द्वारिका धीश 9

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 91

‘श्रीकृष्णचन्द्र बलपूर्वक पारिजात ले जा रहे हैं।' नन्दनवन के रक्षक यक्ष केवल समाचार दे सकते थे। रोकने की शक्ति या साहस उनमें नहीं था। 'पारिजात ले जा रहे हैं?' इन्द्र को बहुत अधिक क्रोध आया। उनकी अस्वीकृति की अवगणना करके, उनसे कहे बिना यह पारिजात का हरण? 'पारिजात मेरा है’ चन्द्रदेव सदा से इस दिव्य तरु पर अपना स्वत्व मानते रहे हैं- वह क्षीरसागर से निकला है। सुरों का उस पर स्वत्व कैसा? मेरी बहिन रमा के स्वामी उसे ले जा रहे हैं तो इसमें कोई आपत्ति क्यों करें? उचित तो यह है कि ऐरावत भी उन्हें भेंट कर दिया जाय।' श्रीकृष्ण के स्वागत में एकत्र देवसभा भले देवराज के संकल्प से तत्काल युद्ध-सभा बन जाय, श्रीकृष्ण के विपक्ष में जो हो, वह स्वयं सुरराज भी हो तो भी त्रिभुवन में कोई उसका साथ नहीं देता, इस सत्य को स्पष्ट करते सबसे पहिले चन्द्रदेव उठे और जाते जाते बुध को अपने साथ लेते गये। उन्होंने डाँट दिया था पुत्र को- 'तू इन भ्रष्टमति सुरों की सभा में क्यों बैठा है?' उठ और यहाँ से चल।' 'शशि जिन्हें रमा के नाते बहनोई कहते हैं, वे मेरी साक्षात स्वसा कालिन्दी के पति हैं।'

यमराज अपना कालदण्ड उठाये खड़े हो गये- 'उन्हें आवश्यकता नहीं है, यदि हुई तो संयमिनी का स्वामी युद्ध में उनका साथ देने में हिचक नहीं सकता।' अपने आग्नेय नेत्रों से मानो इन्द्र को भस्म कर देंगे, ऐसे देखते यमराज अपने महिष पर जा बैठे। वे अभी गये भी नहीं थे कि शनैश्चर खड़े होकर बोले- 'यमुना मेरी भी बहिन है। श्रीकृष्ण मेरे सम्मान्य हैं। जो उनका स्मरण करते हैं, मेरी बाधा उन्हें पीड़ा नहीं देती। मैं सुरों पर इतनी ही कृपा कर रहा हूँ कि इन्हें अपनी दृष्टि से दग्ध नहीं करता।' 'पुत्र! तू सदा से क्रूर रहा है और क्रूरों का ही तूने समर्थन किया किन्तु जीवन में तूने आज उचित कार्य किया।' सूर्यदेव शनैश्चर पर आज प्रसन्न हुए। अपने इस सदा के विरोधी पुत्र का उन्होंने साथ दिया इस समय। पिता-पुत्र देवसभा से एक साथ उठ गये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 92

‘कुबेर भगवान शिव का भृत्य है और देवी रमा रुष्ट हो जायँ तो कंगाल हो जायगा धनाधिप।' यक्षेश्वर भी जाते-जाते कह गये- 'श्रीकृष्ण के साथ जो शत्रुता करने चले, उसे मेरी या मेरे यक्षों की सहायता की आशा स्वप्न में भी नहीं करनी चाहिए।' 'उन्होंने अभी ही मेरा अपहृत छत्र देकर मुझे अनुग्रहीत किया है। वरुण जलाधिप है और इसलिए सिन्धुसुता को पुत्री कहने का इसे गौरव मिला है।' वरुण जलाधिप है और इसलिए सिंधुसुता को पुत्री कहने का इसे गौरव मिला है।' राजाधिराज वरुण भी उठ गये- 'मेरा महास्त्र पाश है और गरुड़ को पाश-छेदन का व्यसन है। श्रीकृष्ण के विरोध में जाने वाले केवल मेरे कोप भाजन ही हो सकते हैं।

‘मैं सुरों का प्रसिद्ध विरोधी हूँ।' शुक्राचार्य ने खुलकर अट्टहास किया- 'मेरे आशीर्वाद श्रीकृष्ण के साथ हैं। पर ये राहु-केतु यहाँ क्यों हैं? चक्र का प्रताप, आशा है, इन्हें भूला नहीं होगा।'
'हम तो आचार्य के अनुगत हैं। राहु - केतु दोनों उठे- 'चक्र से ही नहीं, हम तो उससे भी दूर रहते हैं जो उन श्रीचक्रपाणि का स्मरण करता है।'

'सब जा सकते हैं किन्तु युद्ध हो और युद्ध का अधिदेवता वहाँ से तटस्थ होकर चला जाय, यह नहीं हो सकता। अंगारवर्ण मंगल पूर्ण प्रज्वलित हो उठा- 'गरुड़ की पीठ पर साक्षात मेरी माता बैठी हैं। युद्ध हुआ तो यह भूमिपुत्र उनकी जो भी सेवा कर सकेगा, करने से पीछे नहीं रहेगा।'

'श्रीकृष्ण मेरे स्नेह-भाजन हैं।'
अग्निदेव बोले- 'शक्र तो चाहते थे कि अग्नि सदा पाण्डु-पीड़ित रहे। खाण्डव प्रदान करके उन गरुड़ध्वज ने मुझ हव्यवाह को स्वास्थ्य प्रदान किया है। जातवेदा इतना अकृतज्ञ नहीं है कि उनका विरोध करे। युद्ध में इन्द्र ने आग्नेयास्त्र का प्रयोग भी किया तो उन्हें पश्चाताप करना पड़ेगा।' अग्निदेव चेतावनी देकर चले गये।

