द्वारीकाधीश 4
श्री द्वारिकाधीश
भाग -36
भाई उस दिन कह गये कि कालिन्दी तेरे संबंध से मैं भी धन्य होने वाला हूँ। बहिन तू थोड़ी प्रतीक्षा और कर ले वे त्रिभुवन नाथ धरा पर आ रहे हैं। तू यदा कदा जल से निकलकर मानवों को भी देख और मानवी बनकर उनके समान रहना सीख। तू तो अब भी अबोध बच्ची ही है।
सचमुच मुझे तब तक यह कुछ नहीं आता था। मैं जल से निकलने लगी। अपनी समवयस्का कुमारियों को ध्यान देकर देखने लगी। मुझे बहुत-बहुत सीखना पड़ा। मेरे पैर पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते थे, मेरे शरीर की छाया नहीं पड़ती थी, मैं लज्जा-संकोच जानती ही नहीं थी। यह सब त्रुटियां मुझे सप्रयत्न दूर करनी पड़ीं और इनमें समय लगा।
उस दिन मैं अपने प्रवाह के पुलिन पर निकली थी। वहाँ कोई और नहीं था। मैं टहलते आगे बढ़ रही थी। सहसा एक श्याम वर्ण सुन्दर दृढ़काय तरुण मेरे समीप आये। पीछे पता लगा कि श्रीद्वारिकाधीश ने मुझे देख लिया था। अपनी इस दासी पर इन्हें दया आ गयी थी। इन्होंने ही अपने सखा अर्जुन को भेजा था मेरे समीप।
'सुन्दरी तुम कौन हो? किसकी हो? यहाँ निर्जन में क्या कर रही हो?' उन्होंने हँसते हुये कहा- 'शोभने मुझे तो लगता है कि तुम अपने योग्य पति का अन्वेषण कर रही हो। अपनी सब बात बतलाओ। संभव है, मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सकूँ'
मुझ धर्मराज की भगिनी को भय किसका? मेरे पिता गगन से मुझे देख ही रहे थे और भाई मेरे स्मरण करते ही महिष पर बैठे- कालदण्ड उठाये मेरे पार्श्व में आ खड़े होते। मुझसे धृष्टता करने का साहस कोई करता भी तो अपनी मृत्यु बुलाता। मुझे उन भव्य पुरुष का पूछना बुरा नहीं लगा। उनका श्यामवर्ण मुझे भाई जैसा लगा। मुझे लगा कि ये भी भाई बन सकते हैं।
मैंने निःसंकोच कह दिया- 'भैया तुम ठीक कहते हो कि मैं पति चाहती हूँ किन्तु भगवान नारायण को छोड़कर दूसरे को मैं पति के रूप में स्वीकार नहीं करूँगी। मैं उस गगन में स्थित भगवान आदित्य की कन्या हूँ। पिता ने इस प्रवाह में मेरे लिये संकल्प गृह बना दिया है। उसमें रहकर मैं तपस्या में लगी हूँ। देखें, वे सर्वलोकेश्वरेश्वर भगवान मुकुन्द कब प्रसन्न होते हैं इस किंकरी पर।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -37
'बहिन वे आज अभी प्रसन्न होंगे' उन पुरुष श्रेष्ठ ने मुझे भगिनी स्वीकार कर लिया और लौटते हुये कहते गये- 'अब जल में मत जाना। मैं उन्हें लिये आ रहा हूँ'
सचमुच वे इन्हें साथ लिये आये। इन इन्दीश्वर सुन्दर, कमललोचन, चतुर्भुज- श्रीवत्सवक्षालंकृत को भी क्या परिचय देने या पहिचानने की आवश्यकता थी। मैं अपने इन आराध्य के चरणों में गिर पड़ी। उठाकर इन्होंने मुझे रथ पर बैठा लिया और सखा के साथ इन्द्रप्रस्थ ले आये।
कालिन्दी की कथा ने सबको आनन्दित किया।
