुछ पल विश्राम कर सकें।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -53

सखियाँ दम्पत्ति के इस एकान्त में व्यवधान न डालने के विचार से कक्ष से चुपचाप जा चुकी थीं।

रात्रि के द्वितीय प्रहर का प्रारम्भ कक्ष में मन्द आलोक मणि-प्रदीपों का। शैय्या पर मोतियों की झालर लगी शुभ्र चाँदनी तनी। उस पर मल्लिका के पुष्पों की मालायें तनी थीं और उन पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे। गवाक्ष से निर्मल चन्द्र की ज्योत्सना कक्ष में आ रही थी। उपवन से मन्द, शीतल, सुगन्धित वायु आ रही थी। कक्ष में से अगुरु की मधुर धूम गवाक्ष से निकल रही थी। शरत्पूर्णिमा का अत्यन्त मनोरम समय और यह भी रात्रि।

रस चर्चा नहीं, शान्त शयन भी नहीं, परिहास सूझा- लीलामय को कब क्या सूझेगा, कौन कह सकता है। वे तनिक अधलेटे हुए।
रुक्मिणी की ओर देखा और बोले- 'राजपुत्री'

'यह कैसा सम्बोधन? ये इस प्रकार क्यों बोल रहे हैं?' देवी रुक्मिणी ने आश्चर्य से अपने आराध्य की ओर देखा। उनको चौंकाने के लिये यह सम्बोधन ही पर्याप्त था किन्तु श्रीकृष्ण कह रह थे- 'लोकपालों जैसा जिनका ऐश्वर्य था- जिनका प्रभाव और सम्पत्ति थी, ये रूपवान, बलवान, नरेश तुमको चाहते थे। शिशुपाल तथा वैसे दूसरे भी तुम्हारे रूप- गुण पर मोहित होकर तुम्हारी प्रार्थना करते थे और तुम्हारे भाई तथा पिता भी तुमको उन्हें दे रहे थे फिर तुमने अपने से सर्वथा असमान हमारा वरण क्यों किया?'

व्यजन का हिलना रुक गया। पद संचालन रुद्ध हो गया। देवी रुक्मिणी स्तब्ध देखती रह गयीं- 'ये आज कह क्या रहे?'

'हमने तो उन जरासन्धादि राजाओं के भय से समुद्र में शरण ले रखी है। बलवानों से हमारी शत्रुता है। राज्य सिंहासन न हमारा है, न हमारी संतान का होना है'
श्रीकृष्ण गंभीर बने कहते गये- 'हमारा तो मार्ग भी अस्पष्ट है। लोक चलते हैं, उनसे भिन्न पथ से हम चलते हैं। सुन्दरी ऐसे पुरुष को अपनाकर स्त्रियों को प्रायः क्लेश होता है। हम स्वयं निष्किंचन है और निष्किंचन जन मुझे प्रिय हैं। अतः धनवान प्रायः मुझसे प्रेम नहीं करते'
(साभार द्वारिकादीश से)

क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -54

'ये कहना क्या चाहते हैं?' देवी रुक्मिणी सन्न सुन रहीं थीं।

'अपने समान जिनका धन, आयु-जाति, रूप, ऐश्वर्य हो, उनमें ही विवाह और मित्रता उचित है। अपने से उत्तम या निम्न में यह सुखद नहीं होती। विदर्भ राजकुमारी तुमने यह विचार भली प्रकार किया नहीं। भिक्षुकों ने व्यर्थ हमारी प्रशंसा कर दी और उसके भुलावे में आकर तुमने हमारा वरण कर लिया'
श्रीकृष्ण ने निष्ठुर की भाँति कह दिया- 'अतः अपने अनुरूप किसी उत्तम क्षत्रिय का वरण कर लो जिससे तुम इस लोक और परलोक में भी अभीष्ट सुख पा सको।'

'हमसे शिशुपाल, जरासन्ध, शाल्व, दन्तवक्र और तुम्हारा भाई रुक्मी भी द्वेष करता है। उन गर्व से मत्त लोगों का घमण्ड तोड़ने के लिये मैं तुम्हें ले आया' अब शीघ्रता से बोल गये- 'लेकिन कल्याणी हम तो उदासीन पुरुष हैं। जैसे घर में निष्कम्प दीप-ज्योति हो, ऐसे आत्मलाभ में परिपूर्ण। हमको स्त्री-पुत्रादि की कोई कामना नही'
इतनी निष्ठुर वाणी, इतना निर्मम व्यंग कल्पना भी जिसकी कोई न कर सके ऐसा परिहास। देवी रुक्मिणी सरल, निर्मल, हृदया। उनको लगा- 'ये मेरा परित्याग कर रहे हैं' दूसरा क्या सोचती वे, जब कह दिया गया- 'अपने अनुरूप किसी क्षत्रिय-श्रेष्ठ का वरण कर लो'

जो अपने हैं, अपने जीवन-प्राण हैं, सर्वस्व हैं, वे ऐसा कहते हैं? भय, शोक व्याकुलता- नेत्रों से अश्रु प्रवाह फूट पड़ा। हृदय काँपने लगा। सिर झुक गया। चिन्ता- क्या होगा अब? चरणों के नखों से भूमि कुरेदती दो क्षण वे खड़ी रहीं। मुख से एक शब्द नहीं निकल सका। दुःख, भय, शोक- प्रियतम के परित्याग की आशंका- हाथ से व्यंजन छूट गिरा। सहसा मूर्च्छित होकर वे गिरीं।