'मेरा पुत्र उनका नैष्ठिक सेवक है।' वायुदेव खिन्न स्वर में बोले- 'वह सुनेगा कि उसकी अनुपस्थिति में इन श्रीसीतानाथ को इस रूप में युद्ध करना पड़ा तो बहुत दुःखी होगा। मेरे दूसरे पुत्र भीम पर भी इनका स्नेह है। मैं सुरों का विरोध नहीं करूँगा; किन्तु देवराज के लिए अब वायव्यास्त्र सदा-सदा को निरुपयोगी हो गया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 93

इन्द्र ने निराश होकर देखा कि देवसभा से प्रायः सब ग्रह, सब लोकपाल चले गये है। अग्नि ने धमकी दे दी है कि आग्नेयास्त्र अब इन्द्र के लिए अनर्थकारी होगा और वायु ने तो सदा के लिए वायव्यास्त्र से वंचित कर दिया।

'गुरुदेव!' देवराज ने वृहस्पति के चरण पकड़े। वे सुरगुरु अकेले शान्त बैठे थे।'
'मैंने महर्षि कश्यप को वचन दिया है कि संकट में अपने यजमान का साथ नहीं छोडूँगा।'
बृहस्पति बोले- 'मैं ब्रह्मण्यदेव श्रीकृष्ण की भी मंगलकामना ही करता हूँ। मेरा स्वभाव किसी का अनिष्ट चिन्तन करना नहीं है। सबको आशीर्वाद ही मैं देता रहा हूँ। तुम अपने पुत्र जयन्त के साथ युद्ध में जाओ। भगवान परशुराम के साक्षात शिष्य ये ब्राह्मणोत्तम प्रवर तुम्हारा साथ देंगे। मैं प्रयत्न करूँगा कि तुम्हारा अनिष्ट न हो किन्तु शक्र! स्मरण रखना कि श्रीकृष्ण सर्वेश्वरेश्वर हैं। उनके द्वारा पराजित होने में भी गौरव ही है।'

इन्द्र ऐरावत पर बैठे। ब्राह्मण-श्रेष्ठ प्रवर और जयन्त-सुरेन्द्र को भी कोई साथी, सेना, सहायक श्रीकृष्ण के विरुद्ध जाने का संकल्प करते ही नहीं मिला। वे भी एकाकी ही गये। सुरगुरु ने आज्ञा न दी होती तो वे निराश हो चुके थे और वह आज्ञा उसमें भी पराजय का स्पष्ट संकेत था।

इन्द्र ने पहुँचते ही देख लिया कि युद्ध का अधिदेवता ग्रह भूमिपुत्र मंगल श्रीकृष्ण से षष्ठम नीच का होकर स्थित है और देवराज पर उसकी अष्टम क्रूर अंगार-दृष्टि स्थिर जमी है।

'तुम तनिक अपना धनुष मुझे तो दो।' सत्यभामा ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा।
'अच्छा, युद्ध करोगी तुम?' हँसकर प्रत्यंचा चढ़ाकर धनुष श्रीकृष्ण ने सत्यभामा को पकड़ा दिया। साथ ही चरणों से गरुड़ के उदर भाग का स्पर्श करके संकेत कर दिया कि अब पक्षिराज को विशेष सावधान रहना है।

आपको यह आश्वासन प्राप्त हो कि कोई आपको नहीं मार सकता और आपको दूसरों को मारने की छुट्टी हो, त्रिभुवन आपकी दया पर ही तो जीवित रहेगा। त्रिलोकी न सही, त्रिभुवन का अपने को स्वामी मानने का गर्व रखने वाले इन्द्र आये थे अपने पुत्र तथा ब्राह्मण श्रेष्ठ प्रवर के साथ। वे तीन थे और श्रीकृष्ण एकाकी। वह भी सत्यभामा को धनुष देकर अर्ध योद्धा रह गये।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:
श्री द्वारिकाधीश
भाग- 94

प्रभो! मैं जिसके समीप रहता हूँ, उसकी इच्छानुसार पदार्थ- अस्त्र-शस्त्र और योद्धा भी प्रकट कर सकता हूँ किन्तु......।' कल्पवृक्ष से बहुत विनम्र लेकिन भयभीत स्वर प्रकट हुआ- 'मुझे इन अम्बा ने अंक में स्थान दिया है। मैं अब इनका आश्रय छोड़कर- इनके पृथ्वी पर रहते स्वर्ग में सुरों के विलास का माध्यम नहीं बनना चाहता। शक्र मुझे छीनने ही आ रहे हैं। मैं आपकी शरण में हूँ। आप अनुमति दें तो इन्द्र का मानमर्दन करने वाले सहस्र-सहस्र शूर मुझसे अभी प्रकट हो जायेंगे।'

'तुम निर्भय हो' श्रीकृष्ण ने अपने कर से स्पर्श कर दिया कल्पतरु का। 'तुम्हें शान्त रहना चाहिए। मेरे धरा पर रहते तुम्हारा स्थान द्वारिका में इनका प्रांगण ही है और शक्र से युद्ध तो एक क्रीड़ा है इस समय। सहायक तो इन्द्र को अपेक्षित थे और वे उन्हें नहीं मिले।'