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कृष्ण-बलराम राजमाता राजाधिदेवी के आग्रह से उनका आतिथ्य स्वीकार करने मात्र के लिये अवन्ती रुके थे केवल एक रात्रि। अवन्ती का राजभवन उस दिन धन्य हो गया था।दोनों भाई महर्षि सान्दीपनि के आश्रम में अध्ययन करने आये हैं, यह समाचार मिला था। उस समय उनसे मिलने कोई नहीं जा सकता था। महर्षि सान्दीपनि बहुत कठोर हैं अपने नियमों के। उनके यहाँ आये अन्तेवासी से मिलने कोई नहीं- उसका कोई स्वजन, परिवार, परिचित का व्यक्ति नहीं जा सकता। कोई कुछ नहीं भेज सकता उसके समीप।
राजमाता राजाधिदेवी उन दिनों उन्हीं दोनों पुत्रों की चर्चा करती रहतीं उन्हीं के प्रेम में विह्वल रहतीं थीं।उनके लिये अन्य कोई विषय वर्णनीय,चिन्तनीय ही नहीं रह गया था। वे दोनों का विशेषतः छोटे का रूप, गुण, उनके कंस-वधादि पराक्रम का वर्णन करती रही, बार-बार वर्णन करती रहीं। उनकी एकमात्र कन्या मित्रविन्दा वह तब अल्पवयस्का किशोरी ही थी। जिसने माता के मुख से रात-दिन जिनकी शोभा, जिनके गुण, जिनके पराक्रम को सुना उसे उनको देखने की उत्कण्ठा क्यों नहीं होती।उनकी चर्चा- उनके गुणगान में कैसे बीत गये जीवन के ये अल्प वर्ष यह मित्रविन्दा को पता ही नहीं लगा।
वह अब बालिका नहीं है। अब किशोरी है और उसके विवाह की चर्चा चल पड़ी है। उसका स्वयंवर होगा। वे आवेंगे और नेत्रबन्द करके वह उनके गले में वरमाला डाल देगी। मित्रविन्दा का यही स्वप्न है अब वह उनके ही स्वप्न देखती रहती है। कितने मधुर मादक हैं ये स्वप्न।
(साभार श्री द्वारिकाधाश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -38
अवन्ती के शासन की संचालिका हैं राजमाता राजाधिदेवी। पति ने जब संग्राम में वीरगति प्राप्त की, मित्रविन्दा शिशु थी। विन्द और अनुविन्द दोनों बालक थे। सकीं। राजाधिदेवी ने शासन-सूत्र सम्हाल लिया। अपने बालकों का पालन किया।
पिता महाराजाधिराज पाण्डु की सहायता में खेत रहे थे। पाण्डु के सिंहासन पर धृतराष्ट्र आये तो अवन्ती का शासन उनका भक्त बना रहा। अब विन्द और अनुविन्द दुर्योधन वशवर्ती हो गये हैं। उसका अनुगमन करने में गर्व का अनुभव करते हैं।
'महाराजाधिराज सुयोधन के साथ सम्बन्ध हो जाये' विन्द और अनुविन्द का यह सबसे बड़ा स्वप्न है किन्तु अवन्ती छोटा राज्य है। कौरव नरेश के समाज में ये बहुत छोटे सभासद हैं। बहिन का पाणि-ग्रहण प्रस्ताव करें और महाराज दुर्योधन अस्वीकार कर दें? अपमान-उपहास के भय से प्रस्ताव करने का साहस नहीं हुआ।
'महाराज सुयोधन ने बहिन के स्वयंवर में आना स्वीकार कर लिया है' विन्द और अनुविन्द ने हस्तिनापुर में अपने महाराज से यह चर्चा की थी। एक बहाना था प्रस्ताव करने का- 'हम कुछ दिन की अनुपस्थिति के लिये क्षमा चाहते हैं। बहिन के स्वयंवर का आयोजन करना है' दुर्योधन ने हँसकर कह दिया- 'कब स्वयंवर है? मैं आऊँगा स्वयंवर सभा में'