अत्यन्त शीघ्रता से श्रीकृष्णचन्द्र ने भूमि पर गिरती प्रियतमा पत्नी को अपनी चारों भुजाओं मे सम्हाल कर अंक में ले लिया। उनकी अस्तव्यस्त-केशराशि सम्हाली और उनके अश्रु सिंचित कपोल पोंछे। उन अनन्या परमसती को उठाकर हृदय से लगा लिया।

'प्रिये यह क्या? इतनी दुःखी हो गयीं तुम? तुम तो परिहास भी नहीं समझती हो। मैंने तो तुमसे परिहास किया। मैं जानता हूँ कि तुम मेरे परायणा हो किन्तु मैं तो सोचता था कि तुम रुष्ट होगी, तुम्हारा मुख क्रोधारुण होगा, तुम्हारे अधर फड़केंगे, तुम्हारी सुन्दर भौंहें अधिक कुटिल होंगी, कुछ अरुण नेत्र करके, टेढ़े दृगों से देखकर कुछ कहोगी। तुम्हारी यह शोभा देखने के लिये मैंने परिहास किया। और गृहस्थ पत्नी से हास-परिहास नहीं करे तो दाम्पत्य के सुख का लाभ?' अत्यन्त आर्द्र स्वर, ममतामय भंगिमा में श्रीकृष्णचन्द्र ने आश्वासन दिया।
(साभार श्री द्वारिकाधीशसे)

क्रमशः

श्री द्वारिकाधीश
भाग -55

अच्छा, ये परिहास कर रहे थे?' मूर्च्छा दूर हुई शीतल स्निग्ध प्रेम स्पर्श पाकर। अंक में ही अपने को पाकर प्रियतम त्याग रहे हैं, यह भय मिट गया। मुख पर लज्जापूर्ण हास्य आया। धीरे से उठकर खड़ी हो गयीं और बोलीं। सदानुकूला, सदा दक्षिणा-विनम्रा श्री की वाणी उनके ही अनुकूल तो होगी। वे कहाँ रुष्ट होना या कठोर बोलना जानती हैं-

'कमललोचन आप ठीक कहते हैं कि मैं आप भूमा के लिये समान नहीं हूँ। कहाँ आप निखिल लोकमहेश्वर, अपनी महिमा में स्थित परमपुरुष और कहा मैं आपके चरणाश्रिता गुणमयी प्रकृति।'

'यह भी ठीक है कि त्रिगुणों से डरे हुए- के समान आप आत्मा अन्तःकरण के समुद्र में सोते हैं- केवल अनुभव स्वरूप हैं। सदा ही असदिन्द्रियों से आपकी शत्रुता है। राज्यपद तो अन्ध:तम में ले जाने वाला है, उसे तो आपके सेवकों तक ने त्याग दिया है।आपके चरण-कमल-मकरन्द के आस्वादक मुनियों का मार्ग ही ये द्विपाद पशु समझ नहीं पाते, तो आपका पथ कोई कैसे समझेगा। आप ईश्वर की चेष्टा अलौकिक की भाँति तो होगी ही। आपके भक्तों की चेष्टा भी अलौकिक होती है।'

'आप निष्किंचन हैं क्योंकि आपके स्वरूप से बाहर कुछ है ही नहीं। देवता भी आपको विनम्र सोपहार प्रणति अर्पित करते हैं। सृष्टिकर्ता और प्रलयंकर भी आपके सेवक ही हैं। संसार के ये प्राणों के तर्पण में लगे धनमदान्ध लोग आपको जान ही कैसे सकते हैं।आप समस्त पुरुषार्थ स्वरूप समस्त फलों के परम फल हैं। आपको पाने के लिये धन्यजन अपना सर्वस्व त्याग देते हैं। उन्हीं के लिये आपकी उपलब्धि उचित है। जो स्त्री-पुरुष संपर्क के छुद्र सुख में मग्न हैं, उन्हें यह कहाँ सुलभ है।'

'गदाग्रज बस यह बात आपकी ठीक नहीं है- मुझे मूर्ख बनाने के लिये कही गयी कि आप जरासन्धादि के भय से समुद्र में शरण लिये छिपे हैं। यह तो मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि अपने धनुषों से उन सबको भगाकर जैसे श्रृगालों के मध्य से वनराज अपना भाग ले जाय, वैसे आप मुझे ले आये'

'आपके त्रिपातहारी श्रीचरणों की गन्ध का आस्वादन करके दूसरे किसका आश्रय लिया जाय। आप गुणगणैकधाम, आपके ये श्रीचरण नित्य रमालय- इनके आश्रित के लिये तो इस लोक-परलोक- दोनों में मंगल ही मंगल है। आप मेरे सर्वथा अनुरूप हैं। हाँ और परलोक में भी मेरी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले है। अतः मैंने आपका आश्रय लिया। जन्म जन्म में जहाँ भी मैं जाऊँ, आपके यही श्रीचरण मेरे रक्षक रहें, जो भजन करने वाले को मिथ्या से छुड़ाकर अपवर्ग प्रदान करते हैं।'
(साभार द्वारिकाधीश से)

क्रमशः

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

शारदा पूजन विधि

गीता के सिद्ध मन्त्र

रामचरित मानस की चोपाई से कार्य सिद्ध