श्रीकृष्णचन्द्र ने दक्षिण कर में कौमोदकी गदा उठा ली और वाम कर से सत्यभामा को त्रोण में से निकालकर बाण देने लगे। इन्द्र, जयन्त, और प्रवर- तीनों ने शर-वर्षा प्रारम्भ की किन्तु शारंग से छूटे बाण भले वे सत्यभामा कर से छूटें, कवच फोड़कर सीधे तीनों के शरीर में प्रवेश कर रहे थे। तीनों पूरी शक्ति से युद्ध में लगे थे किन्तु उनके बाण तो सत्यभामा तक पहुँच ही नहीं पाते थे। गरुड़ अपने पंखों से बाण-वृष्टि का व्यर्थ किये दे रहे थे। प्रवर ने सबसे पहिले क्रोध में आकर दिव्यास्त्र के प्रयोग का संकल्प किया।

भगवान परशुराम के साक्षात शिष्य प्रवर किन्तु आग्नेयास्त्र का स्मरण करते ही उनके अपने शरीर में ज्वाला उठने लगी। जयन्त ने उन्हें सावधान किया- 'आप युद्ध में साथ न देने वाले किसी देवता के अस्त्र का उपयोग नहीं कर सकते। वह अस्त्र हमारे अपने ही विरुद्ध जायगा।'

'ब्रह्मास्त्र?' प्रवर ने पूछ लिया, पर जयन्त ने दृष्टि उठाकर ऊपर संकेत कर दिया। गगन में दूर भगवान हंसवाहन और कृत्तिवास दोनों दीख गये। दोनों श्रीकृष्ण की ओर हैं और दोनों ने करके संकेत से निषेध कर दिया कि उनके अस्त्रों का प्रयोग मत करो।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 95

ब्रह्मास्त्र गया, पाशुपत गया और साक्षात नारायण के विरुद्ध नारायणास्त्र का प्रयोग किया नहीं जा सकता। देवताओं के अस्त्र उलटे देवराज के विपक्ष में हो रहे हैं इस समय, और सत्यभामा के लिए यह क्रीड़ा है। वे हँस रही हैं। तीनों के शरीर उनके बाणों से विद्ध होते जा रहे हैं। कोई प्रचण्ड बाण पक्षों से बचता भी है तो उसे वे अपने पंजे या चोंच से झपट लेते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र को कौमोदकी गदा पर शर रोकना पड़े, इसका भी अवसर वे आने नहीं देते हैं।

सबसे अधिक दुर्गति ऐरावत की। बार-बार गरुड़ क्रोध में भरकर उसी को लक्ष्य बनाते हैं और उनका पंजा या चोंच जहाँ पड़ती है, ऐरावत के शरीर को चीरती चली जाती है। अन्त में आहत होकर ऐरावत गिर पड़ा पारियात्र पर्वत के शिखर पर। देवराज गगन में बिना वाहन के रह गये।

शक्र को सबसे पहिले अपने वाहन की सुधि लेनी थी। वे पर्वत पर उतरे तो जयन्त और प्रवर भी उतर गये। दोनों के शरीर बाणों से जर्जर हो चुके थे। दोनों को ही यह अवसर अमूल्य लगा तनिक विश्राम करने का।

'जो युद्ध न करता हो, उस पर आघात नहीं किया जाता।' श्रीकृष्ण ने सत्यभामा को रोक दिया और धनुष उनके हाथ से ले लिया। उनका संकेत पाकर गरुड़ भी उस पर्वत पर उतरे। पर्वत का अधिकाँश भाग गरुड़ के वेग से भूमि में धँस गया।

सन्ध्या हो चुकी थी। सब युद्ध-क्लान्त थे। पर्वत पर ही सबको रात्रि-विश्राम करना था। श्रीकृष्णचन्द्र ने गंगा का स्मरण किया और तत्काल पर्वत से उनकी जलधारा प्रकट हुई। वह धारा अविन्ध्या नाम से प्राणियों को पवित्र करती अब भी प्रवाहित है।

स्नान करके जनार्दन ने पारिजात के पुष्प लिये, उसी से विल्वपत्र प्राप्त किये और पर्वत से एक शिवलिंगाकार पाषाण लेकर उसमें धूर्जटिका आवाहन-पूर्वक पूजन करने लगे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश ले)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 96

दूसरे दिन प्रभात में मातलि इन्द्र का रथ लेकर आ गये। इन्द्र अपने पुत्र जयन्त तथा प्रवर को भी लेकर रथ पर बैठे। ऐरावत को उन्होंने विदा कर दिया। अमृतपायी देवताओं के शरीर स्वस्थ हो जाते हैं अपने आप। अतः इन्द्र, जयन्त तथा उनकी कृपा से प्रवर भी स्वस्थ हो चुके थे।

गरुड़ारूढ़ श्रीकृष्णचन्द्र के साथ युद्ध कुछ क्षणों में ही सुरेन्द्र को भारी पड़ने लगा।
श्रीकृष्ण ने प्रवर को कहा- 'विप्रवर! आप द्वारिका पधारेंगे तो हम आपका श्रद्धा-सहित अर्चन करेंगे किन्तु युद्धभूमि का अर्चन तो इसके ही उपयुक्त होता है।'

प्रवर को शारंग-धन्वा ने मूर्च्छित कर दिया। जयन्त को देखकर सत्यभामा हँसी- 'यह एक चक्षु वाला’
जयन्त क्रोध में भरकर आघात करने लगा किन्तु वह भी कुछ क्षणों में मूर्च्छित हो गया। अब क्रोधान्ध होकर देवेन्द्र ने वज्र का प्रहार किया। श्रीकृष्ण ने वामहस्त से वज्र पकड़ लिया।