'आप अवश्य पधारें' साग्रह आमन्त्रित कर दिया। लगा कि वरदान मिल गया। लौटकर माता को बड़े उल्लास से सुनाया। दोनों भाई निश्चिंत हो गये। स्वयंवर के बहाने उनकी बहिन अब कौरव महारानी बन सकेगी। राजमाता ने भी स्वयंवर का विरोध नहीं किया। स्वयंवर करना है तो दूसरे राजकुमारों को भी आमन्त्रित करना ही था। द्वारिका समाचार भेजने के पक्ष में दोनों नहीं थे किन्तु माता को मना भी कैसे करते। स्वयंवर के लिये राजकुमार आने लगे। अनेक देशों के राजकुमार आये। शिप्रा के तट पर उनके शिविरों का नगर बस गया। महाराज दुर्योधन पधारे।विन्द और अनुविन्द ने पूरे उत्साह से उनका स्वागत किया। उनके सत्कार में जुटे रहे। उन्हें तो इन्ही से सब प्रयोजन था। श्रीकृष्ण आये द्वारिका से। सात्यकि प्रभृति थोड़े से शूर रथारोही साथ थे। इन लोगों को राजभवन में ठहराये बिना उपाय नहीं था। ये सम्बन्धी थे और राजमाता इनके सत्कार में लग गयीं थीं।
स्वयंवर सभा में सब बैठ गये। राजकुमारी मित्रविन्दा जयमाल लिये सखियों के साथ आयीं। सब राजा-राजकुमार शान्त बैठे रहे। वे श्रीकृष्ण के आते ही समझ गये थे कि यहाँ आकर उन्होंने भूल की। श्रीकृष्ण बैठेंगे स्यवंवर सभा में और कोई कन्या दूसरे के गले में वरमाला डालेगी? पता होता कि वासुदेव पधारेंगे तो आते ही नहीं यहाँ। अनुमान ही नहीं था कि अवन्ती जैसे छोटे राज्य की राजकुमारी के स्वयंवर में आना भी चाहेंगे।अब आ गये तो इनके विवाह का दर्शक बने रहना था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -39
श्रीकृष्ण नहीं आते यह कैसे हो सकता था। कोई हृदय पुकारे उन्हें और वे न आवें।राजकन्या मित्रविन्दा का हृदय कब का उनका हो चुका था। वह दृढ़ विश्वास किये बैठी थी कि वे नव जलधर सुन्दर आवेंगे ही। श्रीकृष्ण भला आते क्यों नहीं।
राजकन्या ने देख लिया कि उसके हृदयेश्वर कहाँ बैठे हैं। वह सीधे उसी ओर बढ़ी। उसे अब न किसी दूसरे की प्रशस्ति सुननी थी, न किसी की ओर देखना था। किसी को इसमें कुछ अद्भुत नहीं लगा। सब पहिले से समझ चुके थे कि यही होना है।
'उधर नहीं महाराज सुयोधन इस ओर विराजमान हैं' विन्द और अनुविन्द दोनों भाई दौड़े और बहिन के सामने मार्ग रोककर खड़े हो गये। उन्होंने तो राजकन्या के आने के मार्ग के पार्श्व में ही सुयोधन को आसन दिया था। वे चाहते थे कि उनकी बहिन महाराज की प्रशस्ति सुनकर वरमाला डाल दे उनके गले में किन्तु यह तो उनकी ओर देखे बिना बढ़ चली और कहाँ जा रही है, यह अब किसी से छिपा नहीं है।