उठे हुए श्रीकृष्णचन्द्र के दक्षिण कर में उनका प्रलय ज्वालोद्गारि महाचक्र घूमने लगा, यह देखते ही शक्र भाग खड़े हुए। सत्यभामा ने व्यंग किया- देवराज! पारिजात के पुष्प पाये बिना शची आपका स्वागत नहीं करेंगी।'

इन्द्र लौट आये और नम्रतापूर्वक बोले- 'देवि! मुझे पराजय की कोई लज्जा नहीं है। मैं इन त्रिभुवनेश्वर से हारा हूँ; किन्तु आपके योग्य यह वचन नहीं है। जो अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों के विधायक-पालक हैं, वे पुरन्दर को मार ही देना चाहेंगे तो रक्षा कौन करेगा?'

इसी समय देवमाता अदिति के साथ महर्षि कश्यप वहाँ आ गये। देवगुरु बृहस्पति से सूचना पाकर दोनों शीघ्रतापूर्वक आये थे। दूर से ही महर्षि ने पुकारा- 'यदि हमें माता-पिता मानते हो-हमारी आज्ञा माननी है तो शस्त्र नीचे डाल दो।'

इन्द्र और कृष्ण दोनों ने वाहन त्याग दिये थे महर्षि का शब्द सुनते ही। दोनों ने एक साथ प्रणाम किया।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 97

मातः! मैं क्षमा चाहता हूँ।' श्रीकृष्णचन्द्र ने सिर झुका लिया- 'नन्दन-कानन में आपके लिए महर्षि ने जो कोविदारतरु पारिजात से प्रकट किया था, वह सदा त्रिशाखाशोभित अब भी है। सुरेन्द्र को उससे सन्तोष करना चाहिए। क्षीराब्धिसमुद्भव पारिजात पर आपकी पुत्रवधू अपना स्वत्व माने तो आप उसे आशीर्वाद दें।'

'जनार्दन! पिता के पदार्थ पर तुम्हारा स्वत्व नहीं है, यह कहने का साहस मेरे सम्मुख शक्र नहीं करेगा।'
महर्षि कश्यप ने कहा- 'क्षीरोदधि-मन्थन तुमने किया और तुम्हारे अनुग्रह से ही मैं कोविदार प्रकट करने में समर्थ हुआ। तुम सर्वलोकेश्वर की कृपा का प्रसाद ही सबको प्राप्त होता है। सुरों को तुमने जो दिया था, वही उन्हें मिला। अब तुम जो दोगे वही उन्हें मिलेगा किन्तु इन्द्र को अब क्षमा कर दो।'

श्रीकृष्ण ने इन्द्र को हृदय से लगाया और उनका वज्र उन्हें लौटाते हुए कहा- 'पारिजात मेरे पृथ्वी पर रहने तक द्वारिका में रहेगा। मुझे भगवान विश्वनाथ ने दानवों के षट्पुर को ध्वंस करने की आज्ञा दी है। जयन्त और प्रवर को मेरा साथ देना चाहिए। मैं दस दिन में इनको नष्ट कर दूँगा।'
'दोनों का सौभाग्य।'
इन्द्र ने कहा- 'आप जिसे अपनी सेवा प्रदान करें, उसका परम पुण्योदय हुआ।'

महर्षि कश्यप, अदिति देवी और इन्द्र भी वहाँ से स्वर्ग के लिए विदा हो गये। जयन्त तथा प्रवर ने दानवों से युद्ध के समय उपस्थित होना स्वीकार किया। पत्नी के साथ श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका पधारे। पारिजात सत्यभामा जी के प्रांगण में स्थापित हो गया।

सत्यभामा जी के प्रांगण में लगा पारिजात तरु अद्भुत था। वह शीत ऋतु में नन्हें पौधे के समान छोटा हो जाता था और आतप को तनिक भी रोकता नहीं था। ग्रीष्म में वह बढ़कर सम्पूर्ण द्वारिका को अपनी छाया में ले लेता था। उस पर श्वेत कोकिल सदा कूजती और स्वर्गीय भ्रमर नन्दन-कानन त्यागकर उसके पुष्पों की सुरभि से आकर्षित आ गये थे।

शची के लिए इस पारिजात का हरण बहुत पीड़ा-दायक हुआ। जब उन्होंने समाचार पाया, क्रोध से अधर काटते पैर पटके उन्होंने। उनको लगा कि सत्यभामा ने उनके मुख पर थप्पड़ मार दिया है।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 98

सुरेन्द्र हारकर लौटे। शची की रही-सही आशा भी समाप्त हो गयी। वे क्रुद्ध होकर बोलीं- 'मैं नहीं जानती थी कि सुर इतने कापुरुष हैं।'

'तुमको बहुत गर्व है अपने पितृकुल का तो उसी को पुकार देखो।' सुरपति को पत्नी के प्रति दया नहीं आयी। शची के रुदन ने उन्हें रुष्ट किया। उन्हें इनके कारण ही कल्पवृक्ष खोना पड़ा। सत्यभामा को सुरतरु के पुष्प न देने का गर्व-प्रदर्शन ये न करतीं तो सत्यभामा को यहीं पति-दान को वे प्रस्तुत कर लेते। इनके कारण सुरों ने, लोकपालों ने, ग्रहों तक ने साथ छोड़ दिया। समर में पराजय, श्रीकृष्ण का विरोध, माता पिता की भर्त्सना सब सहनी पड़ी और इतने पर भी यह व्यंग-देवराज के लिए यह असह्य हो गया।