'यह सबका अपमान है- हम सबका' एक साथ अनेक युवक राजकुमार आसनों से उठ खड़े हुए और उन्होंने तलवारें खींच लीं- 'आप दोनों को किसी विशेष को ही बहिन व्याहनी थी तो उसे बुलाकर विवाह देते। मना किसने किया था आपको? स्वयंवर सभा में राजकन्या को रोका नहीं जा सकता। वे जिसके चाहेंगी- उसका वरण करेंगी' राजकुमारी मित्रविन्दा भी स्थिर खड़ी थीं। वह लौटने को प्रस्तुत नहीं थीं। वह दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं- इस अल्प क्षण में कि दूसरे किसी के गले में वे माल्यार्पण नहीं करेगी।
सहसा श्रीकृष्णचन्द्र उठे और आगे बढ़कर उन्होंने राजकन्या को भुजाओं में उठा लिया। उसे लेकर स्वयंवर सभा से बाहर निकल गये और अपने रथ पर बैठा दिया। यादव शूर धनुष चढ़ा चुके थे। उन्होंने हुँकार की- 'जिसमें शक्ति हो, प्रतिवाद कर देखे'
'अपने अपमान का उचित प्रतिकार किया श्रीकृष्ण ने' अधिकांश राजकुमार समर्थन करने लगे। दुर्योधन शान्त उठ गये।
गरूड़ध्वज रथ जा चुका था। अब तो द्वारिका उपहार भेजने थे जहाँ विवाह के पश्चात मित्रविन्दा श्रीकृष्ण की महारानी बनने वाली थीं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -40
दक्षिण कौसल-वर्तमान छत्तीसगढ़ के परम धार्मिक नरेश नग्नजित थे। उन वैदिक धर्मनिष्ठ ने अपने प्रचण्ड पराक्रम से नग्न रहने वाली वन्य जातियों तथा नग्नसम्प्रदाय के शक्तिशाली सामन्तों को पराजित करके अपने राज्य से निर्वासित कर दिया था अथवा उन्हें सनातन धर्म का अनुयायी बना दिया था।
'धर्मस्य प्रभुरच्युतः' अत्यन्त धार्मिक नरेश नग्नजित जानते थे कि वे अच्युत धर्म के किसी अनुष्ठान से प्राप्य नहीं है। वे तो अनुग्रह करें तभी मिलते हैं। धर्म निष्काम हो तो अन्तःकरण को शुद्ध कर देता है और शुद्धान्तःकरण में शुद्ध प्रज्ञा का उदय होता है। महाराज की शुद्ध प्रज्ञा ने उन्हें एक मार्ग दिखला दिया था।
सप्तलोकों को प्राप्त कराने वाले धर्म के सप्तधा स्वरूप- नग्नजित के यहाँ सप्तवृषभ के रूप में वे धर्माधिदेवता महाराज की धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर निवास करने लगे। वे सप्तशुभ्रवर्ण के गज के समान उत्तुंगकाय, सुपुष्ट, तीक्ष्णश्रृंग वृषभ। वे विचित्र स्वभाव के थे। बहुत सुन्दर, बहुत प्रिय और बहुत सीधे। एक बालक भी उनको स्थानान्तरित कर लेता था। शिशु खेलते रहते थे उनसे किन्तु वीरों की गन्ध भी उन्हें असह्य थी। कोई बलपूर्वक उन्हें पकड़ना चाहे तो वे अत्यन्त उग्र होकर आक्रमण कर देते थे।
धर्म बहुत शुभ्र, बहुत मंगलमय बहुत सरल किन्तु अहंकार की गंध भी असह्य है उसे। अहंकार हो तो धर्म उग्र-घातक बन जाता है। वे धर्म-वृषभ। सातों साथ ही रहते थे। बन्धन की बात उनके सम्बन्ध में नहीं सोची जा सकती थी। वे पूज्य थे, पूजा होती थी उनकी। एक विशाल घेरे में स्वच्छन्द घूमते थे। सेवकों के लिये तो वे मृगों की अपेक्षा भी सरल थे।