मैं देख लूँगी उस मानवी का गर्व।' शची सक्रोध उठ खड़ी हुई- 'मेरा पितृकुल सुरों के समान हीनवीर्य और भीरु नहीं हुआ है।'

क्रोध में विवेक नहीं रहता। शची क्रोध के आवेश में तलातल पहुँची पिता के समीप; किन्तु उनके पिता पुलोमा ने पुत्री को कोई आश्वासन नहीं दिया। उन्होंने सब सुनकर शान्त स्वर में कहा- 'पुत्री! तू जानती है कि तेरा पिता केवल दानवेन्द्र का अनुचर है। मैं स्वयं कुछ करने को स्वतन्त्र नहीं हूँ।'

शची का उत्साह, आक्रोश आधा वहीं हो गया। पुलोमा महापराक्रमी सही, किन्तु दानवेन्द्र तो मय हैं, यह वे भूल ही गयी थीं। पिता उनको लेकर मय के समीप पहुँचे। मयने सुना तो मस्तक पर हाथ पटक लिया। कई क्षण मौन बने रहे।

'वत्से! तू नहीं समझती कि तूने किसका अपमान अज्ञानवश कर दिया है। शक्र ने भी तेरा तिरस्कार किया; किन्तु इस समय तू जहाँ जायगी, वहीं तुझे सत्कार नहीं मिलेगा। भगवान ब्रह्मा और देवी पार्वती दो क्षण तुझे बैठने नहीं देंगी। अच्छा हुआ कि तू कैलास नहीं गयी।' मय ने अत्यन्त खिन्न स्वर में कहा- 'जिनका तूने अपमान किया है, उनके विपक्षी के लिए किसी लोक में कहीं शरण नहीं है। उसे न सुख मिलता है, न शान्ति।'

दूसरा कोई यह बात कहना जो शची उसे तुच्छ कह देती; किन्तु दानवेन्द्र मय की बात सुनकर उनका मस्तक झुक गया। उन्हें लगा कि उनसे कोई बहुत बड़ी भूल हो गयी है।
(श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 99

शची का मस्तक झुक गया। वे पद-नख से कुरेदने लगी थीं। अब क्या करें वे? कुछ सूझता नहीं था।

'तू द्वारिका चली जा और उन सर्वेश्वर की महिमामयी सहधर्मिणी से क्षमा माँग ले। वे परमोदारा तुझे क्षमा कर देंगी।' मय ने स्नेह-सिक्त स्वर में कहा- 'किन्तु स्मरण रखना कि उन निखिल लोकेश्वर की सहचरी ने भले उदारतापूर्वक तेरा सिंहासन स्वीकार कर लिया हो, द्वारिका में यदि तू किसी दासी के पादपीठ पर भी बैठ गयी तो संयमिनी के स्वामी यमराज किसी भी नरक में तुझे फेंक देने में इन्द्र का कोई संकोच नहीं करेंगे।'

शची इस चेतावनी को सुनते ही काँप गयी। उन्हें अब स्मरण आया कि सत्यभामा यमानुजा कालिन्दी की सपत्नी हैं। अब यदि सचमुच धर्मराज रुष्ट हुए हों, आश्चर्य क्या। सत्यभामा को भी वे बहिन ही मानेंगे और उनका अपमान करने की धृष्टता तो हो ही गयी। शची को भी द्वारिका जाने में ही अपनी कुशल दीखी।

शची सुर-साम्रज्ञी हैं। वस्तु एवं व्यक्ति में जो दिव्यता हैं, उनके नेत्र देख सकते हैं। स्वर्ग में वे गर्वान्ध थीं; किन्तु विगलित-गर्वा शची द्वारिका पहुँचते ही चकित हो गयीं। 'यह दिव्य धरा!' यहाँ का तो कण-कण चिन्तामणि है।'

शची समझ नहीं पाती थीं कि जहाँ का कण्टक तरु भी कल्पवृक्ष का प्रभाव रखता है, वहाँ की महारानी ने कल्पद्रुम के हरण का कष्ट क्यों उठाया। अब शची को लगा कि वे यहाँ कितनी नगण्या हैं।

कल्पवृक्ष दूर से दीख गया। वह महारानी सत्यभामा के प्रांगण में लगा था; किन्तु न किसी ने उसकी पूजा की थी और न उसे जल दिया था। जैसे द्वारिका में वह उपेक्षणीय था।

'इतना पुष्पभार!' शची आश्चर्य से कल्पवृक्ष को देखती रह गयीं। स्वर्ग में वे स्वयं इसकी अर्चना करती रही हैं; किन्तु वहाँ तो इसमें कभी इतने पुष्प नहीं आये। यहाँ तो लगता है कि यह पुष्पों से ही बना है।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 100

देवि! तुम आश्चर्य क्यों देखती हो?' कल्पवृक्ष से वाणी व्यक्त हुई- 'देखती ही हो कि मैं इस दिव्य धरा पर कितना महत्त्वहीन हूँ; किन्तु मुझे यह सौभाग्य मिला है कि मैं महारानी के प्रांगण में हूँ। वे महिमामयी कदाचित कभी देख लेती हैं मेरी ओर अनुराग पर सात्त्विकतां का सुकोमल भार उठाये मेरे सुमनों को देखकर हँस पड़ती हैं। उनकी प्रसन्नता का पात्र बना मैं यहाँ आकर।'

'तू यहाँ क्या कर रही है?' अचानक एक दासी ने शची को देख लिया। समीप आ गयी। द्वारिका में उसकी महारानी के यहाँ पता नहीं कितनी दिव्यदेहा आती ही रहती हैं महारानी की पद-वन्दना करते। दासी ने न तो शची से परिचय पूछा, न कोई हिचक दिखलायी। स्नेहपूर्वक बोली- 'इनसे कुछ माँगने की भूल मत करना।'

क्यों?' यह कल्पवृक्ष नहीं है? यह प्रार्थी की कामना पूरी नहीं करता?' शची को लगा कि धरा के प्रभाव से कहीं कल्पवृक्ष अपनी शक्ति खो तो नहीं बैठा। 'है तो कल्पवृक्ष ही; किन्तु पता नहीं क्यों महारानी ने इस झंखाड़ को स्वर्ग से लाकर यहाँ प्रांगण में लगा दिया है।' दासी ने कहा- 'मैंने भी समझा था कि माँगने पर यह अभीष्ट दे सकता होगा। मेरी याचना पूर्ण नहीं कर सका तो पुष्प-पत्र सब गिराकर सब सूख-सा गया। मुझे इस पर दया आती है। तू वही भूल मत करना।'

‘क्या मांगा था तुमने?' शची ने पूछा।
‘क्या मैंने माँगा था और तू क्या माँगेगी?' दासी खुलकर हँस पड़ी- 'द्वारिका में अपनी महारानी के चरणों में अविचल अनुराग को छोड़कर दूसरा भी कुछ माँगना है किसी को?'
दासी चली गयी शीघ्र तो कल्पवृक्ष से पुनः शब्द सुनायी पड़ा- 'देवि! देखती ही हो कि सुरपादप यहाँ कितना कंगाल है। यह केवल अर्थ, धर्म काम दे सकता है और यहाँ की रज में मुक्ति लुण्ठित है। इस अनुराग भूमि पर पारिजात की शक्ति केवल विडम्बना है।'

तुम महारानी के चरण-दर्शन में मेरी कुछ सहायता कर सकते हो?' शची ने संकोच से पूछा। 'आप जानती हैं कि यह मेरी शक्ति-सीमा में नहीं है; किन्तु आज महोत्सव का दिन है। महारानी का द्वार सबके लिए उन्मुक्त है।' सुरपादप ने स्नेहपूर्वक कहा।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 101

शची अन्तःपुर में चली गयीं और भीत-संकुचित महारानी सत्यभामा के चरणों में झुकीं तो सत्यभामा ने भुजाओं में भरकर उन्हें हृदय से लगा लिया- 'सखि! तू अच्छे अवसर पर आ गयी। मुझे आज तेरी सहायता अपेक्षित है। मेरे स्वामी ने आज ही भौमपुर से लायी 16,100 कन्याओं का पाणि-ग्रहण किया है। वे मेरी अनुजाएँ आज नववधू बनी है। मुझसे आशीर्वाद लेने वे अभी आती होंगी। मैं मानवी हूँ, मेरी शक्ति की मर्यादा है; किन्तु तू देवी है। तू श्रान्त नहीं होगी। सुरपादप के पुष्प अंचल में भर ले और मेरी ओर से उन बहिनों के चरणों पर अंजलि अर्पित कर।'

शची हर्ष विह्वल हो गयीं इस औदार्य से। इसका नाम महानता है- यह उन स्वर्ग-साम्राज्ञी ने यहाँ सीखा। कोई उपालम्भ नहीं, कोई व्यंग नहीं और जो सम्मान पाने का स्वप्न भी कोई न देख सके- महारानी का प्रतिनिधित्व, वह इतने सहज भाव से महारानी ने दे दिया उन्हें। अमरपुर में महारानी की अर्चा का सुअवसर आया था; किन्तु अंहकारवश वह भार शची ने सेविका पर डाल दिया। कल्पवृक्ष के सुमनों से महारानी के चरणार्चन का सौभाग्य-शची के मन में यहाँ आकर यह महत्तम कामना थी। यही उनके लिए उचित क्षमा-दान था।

श्रीकृष्णचन्द्र की 16,100 रानियों के चरणार्चन-उनके नव-विवाहिता होने के अवसर पर कल्पवृक्ष के उन्हीं पुष्पों से और वह भी महारानी सत्यभामा की ओर से-शची का हृदय संतुष्ट हो गया महारानी की इस अनुकम्पा से। कल्पवृक्ष के नीचे जाकर शची ने अंचल फैलाया तो ऊपर तक सुमनों से वह भर गया। शची के जीवन में इतना उल्लास, इतना आनन्द प्रथम प्रकट हुआ जब वे पुष्पांजलि देने को प्रस्तुत हुईं।

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देवर्षि नारद ने संवाद न दिया होता तो पता ही नहीं लगता कि साम्ब हस्तिनापुर में कौरवों के कारागार में बन्द हैं। द्वारिका से वे एकाकी चले गये थे और यादव राजकुमारों के लिए ऐसा भ्रमण अस्वाभाविक नहीं था। अधिकांश राज्यों से यदुकुल के सम्बन्ध थे। कोई भी श्रीद्वारिकाधीश का पुत्र कभी भी अपनी माता अथवा विमाता के पिता-भाई के यहाँ पहुँच सकता था और ननिहाल में वह कई महीने भी रह जाय तो कुछ विचित्र बात नहीं थी। अतः द्वारिका में किसी भी राजकुमार की अनुपस्थिति को महत्त्व नहीं दिया जाता था।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग-102