महाराज नग्नजित ने घोषणा कर दी थी- 'उनकी भुवनसुन्दरी कन्या उसका वरण करेगी जो एकाकी इन सातों वृषभों को नियन्त्रित कर लेगा' महाराज जानते थे कि धर्म के निगृहीता अच्युत के अतिरिक्त और कोई इन्हें नियन्त्रित करने वाला हो ही नहीं सकता।
अनेक राजकुमार आये। राजकुमारी सत्या के सौन्दर्य की, शील की, गुणों की ख्याति बहुतों को प्रलुब्ध करके खींच लाती थी किन्तु कोई कितना भी बलवान हो, एक साथ सात क्रुद्ध अत्यन्त विशाल वृषभों से कैसे पार पा सकता है। बहुत बलवान, स्फूर्तियुक्त पुरुष भी अधिक सेअधिक दो वृषभों को झेल सकता है।
वृषभ धर्म के रूप हैं। उन पर आघात नहीं किया जा सकता। उनके वध की बात तो बहुत दूर, उन्हें आहत भी नहीं किया जा सकता। उन्हें निगृहीन मात्र करना था। अनकी नासिका में रज्जु डालनी थी और वे वृषभ तो रज्जु देखते ही विकराल बन जाते थे। फूत्कार करते टूट पड़ते थे वे।
बहुत राजकुमार आये-आते गये। निहत्थे ही तो उन्हें वृषभों के मध्य उतरना था। मल्लयुद्ध में जिनकी लोक में प्रसिद्धि थी, वे भी कवच पहिनकर ही वृषभ-निग्रह के लिये घेरे में प्रवेश करते थे किन्तु उन वृषभों के तीक्ष्ण श्रृंग दृढ़तम कवच को भी कहाँ टिकने देते थे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -41
महाराज नग्नजित ने व्यवस्था कर रखी थी कि कोई राजकुमार जैसे ही आहत हो, उसे सेवक तत्काल वृषभों के सम्मुख से उठा लें। उसका भली प्रकार उपचार किया जाय। सेवक अभ्यस्त हो गये थे। वे जानते थे कि घेरे में प्रवेश करने के अगले ही क्षण प्रवेश करने वाले को शीघ्रता से उठा लेना है।
एक साथ सात वृषभ क्रोध में भरे टूट पड़ते थे। एक या दो से उलझकर उनके सींग पकड़कर बचने का प्रयास किन्तु तब तक अनेक सींग शरीर में कवच तोड़कर प्रविष्ट हो जाते थे। किन्हीं की पसलियाँ टूटीं, किन्हीं के हाथ-पैर टूटे, कइयों को एक नेत्र खोना पड़ा। कोई नहीं ऐसा निकला जो वृषभों के घेरे में गया हो और अंग-भंग न हुआ हो। कई कई स्थानों पर श्रृंगों का आघात-मूर्च्छित ही निकाला गया उसे। उपचार के पश्चात भग्नांग लौटना पड़ा सब आगतों को।
'महाराज नग्नजित की कुमारी को महाराज द्वारा पालित वृषभों का निग्रह करके ही पाया जा सकता है। वे वीराभिमानियों की निकषा बन गयी हैं और अब तक तो धरा दक्षिण कौसल के लिये वीरशून्य ही दीखती हैं'- वन्दीजन यह विरदावली गाते, एक राज्य से दूसरे राज्य में घूम रहे थे। उनमें से एक द्वारिका भी पहुँच गया और उसने यादव राजसभा को अपनी ललकार सुना दी।
'तुम चलोगे?' श्रीकृष्णचन्द्र ने सखा की ओर देखा। अर्जुन पहिली बार द्वारिका आये थे।
'तुम्हारे साथ चल सकता हूँ' पार्थ ने हँसकर कहा- 'किन्तु गायों वृषभों से मेरा परिचय कम ही है। उन्हें चराने, साधने का काम बचपन से तुमने किया है'