'दुर्योधन पुत्री लक्ष्मणा के स्वयंवर में साम्ब गये थे’- देवर्षि ने दाशार्ही राजसभा में ही समाचार दिया- 'उन्होंने स्वयंवर सभा में कन्या-हरण किया और उसे रथ पर बैठाकर चल पड़े।'

'दुर्योधन का सौभाग्य। इतना सुन्दर, शूर जामाता उसे मिला। साम्ब ने उसे श्रीकृष्णचन्द्र का सम्बन्धी बना दिया’ - महाराज उग्रसेन ने कहा।

'लेकिन कौरवों ने इसे अपना अपमान माना।'
देवर्षि ने बतलाया- 'कर्ण, यज्ञकेतु, भूरिश्रवा आदि के साथ स्वयं दुर्योधन ने साम्ब को घेर लिया। छः महारथियों ने मिलकर किसी प्रकार उनके रथ के घोड़े और सारथी को मारा। साम्ब उनके लिए भी दुर्धर्ष थे किन्तु अकेला बालक कब तक लड़ता। वह अब कौरवों के कारागार में है।'

'कौरव इतना साहस करने लगे हैं।' महाराज उग्रसेन अत्यन्त क्रोध से गरज उठे- 'महासेनापति अनाधृष्ट! सात्यकि! कृतवर्मा! मैं स्वयं चल रहा हूँ। इन सर्पों का फण सदा के लिए कुचल देना। यादव-वाहिनी आज ही प्रस्थान करेंगी।'

'महाराज को कष्ट करने की आवश्यकता नहीं है।' श्रीकृष्णचन्द्र उठे खड़े हुए- 'मैं जा रहा हूँ यादव शूरों के साथ। मदान्ध धृतराष्ट्र -पुत्रों की सुर भी यदि सहायता करें तो भी उन्हें मरना पड़ेगा।'

'कौरवों से भूल हो गयी महाराज’-श्रीबलराम ने कहा- 'कृष्ण! सुनो तो सही’ पांचजन्य अधरों से लगाने जाते अनुज को उन्होंने रोका।

'यह आपके शिष्य की शिष्टता है?' सात्यकि ने व्यंग किया। 'वह एक ही भाषा समझता है- धनुष की भाषा और उसे हम इस बार इसी भाषा में भली प्रकार समझा देने वाले हैं।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 103

'कौरवों और यादवों में कलह उचित नहीं है’-श्रीसंकर्षण ने कहा- 'एक अवसर महाराज मुझे दें, उन्हें समझाने का। सुयोधन अब अपना सम्बन्धी है। वह समझ जायगा।'

'यादव कोई अनुनय नहीं करेंगे’-श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा- 'महाराजाधिराज उग्रसेन केवल आदेश दे सकते हैं, प्रार्थना नहीं करेंगे किसी से और जो महाराज का आदेश स्वीकार न करे उसका दर्प-दलन करने की सामर्थ्य यादव-वीरों में है।'

'महाराजाधिराज क्यों प्रार्थना या अनुनय करेंगे।'
श्रीसंकर्षण ने कहा- 'तुम स्वयं जिसके पार्श्व में खड़े हो उसका आदेश लोकपालों को भी मानना ही है। वे जिसे आदेश करें, उसे अपने को अनुगृहीत मानना चाहिए। मैं महाराज का आदेश ही सुनाने जाना चाहता हूँ और महाराज की मर्यादा-रक्षा की सामर्थ्य मुझ में है।'

बात समाप्त हो गयी। उद्धव को साथ लेकर श्रीबलराम जी महाराज उग्रसेन के प्रतिनिधि के रूप में हस्तिनापुर पधारें, इसमें किसी को आपत्ति नहीं थी।

श्रीबलराम जी हस्तिनापुर से जब लौटे- यह तो पहिले से सुनिश्चित था कि वे साम्ब को उनकी नववधू के साथ ही लेकर लौटेंगे। उन अनन्त पराक्रम श्रीअनन्त के विफल लौटने की कल्पना कोई अज्ञ भी नहीं करेगा किन्तु सात्यकि की बात सत्य सिद्ध हुई। दुर्योधन इतना दुर्मति था कि अपने इन शस्त्र-शिक्षा गुरु की भी उसने अवमानना की थी और उसे दण्ड की भाषा में ही समझाना पड़ा था।

दुर्योधन ने सविधि साम्ब को कन्या-दान किया था औरउपहार देने में कोई कृपणता नहीं की थी किन्तु यह सब उसने तब किया जब उसकी अवज्ञा से क्रुद्ध संकर्षण हस्तिनापुर को ही गंगा में फेंक देने को उद्यत हो गये थे।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 104

श्रीकृष्णचन्द्र के सहपाठी थे सुदामा। श्रीकृष्ण के समान प्रतिभा तो सबको प्राप्त नहीं होती किन्तु उस दिन अवन्ती के गुरुकुल में गुरुपत्नी ने उन्हें वन से सूखा ईंधन लाने को कहा तो श्रीकृष्णचन्द्र के साथ चले गये थे। घोर वर्षा में भीगते, रात्रि में मार्ग भूले दोनों मित्र एक वृक्ष के नीचे परस्पर सटे बैठे रहे और वह स्पर्श, वह रात्रि सुदामा के जीवन में नित्य हो गयी। उन्हें वही रात्रि जीवन का सत्य लगती है। अब भी श्रीकृष्ण के अंग का वह स्पर्श जैसे रोम-रोम में बसा है। दूसरे दिन प्रभात में अपने दोनों शिष्यों को ढूँढते गुरुदेव महर्षि सान्दीपनि आये थे और उन्होंने आशीर्वाद दे दिया था-

'छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च।'

'इस लोक और परलोक में भी सम्पूर्ण वैदिक मन्त्र एवं वैदिक ज्ञान तत्काल पढ़े के समान तुमको स्मरण रहें।' गुरुदेव का यह आशीर्वाद श्रीकृष्ण के संग का सद्यः फल मिल गया था उसी दिन सुदामा को वे उसी दिन वेदज्ञों के शिरोमणि हो गये थे।

समावर्तन संस्कार हुआ और स्वदेश लौटे। ब्राह्मण का धन विद्या है। सुदामा के माता-पिता संतुष्ट हुए पुत्र के विद्वान होकर लौटने से। विद्वान ब्राह्मण-कुमार का श्रेष्ठ ब्राह्मण-कन्या से विवाह हो गया।

माता-पिता जैसे वीतराग तपस्वी थे, सुदामा में वह त्याग एवं अपरिग्रह और उत्कृष्ट, अधिक परिपूर्णता को प्राप्त हुआ। पिता-माता के परलोक जाने पर भी उनकी तृण कुटीर तपः साधना एवं श्रुति के सस्वर पाठ से सदा पवित्र रही।

गुर्जर शरीर, नागर ब्राह्मण सुदामा गुरुकुल से लौटे तो श्रुतिःशास्त्र पारंगत होने के साथ श्रीकृष्ण के सख्य में आपाद निमग्न। अपने नित्यकर्म, वेद-पाठ, हवनादि के अतिरिक्त उस घनश्याम सखा के चिन्तन, मनन और गुणगान में निमग्न। शरीर का बहुत कम स्मरण रहता था। तो गार्हस्थ की सुधि कैसी।

'वे नवघन सुन्दर मुझे बहुत सम्मान देते थे। सहपाठियों में सबसे अधिक स्नेह था उनका मुझ पर।' सुदामा गदगद कण्ठ कहते थे पत्नी से- 'श्रुति उन्हीं का निःश्वास है। उन्हें अध्ययन कहाँ करना था। उन दोनों भाइयों को केवल मर्यादा रक्षा करनी थी। वे सर्वलोकेश्वरेश्वर......।'

सखा के सौन्दर्य, शील, गुण और अकल्पनीय प्रतिभा, अतिशय विनम्रता और सेवा-परायणता का वर्णन प्रारम्भ हो जाता तो रात्रि कब बीत गयी, पता ही नहीं लगता था। सुदामा की कम ही रात्रियाँ थीं जो उन्हें निद्रा का विश्राम दे पाती थीं। उनकी रात्रियाँ प्रायः पत्नी के साथ इस पुनीत चर्चा में व्यतीत होती थीं।
(साभार श्री द्वारिकाधीश से)

क्रमश:

श्री द्वारिकाधीश
भाग- 105

पत्नी सत्या, सुशीला, तपस्विनी, पतिव्रता और तितिक्षु, त्यागी, अपरिग्रही ब्राह्मण की कन्या। उसे त्याग, सेवा, कष्ट सहन की शिक्षा शैशव से ही मिली थी। ब्राह्ममहूर्त से रात्रि के प्रथम प्रहर तक वह जुटी रहती थी। कुटिया की स्वच्छता, भूमिलेपन, जल भरना सूखी लकड़ियाँ एकत्र करना, पति की पूजा के लिए कुश, तुलसी, दूर्वा, पुष्प जुटाना आदि भी उसे ही करना था। तुलसी पुष्प के पौधों की सेवा-सिंचन भी।

वही भिक्षा भी माँग लाती थी अथवा शाक पत्र जो मिल जाता, एकत्र कर लेती थी। उसे अपने सुख, अपनी सुविधा कभी सूझती नहीं थी। दिन में एक बार ही उसके स्वामी कुछ आहार लेते थे। वह भी अलोना है या नमक पड़ा है, यह देखते नहीं थे। महीने में कई-कई व्रत के दिन थे।

शरीर फटे-चिथड़े वस्त्र से भी ढक जाता था। भूमि में तृण या पत्ते बिछाकर सो रहना पर्याप्त था। कुटिया का टूटा छप्पर वर्षा में चाहे जितना टपके, दोनों के बैठे रहने भर को स्थान बच ही रहता था। बर्तन के नाम पर कुछ टूटे-फूटे तुम्बे या नारिकेल के छिलके के पात्र थे। पत्ते मिल जाते थे वट आदि के। धातु के पात्र का स्वप्न उसने कभी नहीं देखा। कभी एक मुट्ठी आटा भिक्षा में मिल जाय तो उसे उपलों पर सेंका जा सकता था। चावल बना लेने को एक-आधा फूटा पात्र था- सुदामा की कुटिया की वह सबसे मूल्यवान सामग्री।

पत्नी ने कभी सोचा भी नहीं कि उसे कभी शरीर ढकने को नवीन वस्त्र मिलेगा। अपने केश वह अँगुलियों से सुलझा लेती थी। घृत की बात छोड़िये, तेल के दर्शन दम्पत्ति ने नहीं किया विवाह के पश्चात।

कोई असन्तोष कोई कामना नहीं सुदामा के मन में। वे परम सन्तुष्ट किन्तु पत्नी से उस दिन नहीं सहा जाता था जब उसके स्वामी जल पीकर कह देते थे- 'आज श्रीहरि ने उपवास का सुअवसर अनुग्रह किया।'
(साभार श्री द्वारिकाधीश)

क्रमश:

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