'तुम साथ चलो' श्रीकृष्णचन्द्र ने अर्जुन से कहा और सात्यकि को सैन्य-सज्जित करने का आदेश दे दिया। एक ही रथ में बैठकर श्रीकृष्ण और अर्जुन विशाल नारायणी सेना को साथ लिये दक्षिण कौसल पहुँचे। महाराज नग्नजित ने अपने बन्धु-बान्धवों के साथ आगे आकर स्वागत किया।
'श्रीद्वारिकाधीश पधारें' कौन वज्रहृदय है जो सुनते ही नेत्रों को जीवन को कृतार्थ करने दर्शनार्थ दौड़ न पड़े। नगर के नर-नारी सब दौड़ पड़े थे। जो कुल-बधुएँ बाहर नहीं जा सकती थीं, उनके नेत्र गवाक्षों पर लग गये थे। राजकन्या ने भी गवाक्ष से देखा और उसका हृदय उसके पास नहीं रह गया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -42
अब तक जो राजकुमार आते थे, राजकुमारी सत्या को दया आती थी उन पर। वह एक को भी देखने के लिये उत्सुक नहीं हुई किन्तु आज जो आये- 'यही यही तो उसके आराध्य हैं। इन्हीं चरणों की तो वह दासी है।यदि मैंने कभी किसी पुरुष की ओर सतृष्ण दृष्टि न डाली हो, यदि मेरा कौमारव्रत मन से भी अखण्डित हो तो ये सर्वज्ञ मेरे संकल्प को सत्य करें'
राजकुमारी परमधार्मिक पिता की पुत्री, सहसा चौंक गयीं- 'मेरा व्रत, मेरा धर्म किस गणना में है? भगवान गंगाधर, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी और सभी लोकपाल जिनकी चरण रज अपने मस्तक पर चढ़ाकर अपने को कृतकृत्य मानते हैं, उन्हें कोई व्रत तुष्ट करेगा? बहुत तुच्छ साधनहीना, असमर्था हूँ मैं। ये अनन्त करुणार्णव अपनी अहैतु की कृपा से ही इस नगण्या पर सन्तुष्ट हों'
राजकुमारी देह को ही भूल गयीं तो कैसे स्मरण हो कि गवाक्ष से सटी कब तक बैठी रहीं वे।
महाराज नग्नजित श्रीकृष्णचन्द्र को राजसदन में ले आये। पार्थ तथा सार्थ आये सबका भली प्रकार पूजन-सत्कार किया उन्होंने। अन्त में हाथ जोड़कर खड़े हो गये द्वारिकाधीश के सम्मुख।
'राजन मैं तो आपका सौहार्द प्राप्त करने ही आया हूँ'
श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर बोले- 'यद्यपि अपने धर्म में स्थित क्षत्रिय के लिये याचना निन्दित मानी गयी है, किन्तु आपके साथ सम्बन्ध-इच्छा से मैं आपकी कन्या का पाणि-प्रार्थी हूँ। क्योंकि आपकी रूपगुण सम्पन्ना पुत्री का शुल्क दे पाना किसी के लिये भी सम्भव नहीं है'
'स्वामी निखिल गुणैक धाम आपसे बढ़कर अभीष्ट वर मेरी पुत्री के लिये दूसरा कौन हो सकता है। भगवती श्री जिनके चरणों में शाश्वत निवास करती हैं उनका हस्तावलम्ब मिले मेरी कन्या को इतना बड़ा सौभाग्य उसका' महाराज गद्गद कण्ठ बोले- 'किन्तु स्वामी मैं धर्मसंकट में हूँ। मैंने अपने सात वृषभों को निग्रह करने वाले को कन्यादान करने की प्रतीक्षा पहिले ही कर ली है। यदि आप इन्हें निगृहीत कर दें......!'
'आइये देखें उन्हें' महाराज का वाक्य पूर्ण होने से पहले ही श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -43
'ये चतुर्भुज हैं। चार वृषभों को श्रृंग पकड़कर रोक ले सकते हैं, किन्तु सात......!'
सेवकों, सभासदों के हृदय धड़कने लगे लेकिन अर्जुन और द्वारिका के लोगों को श्रीकृष्ण के स्वरूप का पता है। इन जगदीश्वर के लिये भी कुछ अशक्य है, यह वे स्वप्न में भी नहीं सोच सकते।
वृषभों के घेरे के चारों ओर सब खड़े हो गये। श्रीकृष्ण ने लम्बी नासिका में डालने की रज्जु उठायी। पटुका कटि में कसा और वृषभों के घेरे द्वार के भीतर चल पड़े। महाराज नग्नजित के सेवक जो वृषभाहतों के उठाने पर नियुक्त थे, अत्यन्त सतर्क सावधान खड़े हो गये। आहत को उठा ले जाने के उपकरण, उपचार सामग्री, चिकित्सक सदा की भाँति आगत को सूचना दिये बिना प्रस्तुत कर ली गयी थी। इनकी सूचना एवं प्रदर्शन से किसी को आतंकित करने का प्रयत्न तो पहिले भी नहीं किया गया था।
किसी को रज्जु उठाकर द्वार के समीप आते देखते ही वीरपुरुष की गन्ध से उत्तेजित होकर हुंकार करने वाले, नासिका से फुत्कार छोड़ते उग्र हो जाने वाले वृषभ- ये तो द्वार खुलने से पूर्व पृथ्वी खुरों से खोदने लगते थे- सिर झुकाकर टूट पड़ने को प्रस्तुत हो जाते थे और आज इनमें से एक ने भी तो गर्जना नहीं की। सब शान्त जैसे कुछ हो ही नहीं रहा हो। ये धर्म वृषभ अपने स्वामी को ये नहीं पहिचानेंगे? ये तो पूँछ उठाये खड़े हो गये थे, जैसे इनसे मिलने को ही उत्सुक हों।
'श्रीकृष्ण कहाँ हैं किस वृषभ के समीप हैं?' सेवकों ने सभी दर्शकों ने आश्चर्य से देखा। जिस वृषभ पर दृष्टि गयी, वहीं उसी के सम्मुख श्रीकृष्ण और दूसरे वृषभ की ओर देखने का समय भी कहाँ मिला। कोई कैसे समझे कि सर्वरूप ने इस समय अपने सात रूप बना लिये थे। सातों वृषभों को पकड़कर एकत्र कर लिया और उनकी नासिका में छिद्र करते, रज्जु डालते चले गये।
श्रीकृष्णचन्द्र ने सातों वृषभ एक रज्जु में नाथ दिये। वे उनकी नासिका में ग्रथित रज्जु को पकड़े इधर से उधर उन्हें घुमाने लगे, मानो वे छोटे बछड़े हों।
(साभार श्रीद्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -44
वृषभों ने तो पूँछें उठा रखी हैं। वे स्नेह भरी हुंकार कर रहे हैं और स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र के साथ दौड़ रहे हैं। उन्हें खींचना कहाँ पड़ रहा है। उनकी नासिका में पड़ी रज्जु तो सीधी नहीं हो पाती। श्रीकृष्ण जिधर हटते हैं, वृषभ उनके साथ चलते हैं। ऐसा लगता है जैसे सदा से इनसे परिचित, इनके द्वारा ही पालित हों।
महाराज नग्नजित के संकेत पर शंख गूँजने लगे हैं। ब्राह्मणों ने स्वस्ति पाठ प्रारम्भ कर दिया। सेवक दौड़ने लगे हैं। वैवाहिक पद्धति प्रारम्भ हो चुकी है।
'महाराज अब ये सदा के लिये सीधे हो गये' श्रीकृष्णचन्द्र सातों वृषभों को रज्जु में नाथे बाहर लिये चले आये- 'अब ये किसी पर आघात नहीं करेंगे।'
'ये सदा आपके हैं। आपके ही रहें। महाराज ने प्रथमोपहार बना दिया उन वृषभों को।'
विवाह की पहिले से कोई प्रस्तुति नहीं थी। कोई मुहूर्त देखा नहीं गया था। उत्तम मुहूर्त में, पूरी तैयारी करके ही महाराज को कन्या दान करना था। पहिला विवाह श्रीकृष्णचन्द्र का था द्वारिका से बाहर ससुराल में। सबको रुकना पड़ा- अत्यन्त आदर से सब रखे गये।
इस विलम्ब का एक दूसरा परिणाम भी हुआ। जो राजकुमार दक्षिण कौसल पहिले वृषभ-निग्रह करने आ चुके थे और अंग-भंग होकर निराश लौट गये थे, उन्हें समाचार मिल गया। उन्हें सेना सज्जित करके मार्गावरोध का समय मिल गया। वे सेना लेकर मार्ग में रोककर बारात को राजकन्या छीन लेने के अभिप्राय से अपने-अपने राज्यों से चले और एक ही के विरुद्ध थे सब, अतः एक साथ मिलकर उन्होंने उपयुक्त स्थान ढूँढ़ा। सघन अरण्य, दोनों ओर गिरिशिखर और मध्य में संकीर्ण मार्ग। वे शिखरों पर और वन में भी छिपकर प्रतीक्षा करने लगे।
बहुत धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ। महाराज नग्नजित ने अपार उपहार दिये अपनी दुहिता को। बारात विदा हुई तो अर्जुन अकेले रथ पर बैठे। श्रीकृष्णचन्द्र के साथ उनके रथ पर उनकी नववधू बैठीं तो पार्थ को पृथक रथ पर बैठना ही चाहिये था।
'तुम मुझे साथ लाये हो तो मार्ग में रक्षा का दायित्व मेरा है' अर्जुन ने वहीं गाण्डीव ज्या सज्ज कर लिया- 'अब अपने सैनिकों को कह दो कि वे मेरे नियन्त्रण में हैं और उन्हें शान्त बाराती बने रहना है।'
'जैसी आपकी आज्ञा' श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर अर्जुन की बात स्वीकार कर ली।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमशः
श्री द्वारिकाधीश
भाग -45
मार्गावरोध करने वालों की संख्या, उनको मिला समय, उनका व्यूह, मार्ग की उनके अनुकूल स्थिति, सब ठीक किन्तु गाण्डीवधारी की बाणवर्षा तो गगन से पाताल तक अव्याहत है। विरोधियों के भाग्य में केवल आहत होना और मरना था। उनका एक भी बाण बारात के किसी रथ की ध्वजा का स्पर्श नहीं कर सका। मृगराज यदि मृगों के यूथ में प्रविष्ट हो जाय- मृगों के श्रृंग कुछ काम आवेंगे। अर्जुन के शरों से छिन्नांग, हीनवाहन वे सब अपने मृत सैनिकों, सहायकों को छोड़कर इधर-उधर भाग गये।
द्वारिका में समाचार पहिले पहुँच चुका था। नगर सज्जित हो चुका था। वर-वधू के स्वागत के लिये उत्सुक प्रतीक्षा वहाँ चल रही थी।
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द्वारिका में महारानियों में पीछे बहुत वर्षों तक चर्चा होती थी कि भाग्यशालिनी तो महारानी भद्रा जी हैं। न कोई विरोध, न कोई संघर्ष, सीधे ब्राह्म विधि से बड़ी सुगमता से इन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र के अन्तःपुर में प्रवेश पाया।
कैकय (काकेशस) प्रदेश के नरेश धृष्टकेतु को वसुदेव जी की बहिन श्रुतिकीर्ति विवाही गयी थीं। उनके पाँच पुत्र और एक कन्या हुई। ज्येष्ठ पुत्र सन्तर्दन और कन्या भद्रा। पाँच भाईयों के पश्चात हुई बहिन। माता-पिता तथा सब भाईयों की अतिशय स्नेहभाजना।भद्रा जी को जन्म से कामरूपत्व सिद्धि प्राप्त थी। वे जब जैसा रूप धारण करने का संकल्प करतीं, वैसा ही उनका रूप तथा वस्त्र, आभरणादि भी उसी के अनुरूप हो जाते थे किन्तु यह सिद्धि उनके लिये केवल शैशव में विनोद का साधन रही। वे भाईयों को, माता-पिता को कोई रूप धारण करके भ्रम में डाल देतीं।
'भद्रा बेटी भद्रा कहाँ गयी तू?' माता व्याकुल होकर पुकारतीं अथवा भाई ढूँढ़ते फिरते बहिन को न पाकर। उन्हें कैसे पता लगता कि कोई दूसरी कन्या, मृगी, बिल्ली या गिलहरी बनी वहीं उनकी बहिन बैठी है। तनिक विनोद हँसती भद्रा फिर प्रकट हो जाया करती थी।
शैशव गया और कौमार्य आया तो भद्रा अत्यन्त संकोचमयी हो गयीं। उन्होंने फिर सिद्धि का उपयोग ही नहीं किया। उनके किशोरी होने से पूर्व ही पिता ने युद्ध में वीरगति पायी और बड़े भाई सन्तर्दन सिंहासनासीन हुए।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)
क्रमश:
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